गोदान’ ने प्रेमचंद को कितना बड़ा
उपन्यासकार बना दिया?
डॉ. रंजन ज़ैदी
प्रेमचंद के उपन्यास गोदान का वर्णन करने से पहले 20 दिसंबर, 1933 के उस पत्र को हमें देखना होगा जिसमें प्रेमचंद ने माणिक लाल जोशी को कौमुदी पत्रिका में कर्मभूमि पर किशन सिंह द्वारा की गई आलोचना का ज़िक्र करते हुए कहा था कि,’… सभी महान उपन्यासों का कोई न कोई सामाजिक उद्देश्य होता है या कोई न कोई महान आंदोलन उसकी पृष्ठभूमि में रहता है, टॉलस्टॉय का वार एंड पीस, मास्को पर नेपोलियन की चढ़ाई के इतिहास के आलावा क्या है? मगर अपने पन्नों में उस संघर्ष को उसने ज़िंदा कर दिया है. उसने ऐसे चरित्र और ऐसी घटनाएं प्रस्तुत की हैं जिनसे मानव.प्रकृति में उसकी आश्चर्यजनित अंतर्दृष्टि का पता चलता है*’
उपन्यास ‘गोदान‘ के सम्बन्ध में ज़रूर कहा जा सकता है कि इस उपन्यास की कथा के पीछे न केवल सामाजिक उद्देश्य दिखाई देता है बल्कि पृष्ठभूमि में वह आंदोलन भी सक्रिय नज़र आता है जो महाजनी संस्कृति के हाथों सामाजिक मूल्यों को एक बड़ी त्रासद परिदृश्य में ऑक्टोपस की तरह वर्षों से जकड़े हुए मनुष्य को तोड़ता आ रहा था जिसने मृत होरी के ठन्डे हाथ पर गोदान को संहिता के रूप में रख कर समाज से धनिया की कमाई के 20 आनों का हिसाब मांग लेता है.
यह व्यवस्था का एक ऐसा क्रूर व्यंग्य है जिसने स्वाधीन और पराधीन हिंदुस्तान को उसकी आर्थिक व सांस्कृतिक भाषा में इस तरह से आगाह कर दिया कि यदि युगीन संस्कृति में परिवर्तन नहीं आया तो शायद देश की भावी पीढ़ियां हमें माफ़ नहीं कर पाएंगीं. प्रेमचंद का यही करारा व्यंग्य और यथार्थवाद उन्हें उनके रोमांसवाद से अलग उन्हें बहुत बड़ा लेखक बनाकर अमर कर देता है.
गोगोल के सम्बन्ध में रूसी उपन्यासकार दास्तावेस्की ने इस तथ्य को उजागर किया था कि ‘हम सभी (लेखक) ‘गोगोल–कृत ‘द ग्रेट कोट‘ के भीतर से ही उभरकर आये हैं.*’ क्या यही बात भारत में हम प्रेमचंद और उनके साहित्य के सम्बन्ध में नहीं कह सकते? चेतू तो आज भी समाज में अपना संघर्ष जारी रखे हुए है. होरी क्या हमें आज भी आत्महत्या करते हुए नहीं दिखाई देता है? सच्चाई यह है कि गोदान का यथार्थवाद अपने समय में भी था और आज़ादी के इतने वर्षों के बाद भी आज तक सप्राण अवस्थित है.
‘द ग्रेट कोट‘ एक ग़रीब क्लर्क की ग़रीबी की कहानी है जिसके पास आत्म–सम्मान तो है लेकिन उसकी रक्षा करने की उसमें शक्ति नहीं है. सभ्य समाज के बीच तब ‘ग्रेट कोट‘ खरीदकर पहनने की इच्छा तो होती है लेकिन खरीदने की आर्थिक क्षमता उस वर्ग के पास नहीं रहती है. उसी वर्ग से सम्बंधित वह क्लर्क समाज में सम्मान के साथ एक मत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में रहने की इच्छा रखते हुए भी नहीं रलख सकता है.
वह जैसे–तैसे अपने लिए एक कोट खरीदता भी है तो एक रात पार्टी से घर लौटते समय रहज़न रास्ते में उसे उसके कोट सहित लूट लेते हैं. क्लर्क अकाकी इसी सदमें में बीमार होकर मर जाता है, लेकिन गोदान के नायक होरी अपनी बदहाली में अकाकी से कई मील आगे का पात्र बनकर जी उठता है. कारन यह है कि उसकी पछाईं गाय अकाकी का ग्रेट–कोट नहीं है. वह उसकी अभिलाषा है. उसके अस्तित्व की शोभा है. सम्मान की लालसा है. भोला के विवाह कराने का सुखद वादा है, बैलों के हिस्से से काटे गए भूंसे और महाजन के क़र्ज़ का अहसान है. वह न दिखाई देने वाला एक ऐसा सुख है जो उसे धरती पर न सही, स्वर्ग में अवश्य हासिल हो सकता है, लेकिन नियति को ऐसा मंज़ूर नहीं होता है.
अकाकी का ग्रेट कोट लुटेरे लूट ले जाते हैं और होरी की गाय को उसका भाई विष दे देता है. उधर लुटेरे राहज़न की सूरत में प्रगट होते हैं, इधर के राहज़न गाँव के महाजन की सूरत में सामने आते हैं. उधर अकाकी लूट के समय अवचेतन में डूबता जाता है, इधर होरी की आंखें विवशता और सदमें की हालत में डूबती जाती हैं.
लुटेरों की लूट दोनों तरफ होती है. लेकिन होरी तो मरकर भी इस लूट से खुद को नहीं बचा पाता है क्योंकि धर्म, संस्कृति और परम्पराओं ने उसे लुटने में कोई रियायत नहीं दी थी. उसकी मृत्यु के बाद भी उसकी पत्नी को लुटेरे गोदान करने के नाम पर किसी न किसी रूप में लूटते रहते हैं, यानि संस्कृति ग़रीबों की शोषक और अमीरों का व्यसन है. संस्कृति अमीरों का, पेट भरों का और बेफ़िक्रों का व्यसन है, दरिद्रों के लिए प्राण–रक्षा ही सबसे बड़ी समस्या है.*
होरी एक दरिद्र व्यक्ति होता है. उसे अपनी क्षमताओं और बेफ़िक्रों के कुचक्र व व्यवस्था के विरुद्ध धनिया की तरह विद्रोह करना नहीं आता है, लेकिन क्या धनिया एक सशक्त और व्यवस्थित भ्रष्ट शोषक समाज का बहुत दिनों तक मुक़ाबला करने में सक्षम हो पाती है? नहीं! वह टूटती है लेकिन उसकी हैसियत फिर भी राख में दबी चिंगारी से कम नहीं रहती है. ‘ महाराज! घर में न गाय है न बछिया न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है,*
उसने सुतली बेचकर महाजन के क़र्ज़ को चुकाया, वह सुतली के बेचे गए पैसे उठाकर लायी तो उसके भीतर की चेतना ने जो निरंतर पिसते रहने के बाद भी मर नहीं सकी थी, केवल छोटे–छोटे दो वाक्यों में सम्पूर्ण महाजनी समाज और उसकी व्यवस्था को उसके परिवेश सहित नंगा कर जाती है.*
1936 में प्रेमचंद का एक लेख ‘महाजनी सभ्यता‘ प्रकाशित हुआ. समय की बहती हुई हवा को वह पहचान रहे थे. वह पहले ही मान चुके थे कि जनता अपनी आर्थिक समस्याओं के हल के न होने के बावजूद एक नए आर्थिक युग में प्रवेश कर चुकी है. धर्म के नाम पर फैलाये जा रहे पाखंड, झूठी परम्पराएं और कल्पित संस्कृति में जन्म ले रहा अन्धविश्वास और नीति के नाम पर ग़रीबों का किया जा रहा शोषण अब अधिक समय तक टिकने वाला नहीं है. गोदान में प्रेमचंद का यह चिंतन बिना किसी लाग–लपेट के दिखाई भी देने लगा था. उनका रोमांसवाद’ यहां तक आते–आते अब समाजवादी यथार्थवाद की विचार–भूमि अपने असली रूप को हासिल कर चुकी थी.
आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ऐसा मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि कोई भी उपन्यास समाजवादी होता है. वह तो गोर्की के उपन्यासों को भी समाजवादी नहीं मानते क्योंकि समाजवाद के सभी बौद्धिक निष्कर्ष गोर्की के उपन्यासों में नहीं आये हैं और न ही वाद सम्बन्धी विचारधारा को विशेष रूप से प्रमुखता दी गई है* यहाँ उनसे मतभिन्नता संभावित है क्योंकि गोर्की के उपन्यासों में समाजवाद तो दूध के ऊपर की उस मोटी मलाई की तह की तरह है जिसे सुघढ़ गृहणियां उतारकर मथते ही घी और मक्खन निकाल लेती हैं. तो यहां क्या यह समझा जाये कि आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी ने गोर्की का साहित्य ठीक से पढ़ा ही नहीं था या यह भी संभव है कि प्रेमचंद व समाजवाद को लेकर पहले से ही उनके अपने बनाये हुए कुछ पूर्वाग्रह पनपते आ रहे थे.
इसके बावजूद ज़रूरी नहीं है कि आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के विचारों पर अधिक बहस की जाये क्योंकि तत्कालीन परिस्थितियों में वैयक्तिक विचारों का मंथन किसी ज्यामितीय गणित के आधार पर नहीं किया जाता था. विचारों में भी परिवर्तन होते रहने की सम्भावना बनी रहती थी. बूढी, बेज़बान पीढ़ी के कन्धों पर गोदान की पालकी जब समय के कहारों ने उठाई तो कीचड़ से भरे गलियारे में होरी और उसके वर्ग के किसानों का भविष्य सामने आ गया. तब लगा कि बूढा जर्जर शरीर वाला होरी सूखी टांगों को बैसाखी पर टिकाये किसानों से हांफते हुए ऊंची आवाज़ में कह रहा है कि तीस वर्ष के संघर्ष ने अब मुझसे कह दिया है कि हम किसान, मज़दूर ग़रीब कभी अपने परिवेश से बाहर नहीं निकल पाएंगे. यह समाजवाद, साम्यवाद और साइंटिफिक सोशलिज़्म सब शब्द हैं, शब्द अपने अर्थ खो चुके हैं, तुम चाहे आत्महत्याएं करो, चाहे अपनी गौओं को बेचो, चाहे महाजन के बहीखातों में अपने बच्चों को गिरवीं रखो, उन्हें बंधुआ मज़दूर बनवाओ, कहीं कोई परिवर्तन नहीं आएगा. आओ! थूको मेरे मुंह पर, जर्जर करदो मेरे आत्म–सम्मान को, मैं अब हार चुका हूँ!
सामजवाद में जनता ही सर्वोच्च है. वही एक तरह की जन–शक्ति है. वह ऐसी शक्ति है जो नए इतिहास की सर्जना करती है जिसमें भौतिक व आध्यात्मिक पूँजी उत्पादित होकर नयी ऊर्जा को निरंतर जन्म देती है. शायद इसीलिए गोर्की का साहित्य रूसी जनजीवन का सच्चा शाब्दिक विश्वकोश बन गया हो और समाजवाद की लकीरें सरहदें पार कर भारतीय साहित्य की कूट–भाषा बन गयी हो.
यहां यह बात मैंने इसलिए कही कि इस मापदंड से देखने पर पता चलता है कि प्रेमचंद का उपन्यास गोदान एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कृति है जिसके कथ्य में भारतीयता और उसकी जनशक्ति पूर्ण रूप से निवास करती है, जो अपने समय के नए इतिहास की सर्जना भी करती है और जिसमें भौतिक व आध्यात्मिक पूँजी उत्पादित होकर नयी ऊर्जा को निरंतर जन्म देती रहती है, जिसमें भारत की अपनी संस्कृति है, अध्यात्मवाद और भौतिक पूँजी का मिश्रण है. यही उस उपन्यास की मौलिकता है जो प्रेमचंद को गोर्की के बराबर ला खड़ा करती है.
इसका उदाहरण यह है कि गोदान के किसानों और मज़दूरों के संघर्ष का नेतृत्व मज़दूर और किसानों की ट्रेड.यूनियनें नहीं करतीं, वे खुद करते हैं, कोई व्यवस्थित मज़दूर.संघ नहीं करता. विशाल जन–शक्ति का आत्मबल करता है. यही चित्र गोदान को उसकी पहचान देता है और विदेशी समाजवाद के आरोप से उसे मुक्त भी कर देता है क्योंकि कथ्य के एतबार से गोदान चंद पात्रों के हयूले से जीवंत नहीं होता है. उसके पास जन–सैलाब है. जन–शक्ति है, और श्रमजीवी मज़दूरों व क्रन्तिकारी किसानों की असंख्य आहुतियों का इतिहास है, यह उपन्यास निर्भीकता के साथ महाजनी सभ्यता और बढ़ते पूंजीवाद के हाथों मानव.मूल्यों के अद्योपतन की खुलकर सार्वभौमिक आलोचना करता है. यही इस उपन्यास की महत्वपूर्ण विशेषता है.
गाँधी जी की दार्शनिकता प्रेमचंद को रफ्ता–रफ्ता लेनिन के निकट लेती जा रही थी क्योंकि रूस तेज़ी से प्रगति कर रहा था जिसका वर्णन जागरण (1933)* के तत्कालीन संस्करण में भी देखा जा सकता है. प्रेमचंद की राजनीतिक व सामाजिक अनुभव–सीमा अब बहुत बढ़ चुकी थी. वह कहा करते थे कि राजनीति के नाम पर काफी संख्या में गुंडे–मवाली भी जेल जाकर बाहर निकल रहे हैं, खादी पहनकर वे भविष्य की राजनीति पर अपना सरमाया लगाने में बढ़–चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं, सभी खद्दर पहनने वाले और जेल जाने वाले देवता नहीं हैं, उनमें भी बड़े.बड़े हथकण्डेबाज़ लोग शामिल हैं, जो जेल भी किसी न किसी स्वार्थ से ही गए थे*.
गाँधी जी की भीतर की आवाज़ की सच्चाई का आकलन प्रेमचंद भी अब करने लगे थे, वह (महात्मा गाँधी) मानव–स्वभाव से इतने बेखबर हैं तो यह उनका क़ुसूर है. जो एक राष्ट्र नेता में बहुत बड़ा क़ुसूर है* प्रेमचंद के अनुभव ने शायद अपनी सटीक भविष्वाणी में इसीलिए कहा था कि निकट भविष्य में आजकल का पूंजीवाद ज़मीन पर पड़ा होगा और उसकी लाश पर समाजवाद की धारा बह रही होगी. आज के सन्दर्भ में देखें तो बात कितनी सटीक और सार्थक जान पड़ती है.
उपन्यास गोदान की त्रासदी का न तो कोई प्रारम्भ है और न ही कोई अंत, उसका कथ्य समय का प्रारब्ध है. उसकी त्रासदी बेज़ुबान पीढ़ी की भावी हिंसा और अमानवीय अत्याचार की ऐसी गाथा है जिसके पात्र बेटियों के जिस्म भी नोचने, बेचने और भोगने में आत्मग्लानि का अहसास नहीं करेंगे. होरी की नियति भी तो यही है.
प्रेमचंद की मानवीय संवेदना इसीलिए आहत थी और वह पूंजीपतियों का स्वराज्य नहीं चाहते थे लेकिन आज का स्वराज्य पूंजीपतियों का स्वराज्य है जबकि प्रेमचंद गोदान में ग़रीबों, काश्तकारों का, मज़दूरों का स्वराज्य चाहते हैं,* बात वाजिब भी थी क्योंकि श्थोड़े से ज़मींदार और महाजन या राजपदाधिकारियों की सुदशा नहीं समझी जा सकती.* इस सोच की पृष्भूमि का अनुमान 1933 के पत्र लीडर में रामकृष्णपाल सिंह के प्रकाशित लेख ‘ज़बरदस्ती की अर्थ–नीति‘ को पढ़कर लगाया जा सकता है.
प्रेमचंद के उपन्यास गोदान में मालती के माध्यम से प्रेमचंद अपने इस विचार को कुछ इस तरह से व्यक्त करते हैं, मैंने कई बार जेल जाने के सिवा और क्या जन–सेवा की है? सच पूछिए तो उस बार भी मैं अपने मतलब से ही गयी थी, उसी तरह जैसे रॉय साहब और खन्ना गए थे*
प्रेमचंद ने इसी लेख पर 8 मई, 1933 की टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की थी*. टिप्पणी में साम्यवाद के सिद्धांतों के माध्यम से समाज का संगठन बनाने और उसपर विश्वास करने पर बल दिया गया है. इसका अर्ह यह नहीं लगाना चाहिए कि प्रेमचंद भारत में साम्यवाद को लाना चाहते थे. उनका सीधा अर्थ था कि भारतीय अर्थतंत्र की विचारधारा के साथ उसको साम्यवादी नज़रिये से भी सुधारा जा सकता है.
ग़रीबी और भारतीय जन–जीवन के पिछड़ेपन को हटाने में प्रेमचंद रूसी नज़रिये के स्थान पर उदार हिंदूवादी समाजवाद यानि ‘वेदांत के एकात्मवादी‘ नज़रिये को भी गले से लगाने को तैयार थे. उनका मानना था कि जो समाजवाद का समर्थक नहीं, वह हिन्दू नहीं! शायद इसी कारण वह गाँधी जी की तुलना में पंडित जवाहर लाल नेहरू के बहुत क़रीब पहुँच गए थे. शायद इसीलिए कि नेहरू का साइंटिफिक सोशलिज़्म मनुष्य को मनुष्य के होने की अपनी पहचान करा दे. गोदान में होरी जब भोला से कहता है आदमी तो हम भी हैं. जवाब में भोला सवाल करता है,’कौन कहता है कि हम.तुम आदमी हैं?*’ पूरा उपन्यास इन्हीं दो पात्रों के ओरा में आकर समा गया है.
समूचा गोदान मानों एक बड़े ज्वालामुखी पर बसा हुआ है. किसी न किसी रूप में ज्वालामुखी के दहाने पर रह–रहकर विस्फोट होते रहते हैं. कभी धनिया फटती है तो कभी गोबर. कभी राय साहब फटते हैं तो कभी मंगरू. कभी होरी के फटने की गड़गड़ाहट होती है तो कसैला गाढ़ा धुंआ धनिया के नथुनों में मिर्च भर देता है. होरी उसके आंसुओं को साफ करने के लिए मैला अंगौछा देता है, जब दूसरे के पांवों तले अपनी गर्दन दबी हुई है तो उन पांवों के सहलाने में ही कुशल है. गोबर को भी समझाते हुए वह ज्वालामुखी का दहाना नहीं छोड़ता, जवानी में विद्रोह की यही उठान उसके मन में भी थी, पर समय के थपेड़े उसे इस प्रकार सोचने के लिए मजबूर कर देते है.
होरी की यह हताशा नहीं थी, ऐसा उसके अनुभवों का धुंआ था जिसे वह गोबर को सुंघाना चाहता था ताकि उसका आक्रोश विद्रोह में न बदले, पराजित दास देवता के सामने नतमस्तक हो गया, भगवान ने जब ग़ुलाम बना दिया है तो अपना क्या बस है ! ’ होरी की कोयला बनती सुलगती आस्थाएं अब राख बनने के सफर पर निकल पड़ी थीं. सवाल गोबर का था कि भगवान ने तो सबको बराबर का बनाया है.*
होरी भी तो यही कहता आ रहा है. लेकिन कब तक कहेगा? अब तो उसकी सोच भी ठंडी हो चुकी है. विद्रोह में मर्यादा कहाँ होती है? खेती में जो मरजाद है वह नौकरी में तो नहीं है. मरजाद! यदि होरी और भोला मरजाद नहीं हैं, तो और क्या हैं? भोला ने क्या ग़लत कहा? हम लोग तो बैल हैं और जुटने के लिए पैदा हुए हैं. उस पर एक–दूसरे को देख नहीं सकता. एकता का नाम नहीं.* यानि कोई नियत है जो सबको अलग रखे हुए है. एक ही नहीं होने देती. जो पिछले जन्मों में किया, उसे ही तो भोगना है.*
निराशा के घटाटोप अँधेरे ने होरी जैसे लाखों–करोड़ों किसान–मज़दूरों और ग़रीबी की मार झेलते रहने वाले बदनसीबों की नियति बुरे अभिशाप में क़ैद कर दिया है, लेकिन अँधेरा स्थायी नहीं होता इसलिए सूरज के निकलने की उम्मीद होरी और भोला में अभी भी एक किरण की तरह बनी हुई है. ऐसी किरण जिसका एक सिरा गोबर की मुट्ठी में बंद हो जाता है.
होरी की आँखों में अद्वतीय चमक है. अस्तित्व में सत्ता का महल है. हीरा के आने पर लेखन शायद खुद को रोक नहीं पाता है. कह उठता है. उसके बखार में सौ दो सौ मन अनाज भरा होता, उसकी हांडी में हज़ार पांच सौ गड़े होते, पर उसे यह स्वर्ग का सुख क्या मिल सकता था?*’
‘होरी प्रसन्न था. जीवन के सारे संकट, सारी निराशाएं, मानो उसके चरणों पर लोट रही थीं. कौन कहता है..जीवन संग्राम में वह हारा है. यह उल्लास, यह गर्व, यह पुलक, क्या हार के लक्षण हैं? इन्हीं हारों में उसकी विजय है. उसके टूटे–फूटे अस्त्र उसकी विजय की पताकाएं हैं. उसकी छाती फूल उठी है. मुख पर तेज आ गया है. हीरा की कृतज्ञता में उसके सारे जीवन की सफलता मूर्तिमान हो गई है.
गोदान के चेतू जैसे जुझारू लोग शोषण के विरुद्ध अपना आक्रोश दबाये रखने के बावजूद कुछ दूर तक लड़ते हुए परास्त हो जाते हैं. प्रेमाश्रम के मनोहर जैसे लोग आत्महत्या कर लेते हैं. रंगभूमि के सूरदास जैसे लोग अकेले पड़ जाते हैं. कायाकल्प के संगठित मज़दूर एक साथ होकर भी अपनों के रक्त का बदला नहीं ले पाए और धन्ना सिंह का छोटा भाई चक्रधर की ठोकरों की मार से ही दिवंगत हो गया.
कर्मभूमि के संघर्षशील किसानों का क्या हुआ? क्या वे सामाजिक आज़ादी का सूरज देख सके? शायद ये सारे सपने पूरे भी हो जाते अगर सारे किसान एकजुट हो जाते. सारे मज़दूर एक–सूत्र में बंध जाते. एक मज़बूत डोर सबको बाँध लेती. काश! महाजनी व्यवस्था का अंत हो गया होता. होरी का अंत क्या युगीन भारतीय समाज का एक शर्मनाक अध्याय नहीं होगा? क्या आने वाली नस्लों को उसकी क़ुरबानी एक सूत्र में बंधुत्व के धागे में बांधने की ताक़त जुटा सकेगी?
लेकिन होरी की मृत्यु बेअसर नहीं थी. लखनऊ में रह रहा उसका बेटा गोबर सक्रिय हो गया था. 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा की बुनियाद पड़ी और पहली बार देश भर में मज़दूर दिवस यानि ‘मई दिवस‘ मनाया गया. होरी की विधवा पत्नी धनिया की सांत्वना के लिए सभा की गयी. आदमी को पहचान दिलाने के अभियान शुरू हो गए. धनिया किसान की शुद्ध आत्मा बन गयी, इसीलिए वह महाजनी समाज और उसकी व्यवस्था से सीधे टकरा गयी जबकि होरी ने जीवन भर इस व्यवस्था से समझौता ही किया.*
धनिया लड़ने के लिए आगे बढ़ती रही और समाज में यह बात जमाती रही कि आदमी की भी हैसियत होती है और उसमें महाजनी संस्कार जन्म से नहीं होते हैं. ग्रामीण संस्कृति प्रदूषित इसलिए हो जाती है क्योंकि उसके थाले में महाजनी–संस्कृति के बीज रोप दिए जाते हैँ. किसान सरल है. छल–प्रपंच से मुक्त है. ह्रदय से साफ़ और निर्मल है. इसीलिए वह शिकारी नहीं, महाजनी संस्कृति का शिकार बन जाता है. उसे भी जीने का अधिकार है. ‘सन को कुछ गीला कर देना और रुई में कुछ बिनौले भर देना उसकी नीति में जायज़ है.*’
महाजन छल–प्रपंच करने को पाप नहीं मानता. इसीलिए उसने भोला के साथ जो छल किया था उसे वह व्यवसाय का हिस्सा मानता है. यह उसकी निर्लज्जता की पराकाष्ठा समझी जा सकती है.’भोला के साथ छल करना उसकी दृष्टि में छल नहीं है, वह ऐसी चाल सोचता है कि गाय सेंत–मेंत में (उसके) हाथ आ जाये।’
मनुष्य की इस गिरावट ने अधम होरी को मोह–मुक्त कर मौत के समक्ष खड़े होने का साहस पैदा करा दिया,’उसका सारा विश्वास जो अगाध होकर स्थूल और अँधा हो गया था, मानो टूक–टूक उड़ गया.*’ लेकिन भविष्य की नियति एक सुखद अध्याय लाने जा रही थी. गोबर दरिद्र किसानों को बंधुत्व की डोर से बांध लेने की कवायद पूरा कर अब नए रस्ते पर चल पड़ा था. ‘एक सूत्र में बाँध दिया हैण. बंधुत्व के इस दैवी बंधन को क्यों अपने तुच्छ स्वार्थो से तोड़े डालते होघ? उस बंधन को एकता का बंधन बना लो*’
यही आह्वान कालांतर में 1936 के किसान आंदोलन से पूर्व अखिल भारतीय किसान सभा के गठन का आधार बना. गोबर के पास धनिया के आक्रामक तेवरों वाले नज़रिये थे जिनसे उसके मानसिक पटल पर एक दृष्टिकोण पनप चुका था। गूदड़ चौधरी और बलराज के चिंतन ने उसमें और तेज़ धार पैदा कर दी थी. राय साहब का दुःख अब उसके लिए कोई माने नहीं रखता था. वह जानता था कि ‘यह सब धूर्तता है, निरी मोटमर्दी।*’ अनुभव सामने आ गया.
राय साहब बेगारों पर बरस रहे थे. गोबर को आश्चर्य हुआ. ‘अभी यह कैसी–कैसी नीति और धर्म की बातें कर रहे थे और एकाएक इतने गरम हो गए*’ राय साहेब का चरित्र ही ऐसा था. ‘जीवन की ट्रेजडी और इसके सिवा क्या है कि आपकी आत्मा जो काम नहीं करना चाहती, वही आपको करना पड़े.*’ गोदान का होरी पूरे जीवन इसी तरह की ट्रेजडी के बीच घिरा हुआ दिखाई देता है. वह अस्तित्व कि उन्मुक्तता के लिए संघर्ष करता है लेकिन तब भी वह परतंत्र रहता है.
अलबर्ट कामू ने यही तो कहा था, ‘मनुष्य के अस्तित्व की दुखद अर्थहीनता इसमें नहीं कि वह मौत के सामने डटा रहे, अर्थहीनता उसमें है कि वह अन्याय, त्रुटिपूर्ण व्यवस्था और अर्थहीन संवाद के बीच जीते रहने का प्रयास करता रहे और सब कुछ जानकर भी उसमें से निकलने का प्रयास न करे*’ होरी की हारी हुई पीढ़ी इसी हताशा में तो अपने भीतर कुंठाओं को जिलाती रही और मानती रही कि इंक़लाब लाना उनके बस में नहीं है.
ला पेस्त अलबर्ट कामू के इस उपन्यास की विशेषता यह है कि अल्जीरिया शहर का प्लेग प्रतिरूपित करता है उस फासिज़्म को जिसने अवाम से एक–दलीय सत्ता की स्वीकृति मनवाना चाहती है लेकिन अवाम इम्यून हैं. प्रतिरोध करने की इच्छा नहीं रखते। प्लेग के आने की सम्भावना है किन्तु उपचार की इच्छा नहीं है. यानि असंगत परिस्थितियों के दौरान मनुष्य द्वारा किये गए प्रयासों की प्रभावहीनता किस तरह व्यक्त को तोड़कर रख देती है, उसे प्रतिरूपित कर भागयाश्रित कर देती है कि संघर्ष करने की क्षमता ही शेष नहीं रह पाती.
अलबर्ट कामू ठोस ऐतिहासिक प्रयोजनों की ओर से अपनी आँखें मूंदे रखता है जबकि प्रेमचंद सभी सामाजिक प्रयोजनों पर गहरी निगाह रखते हैं. इसीलिए उनका सामाजिक धरातल रूसी समाजवाद से छिटककर पूर्ण भारतीय समाजवाद में परिवर्तित हो जाता है. दरअसल भारतीय एकात्मवाद के दर्शन में ही भारत की समाजवादी व्याख्या सन्निहित है, जिसमें आर्यसमाजी संस्कार पाए जाते हैं, रूसी संस्कार नहीं.
पीढ़ियों की इस कहानी का संघर्ष दो किनारों का संघर्ष बन जाता है. ये किनारे होरी और गोबर को परिभाषित करते हैं. किसान–मज़दूर और महाजनी–व्यवस्था के बीच बहते हुए भारतीय समाजवाद के प्रवाहित पानियों का कलरव, नए रास्ते के घाटों का उदय, किनारों के तीर्थों को धोता हुआ सभी धाराओं का जल दो युगों में विभाजित हो जाता है, होरी दास्ता और परतंत्रता का प्रतीक बनकर एक किनारे से दूसरे किनारे को शांत भाव से देखता है. वह किनारा गोबर का है जिसने नए भारत में आँख खोली है. दरिया का पानी एक है.
गोदान का होरी कालजयी है. बड़ी कुशलता से प्रेमचंद ने उपन्यास के चरित्रों को बहुत बारीक रेखाओं से बुना है. अपनी मनोवैज्ञानिक सोच और मज़बूत विचारधारा से उसे संवारा, सजाया और पूरा किया है. होरी की गाय को हीरा विष देता है. सब जानते भी हैं लेकिन होरी, हीरा को दोषी नहीं बनाना चाहता. इसके लिए वह अपने बेटे के सिर पर कांपते हाथ रख कर झूठी क़सम भी खा लेता है, ताकि हीरा दण्डित न हो.
गाय, आस्था में कुछ भी हो, अंततः वह पशु है. हीरा ने जिस ईर्ष्या व दबाव के तहत गाय को विष दिया वह सही नहीं था तो पशु के सामने एक पुरुष को दण्डित होते कैसे देखा जा सकता है. प्रेमचंद ने हीरा को एक ऐसे इंसाफ के मैदान में ला खड़ा किया जहां वह अपराधबोध से ग्रस्त भी है और पंचायत के सामने आँख भी झुकाये हुए है. होरी उसे निर्दोष बताता है, ‘उसने हीरा को नांद के पास नहीं देखा।* ______________________________________
* प्रेमचंद, चिट्ठी-पत्री, भाग -2, पृ. 254
* ऐन इंट्रोडक्शन टू द रशन नावेल, जेनको लवरीन, मेथ्यून एंड को लिमिटेड लंदन, 1945, पृष्ठ: 31 (तीसरा संस्करण)
* विविध प्रसंग, प्रेमचंद भाग-3, पृ. 235, 260, 224-225, भाग-2/ पृ. 222 , 219, 488, 491, 222
* प्रेमचंद, गोदान, सरस्वती प्रेस इलाहबाद, 1974, पृ. 344, 448, 24, 7,18, 20, 11, 21, 342, 337, 19,341-342,
223,
* प्रोफ़ेसर विश्वनाथ प्रसाद, प्रेमचंद की महानता (प्रेमचंद और गोर्की, संपा। शचीरानी गुर्टू, राज कमल
प्रकाशन, नई दिल्ली-1955 ) पृष्ठ:125
* नन्द दुलारे वाजपेयी, प्रेमचंद, साहित्यिक विवेचन, पृ. 142, 143
* जागरण, संस्करण 1933
* प्रेमचंद, गोदान, पृष्ठ : 173, 24 , 338
_____________________________________________________________________________
94FF/ASHIANA GREENS, AHINSA KHAND-2, INDIRAPURAM, GHAZIABAD -201014, NCR INDIA,
Mob;+91 9350934635, http://[email protected]/
गोगोल के सम्बन्ध में रूसी उपन्यासकार दास्तावेस्की ने इस तथ्य को उजागर किया था कि ‘हम सभी (लेखक) ‘गोगोल–कृत ‘द ग्रेट कोट‘ के भीतर से ही उभरकर आये हैं.*’ क्या यही बात भारत में हम प्रेमचंद और उनके साहित्य के सम्बन्ध में नहीं कह सकते? चेतू तो आज भी समाज में अपना संघर्ष जारी रखे हुए है. होरी क्या हमें आज भी आत्महत्या करते हुए नहीं दिखाई देता है? सच्चाई यह है कि गोदान का यथार्थवाद अपने समय में भी था और आज़ादी के इतने वर्षों के बाद भी आज तक सप्राण अवस्थित है.