महालक्ष्मी केशरी – दो कविताएं…
“ स्त्री विमर्श ”
वैदिक युग से
अपने हस्ताक्षर
करती चली आयी है नरी
गार्गी मैत्रेयी, अपाला के रूप में
अपनी पहचान
बताती चली आयी है नारी
मध्य काल में
‘मीरा’ बनकर –
स्त्री विमर्श का बीज
बो गयी नारी
किन्तु विमर्श में
नारी ने नहीं घेरा हैं पुरूषों को
नहीं किया है उनका विरोध
बल्कि
किया है पितृसत्तात्मक समाज की
थोथी व गलीज
मान्यताओं का विरोध
प्रदान किया है पुरूषों को सम्बल
बेटी, बहन, पत्नी व माँ बनकर
वह बोती आयी है
सुरक्षा का बीज
इस आशा के साथ
कि पुरुष बनायेगा
उसे एक वट-वृक्ष
जिसकी सघनता में
सरंक्षित रहेगा उसका अस्तित्व
सीप में मोती की तरह ।
“ रिश्ते ”
आज अपनी अस्मिता को
खोते जा रहें ‘रिश्ते’
लगता यूँ है
बेनाम हो रहे हैं रिश्ते
बदनाम हो रहे हैं रिश्ते
साफ दामन पर
दाग से होते जा रहे हैं रिश्ते
रिश्तों की डोर
क्यों पड़ रही कमजोर
नहीं बचा प्रेम
अब उनमें शेष
लगता है ऐसे
मानो –
औपचारिक होते जा रहे हैं रिश्ते
और उसकी तासीर को
सोख लिया है स्वार्थ ने
परिणाम स्वरूप …
सिकुड़ते जा रहे हैं रिश्ते,
सिकुड़ने में नज़दीकियाँ
नहीं बढ़ी हैं
बल्कि –
सीमित हुई हैं
कहाँ गया वह रिश्तों का भाव
जो था हर एक के ह्रदय में
एक दूसरे के लिए
बचा लो इन रिश्तों को
बाँध लो उनके नाजुक बंधन को
जो जीने को प्रदान करता है
आत्मीयता व स्वावलम्बन
रिश्तों की अहमियत है
उसकी तासीर में
मत खोने दो इस तासीर को
जो भिंगोता है
मन का कोना-कोना |
महालक्ष्मी केशरी, ई-मेलः [email protected]