जबसे उन्हें
क़िताबों से आज़ाद किया है
तेरे उन फूलों की पंखुड़ियाँ
फ़िरसे
महकने लगी हैं
आजकल ख़ुश्क हवाओं में
गुलाबी इत्र घुला है
मुहब्बत अब जवाँ हो रही है।
जबसे उन्हें
क़िताबों से आज़ाद किया है
वो रंग-बिरंगी पाँखें
वो अभ्रक की छोटी-छोटी पत्रियाँ
घरमें परिंदों सी उड़ने लगी हैं
जुगनुओं सी टिमटिमाने लगी हैं
तेरी ये निशानियाँ
वक्त को पाटती
अब भी आकर्षण में बांध लेती हैं
मैं, बेसुध सा
जब इन्हें समेटता हूँ
लगता है
तू ही मेरे अंक में सिमटी है
मैं, झट से पूंछ लेता हूँ
क्या तू भी
मेरी तरह ही अब बड़ी होरही है?
या, आज भी
पाठशाला के ही परिधान पहनती है!
उत्तर में तेरा शर्माना
रोमांचित कर देता है
पोर-पोर को मेरे
मैं, झट से उन पाँखों को
उन चमकीली पत्रियों को
आँसू भरी आँखों से चूम लेता हूँ
कभी-कभी
होली के रंगों सी
उन्हें, माथे पे सजा लेता हूँ
और
मैं, ख़ुद ही से कहता हूँ – – –
मुहब्बत अब सिर चढ़के बोल रही है
मुहब्बत अब जवाँ हो रही है।
जबसे उन्हें
क़िताबों से आज़ाद किया है
वो मेरी तमन्नाओं का इस्तेहार हैं
मैं, आजकल तेरी तस्वीर
अपने पास रखता हूँ
तुझसे अब अपने इश्क़ का
ख़ुला इज़हार करता हूँ
हम मिलेंगे
ये पक्का यक़ीन है
मुहब्बत अब जवाँ हो रही है।।
२)
अहसास~
मैं इंद्राणी मुख़र्जी और मेरा सच
कच्ची उम्र के कुछ अधरंगे ख़ाब थे मेरे
परिवार, समाज, नगर
सब छोटा प्रतीत होने लगा था
और बाहर
खुला विशाल जहाँ स्वागत करता सा
घर छूट गया
और मैं
आगई थी छोटे से बड़े नगर में
एक अंतहीन सफ़र पर।
बाहर की चुनोतियाँ भी कम न थीं
जो अबतक सब सुनेहरी था
मटमैला होने लगा था
और मैं
सहारा तलाशने
रंग कैसे हों यह तैय ही न कर पारही थी
और इस बीच
मेरी चुनरी मेली होगई
कई दाग़ सजगये थे उसपर
मैं विचलित हो उठी
अब वह नगर वह नये रिश्ते
बांध न पारहे थे मुझको
और मैं
एक बार फिर
सब पीछे छोड़ अपने ख़ाबों को रंग देने
आगई थी नगर से एक नये महानगर में।
संघर्ष तो यहाँ भी कम न था
पर इस बार ईशवर कुछ मेहरबान था
जल्दी ही रंग कैसे हों
समझ में आने लगे थे
मेरी कच्ची उम्र के अधरंगे ख़ाब
इन नये रंगों को पाकर
अपना आकर लेने लगे थे
प्रकृति ने भी एक बार फिरसे
मेरा रूप निखारा था
पर इस बार
दाग़ की शक्ल में नहीं
एक सुन्दर उपहार के रूप में।
मैं बहुत खुश थी इन नये रंगों के साथ
सब एकदम सहज था
फिर न जाने अचानक क्या हुआ
रंग फीके पड़ने लगे थे
मैं बैचेन हो उठी
सब झूंट सा प्रतीत होने लगा था
अब वह महानगर वह रिश्ते
जोड़ न पा रहे थे मुझको अपने साथ
और मैं एक बार फिर
सब कुछ पीछे छोड़।
आगई थी
अपने रंगीन ख़ाबों को नयी चमक देने
रोशनी के, रंगों के, ख़ाबों के महानगर में
और जल्दी ही
इस रोशनी के महानगर ने
अपने नाम-रूप के मुताबिक ही
चमक के नये पंख दे दीये थे मुझको
मैं उड़ रही थी, चहक रही थी
मैं बहुत खुश थी
मेरी चमक से रंगीन पार्टियाँ रोशन थीं
मेरी चमक
मीडिया की सुर्खियाँ थीं
और
देखते ही देखते
अंतर्राष्ट्रीय पत्र, पत्रिकाओं ने मुझे
विश्व की तेजी से होती सफलतम व्यवसायी
महिलाओं की फ़ेहरिस्त में
स्थान देना शुरू करदिया।
मैं जशन मनारहि थी
अपनी इस कामयाबी का
मैं अब सब कुछ संजोकर रखना चाहती थी
इन खुशियों को, इन रंगों को, उनकी चमक को
पर न जाने क्यों
एक डर सा मंडराने लगा था
मेरे आस-पास
मेरा अतीत फिर से मेरे सामने था
असल जिंदगी के दाग़
कोई विज्ञापन तो नहीं थे
जो किसी ख़ास किस्म के Detergent से
निकल जाते
यदि ऐसा होता तो दाग़ अच्छे थे।
मैंने जितना उन्हें धोना चाह
मैंने जितना उन्हें ढकना चाह
वह उतने ही मुखर, उतने ही प्रखर हो
मेरे सामने आने लगे थे
मैं एक भ्रम में जी रही थी
बिलकुल डिजिटल तकनीक की तरहा
जो दावा करती है
एक बटन दबाते ही
सब कुछ यथावत होजाने का
और मेने भी
अपने पीछे छूटे हुऐ समय को
डिलीट करना चाहा।
एक हद तक सफलता भी मिली थी मुझेको
पर समय भ्रम न था
वह मेरा सत्य था
और
यह भी मेरा सत्य है
अब मेरे रंगीन ख़ाब
अपने रंग अपनी चमक खो चुके हैं
और
मेरा आने वाला समय स्याह कला है।
अब तक
जाने-अनजाने, होश्यारी व बड़ीही चालाकी से
जो रिश्ते बुने थे मैंने
सब धागा-धागा हो बिखर चुके हैं
अब इन बिखरे हुए धागों के सिरों को जोड़ पाना
पुलिस व समाज के लिए ही नहीं
उस सक्रिय मीडिया के लिए भी
उसकी पेशानी पर बल डालने जैसा ही है
जो अनुमान के आधार पर ही
घोषणां कर देता है
उन दो व्यक्तियों के सम्बंध में
जो कहीं भी
निहायत ही किसी ख़ास कार्य के लिए मिलते हैं
क्या हुआ होगा।
पर आज मैं सच में खुश हूँ
यह समझकर, यह जानकर
कि
कुछ पाने की चाहत में
बहुत कुछ खोया मैंने
जीवन ऐसा ही तो नहीं
यह क्यों नहीं समझा मैंने
यहाँ कुछ भी तो स्थाई नहीं।
महत्वकांक्षी होना तो सुन्दर बात है
पर
अति महत्वकांक्षी होना
बिलकुल सुन्दर बात नहीं।।।
राजेन्द्र शर्मा