अभिव्यक्ति नहीं होती शेष कभी अनंतता में
रहें अज्ञात सभी इस पीड़ा की प्रवलता में
शून्य द्वीप की कदाचित् अतिथि मैं भी बनूँगी
इस झंझानिल में एक शुष्क पर्ण सी मैं भी बहूँगी।
कितनी प्रतीक्षा,आत्मा की भिक्षा.. अपूर्ण ईप्सा
सहस्र युगों की मुक्ति में अलिखित अभीप्सा
अंततः क्यों नहीं आती तुम ऐ ! अंतिम श्रावणी
नीर से अंबर हो रही प्रथित..आहा!व्यथा पर्वणी।
अभिशाप की रेखाएँ..धमनियों से लिए तप्त रक्त
सजीव हो रहीं हैं..आ रहा है समीप एकाकी-नक्त
मंद कंपन में स्पर्श की अनुभूति..अनुभूति में स्मृति
तुम स्तीर्ण हो जाती हो उस स्मृति में बन मौन आकृति।
ऐ! मृत्यु कलिका,मेरे लवणत्व में भरो मदिर मधुरता
उष्ण भस्म में भरो चंपई समीरण की तीर्ण शीतलता।
मृत्यु कलिका – सॉनेट 2
उत्सव मृत्यु का है… उत्साह है देह-दाह का
रम्य लगता है यह क्षण..है चतुर्दिक सुगंधित
घृत में काष्ठ..काष्ठ में अग्नि..अग्नि में काया
है शून्यमंडल अद्य वाष्पित-व्यथा से पूर्ण पूरित।
अंश-अंश मृदा में…मृदा के तत्व में होकर लीन
होंगी निश्चिंत ये समग्र क्लांति भ्रान्ति व अनंती
जैसे मदमयी अप्सरा सी प्रणय क्रीड़ा में तल्लीन
जैसे सिंधु गर्भ में होती समर्पित अतृप्त स्रोतवती।
हाः! मृत्यु गीत में शाश्वत लालित्य.. है आत्मलोप
अंतरिक्षीय मौनता में लुप्त हो चला वर्तमान
हृद में न प्रश्न कोई हा!हा! न प्रतिवाद न प्रत्यारोप
केवल सौम्य.. शीकर सा .. शीतल अनंत प्रतिभान।
मेरी मृत्यु कलिका अद्य हुई..नवयौवना दामिनी
महायात्रा के महापर्व में नृत्यरता कमनीय कामिनी।