Sunday, September 8, 2024
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ज्योति शर्मा की कविता – मैं पुरुष हूँ

मैं कौन हूँ?
कहाँ हूँ?
स्वयं को ढूँढ़ता हुआ,
मैं पुरुष हूँ, यही संज्ञा है मेरी
जानता हूँ कि
आधुनिक समाज में
मेरी बहुत माँग है
ऐसी बात नहीं कि
मैं दुर्लभ हूँ।
परंतु समाज के एक वर्ग ने
जाने-अनजाने मेरी कीमत
इतनी बढ़ा दी कि प्रमुख हो कर भी
गौण से निम्नतर हुआ
अनुभव कर रहा हूँ।
अपने मन की व्यथा
कह नहीं सकता।
क्योंकि इस समाज ने
मुझे सख्त-दिल दर्जा दिया ।
वह दर्जा, जो हर मेरे जैसा
आदिम पाकर भी
नहीं पाना चाहता।
मैं भी उस विधाता की रचना
का अंश ही हूँ
मेरा दोष केवल इतना है
कि इस समाज में, समाज द्वारा ही,
मैं खोटा होकर भी
चलता रहा और
चलाया जाता रहा हूँ।
मेरा अस्तित्व, मेरे ही
विधाताओं के अपराधों
का गवाह बन कर मुझे
चक्की में पिसवाता रहा।
कभी राम का सीता के प्रति
त्याग बनकर।
कभी नृत्य करती पार्वती
के समक्ष नग्न शिव
का अहंकार बनकर ।
तो कभी,
पांचाली की चंचलता के प्रति
पाँच पतियों का अभिशाप
बनकर।
परंतु क्या सत्य यही रहा
जो पुराणों और वेदों में कहा।
पाषाण-हृदय स्वयं को
सुन कर तृप्ति शांत होती है
पर क्या यह तथागत
सत्य है कि पाषाण हूँ मैं?
स्वयं से, स्वयं के लिए
विचलित हुआ मैं
कलम के मुखारबिंद से
अपने अंतर्मन को सहेजने
का प्रयास करता हुआ
इन पन्नों को साक्षी बना
मुक्त होना चाहता हूँ।
इस द्वन्द्व
जो मैं था नहीं
पर इस समाज द्वारा बनाया गया ।
शिशु रूप, धरनी पर, प्रथम पग
गिरा, रोया और आश्रय हेतु
हाथ बढ़ाया।
तो मुझे प्रथम पाठ
मेरी प्रवृत्तियों से, मेरे अहम्
से वाक़िफ़ करवाया गया
तू लड़की है? लड़के भी कभी रोते हैं?
ऐसे प्रश्नों द्वारा समझाया गया ।
दिल और दिमाग लड़की के स्वभाव
से परिचित हो गया।
इसी बीच संभवतः कभी न रोने
का निर्णय भी हो गया।
आज रोता हूँ
पर अहम्-भाव से ग्रस्त
छिप-छिप कर फूट-फूट कर
रोता हूँ ।
दबंग, नग्न घूमा शरीर रूप,
शिव के अहम् की तरह
मानसिकता इतनी गहरी
स्त्रीत्व पर विजय पाता
परंतु
परंतु रहा सदैव नग्न ।
चाहता रहा, खेलूँ टोली बना
बालिका-सा नखों में रंग लगाकर
चुनरी-ओढ़नी का पर्दा करना
पर कहाँ?
नहीं कर सका।
अपनी भावनाओं का हनन कर
स्वयं की हार की शान्ति के लिए
स्वयं को ही वासनाओं और मद्य
की गर्त में गिरा मैं पापी-शराबी बना।
यह भी सत्य रहा
कि मैंने औरत को नहीं जाना
परंतु, भीतर से कहीं न कहीं
मैं जानता हूँ
पर बता नहीं पाता।
कैसे और किस से कहूँ?
मैं भयभीत होता हूँ
डरता हूँ।
फिर भी मुझे श्मशान में
मानव-देह को जलाने
और देखने का साहस
जुटाना पड़ता है।
मैं टूट जाता हूँ जब मुझे
अपने ही जिगर का टुकड़ा
इस समाज के रीति-रिवाजों में बंध
अपनों से अलग करके
परम्पराओं का बोझ उठाना पड़ता है
मैं रोना चाहकर भी
रो नहीं पाता और
कलेजे पर पत्थर रख
अपनी लाडली को, सौंप देता हूँ
किसी अनजान हाथों में।
क्या समझेगा यह समाज
किन-किन परिस्थितियों से
जूझ स्वयं को
मजबूत बनाने का दावा करता हूँ।
अहम् की भावना से
ग्रस्त नहीं होना चाहता
परंतु इस दो-मुँहे
सांप रूपी समाज के ज़हर से
बचने हेतु स्वयं ही
आत्मसमर्पण कर
उसके मुख में प्रवेश करने को बाध्य हो गया हूँ।
राह जाती लड़की के प्रति
जब अभद्र व्यवहार न कर पाया
तो ‘छक्के’ संबोधन का पात्र बना।
स्त्री की क़द्र करने का, जब हर रूप में
प्रयत्न किया,
माँ-का पप्पू, जोरू का गुलाम
आदि नामों की संज्ञा से विभूषित हुआ।
कुण्ठा-ग्रस्त, अभाव-ग्रस्त
जब मन को टटोलने का
प्रयत्न करता, तो केवल
ज़हर की ध्वनि कानों में
घुल जाती, जो इस समाज
की देन रहा।
जिसने मेरे वर्ग को कभी पापी,
दुराचारी, बलात्कारी
तो कभी
अहंकारी कहा।
आज भी जब कहीं सम्मलेनों में
नारी पर वक्तव्य बोले जाते हैं
तब-तब मुझ पर ही कीचड़
उछाले जाते हैं।
परंतु स्थिति भूत से वर्तमान
तक यही रही
लम्हों ने खता की
सदियों ने अब तक वह चोट सही।
देखा जाये तो मेरा अस्तित्त्व
एक छलावा है और मैं
इसे बोझ की तरह ढो रहा हूँ, सोचता हूँ
कि भगवान तुमने स्त्री और पुरुष
बना तो दिए
परंतु दोनों को पूर्णता प्रदान नहीं की।
कोई कुछ भी कहे, प्रभु! पूर्ण तो
तुम भी नहीं रहते
यदि ‘अर्धांगिनी रूप न बनाया होता,
तो तुम भी अधूरे ही रहते
यह स्वयं को दिलासा दिए जा रहा हूँ।
पुरुष हूँ, मजबूत हूँ और जिए जा रहा हूँ।
और जीए जा रहा हूँ।

ज्योति शर्मा ‘भनोट’
सहायक प्राध्यापक- चंडीगढ विश्वविद्यालय,
मोहाली (पंजाब)
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