कुछ प्रकाशक अपने-अपने स्टॉल पर पुस्तक चर्चा का आयोजन भी करते हैं। बेचारा लेखक यहां भी अपना किरदार पूरी शिद्दत से निभाता है। वह समीक्षक और आलोचक का इंतज़ाम तो करता ही है, पांच से दस श्रोताओं को भी आमंत्रित करता है और मिठाई का डिब्बा भी ख़रीद कर लाता है। पुस्तक मेले के नौ दिनों में ऐसे कम से कम नौ लेखक तो हर प्रकाशक को भी मिल ही जाते हैं।
हाल ही में व्हट्सएप पर एक चुटकुला जैसा कुछ पढ़ने को मिला जो कुछ इस प्रकार था:
“सर, आप अपनी इस पुस्तक पर लिख कर हस्ताक्षर कर दीजिये कि यह पुस्तक आपने मुझे भेंट की है।”
“क्यों इसकी क्या ज़रूरत है?”
“जी मैं नहीं चाहता कि लोग मुझ पर आरोप लगाएं कि मैंने आपकी पुस्तक पैसे देकर ख़रीदी है!”
यह दृश्य आने वाले पुस्तक मेले को लेकर रचा गया था। मैं यह सोचने को मजबूर हो गया कि आख़िर हिन्दी साहित्य का प्रकाशक पुस्तक मेले में करने क्या जाता है। आजकल हिन्दी साहित्य की पुस्तकों का पहला संस्करण छपता है तीन सौ प्रतियों का। प्रकाशक को शिकायत रहती है कि हिन्दी साहित्य की पुस्तकें बिकती नहीं हैं। लेखक को कभी रॉयल्टी नाम की चिड़िया दिखाई नहीं देती। तो फिर पुस्तक मेले में क्या होता है… प्रकाशक इतने महंगे स्टॉल कैसे किराये पर ले पाते हैं। कैसी किताबें बिकती हैं और कौन हैं ख़रीदने वाले।
मगर हिन्दी का साहित्यिक लेखक लोकप्रियता के बुख़ार का स्थाई मरीज़ है। उसे यह भी ग़लतफ़हमी रहती है कि उसके लेखन से समाज में क्रांति आ सकती है। प्रकाशक उसे दो मिनट उसकी औकात दिखाता रहता है मगर लेखक है कि मानता ही नहीं। वह फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर पोस्ट डालता रहता है कि उसकी कितनी पुस्तकें आगामी पुस्तक मेले के किस प्रकाशक के किस स्टॉल पर उपलब्ध रहेंगी।
धड़ाधड़ पोस्टर तैयार किये जाते हैं। तमाम पोस्टर एक से ही लगते हैं… बस उनमें लेखक और पुस्तक की तस्वीर बदल जाती है। किसी पोस्टर में लिखा रहता है “मेले में पुस्तक” तो दूसरे में दिखाई देगा “मेले की पुस्तक!”
लोकार्पण का वायरल पूरे पुस्तक मेले में इस क़दर फैला रहता है कि उसके लिये अभी तक किसी प्रकार की वैक्सीन का आविष्कार भी नहीं हो पाया है। नये और युवा लेखक तो एक 6 फ़ुट बाई 6 फ़ुट के स्टॉल में अपनी पुस्तक का लोकार्पण भी करवाते हैं और मित्रों एवं वरिष्ठ लेखकों को अपनी-अपनी पुस्तक भेंट करते दिखाई देते हैं। वरिष्ठ भी उनसे पुस्तक स्वीकार करके उन्हें कृतार्थ करते होंठों पर महंगी सी मुस्कुराहट चिपकाए चलते फिरते दिखाई देते हैं।
कुछ प्रकाशक अपने-अपने स्टॉल पर पुस्तक चर्चा का आयोजन भी करते हैं। बेचारा लेखक यहां भी अपना किरदार पूरी शिद्दत से निभाता है। वह समीक्षक और आलोचक का इंतज़ाम तो करता ही है, पांच से दस श्रोताओं को भी आमंत्रित करता है और मिठाई का डिब्बा भी ख़रीद कर लाता है। पुस्तक मेले के नौ दिनों में ऐसे कम से कम नौ लेखक तो हर प्रकाशक को भी मिल ही जाते हैं।
मेले से पहले और मेले के दौरान लेखक और प्रकाशक के रिश्तों का आभास भी किया जा सकता है। जिस प्रकाशक के जिस लेखक के साथ प्रगाढ़ रिश्ते होते हैं, उनके पोस्टर सुरुचिपूर्ण बनते हैं और उन्हें पुस्तक मेले में प्रमोट करने के कार्यक्रम भी रखे जाते हैं। जिनकी किताबें पैसे लेकर छापी जाती हैं वो बेचारे गाते गुनगुनाते दिखाई दे जाते हैं – रहा गर्दिशों में हरदम लेखन मेरा बेचारा…
ईर्ष्या और जलन की देवी ‘ईज’ के नाम की माला हर लेखक के गले में दिखाई दे जाती है। भला उसका लोकार्पण मेरे लोकार्पण से बेहतर कैसे ! हर लेखक को केवल अपनी पुस्तक और अपना प्रकाशक दिखाई देते हैं। कई बार तो ऐसा भी लगता है कि लेखक अपने प्रकाशक की दुकान पर खड़ा अपने माल को बेचने के लिये ग्राहकों को आवाज़ दे-दे कर बुला रहा है।
अतुकांत कवि भी इस ग़लतफ़हमी का शिकार हुए रहते हैं कि उनकी कविताएं साहिर लुधियानवी और शैलेन्द्र के गीतों की तरह किसी से कम नहीं हैं। प्रयत्न उनके भी रहते हैं कि पाठक प्रकाशक की शिकायत की परवाह न करें कि कविता की पुस्तक बिकती नहीं और आगे बढ़ कर उनकी पुस्तकें भी ख़रीदी जाएं।
बहुत से वरिष्ठ लेखकों के प्रयास रहते हैं कि उन्हें एन.बी.टी. के किसी कार्यक्रम में विशेषज्ञ की भूमिका मिल जाए। इससे कुछ जेब गरम होने की भी संभावना बनती है।
पुस्तक मेला चलता है कुल आठ से दस दिन। अब हर लेखक हर रोज़ तो वहां जा नहीं सकता। फ़ेसबुक पर इन दिनों अतिरिक्त वज़न पड़ना शुरू हो जाता है। घोषणाएं पढ़ने के मिलती हैं कि आइये भाइयो आइए, मैं अमुक प्रकाशक के स्टॉल पर उपलब्ध रहूंगा/रहूंगी। कुछ ऐसे निरीह प्राणी भी होते हैं जो दूर दराज़ के शहरों में रहते हैं। उनकी करुणामयी पुकार कुछ ऐसी होती है – मैं स्वयं तो पुस्तक मेले में शामिल हो नहीं सकता / सकती, आप अमुक प्रकाशक के स्टॉल पर मेरी अमुक-अमुक पुस्तक देख सकते हैं।
हिन्दी के तमाम कार्यक्रमों की तरह पुस्तक मेले में भी सबसे अधिक लोकप्रिय स्थान होता है फ़ूड कोर्ट। यहां पुस्तकों की ही तरह चटपटे खानों के स्टॉल मौजूद हैं। यहां के स्टॉल प्रकाशकों के स्टॉल से लोहा लेते दिखाई देते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो दफ़्तर की तरह यहां भी टिफ़िन बनवा कर घर से लाते हैं और घास के मैदान पर अकेले ही पेट-पूजा करते दिखाई दे जाते हैं। विदेश में जब कभी कुछ साहित्यिक मित्र एकत्रित होते हैं तो सब अपना-अपना सामान ख़रीदते हैं और उसके पैसे देते हैं। मगर पुस्तक मेले में प्रयास कुछ दूसरे तरह के भी होते रहते हैं… कौन मेहमान और कौन मेज़बान इसी को तय करने में कसरत होती रहती है।
दरअसल हिन्दी साहित्य का कुल जमा संसार कुछ हज़ार लोगों का है। यहां अगर तीन सौ पुस्तकों के पहले संस्करण के बाद दूसरा या फिर तीसरा संस्करण प्रकाशित हो जाता है तो प्रकाशक लेखक पर अहसान जताने लगता है और लेखक मुर्गे की तरह सीना तान कर और कलगी ऊंची करके चारों ओर ऐसी निगाह डालता है जैसे उसे बुकर अवार्ड मिल गया हो।
अब की बार तो पुस्तक मेला वैलेंटाइन डे से बस चार दिन पहले ही शुरू हो रहा है। वातावरण में वैलेंटाइन डे की ख़ुश्बू भी महसूस की जा सकेगी। किसी न किसी स्टॉल पर श्रेष्ठ प्रेम कहानियां तो कहीं वासनायुक्त (तथाकथित बोल्ड) कहानियों के संकलन भी मौजूद रहेंगे। पता चला कि बेचने वाले और ख़रीदने वाले सब एक ही हैं। किताबें बिक रही हैं… पैसे प्रकाशक के पास जा रहे हैं मगर हिन्दी के पाठकों की संख्या नहीं बढ़ रही है।
इस बार पुस्तक मेले की थीम ‘बहुभाषी भारत एक जीवंत परंपरा’ (Multilingual India) रखी गई है। इस बार पुस्तक मेला का अतिथि देश सऊदी अरब है। साथ ही, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, स्पेन, तुर्की, इटली, रूस, ताइवान, इरान, यूनाइटेड अरब अमीरात, ऑस्ट्रिया, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल सहित और भी कई देश इस पुस्तक मेले में हिस्सा ले रहे हैं। नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होंगे। इसमें नाटक, लोक प्रदर्शन, संगीत, बैंड परफॉर्मेंस शामिल है।
हिन्दी साहित्यकारों को अंग्रेज़ी पुस्तकों के कुछ स्टॉल अवश्य देखने चाहियें ताकि यह महसूस किया जा सके कि बिना जुगाड़, मारा-मारी, और सोशल मीडिया के भी कुछ गंभीर काम किये जा सकते हैं। विश्व भर की पुस्तकें वहां मौजूद होंगी… यह तो निर्विवाद है कि अंग्रेज़ी विश्व भाषा है। रवीन्द्र नाथ टैगोर को नोबल प्राइज़ और गीतांजलिश्री को बुकर अवार्ड इस विश्व भाषा में अनूदित होने के बाद ही मिला। विश्व की भाषा के स्टॉल इसलिये देखे जाएं ताकि भाषा (हिन्दी) का भविष्य तय किया जा सके।
वाह दिल की बात साफ साफ सही मायनों खरी खरी। चुटीले और पैने व्यंग्य की धार के साथ प्रकाशक और लेखक दोनों के बहुरूप के दर्शन हो रहे हैं। बड़े लेखक ,छोटे लेखक और पैसा देकर लेखक ,सब के सब एक कहावत है ,जितने काले उतने मेरे बाप के साले ,प्रकाशक और वो भी हिंदी के बस यही सच है।
हिंदी लेखक बस छप जाए के बुखार से पीड़ित और प्रकाशक वैद्य के ला पैसे दे शिकार आ तो आ ना।
अंग्रेजी पुस्तकों के प्रकाशन हाल या स्टॉल पर जाने का तो बस बहाना है असली तो हिंदी जगत को आईना दिखाना है।
नारद जी का माया के वशीभूत होकर विष्णु जी का रूप लेने की जिद और बाद में श्राप देने के बाद फुक्का फाड़ कर रोना बस यही बात इस शानदार और दमदार संपादकीय को पढ़ने के बाद समझ आती है।
Res.Tejender Sharma ji , Bravo we feel proud of you.
दुखद पर सत्य। हिन्दी का पाठक वर्ग घटता जा रहा है। प्रकाशन व्यापार मर रहा है, सस्ते में पुस्तकें छाप रहा है। पुस्तकों की संख्या ज्यादा, पाठक कम।
पुस्तक मेले में लोग बस घूम फिर आते हैं, खाना खा कर लोगों से मिल कर।
किताबें स्टॉल में ही रह जाती हैं। आज से 32 साल पहले और आज के पुस्तक मेले में ज़मीन आसमान का फ़र्क आ गया है।
पहले स्टॉल्स पर किताबें देखने के लिए लाइन में प्रतीक्षा करनी पड़ती है, अब तो प्रकाशक भी किसी ग्राहक की प्रतीक्षा नहीं करता। जानता है कि अव्वल तो कोई आयेगा नहीं आयेगा तो कुछ खरीदेगा नहीं। कुछ निर्लिप्त भाव से बैठे रहते हैं, कुछ स्टॉल बिना विक्रेता के खाली रहते हैं। ये स्थिति मैंने लखनऊ में देखी है। दिल्ली दूर है, हो सकता है वहाँ दृश्य कुछ अलग हो।
फिर भी पुस्तक मेले लग रहे हैं। लेखक और प्रकाशक आशा और प्रत्याशा में राह तक रहे हैं।
जिस लेखक की आठ पुस्तकें, मेले में हों और एक का कल लोकार्पण हो, उस लेखक और सम्पादक को दन्डवत प्रणाम इतना सच्चा और जोखिम भरा सम्पादकीय लिखने के लिए। सच्चाई का आप सा आग्रह नगण्य है। सत्य की मशाल लेकर चलने वाले तेजेन्द्र जी को कोटि कोटि नमन।
जनसामान्य में पढ़ना पहले से ही दुश्वार रहा है, शायद इसीलिए कथावाचन की परम्पराएं विकसित हुई होंगी, फिर भी पुस्तक मेले एक प्रकार से लोगों में पुस्तकीय चेतना जगाने का ज़रिया तो बन ही रहे हैं।
वैसे लेखक भी बेचारा सामान्य और संवेदनशील प्राणी होता है तो काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के वशीभूत थोड़ी बहुत कतर-ब्योंत और खींचतान तो चलनी ही है।
प्रकाशक का तो एक ही उद्देश्य रहता है कि किसी भी तरह चारों उंगलियां घी में रहें और सिर कढ़ाही में… अस्तु।
वाह, अद्भुत, बहुत अद्भुत संपादकीय है भाई तेजेंद्र जी। इतना कड़वा सच कहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए। मुझे बहुत खुशी है कि आपके पास ऐसा निर्मम सच कहने की हिम्मत और हौसला है! काश, इससे चीजें बदलें। कम से कम लेखक अपने हालात पर गौर तो करें। शायद इसी तरह कुछ बदलाव आए।
वाह वाह तेजेन्द्र भाई; आपके इस सम्पादकीय को पढ़ने के बाद बहुत सारी नई जानकारी मिली। पुस्तक मेला के खेले को इतनी सरलता से व्यक्त करने का आपका अन्दाज़-ए-ब्याँ वाकई काबिले तारीफ़ है जिसके लिये बहुत बहुत साधुवाद।
आदरणीय तेजेन्द्र जी!
व्हाटट्सएप पर डले चुटकुले को समूह में पढ़कर हमारे मन में बहुत सारी बातें एक साथ उपजीं। पहले वाक्य को पढ़कर आती हुई हँसी दूसरे वाक्य को पढ़कर थम गई थी।उस समय हमने इसे इतनी गंभीरता से नहीं लिया था,पर था तो करारा व्यंग्य। हम नहीं जानते थे कि यह दृश्य पुस्तक मेले को लेकर रचा गया था। आपको पढ़कर जाना।पुस्तकों की तौहीन हमारे लिए तकलीफदेह है बशर्ते पुस्तकें उस लायक हों।हम प्रारंभ से ही पुस्तक और कॉपी के प्रति सचेत रहे।किताब का एक कोना भी जरा सा मुड़ा हुआ हमें पसंद नहीं आता था पेज पढ़ते हुए भी हम सावधानी रखते थे। आज तो किताब लिखना खेल है और प्रकाशन महाखेल।और अब पुस्तक मेला पुस्तकों के खेल का मैदान।
दिक्कत इस बात की है कि आजकल लोग पुस्तक से नहीं ;नाम, सम्मान और पुरस्कार से प्यार करते हैं !लिखने वाले लिखने के लिए नहीं लिखते, निरुद्देश्य लिखते हैं अच्छा लेखन कम ही पाया जाता है।इसलिए लेखन में वह नजर नहीं आता जो अपेक्षित है।लेखक भी लिखना तो चाहते हैं पर क्या , क्यों व कैसा ?यह उनको नहीं पता। सब यह चाहते हैं कि उनकी किताब सब पढ़ें पर वे किसी को पढ़ना नहीं चाहते।किसी वरिष्ठ लेखक ने कहा है -(अभी नाम याद नहीं आ रहा) लिखने के लिए बहुत पढ़ना जरूरी है ।हम आज तक पढ़ रहे हैं। लिखने की चाहत है पर अभी इस योग्य नहीं समझ पा रहे हैं अपने को ।लेखकों की होड़ और इतना कुछ पढ़कर इच्छा ही खत्म हो गई लेखक बनने की।और प्रकाशक की तो बात ही क्या करें! प्रकाशकों का तो काम ही निराला है! आपने सही कहा सर!! “हिंदी का साहित्य लेखन लोकप्रियता के बुखार का स्थाई मरीज है!” आपके संपादकीय ने बड़े कड़वे सच से परिचय करवाया। बेहद, बेहद तकलीफ हुई।
पता चला कि ईर्ष्या और जलन की भी देवी होती है!!हमारे देवी- देवताओं के मध्य यही देवी नहीं है, यह अच्छा है।
हिंदी के लिए, अपनी भाषा के लिए, उसके प्रति रुचि जागृत करने के लिए बहुत प्रयास की जरूरत है। मोबाइल ने बच्चों के हाथों से किताबें छीन ली हैं और विकास की होड़ व बाजार की चमक ने माता-पिता के हाथ से बच्चों के हिस्से का वक्त छीन लिया ।सारे फसाद की जड़ यही है।
बहरहाल आपका शुक्रिया अदा करना तो बनता ही है हर बार कुछ नया सिखाकर समृद्ध करने के लिये।
एक बात हर बार लगभग दोहराते हैं किंतु इस बार विशेष तौर से इसलिए कह रहे हैं कि आप स्वयं एक वरिष्ठ लेखक हैं। इस संपादकीय को लिखना कम जोखिम भरा काम नहीं था आपके लिए पर आपने किया। बधाई आपको।
क्या आपसे साहित्यिक मित्र के नाते वॉट्सएप पर बात संभव है? आप जब भारत में थे तो सोचा था एक बार आपसे बात हो पाती, पर संभव न हुआ। आज पता चला कि आप लंदन पहुँच गये।
सम्पादकीय द्वारा पुस्तक मेले का यथार्थ एवं सजीव चित्रण अत्यंत आकर्षक एवं महत्वपूर्ण बन पड़ा है।
ऐसा लगता है मेले के सभी दृश्य साकार हो गए हैं ,चाहें ग्राहकों को लुभाने के तरह तरह के
हथकंडे हो , वैलेंटाइन डे का साया हो या फिर हिंदी पाठकों की घटती संख्या की चिंता। कुल मिला कर सम्पादकीय सार्थक , सफल तथा प्रभावशाली सिद्ध हुआ है। श्लाघनीय
Your Editorial of today brings a smile when we read about this display of books in the Book Fair on the part of both the exploitative publishers n the ambitious writers.
Very timely article.
Warm regards
Deepak Sharma
सटीक विवरण पुस्तक मेले का। एक समय था जब हिन्दी साहित्य बिना मेले के भी बिकता था। और अच्छे और गहराई लिये साहित्य की रचना होती भी थी वो पुस्तकें आज भी बिकती हैं।
वाह दिल की बात साफ साफ सही मायनों खरी खरी। चुटीले और पैने व्यंग्य की धार के साथ प्रकाशक और लेखक दोनों के बहुरूप के दर्शन हो रहे हैं। बड़े लेखक ,छोटे लेखक और पैसा देकर लेखक ,सब के सब एक कहावत है ,जितने काले उतने मेरे बाप के साले ,प्रकाशक और वो भी हिंदी के बस यही सच है।
हिंदी लेखक बस छप जाए के बुखार से पीड़ित और प्रकाशक वैद्य के ला पैसे दे शिकार आ तो आ ना।
अंग्रेजी पुस्तकों के प्रकाशन हाल या स्टॉल पर जाने का तो बस बहाना है असली तो हिंदी जगत को आईना दिखाना है।
नारद जी का माया के वशीभूत होकर विष्णु जी का रूप लेने की जिद और बाद में श्राप देने के बाद फुक्का फाड़ कर रोना बस यही बात इस शानदार और दमदार संपादकीय को पढ़ने के बाद समझ आती है।
Res.Tejender Sharma ji , Bravo we feel proud of you.
ज़बरदस्त टिप्पणी भाई सूर्य कांत जी। हार्दिक आभार।
कटुसत्य से लबरेज़ सम्पादकीय में लेखक ,प्रकाशक और पुस्तक मेले का सच है ।
इसे किताबों /लेखकों का विज्ञापन उत्सव भी कहा जा सकता है ।
Dr Prabha mishra
आपने छोटी सी टिप्पणी में बड़ी सी बात कह दी है। आपका हार्दिक आभार।
दुखद पर सत्य। हिन्दी का पाठक वर्ग घटता जा रहा है। प्रकाशन व्यापार मर रहा है, सस्ते में पुस्तकें छाप रहा है। पुस्तकों की संख्या ज्यादा, पाठक कम।
पुस्तक मेले में लोग बस घूम फिर आते हैं, खाना खा कर लोगों से मिल कर।
किताबें स्टॉल में ही रह जाती हैं। आज से 32 साल पहले और आज के पुस्तक मेले में ज़मीन आसमान का फ़र्क आ गया है।
पहले स्टॉल्स पर किताबें देखने के लिए लाइन में प्रतीक्षा करनी पड़ती है, अब तो प्रकाशक भी किसी ग्राहक की प्रतीक्षा नहीं करता। जानता है कि अव्वल तो कोई आयेगा नहीं आयेगा तो कुछ खरीदेगा नहीं। कुछ निर्लिप्त भाव से बैठे रहते हैं, कुछ स्टॉल बिना विक्रेता के खाली रहते हैं। ये स्थिति मैंने लखनऊ में देखी है। दिल्ली दूर है, हो सकता है वहाँ दृश्य कुछ अलग हो।
फिर भी पुस्तक मेले लग रहे हैं। लेखक और प्रकाशक आशा और प्रत्याशा में राह तक रहे हैं।
जिस लेखक की आठ पुस्तकें, मेले में हों और एक का कल लोकार्पण हो, उस लेखक और सम्पादक को दन्डवत प्रणाम इतना सच्चा और जोखिम भरा सम्पादकीय लिखने के लिए। सच्चाई का आप सा आग्रह नगण्य है। सत्य की मशाल लेकर चलने वाले तेजेन्द्र जी को कोटि कोटि नमन।
शैली जी तारीफ़ के लिये आभार। आपकी टिप्पणी सार्थक और सारगर्भित है।
इस पूरे गणित में ।पाठक उलझा है।
दो टूक और बेबाक बात।बिलकुल ऐसा ही तो है । सत्य लिखने के लिए बहुत बधाई आपको।
हार्दिक आभार प्रज्ञा।
जनसामान्य में पढ़ना पहले से ही दुश्वार रहा है, शायद इसीलिए कथावाचन की परम्पराएं विकसित हुई होंगी, फिर भी पुस्तक मेले एक प्रकार से लोगों में पुस्तकीय चेतना जगाने का ज़रिया तो बन ही रहे हैं।
वैसे लेखक भी बेचारा सामान्य और संवेदनशील प्राणी होता है तो काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के वशीभूत थोड़ी बहुत कतर-ब्योंत और खींचतान तो चलनी ही है।
प्रकाशक का तो एक ही उद्देश्य रहता है कि किसी भी तरह चारों उंगलियां घी में रहें और सिर कढ़ाही में… अस्तु।
वाह, अद्भुत, बहुत अद्भुत संपादकीय है भाई तेजेंद्र जी। इतना कड़वा सच कहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए। मुझे बहुत खुशी है कि आपके पास ऐसा निर्मम सच कहने की हिम्मत और हौसला है! काश, इससे चीजें बदलें। कम से कम लेखक अपने हालात पर गौर तो करें। शायद इसी तरह कुछ बदलाव आए।
मेरा बहुत-बहुत स्नेह और साधुवाद,
प्रकाश मनु
आपका स्नेह अमूल्य है सर। हार्दिक आभार।
दिल्ली पुस्तक मेले का सच यही है.
आभार रमेश भाई।
विश्व पुस्तक मेले का जीवंत चित्रण प्रस्तुत करता रुचिकर आलेख !
आभार रचना।
कटु सत्य जिसे हर कोई जानकर भी कह नहीं सकता कहने की हिम्मत तो बस आप में है। आईना दिखाने के लिए बहुत-बहुत बधाई।
भाग्यम जी, बहुत शुक्रिया।
मुझसे तो प्रकाशक ने दिल्ली पुस्तक मेला में किताब ले जाने और प्रचार के विज्ञापन के नाम पर ढाई हज़ार रुपए वसूला था।
यह तो अकल्पनीय है!
आप जितने साहस हिम्मत के साथ कड़वा सत्य लिख देते वे उतने ही साहस के साथ अगले पुस्तक मेले में पुनः उपस्थित रहते हैं. गज़ब है उनका भी साहस….
प्रदीप भाई आपकी टिप्पणी ज़बरदस्त!
वाह वाह तेजेन्द्र भाई; आपके इस सम्पादकीय को पढ़ने के बाद बहुत सारी नई जानकारी मिली। पुस्तक मेला के खेले को इतनी सरलता से व्यक्त करने का आपका अन्दाज़-ए-ब्याँ वाकई काबिले तारीफ़ है जिसके लिये बहुत बहुत साधुवाद।
हार्दिक आभार विजय भाई
आदरणीय तेजेन्द्र जी!
व्हाटट्सएप पर डले चुटकुले को समूह में पढ़कर हमारे मन में बहुत सारी बातें एक साथ उपजीं। पहले वाक्य को पढ़कर आती हुई हँसी दूसरे वाक्य को पढ़कर थम गई थी।उस समय हमने इसे इतनी गंभीरता से नहीं लिया था,पर था तो करारा व्यंग्य। हम नहीं जानते थे कि यह दृश्य पुस्तक मेले को लेकर रचा गया था। आपको पढ़कर जाना।पुस्तकों की तौहीन हमारे लिए तकलीफदेह है बशर्ते पुस्तकें उस लायक हों।हम प्रारंभ से ही पुस्तक और कॉपी के प्रति सचेत रहे।किताब का एक कोना भी जरा सा मुड़ा हुआ हमें पसंद नहीं आता था पेज पढ़ते हुए भी हम सावधानी रखते थे। आज तो किताब लिखना खेल है और प्रकाशन महाखेल।और अब पुस्तक मेला पुस्तकों के खेल का मैदान।
दिक्कत इस बात की है कि आजकल लोग पुस्तक से नहीं ;नाम, सम्मान और पुरस्कार से प्यार करते हैं !लिखने वाले लिखने के लिए नहीं लिखते, निरुद्देश्य लिखते हैं अच्छा लेखन कम ही पाया जाता है।इसलिए लेखन में वह नजर नहीं आता जो अपेक्षित है।लेखक भी लिखना तो चाहते हैं पर क्या , क्यों व कैसा ?यह उनको नहीं पता। सब यह चाहते हैं कि उनकी किताब सब पढ़ें पर वे किसी को पढ़ना नहीं चाहते।किसी वरिष्ठ लेखक ने कहा है -(अभी नाम याद नहीं आ रहा) लिखने के लिए बहुत पढ़ना जरूरी है ।हम आज तक पढ़ रहे हैं। लिखने की चाहत है पर अभी इस योग्य नहीं समझ पा रहे हैं अपने को ।लेखकों की होड़ और इतना कुछ पढ़कर इच्छा ही खत्म हो गई लेखक बनने की।और प्रकाशक की तो बात ही क्या करें! प्रकाशकों का तो काम ही निराला है! आपने सही कहा सर!! “हिंदी का साहित्य लेखन लोकप्रियता के बुखार का स्थाई मरीज है!” आपके संपादकीय ने बड़े कड़वे सच से परिचय करवाया। बेहद, बेहद तकलीफ हुई।
पता चला कि ईर्ष्या और जलन की भी देवी होती है!!हमारे देवी- देवताओं के मध्य यही देवी नहीं है, यह अच्छा है।
हिंदी के लिए, अपनी भाषा के लिए, उसके प्रति रुचि जागृत करने के लिए बहुत प्रयास की जरूरत है। मोबाइल ने बच्चों के हाथों से किताबें छीन ली हैं और विकास की होड़ व बाजार की चमक ने माता-पिता के हाथ से बच्चों के हिस्से का वक्त छीन लिया ।सारे फसाद की जड़ यही है।
बहरहाल आपका शुक्रिया अदा करना तो बनता ही है हर बार कुछ नया सिखाकर समृद्ध करने के लिये।
एक बात हर बार लगभग दोहराते हैं किंतु इस बार विशेष तौर से इसलिए कह रहे हैं कि आप स्वयं एक वरिष्ठ लेखक हैं। इस संपादकीय को लिखना कम जोखिम भरा काम नहीं था आपके लिए पर आपने किया। बधाई आपको।
क्या आपसे साहित्यिक मित्र के नाते वॉट्सएप पर बात संभव है? आप जब भारत में थे तो सोचा था एक बार आपसे बात हो पाती, पर संभव न हुआ। आज पता चला कि आप लंदन पहुँच गये।
नीलिमा जी, इस गंभीर, विस्तृत और सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
सम्पादकीय द्वारा पुस्तक मेले का यथार्थ एवं सजीव चित्रण अत्यंत आकर्षक एवं महत्वपूर्ण बन पड़ा है।
ऐसा लगता है मेले के सभी दृश्य साकार हो गए हैं ,चाहें ग्राहकों को लुभाने के तरह तरह के
हथकंडे हो , वैलेंटाइन डे का साया हो या फिर हिंदी पाठकों की घटती संख्या की चिंता। कुल मिला कर सम्पादकीय सार्थक , सफल तथा प्रभावशाली सिद्ध हुआ है। श्लाघनीय
अतुला जी, आपने चंद पंक्तियों में संपादकीय की पूरी समीक्षा कर दी है। आभार।
Your Editorial of today brings a smile when we read about this display of books in the Book Fair on the part of both the exploitative publishers n the ambitious writers.
Very timely article.
Warm regards
Deepak Sharma
Deepak ji, you have analysed the editorial in a simple and lucid manner. Kind regards.
सटीक विवरण पुस्तक मेले का। एक समय था जब हिन्दी साहित्य बिना मेले के भी बिकता था। और अच्छे और गहराई लिये साहित्य की रचना होती भी थी वो पुस्तकें आज भी बिकती हैं।