होमकहानीसुभाष नीरव की कहानी - विस्फोट कहानी सुभाष नीरव की कहानी – विस्फोट By Editor May 18, 2024 0 344 Share FacebookTwitterPinterestWhatsApp “यहाँ से निकलो, असद…” कामिनी असद को बाहर की ओर धकेलती हुई फुसफुसाई। “क्यों क्या हुआ? अभी दो मिनट पहले ही तो तुम शो–रूम में घुसी हो। और…” “बस, बाहर निकलो जल्दी… मेरी तबीयत ठीक नहीं। होटल चलते हैं।” “अचानक तुम्हारी तबीयत को क्या हुआ कामिनी?…” “मेरा सिर चकरा रहा है।” “ठीक है, चलो, पहले किसी डॉक्टर को दिखाता हूँ।” “नहीं, पहले यहाँ से बाहर निकलो। लगता है, बीपी बढ़ गया है, मेरे पास बीपी की दवा है। वही लेती हूँ कमरे पर पहुँचकर।” असद की समझ में नहीं आया कि कामिनी को यह यकायक हो क्या गया? उसके चेहरे की रंगत क्यों कुछ ही मिनट में इतनी बदल गई? आज सुबह दस बजे ही वे दोनों बस से नैनीताल पहुँचे थे और कामिनी बहुत खुश थी। बरसों बाद वह असद के साथ थी। उसकी आँखों में एक ऐसी खुशी की चमक थी, जो बरसों बाद उसे हासिल हुई थी। पहले से बुक किए होटल में एक–डेढ़ घंटा उन्होंने आराम किया था। फिर नहा–धो कर फ्रेश हुए थे। होटल के कमरे में ही दोनों ने हल्का–सा नाश्ता किया था, फिर निकल पड़े थे नैनी झील की तरफ। उनका होटल नैली झील के किनारे ही था। थोड़ी–सी ऊँचाई पर। होटल के कमरे से नैनी झील का अद्वितीय व्यू दिखता था। आम के आकार में पसरी हुई झील का हरा पानी और उस पर सैलानियों के संग तैरती नौकायें… एक मनोरम और अद्भुत नज़ारा! दिल्ली की भीषण गरमी की बनस्बित यहाँ मौसम ठंडा था। हल्की धूप थी और मंद–मंद बहती ठंडी बयार ने मौसम को खुशनुमा बना रखा था। वे कुछ देर मॉल रोड पर झील के किनारे घूमे थे। झील में होती बोटिंग को देखकर एकबारगी कामिनी का मन ललचाया था बोटिंग के लिए, “चलो, कुछ देर बोटिंग करते हैं?” पर फिर स्वयं ही उसने अपनी इस इच्छा को स्थगित कर दिया था, यह कहकर कि इतनी जल्दी क्या है? आज ही तो आए हैं। आराम से करेंगे बोटिंग भी। टहलते हुए वे एक जगह बेंच पर बैठ गए थे। सामने झील थी और पीठ पीछे मॉल रोड। पानी की सतह को छूकर आती हवा कामिनी को सुकूनभरी लग रही थी। नैनी झील को निहारते हुए वे दोनों काफी देर तक बतियाते रहे थे। अपने पुराने दिनों को याद किया था। दिल्ली को याद किया था। दिल्ली यूनिवर्सिटी के दिन याद किए थे। दिल्ली की ऐतिहासिक जगहों को याद किया था, जहाँ वे दोनों कालेज से बंक मारकर घूमा करते थे। कुतुब, पुराना किला, लाल किला, इंडिया गेट, लोटस टैम्पल… फिर कामिनी को भूख लग आई थी। दोनों ने मॉल रोड के एक रेस्टोरेंट में दोपहर का भोजन किया था। और वहाँ से निकल कामिनी एक बड़े और आलीशान शो–रूम में घुस गई थी। असद ने अपने दायें हाथ की छोटी उंगली उठाकर कामिनी को इशारा करते हुए कहा था, “तुम चलो… मैं अभी आया।” और वह बायीं ओर बने वॉशरूम में घुस गया था। जब वह वॉशरूम से निकला, कामिनी उसकी बांह पकड़ तेजी से शोरूम से बाहर खींचने लगी थी। उसके चेहरे पर बदहवासी थी। मॉल रोड स्थित इस शो–रूम से उनका होटल पाँच मिनट की पैदल दूरी पर था। कमरे में घुसते ही कामिनी ने पर्स से एक गोली निकालकर पानी से गटक ली थी और डबल–बेड पर औंधे मुँह ढह गई थी। डेढ़–दो घंटे की नींद के बाद जब कामिनी उठी तो बाहर धीरे–धीरे शाम उतर रही थी। बगल में लेटा असद सो रहा था। उसकी छाती पर अंग्रेजी की एक किताब औंधी पड़ी थी। शायद, पढ़ते–पढ़ते सो गया था। कामिनी पलंग पर से उठी और खिड़की का पर्दा सरका कर बाहर का दृश्य देखने लगी। सैलानी सड़क पर घूम रहे थे। सड़क की बत्तियाँ जग उठी थीं। अँधेरा धीरे–धीरे झील की छाती पर काबिज होता जा रहा था और सड़क की जगमग करती बत्तियाँ झील के पानी में अपना अक्स निहार रही थीं। पानी में दूर तक एक माला की तरह झिलमिलाता बत्तियाँ का अक्स यूँ लग रहा था, मानो झील ने अपने गले में जगमगाता कोई खूबसूरत नेकलेस पहन लिया हो। कामिनी ने अपने आप को अब कुछ ठीक महसूस किया। उसका मन किया कि वह असद को जगाए और थोड़ा घूम आने के लिए कहे। पर उसने ऐसा नहीं किया। वह कमरे का दरवाज़ा खोल बाहर आ गई। होटल के कुछ कमरों की एक छोटी–सी कतार झील की ओर ही मुँह किए थी। कमरों के सामने छोटी–सी रेलिंग के अंदर एक आयताकार लॉन था, जहाँ लोगों के बैठने के लिए मेज और कुर्सियाँ रखी थीं। कोने की आखि़री टेबल पर एक युवा दम्पत्ति बैठा कुछ खा–पी रहा था। दाहिनी तरफ से एक घुमावदार रास्ता ढलान से होता हुआ नीचे झील तक जाता था। एकाएक कामिनी को ठंड–सी महसूस हुई। वह अंदर कमरे में आ गई। असद उठ चुका था और वॉशरूम में था। कामिनी ने घड़ी देखी, रात के आठ बजने को थे। वह पलंग की पुश्त के साथ दो सिरहाने लगाकर अधलेटी हो गई और टांगों पर ब्लैंकेट ले लिया। तभी असद वॉशरूम से बाहर निकला। “अब कैसी तबीयत है तुम्हारी?” “ठीक हूँ।” “मैं तो घबरा गया था। नैनीताल में हमारा पहला दिन और तुम…।” कामिनी ने एक पल सोचा, असद को बता दे सब कुछ, पर उसने बात घुमा दी, “हो जाता है कभी कभी ऐसा मेरे साथ। तुम चिंता न करो। मैं अब ठीक हूँ।” “चलो, बाहर कुछ खाकर आते हैं। तुम्हें भूख लगी होगी।” “भूख तो लगी है, पर हम यहीं न मंगा लें। कमरे के बाहर लॉन में बैठने के लिए काफी अच्छी और सुंदर जगह है। वहीं बैठकर खा लेंगे।” “ठीक है…।” असद से कहा और इंटरकॉम पर डिनर का ऑडर दे दिया। असद पलंग पर कामिनी के साथ सटकर अधलेटा हो गया और उसने रिमोट से टी.वी. ऑन कर दिया। एक समाचार चैनल इस वक्त मौसम का हाल बता रहा था। दिल्ली में तापमान 46 डिग्री सेल्सियस दिखाया रहा था। उसने चैनल बदले और एक चैनल को टी.वी. के स्क्रीन पर स्थिर कर दिया। कोई इंग्लिश मूवी चल रही थी। असद को अंग्रेजी के नॉवल पढ़ना और इंग्लिश मूवी देखना शुरू से पसंद रहा है, कालेज के समय से। उसने दिल्ली के सिनेमाघरों में कामिनी के साथ ज्यादातर इंग्लिश मूवी देखी थीं। कई बार कामिनी अपनी नापसंदगी भी ज़ाहिर कर देती थी, “वाहियात फिल्में देखते हो तुम… कोई अच्छी हिन्दी फिल्म भी देखा करो।” “हिन्दी में अच्छी फिल्म होती भी है? वही प्यार–श्यार, हीरो–हीरोइन, बीच में एक विलेन… कुछ बेज़रूरत गाने… और ढिशुंग ढिशुंग…। इंग्लिश फिल्मों की कहानी हटकर होती है और कोई उद्देश्य होता है उसका।” “असली बात क्यों नहीं बता रहे… इंग्लिश मूवीज़ में तुम्हें बोल्ड सीन अच्छे लगते हैं। मैं तुम जैसे पुरुषों की मानसिकता अच्छी तरह समझती हूँ, अपनी गर्ल–फ्रेंड को बगल में बिठाकर तुम लोग इंग्लिश मूवी क्यों देखना पसंद करते हो,जानती हूँ।” कुछ ही देर में बैरा आ गया। उन्होंने बाहर ही बैठने की इच्छा प्रकट की। बैरे ने एक टेबल पर खाना लगा दिया। पूरे लॉन में हल्की रोशनी थी। अब कुछ अन्य लोग भी टेबल घेरे बैठे थे और खा–पी रहे थे। एकाएक कामिनी उठी और सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई। अब रोशनी उसके चेहरे पर सीधे नहीं पड़ रही थी। रोशनी उसकी पीठ पर थी। यहाँ से उसको लॉन का पूरा व्यू दिखता था। उसने सभी भरी हुई टेबलों पर निगाह दौड़ाई। लोगों के चेहरे साफ नहीं दिख रहे थे, पर फिर भी कामिनी आश्वस्त–सी हो गई। कामिनी ने अपने भीतर के डर को बाहर धकेल दिया। खाना खाने के बाद दोनों थोड़ी देर टहलने के मूड में थे। ढलान उतर कर दोनों झील की तरफ हो लिए। दिन में हरा दिखने वाला झील का पानी अब काला दिख रहा था। और शांत भी। इक्का–दुक्का जोड़े हाथ में हाथ पकड़े घूम रहे थे। दूर एक लैंप पोस्ट से सटकर खड़ा व्यक्ति हैट में मुँह छिपाये जाने किसकी इंतज़ार में था। ठंड ने शरीर पर अपना असर दिखाना शुरू किया तो दोनों अपने कमरे में आ गए। कुछ देर टी.वी देखने के बाद असद जल्दी ही सो गया था। पर कामिनी की आँखों में नींद नहीं थी। दिन में शो–रूम में हुई घटना को स्मरण कर उसके दिल की धड़कन बढ़–सी गई। एक घबराहट–सी भी उसने महसूस की। यदि विनोद ने उसे देख लिया होता?… क्या वह विनोद ही था?… हो सकता है, कामिनी को भ्रम हुआ हो। नहीं, वही था। उस समय जल्दबाजी में छिपकर ली सैल्फी की याद हो आई उसे। वह अपना मोबाइल खोलकर बैठ गई। ली गई सैल्फी को उसने जूम करके देखा। उसके पीछे जो व्यक्ति एक हसीन औरत के साथ दिख रहा था, वह विनोद ही था। वह औरत उसके साथ कौन थी? और वह तो मुंबई में एक ज़रूरी मीटिंग की बात कहकर घर से कल ही निकला था। फिर वह यहाँ नैनीताल में क्या कर रहा था?… नींद में उतरने की बजाये वह अपने अतीत की काली अँधेरी खोह में उतरती जा रही थी। खोह के अँधेरे में स्मृतियों के जुगनू जैसे उसकी उंगली पकड़ उसे घुमा रहे थे। हर लड़की की तरह उसने भी कालेज की पढ़ाई करते हुए बहुत सारे हसीन सपने देखे। उसको यूँ महसूस होता जैसे उसके जिस्म पर अदृश्य पंख उग आए हों। वह हर समय हवा में उड़ती फिरती। और इसी दौरान असद की एंट्री ने उसकी इस उड़ान को गति दे दी थी। असद एक हैंडसम युवक था और दिल्ली विश्वविद्यालय के उसी कालेज से एम.ए. से कर रहा था जहाँ से कामिनी कर रही थी। कामिनी की सहेली थी अनुपमा जिसके साथ उसका ज्यादातर समय बीतता था। कभी कभी वह अनुपमा के घर भी चली जाती थी। अनुपमा का भाई राकेश एम.एससी कर रहा था और उसका दोस्त था– असद। असद से पहली मुलाकात अनुपमा के घर पर ही हुई थी। उस मुलाकात के बाद से कामिनी को अहसास हुआ कि उसके अंदर कुछ कुछ ऐसा होने लगा है जो पहले कभी नहीं हुआ था। यह कुछ कुछ क्या था, पहले तो कामिनी समझ नहीं पाई और जब उसकी समझ में आया तो वह शरम से लाल हो गई। उसको इश्क हो गया था। सोते–जागते, उठते–बैठते असद ही उसके तसव्वुर में रहता। और एक दिन अनुपमा ने महसूस किया कि कामिनी अब उसमें कम, असद में अधिक दिलचस्पी लेने लगी थी। वे दोनों अब अपनी अपनी क्लास से बंक मार जाते। घर से कालेज के लिए निकलते, पर कालेज न पहुँचते, कहीं और ही घूम रहे होते। एम.ए. की फाइनल परीक्षा सिर पर थी जब कामिनी के घरवालों को हक़ीकत का पता चला। खूब हंगामा हुआ घर में। कालेज छुड़वा देने तक की भी बात चली। पर फाइनल परीक्षा निकट थी, तो ऐसा नहीं किया गया। मगर उसके मम्मी–डैडी ने वही किया जो आम तौर पर हर परिवार के मुखिया ऐसी स्थिति में किया करते हैं। कामिनी के लिए ताबड़तोड़ रिश्तों की खोज शुरू हुई। देखना–दिखाना प्रारंभ हुआ। कामिनी इस सारी प्रक्रिया में खामोश रही। इस बीच परीक्षा खत्म हो गई और कामिनी ने अपने मम्मी–डैडी से साफ़–साफ़ दिल की बात कह दी। घर में जैसे अधिक तीव्रता वाला भूकंप आ गया हो। सब कुछ तहस–नहस करने को आतुर। मम्मी–डैडी ने साफ़ कह दिया कि वे मर जाएँगे, पर एक विधर्मी के यहाँ अपनी बेटी नहीं भेजेंगे। कामिनी का घर से बाहर निकलना बंद कर दिया गया और उसके वर की खोज और अधिक रफ्तार से शुरू हो गई। एक लड़का मिला जो एक सरकारी विभाग में राजपत्रित अधिकारी था। परिवार छोटा था। माँ–बाप लड़के के साथ नहीं रहते थे। वे गाँव में रहते थे। देखने–दाखने में लड़का सुंदर था। उसकी कोई डिमांड भी नहीं थी। कामिनी की फोटो देखकर ही उसने हाँ कर दी थी। और क्या चाहिए था! आनन–फानन में कामिनी की शादी कर दी गई। कामिनी छटपटाकर रह गई। उसने भावी जीवन की उस दुनिया को स्वीकार कर लिया जो उसके माता–पिता ने उसके लिए चुनी थी। उसका पति विनोद देखने में बुरा नहीं था। अभी हाल ही में उसकी प्रोन्नति क्लास–वन अधिकारी के रूप में हुई थी और वह प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली से चंडीगढ़ चला गया था। बढ़िया आलीशान सरकारी बंगला। नौकर–चाकर, गाड़ी सब कुछ था। पर शादी के दो साल बाद कामिनी पर जैसे गाज़ गिरी। उसे पहली बार मालूम हुआ कि विनोद की शादी पहले हो चुकी थी, उसकी पत्नी ने तीन साल उसके साथ रहकर तलाक ले लिया था। वह पढ़ी–लिखी थी और कहीं सरकारी पद पर थी। यह कहानी विनोद के दोस्त की पत्नी ने कामिनी को तब बताई जब वे एक बर्थ–डे पार्टी में गए थे। इस बारे में कामिनी ने अपने मम्मी–पापा से बात की। उन दोनों ने कहा कि विनोद ने रिश्ता तय करते समय यह बात उन्हें बिल्कुल नहीं बताई थी। कामिनी ने जब विनोद से इस बाबत पूछा तो वह इसे टाल गया। दो–तीन बार जब कामिनी ने फिर यही सवाल दोहराया कि आपने रिश्ते के समय मेरे माँ–बाप को धोखे में क्यों रखा, तो विनोद का उत्तर था, “मैंने बताना ज़रूरी नहीं समझा। मेरी पहली पत्नी की मेरे साथ नहीं निभी। उसने मेरे से तलाक मांगा, मैंने दे दिया।” विनोद ने इतनी सहजता से यह सब कहा जैसे यह कोई बहुत बड़ी बात न हो, बहुत मामूली और छाटी–सी बात हो। अब कामिनी धीरे–धीरे अनुभव करने लगी कि विनोद का रवैया दिन–प्रतिदिन उसके प्रति तेजी से बदल रहा था। वह दिन भर घर में अकेली रहती, अपने अकेलेपन को कम करने के लिए उसने किट्टी पार्टी ज्वाइन कर ली। विनोद ने इस पर सख़्त एतराज किया और कहा, “मुझे यह सब बिलकुल पसंद नहीं।” घर का काम तो नौकर–चाकर कर देते थे, करने को कोई काम नहीं था कामिनी के लिए। वह खुद को बहुत अकेला और खाली–खाली सा महसूस करती। कामिनी ने अपने अकेलेपन को लेकर कहा, “क्यों न मैं कहीं जॉब कर लूँ? दिन भर घर में अकेली पड़ी पड़ी बोर हो जाती हूँ।” “तुम्हें कोई जॉब–सॉब करने की ज़रूरत नहीं। मैं कमाता हूँ न। घर का पूरा खर्च उठाता हूँ न। किस चीज़ की कमी है?” “जॉब पैसे की वजह से नहीं, अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए करना चाहती हूँ, विनोद।” “कान खोलकर सुन लो। तुम्हारा कहीं जॉब करना मुझे कतई पसंद नहीं।” “यह तो आपकी ज्यादती है। आखि़र, मेरी भी कुछ इच्छाएँ हैं, मैं भी कुछ करना चाहती हूँ। पढ़ी–लिखी औरत हूँ मैं।” “पढ़ी–लिखी हो तो समझदार भी होगी। पति जो कहता है, वही करो। उसकी इच्छा के विरुद्ध जाने की कोशिश न करो।” “एक बच्चा ही दे देते तो मैं उसी से खुद को बहला लेती।” “बच्चा मैंने नहीं दिया?… तुम खुद अयोग्य हो तो मैं क्या करूँ?” विनोद की यह बात तीखे तीर–सी कामिनी के सीने में चुभी, वह तड़प उठी, “ऐसी बात है तो चलो किसी अच्छे डॉक्टर को हम दोनों अपने आप को दिखाते हैं। पता चल जाएगा, कौन अयोग्य है। अगर हममें से कोई अयोग्य होगा, तो उसका इलाज भी हो सकता है। चलोगे, मेरे साथ किसी डॉक्टर के पास?” इसके जवाब में विनोद मुट्ठियाँ भींचता रह गया, पर कुछ बोला नहीं। उसे कामिनी से इसकी उम्मीद नहीं थी। इसी बीच विनोद का ट्रांसफर फिर दिल्ली हो गया, पेरेंट आफिस में। यहाँ भी बहुत बड़ा सरकारी घर मिल गया। अब विनोद कुछ ज्यादा व्यस्त हो गया। रात में देर से लौटने लगा। दिल्ली से बाहर के सरकारी दौरों की रफ्तार भी बढ़ गई। आए दिन वह हफ्ता–हफ्ता टूर पर रहने लगा। कामिनी पूछती तो कहता, “ज़रूरी मीटिंग होती हैं। दिल्ली के बाहर के आफिसिज़ का इंस्पेक्शन भी होता है। जाना ही पड़ता है। सरकार में ये सब चलता रहता है। मना नहीं कर सकते।” एक दिन कामिनी ड्राइवर को लेकर पास की एक मार्किट में गई थी। घर का कुछ आवश्यक सामान खरीदना था। वहाँ अनुपमा मिल गई। उसके साथ कोई था। अनुपमा ने बताया कि उसकी शादी हो गई है और साथ में उसका पति है। थोड़ी बहुत बातचीत हुई और मोबाइल नंबर का आदान–प्रदान हुआ। अनुपमा से ही मालूम हुआ कि असद ने पढ़ाई खत्म करके स्पेयर पार्टस का अपना पुश्तैनी कारोबार संभाल लिया है और दिल्ली के कशमीरी गेट इलाके में उसकी शॉप है। और यह भी कि वह अभी तक सिंगल है। उस दिन विनोद शाम को कुछ जल्दी घर लौटा था। बैठक में तीन अजनबी लोगों को बैठे देख उसने कामिनी की तरफ़ घूरती नज़रों से देखा। कामिनी ने परिचय कराया, “विनोद, यह मेरी सहेली अनुपमा है और यह उसका भाई तरुण, एम.एससी पूरी करके पीएच.डी कर रहा है। और ये हैं असद। अनुपमा और असद ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक ही कालेज में मेरे साथ ही एम.ए. किया है।” विनोद ने कोई अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाई और हल्की–सी ‘हैलो–विश’ कर के वह अपने कमरे में चला गया। कामिनी के वैवाहिक जीवन में वह पहली रात थी जब उसने अपने पति विनोद का एक क्रूर और भद्दा चेहरा देखा। मेहमानों के चले जाने के बाद विनोद ने कामिनी की जैसे क्लास ही ले ली। “इन्हें हमारे घर का पता किसने दिया?” हाथ में पकड़े पैग का एक घूंट भरने के बाद विनोद ने लगभग चीखते हुए प्रश्न दागा। “अनुपमा यहीं पास ही रहती है। मेरी सहेली है। एक दिन मार्किट में मिल गई थी तो हमने एक–दूजे को फोन नंबर ले लिया था। ये लोग इस तरफ किसी काम से आए थे, तो फोन करके पूछ लिया कि क्या हम तुम्हारे घर आ सकते हैं कुछ देर के लिए? तो मैंने भी हाँ कर दी। इसमें कौन–सा कोई पहाड़ टूट गया।” “पर मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा? तुम एक क्लास वन आफीसर की बीवी हो। यहाँ वही आएगा जिसे मैं चाहूँगा।” अब कामिनी को लगने लगा जैसे घर के अंदर विनोद की अनुपस्थिति में उस पर पहरा रखा जा रहा हो। कोई उस पर निगाह रख रहा हो। वह क्या करती है, क्या पहनती है, कितनी बार उसका मोबाइल फोन बजता है, फोन पर कितनी बार बात करती है, कौन दिन के वक़्त घर में आता है… नहीं तो यह कैसे संभव है कि विनोद घर में न रहकर भी उसकी हर कारगुजारी को जानता था। कब कितने बजे वह नहाई, कितने बजे उसने दोपहर का खाना खाया, कितने बजे तक टी.वी. देखा और टी.वी. पर क्या देखा, कितनी बार किसी से मोबाइल पर बात की, शाम को गमलों के पौधों को पानी कितने बजे दिया, कितने बजे ड्राइवर को मार्किट भेजा। एक एक पल का ब्यौरा विनोद के पास रहता था। घर का खानसामा गुड्डू और मेड आशा या फ़िर यह ड्राइवर ही अवश्य साहब को पल पल की ख़बर देते होंगे। एकबारगी तो उसे लगा कि कहीं पूरे घर में विनोद ने सीसीटीवी कैमरे तो नहीं लगवा रखे। विनोद जब रात में घर पर होता, उसे बस कामिनी का जिस्म चाहिए होता। उसे नोंचता–खसोटता और ठंडा होकर एक तरफ पड़ जाता। छह साल होने जा रहे थे शादी को, पर संतान का सुख नही मिला था। अगर कोई संतान होती तो कामिनी उसी के संग खुद को बहला लेती। धीरे–धीरे वह डिप्रेशन का शिकार होने लगी। अब विनोद के टूर अधिक होने लगे थे और उनकी समयावधि भी बड़ी होने लगी। उसको देर रात तक नींद न आती। अजीब अजीब से ख़याल उसे परेशान किए रहते। ये आजकल उसे क्या होता जा रहा था, कामिनी समझ न पाती। तड़के कहीं जाकर उसकी आँख लगती। नतीजा यह होता है कि अगले दिन देर तक सोती रहती। उसे परवाह न रहती कि विनोद को आफिस जाना है। विनोद भी उसे न उठाता, जब तक वह नहा–धोकर आफिस के लिए तैयार होता, तब तक गुड्डू उसके लिए नाश्ता तैयार कर चुका होता। वह नाश्ता करता, अपना बैग उठाता और आफिस के लिए निकल जाता। कामिनी आईने में अपना चेहरा देखती तो घबरा उठती। उसके चेहरे का नूर कहाँ गायब हो गया? वह ऐसी तो नहीं हुआ करती थी? अभी उसकी उम्र ही क्या है। सिर्फ़ बत्तीस साल। और इस बत्तीस साल की उम्र में वह पचास से ऊपर की लगने लगी। वह सोचती, शायद एक कीड़ा है जो उसको घुन्न की तरह अंदर ही अंदर खाए जा रहा है… वह दरिया किनारे की मिट्टी की तरह रोज़ थोड़ा–थोड़ा झरे जा रही है। डिप्रेशन ने उसे दबोच रखा था। उसको लगता जैसे वह पिंजरे की मैना है। उससे उसका आकाश छीन लिया गया है। उसकी उड़ान पर पाबंदियाँ लगी हैं। सोमवार का दिन था। विनोद तीन दिन के टूर पर था। कामिनी को तबीयत कुछ ढीली लगी। वह ड्राइवर को लेकर सरकारी डिस्पेंसरी चली गई। दवा लेकर जब वह लौट रही थी, उसको रास्ते में दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी दिखाई दी। उसने ड्राइवर को रोका, बोली, “मुझे लायब्रेरी जाना है, तुम जाना चाहते हो तो जाओ, मुझे यहीं छोड़ दो, मैं ऑटो करके आ जाऊँगी।” लायब्रेरी अच्छी–खासी थी। कामिनी ने मेंबरशिप के बारे में पता किया। एक फॉर्म भरना था, उसने भर दिया। और कुछ छोटी–मोटी औपचारिकताएँ पूरी करनी थी। उसे बताया गया, “दो दिन बाद कार्ड्स इशु हो जाएँगे, तब आप किताबें इशु करवा सकेंगी।” उसने सोचा, यह ठीक रहेगा, किताबें पढ़ने से उसका मन भी लगा रहेगा और वक़्त भी कट जाया करेगा। घर पहुँची तो विनोद का फोन आया। “कहाँ गई थीं?” “तबीयत ठीक नहीं थी, ड्राइवर को लेकर डिस्पेंसरी गई थी।” “उसके बाद?” “उसके… उसके बाद मैं राह में जो लायब्रेरी पड़ती है, वहाँ चली गई थी। मेंबरशिप का फॉर्म भर दिया है। घर में अकेली बोर होती हूँ, सोचा, किताबें इशु करवा लाया करूँगी पढ़ने के लिए।” एक पल उधर से कोई आवाज़ न आई, और न ही फोन कटा। कामिनी ने पूछ लिया, “कब लौट रहे हो?” “बताकर तो आया था… तीन दिन बाद लौटूँगा।“ और फोन कट गया था। कामिनी को कन्फर्म हो गया कि उसके डिस्पेंसरी और लायब्रेरी जाने की बात ड्राइवर द्वारा ही साहब को बताई गई है। हिन्दी साहित्य की तीन पुस्तकें कामिनी लायब्रेरी से इशु करवा लाई थी। इनमें एक उपन्यास था, एक कहानियों की किताब थी और एक कविता की। कवितायें उसकी समझ में नहीं आईं, पर कहानियों ने उसका मन बाँधा। और जब उसने उपन्यास पढ़ना शुरू किया तो जैसे कोई नदी थी शब्दों की जिसमें वह बहती चली गई थी। संयोग था कि उपन्यास की नायिका भी उसी की तरह ही अपने पति की उपेक्षा, अवहेलना और प्रताड़ना का शिकार थी। पति के हर आदेश का पालन वह पूरी तत्परता से करती, लेकिन हर समय डरी–सहमी और भयभीत रहती कि कहीं उससे कोई गलती न हो जाए। पति के सामने उसके मुँह में जैसे जबान ही न रहती। और अंत में, जब पानी सिर से ऊपर हो गया तो वही नायिका अपनी ख्वाहिशों–उमंगों और अपने अधिकारों के लिए युद्ध छेड़ देती है। और वह उसमें विजयी भी होती है। अब कामिनी ने डिस्पेंशरी और लायब्रेरी के बहाने घर से निकलना शुरू कर दिया था। अक्सर ड्राइवर उसे छोड़ आता, पर कई बार अब वह स्वयं भी ऑटो या ओला करके निकल जाती। वह कहीं किसी रेस्ट्रोरेंट में अनुपमा को या असद को फोन करके बुला लेती और दो–ढाई घंटे उनके संग व्यतीत कर घर लौट जाती। धीरे–धीरे उसके अंदर का आत्मविश्वास लौट रहा था। उसका अवसाद भी कम हो रहा था। उसने विनोद की बातों की परवाह करनी अब छोड़ दी थी। किताबों ने उसके जीवन में एक नया रंग भर दिया था। उसने फेसबुक पर अपनी आई.डी. बनाई और उसमें असद और अनुपमा को मित्र बनाया। धीरे–धीरे मित्रों की संख्या बढ़ने लगी। वह फेसबुक पर स्त्री वेदना से जुड़े अपने विचार, संस्मरण अपने चित्र के साथ साझा करने लगी। धीरे–धीरे उसके मित्रों और फोलोअर्स की संख्या बढ़ती चली गई। अनुपमा ने उसे इंस्टाग्राम से भी जोड़ दिया। यह एक अनोखी दुनिया थी। इस अनोखी दुनिया में कामिनी का मन रमने लगा। “कल सुबह मुझे मुंबई जाना है, हफ्ते भर के लिए। मेरी अटैची शाम तक तैयार कर देना।” सुबह आफिस जाने से पहले विनोद ने कामिनी से कहा । “अभी हफ्ता भर पहले ही तो गए थे।” “तो…?” “पूछ ही रही हूँ?” “किसलिए?” “बस यूँ ही। पत्नी हूँ तुम्हारी, पूछ नहीं सकती?” “नहीं। पति की बात पर विश्वास करना और उसे मानना तुम्हारा फर्ज होना चाहिए।” “मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती आजकल।” “ड्राइवर को बोल देता हूँ, तुम्हें सरकारी डिस्पेंसरी ले जाएगा।” “तुम साथ नहीं चल सकते?” कामिनी ने याचना–सी की। “मुझे अभी आफिस के लिए निकलना है। कल से हफ्तेभर के लिए दौरे पर रहूँगा। लौटकर आऊँगा तो देखूँगा।” “दौरा कैंसिल कर दो। कह दो, बीवी की तबीयत ठीक नहीं, किसी और को दौरे पर भेज दो।” “ऐसा नहीं होता। मेरी पोस्ट ही ऐसी है, अपने बॉस को मना नहीं कर सकता।” “तो कल मैं भी कुछ दिन के लिए अपने मम्मी–पापा के घर चली जाऊँगी। वहीं किसी डॉक्टर को दिखाऊँगी खुद को।” “कहीं नहीं जाओगी तुम… कहे देता हूँ। मैं जब लौट आऊँगा, एक दिन मिलवा लाऊँगा तुम्हें उनसे।” “क्यों अब मैं अपने मम्मी–पापा से भी नहीं मिल सकती। उनके यहाँ कुछ दिन रह भी नहीं सकती। मैं क्या तुम्हारी गुलाम हूँ, मुझे क्या हर समय पिंजरे की मैना बना कर रखोगे? आख़िर क्या डर है तुम्हें मुझसे… घर–बार की बात प्यार से तुम मेरे साथ करते नहीं। कहीं पार्टी, रिसेप्शन पर भी अकेले जाते हो, मुझे संग नहीं ले जाते। बूढ़े सास–ससुर गाँव में हैं, जब से इस घर में आई हूँ, कभी दो–चार दिन रहने नहीं आए… असल बात ये है कि वे तुम्हारे संग रहना ही नहीं चाहते। तुम बड़े अफ़सर हो, गंवई माँ–बाप को घर में रख लोगे तो तुम्हारी इज़्ज़त को बट्टा न लग जाएगा।” “कामिनी !!!…” विनोद इतनी ज़ोर से चीखा मानो कोई विस्फोट हुआ हो जिससे कमरे की दीवारें हिल गईं। गुड्डू खानसामा और मेड आशा अपना काम छोड़कर कर विस्फारित आँखों से देखने लगे। यह पहली मर्तबा था कि कामिनी इतनी बात कहने का साहस जुटा पाई थी और यह भी पहली बार था कि विनोद का पारा सातवें आसमान पर था। “चीखो नहीं, तुम्हारा बैग शाम तक तैयार होगा। मेरी ओर से कहीं भी जाओ। पर मैं तुम्हारी बीवी हूँ। मेरे अंदर भी दिल धड़कता है। मेरा भी कोई अस्तित्व है। मेरा भी मित्रों– रिश्तेदारों में, अपने मायके में घूमने का दिल करता है। मेरी भी कुछ ख्वाहिशें हैं, सपने हैं आख़िर।” विनोद का दायां हाथ ऊपर उठा और हवा में ही स्थिर हो गया। वह दाँत पीसता आफिस के लिए बड़बड़ाता हुआ निकल गया। शाम को विनोद आफ़िस से घर लौटा तो शांतचित्त था। कामिनी ने उसकी अटैची तैयार कर रखी थी। सुबह वह टूर पर जाने के लिए तैयार हुआ तो कामिनी ने ‘मैन फोर्स’ के तीन पाउच उसके सामने रखते हुए कहा, “कल तुम्हारी अटैची तैयार करते हुए ये अटैची की जेब से निकले थे। कहो तो इन्हें भी रख देती हूँ?” ‘काटो तो खून नहीं’ जैसी स्थिति थी विनोद की। पर वह कुछ न बोला। कामिनी ने वे पाउच विनोद की अटैची की जेब में रख दिए। विनोद के आफिस जाते ही कामिनी पिंजरा तोड़ उड़ने को आतुर दिखी। उसने अनुपमा को फोन किया। सारी स्थिति बताई। फिर असद को फोन मिला लिया। “असद, तुम अपने आप को दो–तीन दिन के लिए फ्री कर सकते हो?” “क्यों? क्या बात है? तुम कहो तो अपने आप को तुम्हारी खातिर हमेशा के लिए फ्री कर लूँ। हुक्म करो।” “मजाक नहीं। मुझे दो–तीन दिन के लिए कहीं ले चलो। कहीं भी। अब इस कैद में दम घुटता है।” “तो बताओ कहाँ चलना है? शिमला, मनाली, नैनीताल… जहाँ कहोगी, चल दूँगा। बाय द वे, अपने पतिदेव से पूछ लिया? उससे क्या कहोगी?” “वह तुम मुझ पर छोड़ो। वह हफ्ते भर के लिए आज मुंबई गया है। अभी मैं मम्मी–पापा के घर के लिए निकल रही हूँ। कल रात हमें दिल्ली छोड़ना है, कहीं के लिए भी। अब तुम देख लो।” “ठीक है, नैनीताल चलते हैं, कल रात की बस की टिकट बुक कराता हूँ। तुम मुझे आनन्द विहार बस अड्डे पर रात दस बजे तक मिलो।” अगले दिन सुबह ही कामिनी अपनी अटैची उठाकर अपने मम्मी–पापा के घर पहुँच गई। उसने उन्हें बताया कि वह अपनी कुछ सहेलियों के संग आज रात नैनीताल जा रही है। विनोद भी हफ़्ते भर के लिए सरकारी टूर पर है। कामिनी की सुबह जब आँख खुली तो उसने समय देखा। सुबह के छह बजने को थे। असद करवट किए अभी सोया पड़ा था। उसने बेड पर बैठे–बैठे एक भरपूर अंगड़ाई ली और फिर उठकर वॉशरूम में चली गई। वहाँ से आई तो उसका चेहरा तरोताज़ा लग रहा था, किसी प्रात:कालीन खिले फूल सा। उसने खिड़की पर से पर्दा सरकाया तो बाहर का अनुपम और नैसर्गिक दृश्य देखकर आश्चर्यचकित रह गई। चारों तरफ़ चीड़, ओक और देवदार के दरख्तों का जंगल, गगनचुम्बी पहाड़ियाँ और उनकी तलहटी में लेटी नैनी झील जैसे नींद से अभी–अभी जागी हो, अपना रात वाला काला चोगा उतार कर उसने फिर से हरी पोशाक पहन ली थी। मंद–मंद हवा उसके पानी से खेल रही थी और हल्की–हल्की लहरें पैदा कर रही थी। किश्तियाँ अभी अपनी अपनी जगह पर बंधी खड़ी थीं और हिल रही थीं। मानो वह बंधनमुक्त होना चाहती हों। कामिनी दरवाज़ा खोल कर बाहर लॉन की नरम हरी घास पर टहलने लगी। पर्वतीय इलाके की सुबह की भीनी स्वच्छ हवा को अपने अंदर भरते हुए उसे यूँ घास पर टहलना अच्छा लगा रहा था। कुछ देर बाद असद भी लॉन में आ गया था। “गुड मोर्निंग… बहुत सुंदर लग रही हो और स्वस्थ भी।” उसके संग–संग टहलता हुआ असद बोला। “असद, पहाड़ों की हवा कितनी स्वच्छ और प्रदूषण रहित है। यहाँ की प्रकृति के अनुपम दृश्य आँखों को ठंडक प्रदान करते हैं और वायु हमारे अंदर प्राण फूंकती है। इस नैसर्गिक और अप्रतिम सौंदर्य को बस निहारते रहने को मन करता है।” कुछ देर टहलकर वे दोनों अंदर कमरे में चले गए। “असद, आज पूरा दिन हम नैनीताल का चप्पा–चप्पा घूमेंगे। हर वह स्थल, वो प्वाइंट जिसे देखने के लिए दुनियाभर से लोग यहाँ आते हैं, हम देखेंगे। जो शेष रह जाएगा, उसे कल देखेंगे। पहले तुम नहा लो, तैयार हो जाओ। तुम्हारे बाद मैं नहाऊँगी। यहीं हल्का नाश्ता करके हम घूमने निकलेंगे।” “ठीक है,” कहकर असद वॉशरूम में घुस गया। पलंग की पुश्त से पीठ टिकाये बैठी कामिनी कल की घटना में लौट गई। शाल और साड़ियों के बड़े शोरूम के अंदर जब कामिनी ने कदम रखा था तो वहाँ थोड़ी भीड़ थी। वह जैसे ही आगे बढ़ी, काउंटर पर बिल का भुगतान करते किसी शख्स को देखकर उसके पांव ठिठक गए थे। वह शख़्श और कोई नहीं उसका पति विनोद था। उसने वह कमीज़ पहन रखी थी जो कामिनी ने प्रेस करके अटैची में सबसे ऊपर रखी थी। विनोद के दायें कंधे पर हाथ रखे उससे बिल्कुल सटकर खड़ी एक स्त्री के दूसरे हाथ में खरीदे गए सामान के थैले थे। कौन थी यह स्त्री, कामिनी नहीं जानती थी। कामिनी तुरंत एक पिलर की ओट में होकर उन्हें ग़ौर से देखने लगी। क्रोध और घबराहट में उसका चेहरा तमतमा गया था। दिल की धड़कनें तेज़ हो उठी थीं। एकाएक उसने उनकी तरफ़ पीठ करके एक सेल्फ़ी ली जिसमें उन दोनों के चेहरे कैद हो गए थे। इसके बाद एक पल भी वहाँ रूकने को उसका मन न हुआ। वह वहाँ से भाग जाना चाहती थी। तब तक असद वॉशरूम से बाहर निकल आया था। वह उसे धकेलती हुई शो–रूम से बाहर आ गई थी। वह इतना क्यों डर गई थी?… क्या इसलिए कि विनोद उसे यहाँ देख लेगा तो क्या होगा?… यदि देख लेता तो क्या वह उससे आँखें मिला पाता?… उसका झूठ तो पकड़ में आ ही गया था। वह मुंबई के दौरे का बहाना बना यहाँ नैनीताल में किसी औरत के साथ घूम रहा था। रंगे हाथ पकड़े जाने पर किस मुँह से वह अपनी सफ़ाई देता? कामिनी को वहीं रूकना चाहिए था। जो भी विस्फोट होता, उसे हो लेने देना चाहिए था। पर वह ऐसा न कर सकी। यदि विनोद किसी परायी औरत के साथ यहाँ घूम रहा था तो वह भी तो एक पराये मर्द के साथ थी। चोरी तो उसकी भी पकड़ी जाती। उसका सिर चकराने लगा था। वह कमज़ोर सिद्ध हुई। एक पल को तो कामिनी यह भी सोच गई कि वह असद से तुरंत नैनीताल छोड़ कहीं और जाने के लिए कहे। परंतु, अब कामिनी ने सोच लिया था कि यदि अब यह संयोग फिर घटा तो वह मैदान छोड़कर भागेगी नहीं, सामना करेगी। दोनों तैयार होकर और नाश्ता करके जब होटल के कमरे से निकले तो हल्की गुनगुनी धूप खिली थी। हालांकि आकाश में कहीं कहीं बादल भी थे। नीचे उतरते ही एक टैक्सी वाला उनके पीछे पड़ गया। वह नैनीताल का हर दर्शनीय स्थल दिखाने की बात करता अल्बम के पन्ने खोलकर तस्वीरें दिखा रहा था – स्नो व्यू पाइंट, टिफ़िन टॉप, नैना मंदिर, इको केव, नैना पीक, ज्योली कोट, पंडित बल्लभ पंत जू, भीमताल आदि। कामिनी इन सभी जगहों पर जाना चाहती थी। असद ने टैक्सी वाले से दो दिन में पूरा नैनीताल और आस पास के दर्शनीय स्थल दिखाने की बात करके पैसे तय किए और चल दिए। इन जगहों पर घूमते हुए कामिनी की नज़रें इधर–उधर भी दौड़ रही थीं जैसे वे कुछ खोज रही हों। शाम के समय दोनों ने नैनी झील में बोटिंग भी की। थक कर जब वे दोनों होटल के कमरे में पहुँचे, तो थकान के बावजूद कामिनी के चेहरे पर एक संतोष और आनंद झलक रहा था। वह खुश थी। वह जीवन को इसी तरह बेखौफ़ होकर जीना चाहती थी, उसका आनंद उठाना चाहती थी। अगले दिन उन्हें सुबह जल्दी उठना था। उन्हें आज सबसे पहले उस प्वाइंट पर पहुँचना था, जहाँ से बर्फ़ से ढंकी हिमालय की चोटियाँ दिखाई देती हैं। टैक्सी ड्राइवर ने कहा था कि इसके लिए अर्ली मोर्निंग निकलना होगा, अगर मौसम साफ़ रहा, तभी ये अलौकिक दृश्य वे देख पाएँगे। और सचमुच मौसम साफ़ था। खिली धूप हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज़ किए थी। कामिनी ने पर्वत की धवल दूधिया चोटियों पर सूर्य की सुनहरी किरणों को नृत्य करते देखा। वह इस अप्रतिम, अलौकिक दृश्य को सदा सदा के लिए अपनी आँखों में बसा लेना चाहती थी। उसने असद का बायां हाथ थाम रखा था और वह हर्षातिरेक की स्थिति में लंबी और गहरी सांसें ले रही थी। धीरे–धीरे इस प्वाइंट पर लोगों की भीड़ जुटने लगी थी। वह इस भीड़ में दो चेहरे खोजने लगी जो उसने शो–रूम में देख थे। पर उसकी इच्छा फलीभूत न हुई। वहाँ से वह भीमताल चले गए थे। इस ताल का पानी भी हरा था। यहीं घूमते हुए उन्होंने दोपहर का भोजन किया। यहाँ भी कामिनी की आँखें कल की तरह कुछ खोजती रहीं। शाम को जब वह टैक्सी से होटल की ओर लौट रहे थे तो कामिनी का फोन घनघनाया। उसने उसे साइलेंट मोड पर किया हुआ था। विनोद का फोन था। कामिनी ने तुरंत उठा लिया। “तुम मम्मी के घर चली गईं, मेरे मना करने के बाद भी?” “तो तुम्हें ख़बर हो ही गई?… तुम्हारे गुप्तचर तुम्हारे प्रति बड़े लायल हैं?” “शट अप! तुम नहीं बताओगी तो क्या मुझे पता नहीं चलेगा?” “तुमने तो एक बारगी भी फोन कर के मुझसे मेरी तबीयत के बारे में न पूछा?” “इस समय कहाँ हो?” “तुम्हारे गुप्तचरों ने नहीं बताया?” “सीधे सीधे जवाब दो, तुम इस समय कहाँ हो? “नैनीताल में… मि विनोद।” उधर कोई विस्फोट हुआ था, जिसकी गूंज कामिनी के कान महसूस कर रहे थे। कामिनी ने फोन काट दिया। फोन को स्विच्ड–ऑफ़ करके कामिनी ने असद की ओर देखा और मुस्करा दी। सुभाष नीरव 78/2, शिवालिक अपार्टमेंट फ्लैट नंबर -12, पहली मंज़िल के -1 एक्सटेंशन, डी के रोड मोहन गार्डन, उत्तम नगर नई दिल्ली -110059 मोबाइल : 9810534373 Share FacebookTwitterPinterestWhatsApp पिछला लेखशैली बक्षी खड़कोतकर की कहानी – सुनो नीलगिरी….!अगला लेखपारुल सिंह का पुस्तक अंश : ‘ऐ वहशते-दिल क्या करूँ’ Editor RELATED ARTICLES कहानी डॉ कनक लता तिवारी की कहानी – केश तरंगिनी September 14, 2024 कहानी गुडविन मसीह की छोटी कहानी – गूंगी बहू September 14, 2024 कहानी सविता पाठक की कहानी – दिल ने हजार बार रोका-टोका September 14, 2024 कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें टिप्पणी: कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें! नाम:* कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें ईमेल:* आपने एक गलत ईमेल पता दर्ज किया है! कृपया अपना ईमेल पता यहाँ दर्ज करें वेबसाइट: Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment. 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