जब तक इन्सान की खोजी प्रवृत्ति जीवित है, कुछ ना कुछ नये आविष्कार होते रहेंगे। कुछ आविष्कार एटम बम की तरह धरती का विनाश करेंगे तो कुछ वेगन चमड़े की तरह पर्यावरण को बचाने का काम करेंगे।
एक पौराणिक कथा के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने हिरण्याकश्यप का वध करने के लिए नरसिंह अवतार धारण किया था तब वे आधे नर और आधे सिंह के रूप में में थे। इसका वध करने के बाद नरसिंह बेहद क्रोध में थे। तब शिवजी ने अपने अंश अवतार को उत्पन्न किया जिसका नाम वीरभद्र था। तब उन्होंने नरसिंह अवतार से प्रार्थना की कि वो अपना क्रोध त्याग दें। लेकिन नरसिंह नहीं माने तब शिवजी के अंश अवतार वीरभद्र ने शरभ का रूप लिया। यह गरुड़, सिंह और मनुष्य का मिश्रित रूप था।
शरभ ने नरसिंह भगवान को अपने पंजे से उठा लिया। वे उनपर अपनी चोंच से वार करने लगा। इसके वार से नरसिंह भगवान घायल हो गए। तब उन्होंने अपना शरीर त्यागने का निर्णय लिया। उन्होंने भगवान शिव से निवेदन किया कि वे अपने आसन के रूप में नरसिंह के चर्म को स्वीकार करें। ऐसा कहा जाता है कि वे विष्णु जी के शरीर में नरसिंह भगवान मिल गए और शंकर जी ने इनके चर्म को अपना आसन बनाया। यही कराण है कि शिवजी बाघ की खाल पर बैठते हैं।
यानी कि हमारी सोच, सभ्यता और जीवन से पशु की खाल यानी कि चमड़ा युगों-युगों से जुड़ा है। आदि-मानव भी अपना तन ढांकने के लिये जानवर की खाल का इस्तेमाल ही करते थे। वर्तमान में भी जूते, चप्पलें, पर्स, बैग, ब्रीफ़केस, सूटकेस, कोट, जैकेट, महंगी कारों की सीट के कवर इत्यादि चमड़े से ही बनाए जाते हैं।
जैसे-जैसे विज्ञान ने तरक्की की चमड़े को सुन्दर, चमकीला और रंगीन बनाने की विधियां भी विकसित की गईं; नये-नये डिज़ाइनों ने जन्म लिया; चमड़ा अधिक से अधिक मुलायम होता गया। ‘जेन्युइन लैदर’ पहनना कुछ अमीरी की निशानी भी बन गया।
मगर शाकाहारी और धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को जानवर की खाल से बने चमड़े से परहेज़ रहता था। सोचिये आप पूजा की थाली में पैसा रखने के लिये जेब से पर्स निकालें और हाथ में चमड़े का पर्स आये… महसूस होगा जैसे पूजा ही भ्रष्ट हो गई। एक नई चीज़ का विकास हुआ जिसे वैज्ञानिकों ने कहा – रेक्सीन। यह केमिकल से बना चमड़ा था। इसके छूने से धार्मिक गतिविधि में कोई अड़चन नहीं थी। दूसरे यह ‘जेन्युइन लैदर’ के मुकाबले सस्ती भी होती थी। इसे गीले कपड़े से साफ़ करने में भी कोई दिक्कत नहीं थी। बारिशों में इस पर फफूंद भी नहीं लगती थी।
कहते हैं कि आजतक इन्सान के दिमाग़ का केवल दस प्रतिशत इस्तेमाल हुआ है। सोच कर हैरानी होती है कि यदि दिमाग़ का पचास प्रतिशत इस्तेमाल हो गया तो विश्व क्या नया रूप अपना लेगा। इसलिये इन्सान का दिमाग़ लगातार कुछ न कुछ नया सोचता रहता है।
अब जैसे चमड़े की ही बात लें; चमड़े के उत्वादों को तैयार करने के लिये हर वर्ष अरबों जानवरों का वध करना पड़ता है। दुनिया का चमड़ा उद्योग पर्यावरण के लिये कितना ख़तरनाक है इस बात का अंदाज़ लगाना आसान नहीं। जानवर की खाल को निकालने से लेकर उसे चमड़े का प्रोडक्ट बनाने तक की प्रक्रिया काफी लंबी होती है और इसके लिए बहुत से पानी और केमिकल्स का इस्तेमाल किया जाता है। इस कारण यह पर्यावरण के लिए और भी अधिक खतरनाक बन जाते हैं।
भारत में शाकाहारी भी बहुत तरह के होते हैं। पहले तो नॉर्मल शाकाहारी जो अंडा या माँस नहीं खाते। कुछ हैं जो कहते हैं जी हम अंडा तो खा लेते हैं मगर मीट मछली नहीं। वे अपने आपको एगेटेरियन कहते हैं। एक थोड़े कट्टर शाकाहारी हैं जिन्हें हम जैनी कहते हैं। वे तो लहसून और प्याज़ भी नहीं खाते। अब एक नये तरह के शाकाहारी होते हैं जिन्हें वेगन कहा जाता है। वे किसी भी प्रकार के खाद्य का सेवन नहीं करते जो कि जानवरों के शरीर से निकाला गया हो। यानी कि दूध, दही और पनीर भी नहीं खाते। पूर्णरूपेण शाकाहारी…
अब बाज़ार में ‘वेगन चमड़े’ का भी आगमन हो चुका है। ‘पुरवाई’ के पाठक शायद हैरान हो कर सोचें कि भला बिना जानवर के चमड़ा कैसा! मगर आज से चार-पाँच वर्ष पहले मेक्सिको मे इस ‘वेगन चमड़े’ के बारे में समाचार सार्वजनिक हुआ था। इस आविष्कार के जनक दो युवा दोस्त हैं – एंड्रियन लोपेज़ वेलार्दे और मार्टे कज़ारेज़। इन दोनों ने ‘कैकटस पौधे’ से ऑर्गैनिक चमड़ा बनाने का अजूबा कर दिखाया है। ध्यान देने लायक बात ये है कि यह ’वेगन चमड़ा’ ‘सेमी बायो डिग्रेडेबेल’ भी है। इस ‘वेगन चमड़े’ में फ़ैशन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं के मुताबिक तमाम विशेषताएं मौजूद हैं।
पशु-प्रेमियों के लिये यह समाचार विशेष रूप से सुखदाई हैं क्योंकि ‘कैकटस पौधे’ से बनाए गये इस ’वेगन चमड़े’ से बनाए उत्पादों का जीवन काल दस वर्ष तक आंका जा रहा है। इससे अरबों जानवरों की जान बचाई जा पाएगी जिनका वध केवल चमड़े के उत्पाद बनाने के चक्कर में कर दिया जाता है। इस चमड़े को इस्तेमाल करते हुए किसी प्रकार का कोई अपराधबोध महसूस नहीं होगा।
एड्रियन और मार्टे ने कुछ समय तक अपने प्रोजेक्ट पर मेहनत करने के बाद इसे एक व्यवसाय बनाने के लिये अपनी-अपनी नौकरी छोड़ दी। इस प्रोजेक्ट को मूर्तरूप देने में दो वर्षों के समय लगा। जब लोगों ने इस नये उत्पाद को देखा तो वे जानवरों के चमड़े और वेगन चमड़े में कोई फ़र्क महसूस नहीं कर पाए। इस चमड़े से बने बैग एकदम ओरिजिनल चमड़े के बैग के समान ही दिखते हैं। इनकी फ़िनिश में कहीं कोई कमी महसूस नहीं होती।
एक ख़ास बात यह भी है कि जो कैकटस चमड़ा बनाने में उपयोग किये जाते हैं, वे न्यूनतम पानी का इस्तेमाल करते हुए रेगिस्तानी इलाके में उगाए जाते हैं। इस तरह पर्यावरण पर बोझ बहुत कम पड़ता है।
इन दोनों मित्रों ने चमड़े को डाई करने के लिए ‘नैचुरल डाई’ का इस्तेमाल किया है, जो पर्यावरण को नुक्सान नहीं पहुंचाएगा। इसके कैकटस के पौधे से बने होने की वजह से यह आंशिक रूप से बायोडिग्रेडेबल भी है। इस इको-फ्रेंडली मटीरियल यानी कैकटस से बने वेगन चमड़े से बने उत्पादों का दाम आम चमड़े के उत्पादों से अधिक नहीं है। इसलिये ख़रीदने वाले की जेब पर भी अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा। अब तो इससे जूते, कपड़े और कार के सीट कवर तक बनाए जा रहे हैं।
वाह तेजेन्द्र जी बहुत ही अद्भुत जानकारी वाह जी यह तो आपने बहुत ही अच्छा बताया कि वेगन लेदर भी अब तैयार हो गया है वाह और बहुत ही सुंदर और विस्तृत तरीके से आपने पूरे विषय को सभी के सामने रखा है वाह आप को बहुत बहुत ही धन्यवाद.. आप बहुत ही मेहनत करके बहुत ही अनोखे विषय पर अपनी बात को कह देते हैं वाह वाह बहुत ही आभार..
मधु जी त्वरित टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार। स्नेह बनाए रखें।
बहुत ही अच्छी नई जानकारी,संपादकीय के माध्यम से,आपको बहुत बहुत साधुवाद
हार्दिक आभार रेनू जी।
अच्छी जानकारी देता, बहुत शोध पूर्ण आलेख, बधाई और धन्यवाद माननीय सम्पादक जी।
हार्दिक आभार शैली जी।
सच कहा इंसान की खोजी प्रवर्ति नए अविष्कारों को जन्म देगी ।
प्राकृतिक संसाधनों से हम अपनी आवश्यकता पूरी करें यह सुखद बात है ।
सम्पादकीय पढ़कर लगा कि क्या ऐसा भी हो सकता है ? पर्यावरण सन्तुलन के लिए यह अविष्कार वरदान साबित होगा ।
Dr Prabha mishra
आदरणीय प्रभा जी, इस सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
धन्यवाद सर , वेगन चमड़े के विषय जानकर अच्छा लगा
अच्छी जानकारी है, साधुवाद दोनों मित्रों को जिन्होंने यह वीगन चमड़ा बनाया है। संसार में पारिस्थितिकी तंत्र थोड़ा ही सही कुछ तो बिगड़ने से बचेगा।
बहुत बहुत धन्यवाद आपका भी इसे पुरवाई के पाठकों तक पहुंचने के लिए।
निर्देश जी आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है। आभार।
आभार जवाहर।
यह तो बहुत सुखद समाचार है। सम्पादकीय के माध्यम से जानकारी देने हेतु धन्यवाद सर।
हार्दिक आभार सत्या जी।
अच्छा लगा एक नए विषय पर शोध परक तथ्यात्मक जानकारी शायद इन्ही कारणों से मनुष्य को ईश्वर की श्रेष्ठतम कृती कहा गया है तेजेन्द्र शर्मा जी आपने संपादकीय की खोजपरक विविधता की परंपरा को बनाए रखा संपादकीय पढ़ना सार्थक हुआ आभार
हार्दिक आभार महेश भाई।
मनुष्य हमेशा खोजी प्रवृत्ति के रहे हैं। बहुत अच्छा।
आभार राकेश जी।
आदरणीय तेजेन्द्र जी!
वेगन चमड़े की जानकारी आश्चर्य जनक लेकिन सुखद लगी ।जानवरों की प्राण रक्षा के साथ ही यह शाकाहारी प्रयास काबिले तारीफ है।वैसे आपका संपादकीय अच्छे झटके देता है! यह बेहद अकल्पनीय किंतु सुखद बात लगी कि शाकाहारी चमड़ा बन रहा है और उससे वे वस्तुएँ निर्मित की जा रही हैं जो जानवरों के चर्म से बनती रही। यह एक सुखद संदेश है। हमारे लिए एक जानकारी और नयी रही, वह है नरसिंह भगवान के क्रोध के शांत न होने पर वीरभद्र का शरभ रूप धारण करना जो गरुड़ ,सिंह और मनुष्य से बना था। बाघ के चर्म पर बैठने की शिव की कहानी भी आज पता चली।हो सकता है पहले कभी पढ़ा भी हो पर ऐसा कुछ याद नहीं आ रहा। बल्कि हमें आश्चर्य है कि यह बात हमें कैसे नहीं पता?हम जानना चाहते हैं कि आपको यह प्रसंग कैसे पता लगा?
धर्म और आस्था से अलग यह भी होता है कि परिवार में बच्चा बालपन से जो खाना सीखना है वही खाना उसे रोचक लगने लगता है चाहे वह आमिष हो या निरामिष।
पर धर्म भी इस पर नियंत्रण रखता है इससे इंकार नहीं किया जा सकता। हमारा पोता कौस्तुभ जब से मथुरा वृंदावन होकर आया है वह प्याज और लहसुन खाने से भी परहेज करने लगा है।
आपने कैक्टस की पूरी जानकारी उपलब्ध करवाई जिसका प्रयोग शाकाहारी चमड़ा बनाने में किया जा रहा है व कारण भी बताया कि भारत में यह क्यों नहीं हो पाता।
आपके संपादकीय ने एक बार फिर एक नया विषय दिया। इस बार के संपादकीय ने एक सकारात्मक सूचना दी है।इसके लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया ।यही वह कारण है कि संपादकीय को कम से कम हम लोग हर सप्ताह देखना चाहते हैं ।भले ही पुरवाई पत्रिका पाक्षिक हो जाए लेकिन संपादकीय साप्ताहिक रहेगा तो अच्छा लगेगा।
शुक्रिया आपका पुनः ।
आपको संपादकीय पसंद आया, हार्दिक आभार नीलिमा जी।
बहुत ही नई जानकारी है..रोचक भी.. पर्यावरण की सुरक्षा के लिए.. यह प्रयोग सराहनीय है.. हम पाठकों तक ऐसी नई विषयवस्तु पहुंचाने हेतु साधुवाद सर…
अनिमा जी हार्दिक आभार।
पत्रिका के नये कलेवर से पहले संपादकीय की यै नयी जानकारी सबको नहीं तो मुझे अघंभित कर गई। वैसे शोध निरन्तर चलनै वाली प्रक्रिया है लेकिन ऐसा सार्थक शोध जो निरीह पशुओं का जीवन बचाये और लोगों का शौक भी पूरा करे, अपने आप में सराहनीय है।
रेखा जी इस ख़ूबसूरत टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
सच में व्यक्ति खोजी प्रवृति का होता है कुछ न कुछ नया खोजता रहता है तभी तो आपकी खोजी प्रवृति इस अद्भत लेख को ला हमें परोसा। वैसे मैं जैनी नहीं हूँ पर जो वैष्णव हैं वे भी प्याज लहसुन नहीं खाते मैंने अपने होश सम्हालने के बाद कभी नहीं खाया। घर मे सब खाते हैं शायद मुझे माता जी के संस्कार मिले । वेगन चमड़ा सच में एक क्रांति है। इस जानकारी के लिए आपको कोटिशः नमन।
सर आप जब तारीफ़ करते हैं हमारे collars up हो जाते हैं
अजब गजब दुनिया और अजब गजब लोग, आपके आलेख से एक नई जानकारी मिली , धन्यवाद
हार्दिक आभार आलोक
बहुत-बहुत धन्यवाद सर यह आलेख साझा करने के लिए,वेगन चमड़े के बारे में मैंने आज पहली बार पढ़ा है… मुझे बहुत अच्छा लगा यह संपादकीय पढ़कर।
हार्दिक आभार अपूर्वा
एक अनूठा संपादकीय! जो पौराणिकता से लेकर विज्ञान और तकनीक के तत्व को समाहित करके एक नया विषय शाकाहारी चमड़ा यानी पर्यावरण मित्र और पशु मित्र के रूप में इस उत्पाद को संपादकीय में लेकर पुरवाई परिवार की सोच और उसकी मानवता पर्यावरण प्रियता सहज ही दृष्टिगोचर होती है।
प्रशंसा करने में उतना श्रम नहीं लगता जितना कि उसे सोचने समझने और काग़ज़ पर कलम के माध्यम से उतारना,एक प्रसव पीड़ा से कम नहीं।
भारत में तो इस प्रकार को सोच और ऐसे उत्पादों की महती आवश्यकता है।यहां का जन,जल और पर्यावरण सभी आभारी होंगे।
एक दमदार संपादकीय के लिए आदरणीय संपादक महोदय और पुरवाई परिवार को बधाई।
भाई सूर्यकांत जी इस सारगर्भित टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
इन्सान की खोजी प्रवृत्ति जीवित का प्राणी है बिल्कुल सत्य जैसे की आप है हर बार कुछ नया और रोचक। उसको जो कहने का आपका तरीका है मन को छू जाता है
साधुवाद
हार्दिक आभार अंजु जी।
आप वैज्ञानिक लेखन भी समान दक्षता से करते हैं। अच्छी नयी जानकारी दी आपने। आभार।
अरविंद भाई बहुत शुक्रिया।
अरे वाह वाह क्या बात। एक विशिष्ट विषय और पर्यावरण संरक्षण के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण। पहली बार जानकारी प्राप्त हुई इस पर। आदरणीय यही आपके सम्पादकीय की विशेषता है कि गाहे बगाहे आप ऐसे विषयों को लेकर आते हैं, जिनपर मैंने किसी अन्य पत्रिका में चर्चा होते नहीं देखी। साधुवाद
रिंकू इस सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
वाह, आपका एक और चमत्कृत कर देने वाला अप्रतिम सम्पादकीय। चाहे हम जितना भी आपको साधुवाद दें, कम है। पर्यावरण और पशुओं का हितैषी शाकाहारी चमड़ा। एक सर्वथा नयी खोज। यह वेगन चमड़ा भोलेनाथ का भी प्रिय आसन है, इस ओर ध्यान दिलाना भी कितना सुखद है !!!
पुरवाई परिवार बहुत भाग्यशाली है जो आप जैसे “अद्भुत पुरुष” सम्पादक के रूप में मिले। ऐसे बहुरंगी व ज्ञानवर्धक सम्पादकीय निस्संदेह अन्यत्र दुर्लभ हैं।
यह नयी खोज एक आवश्यक क्रान्ति का प्रारम्भ है।
आदरणीय शशि मैम, आप ने अपनी टिप्पणी में जो स्नेह भरा है, हमारे लिए आत्याधिक महत्वपूर्ण है। हार्दिक आभार।
Another Editorial about a subject about most people know nothing.
The manufacture of Vegan Hide from cactus plant is brilliant indeed and it is heartening to learn that this Vegan Hide is catching attention of the world as well.
We always get to collect so much more information about so many subjects we know nothing or very little about.
The reason why we look forward to your Editorials each Sunday.
Warm regards, Tejendra ji
Deepak Sharma
Deepak ji, your supportive comment always encourages us. Thanks so much!
ज्ञानवर्धक रोचक सम्पादकीय।एक ही सांस में पढ़वा लेने की क्षमतायुक्त।वीरभद्र की कथा,शिव के बाघम्बर प्रयोग का कारण शाकाहारियों के भेद और फिर शाकाहारी चमड़े के उत्पादन की कथा।साधुवाद तेजेन्द्र जी!
हार्दिक निवेदिता जी।
कैक्टस से चमड़े का निर्माण सचमुच मनुष्य की खोजी प्रवृति का नतीजा है तो है ही, आपकी भी आपने पाठकों को नई -नई जानकारी से अवगत कराने का जूनून भी।
बधाई आपको।
हार्दिक आभार सुधा जी।
तेजेन्द्र भाई: शाकाहारी चमड़े के इस सम्पादकीय के लिये बहुत बहुत साधुवाद। इस सम्पादकीय की शुरुआत जो आपने भगवान नरसिंह के रोचक अवतार को लेकर की वो बहुत ही आनन्ददायक थी। Necessity is the mother of invention. आजकल पर्यावरण को लेकर लोगों में जागृति आती जारही है और पशुओं को मारे बिना कैक्टस से वेगन चमड़े का बनाना इस बात की गवाही देता है। वेगन चमड़ा बनाने की यह टैक्नीक अब जब शुरु हो गई है तो इसका भविष्य बहुत उज्जवल लगता है। समय के साथ इस कला में अब बहुत बहुत निखार देखने को मिलेंगे। एक बार फिर, इस लेख से बहुत अच्छी जानकारी मिली है जिसके लिये बहुत बहुत शुभकामनायें।
भाई विजय विक्रान्त जी इस सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
आज संवेदनहीन होते समाज में जब मनुष्य ही मनुष्य का शत्रु बन बैठा है, और प्राकृतिक संसाधनों,वनों,जीव जंतुओं का अति दोहन कर रहा है, ऐसे में एड्रियन और मार्टे सदृश सहृय सज्जनों का यह आविष्कार उन बेज़ुबानों के लिए वरदान के समान है, जिन्हें भी ईश्वर ने जीने का हक़ दिया है,वे चाहते तो अपने दस प्रतिशत दिमाग का प्रयोग मानव व पशु पक्षी समाज के लिए विध्वंसक आविष्कारों के रूप में भी कर सकते थे, जैसा कि आज इस प्रकार के अहितकारी प्रयोगों व आविष्कारों की होड़-सी मची हुई है।
आपके इस संपादकीय के माध्यम से यह जानकर बहुत संतुष्टि हुई, कि ऐसे लोग अभी भी इस दुनिया में हैं,जो विध्वंस के स्थान पर नव प्रयोग के माध्यम से नव निर्माण का आविष्कार भी कर रहे हैं। चमड़े के प्रयोग का पौराणिक आधार, साथ ही जेन्युइन लेदर और रेक्सीन का अंतर, शाकाहारियों के विभिन्न प्रकार, सबसे महत्वपूर्ण वेगन चमड़े के कैक्टस से बने होने के कारण इसका आंशिक रूप से बायोडिग्रेडेबल और पर्यावरण के लिए भी सुरक्षात्मक होना, इससे बने विभिन्न उत्पादों का विवरण,अन्य अनेकों लाभ भी,जो वास्तव में पर्यावरण और समाज की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है,कैक्टस के पौधे सागुआरो की भौगोलिक विशेषता,एड्रियन और मार्टे द्वारा इस अविष्कार में किया गया परिश्रम और त्याग; उपरोक्त समस्त संपादकीय तथ्य अत्यंत ज्ञानवर्धक और प्रेरणास्पद हैं।
आपने बिल्कुल सही कहा कि “जब तक इन्सान की खोजी प्रवृत्ति जीवित है, कुछ ना कुछ नये आविष्कार होते रहेंगे।” यूं तो मेरी दृष्टि में भी विध्वंस का प्रत्युत्तर व उपाय निर्माण ही है,किंतु अपने ही हाथों से सर्वनाश की कगार पर बैठा मानव अब भी चेत जाए तो ही कदाचित अब भी यह संभव हो सकता है..
समसामयिक संदर्भ में अतिमहत्वपूर्ण,अनुकरणीय व प्रेरक संपादकीय के लिए आपको आभार आदरणीय।
डॉ ऋतु आपकी सार्थक टिप्पणी संपादक के लिये महत्वपूर्ण है। हार्दिक आभार।
नवीनता लिए आपकी संपादकीय अत्यंत रोचक होती है।
वेगन लेदर की इस नई जानकारी के लिए आभार, आदरणीय सर।
आपकी पोस्ट कभी कभी बड़ी महत्वपूर्ण होती है । चमड़े की नई क़िस्म का उत्पादन बड़ा रोचक व लाभदायक लगा.. मैं तो चमड़े की कोई चीज नहीं ख़रीदती । एक बार मेरी बेटी ने ख़रगोश के डेलिकेट चमड़े से बना हुआ छोटा सा पर्स दिया था । मैं जब भी वह लेती हूँ तो अपराधबोध से ग्रसित होने लगती हूँ .. अच्छा लगा पढ़कर