Friday, October 18, 2024
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कल्पना मनोरमा की तीन कविताएँ

1- अपना हिस्सा
यदि परखना है धुएँ को
तो कालिख से नहीं
उसकी उड़ान से परखो
आग से डरो मत,
बनाकर उँगलियाँ फ़ौलादी
उठा लो अँगारों के मध्य से
अपना हिस्सा
प्रारम्भ करो जीने का अभियान
सूरज उगने से पहले
ताकि जब भटकने लगे दिन
फिर भी तुम पहुँच सको
समय से अपने गन्तव्य पर
कुहाँसे वाले वातावरण से
मत खाओ भय
सोच की सतह से उठकर थोड़ा ऊपर
तुम्हें बढ़ाना ही होगा
अपनी परिधि का व्यास
उड़ना ही होगा
ध्रुवीय बिन्दु के इर्दगिर्द
जैसे चील बादलों के ऊपर उड़कर
बच जाती है सूखी
‘नैना रतनारे जादू भरे’
में फँसना ज़रूरी तो नहीं
तुम्हें रखनी होगी दृष्टि सीधी
तभी देख सकोगी अपना लक्ष्य
अपना आपा पाने की करो जिद्द
किसी और से नहीं, खुद से
रौंद कर निकल जाओ उन रास्तों को
जो खड़े हैं उठाए मुश्किलों के पहाड़
सदियों से तुम्हारे आगे
खून में घुलने दो रफ़्तार पूरी तरह
नापनी पड़े दूरियाँ
तो नापो अपने कदमों के
बीच की दूरी
दूरियाँ नापने का शौक
अकसर यहीं से शुरू होता है।
2- पीर की जाति
सुनो, सुबह को धकेलो मत
पहला कदम बढ़ाकर आगे
उठा लो भोर को अपनी गोद में
झुकना पड़े तो झुक जाओ
धरती के सीने तक
और उठा लो उन ज़िन्दा लाशों को
जिन्हें श्मशान की नौकरी तो मिली किन्तु
कब्रें नसीब न हो सकीं
छाती में गहरी धँसने दो
दर्द की कीलें
उठाने दो टीस को अपना सर
दुःख से निज़ात पाने की
मत करो सतही चेष्टा
बल्कि दर्द जब तुम्हें अकेला पाकर सताये
तो कील को हिलाओ और हिलाओ
और लगातार पीरों की जाति को परखो
जब उठने लगें पीर की हिलोरें
तब जाँचो अपनी याददाश्त
इन्हीं रास्तों के मध्य से मिलेगी
तुम्हें अभीष्ट चाल की शिनाख़्त
दर्द की चोट पर यदि डर गईं तुम
तो दर्द खा जाएगा तुम्हारा ईमान
कन्धा ढूँढना बंद करो
पीर की जाति को उसी तरह परखना होगा
जैसे परखता जौहरी हीरे को
घर में घुसने से पहले
करो तैयारी खुद से लड़ने की
नींद को छोड़ना पड़े तो
छोड़ दो दहलीज़ की दाहिनी ओर
आँचल में सहेजे रखो कर्तव्यों के गुलमोहर
गुलमोहर के फूलों का
किसी ऐरे गैरे गुलदान में सजाना मना है
गुलमोहर के लाल फूलों को दहकने दो
अपनी थकी पलकों के तले
गन्ध रहित आभा
तुम्हें तटस्थ बनाएगी
तुम पहचान सकोगी आपनी जाति ।
3- फ़िरोज़ी मफ़लर
सुनो! नवम्बर की पीली शामों में
तुम अकेले-अकेले घूमने
मत जाया करो
इस महीने की धूप छलावा है

तुम धूप की गुनगुनी
ऊँगली पकड़े चलते रहोगे,
वह दाँव देकर भाग जाएगी
अपने प्रेमी के साथ

फिर तुम्हें रास्ता
खोजने से भी नहीं मिलेगा
क्योंकि सूखे पत्तों में अक्सर नहीं, हमेशा-
गुम जाते हैं हरे-भरे पत्ते

ठहरो, कहा तो
हम चलेंगे तुम्हारे साथ
बस पिछले बरस का तुम्हारा
अधूरा फ़िरोजी मफ़लर
बुनाई के अंतिम
मोड़ पर है,
आओ करें सर्दियों की तैयारियाँ
मिलकर हम दोनों।

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2 टिप्पणी

  1. सबसे मुश्किल है कविताओं को पढ़ कर पचा कर और फिर उस पर मत प्रस्तुत करना।
    कल्पना मनोरमा जी की तीनों रचनाएं बहुत सहज और ग्रह्य हैं।

  2. मनोरमा जी!प्रारंभिक दोनों कविताएँ आक्रोश की कविताएँ हैं। स्त्रियों के प्रति जागरण और आह्वान की कविताएँ हैं। सदियों से दमित, श्रमित, शोषित, त्रसित स्त्रियों के प्रति हौसले की कविता है। कभी हार न मानकर निडरता से निरंतर अपने लक्ष्य पर पहुंँचने और उसे प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन की कविता है-
    *प्रारम्भ करो जीने का अभियान*
    *”सूरज उगने से पहले*
    *ताकि जब भटकने लगे दिन*
    *फिर भी तुम पहुँच सको*
    *समय से अपने गन्तव्य पर”*

    *सोच की सतह से उठकर थोड़ा ऊपर*
    *तुम्हें बढ़ाना ही होगा*
    *अपनी परिधि का व्यास*
    *उड़ना ही होगा*
    *ध्रुवीय बिन्दु के इर्दगिर्द*
    *जैसे चील बादलों के* *ऊपर उड़कर*
    *बच जाती है सूखी”*

    *”तुम्हें रखनी होगी दृष्टि सीधी*
    *तभी देख सकोगी अपना लक्ष्य*
    *अपना आपा पाने की करो जिद्द*
    *किसी और से नहीं, खुद से*
    *रौंद कर निकल जाओ उन रास्तों को*
    *जो खड़े हैं उठाए मुश्किलों के पहाड़*
    *सदियों से तुम्हारे आगे*
    *खून में घुलने दो रफ़्तार पूरी तरह*
    *नापनी पड़े दूरियाँ*
    *तो नापो अपने कदमों के*
    *बीच की दूरी*
    *दूरियाँ नापने का शौक*
    *अकसर यहीं से शुरू होता है।”*

    2- पीर की जाति

    इस पूरी कविता में आग है।कुछ पंक्तियां जो बहुत अधिक प्रभावित कर गईं –
    *दुःख से निज़ात पाने की*
    *मत करो सतही चेष्टा*
    *बल्कि दर्द जब तुम्हें* *अकेला पाकर सताये*
    *तो कील को हिलाओ*
    *और हिलाओ*
    *और लगातार पीरों की जाति को परखो*
    *जब उठने लगें पीर की हिलोरें*
    *तब जाँचो अपनी याददाश्त*
    *इन्हीं रास्तों के मध्य से मिलेगी*
    *तुम्हें अभीष्ट चाल की शिनाख़्त*
    *दर्द की चोट पर यदि डर गईं तुम*
    *तो दर्द खा जाएगा तुम्हारा ईमान*

    *घर में घुसने से पहले*
    *करो तैयारी खुद से* *लड़ने की*

    3- फ़िरोज़ी मफ़लर
    यह माधुर्य भाव से ओत-प्रोत संयोग शृंगार की कविता है शीत ऋतु की तैयारी के साथ।

    *ठहरो, कहा तो*
    *हम चलेंगे तुम्हारे साथ*
    *बस पिछले बरस का* *तुम्हारा*
    *अधूरा फ़िरोजी मफ़लर*
    *बुनाई के अंतिम*
    *मोड़ पर है,*
    *आओ करें सर्दियों की तैयारियाँ*
    *मिलकर हम दोनों।*
    बेहतरीन कविताओं के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ।

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