Sunday, October 27, 2024
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डॉ. कीर्ति काले की फ़ेसबुक वॉल से : एक ओर अन्न की बर्बादी – दूसरी ओर दाने-दाने को मोहताज!

अन्न की जितनी बरबादी आजकल होती है उतनी सम्भवतः पहले कभी नहीं होती थी। एक ओर जहाँ प्रतिदिन हजारों टन खाना डस्टबिन में फेंका जाता है वहीं दूसरी ओर प्रतिवर्ष हजारों लोग भूख से मर जाते हैं।
मुझे याद है पहले हाथ पाँव धोकर भोजन करने बैठते थे। 
थाली में पहली बार थोड़ा-थोड़ा खाना परोसा जाता था। वो इसलिए कि जो रुचे वो दोबारा लें, जो न भाए वो न लें लेकिन थाली में पहली बार परोसे गए व्यंजन ग्रहण कर लें। थाली में जूठा छोड़ना नैतिक रूप से गम्भीर अपराध माना जाता था।
प्रत्येक व्यक्ति मंत्रोच्चार के साथ अपनी थाली का नैवेद्य अर्पित करता था।थाली के पास ही चिड़ियों,गाय, कुत्ते और पितरों के लिए आधा-आधा ग्रास निकालता था।
फिर शांत और प्रसन्न चित्त से भोजन प्रारम्भ किया जाता था। छोटे बच्चे के लिए भी थाली में जूठा खाना छोड़ना वर्जित होता था। अनेक परिवारों में तो खाना खाने के बाद थाली कटोरी को पानी से धोकर वो पानी पी लिया करते थे। ऐसा करने का मंतव्य यही रहता होगा कि अन्न का एक कण भी बर्बाद न हो।
आजकल खाना जूठा छोड़ना फैशन बन गया है। कई परिवारों में प्रतिदिन के खाने में भी थाली में जूठा छोड़ देते हैं। फिर बचा हुआ खाना डस्टबिन में फेंक देते हैं। दिक्कत तो ये है कि डस्टबिन में खाना फेंकते हुए उन्हें कुछ भी महसूस नहीं होता।
होटलों का हाल तो और भी बुरा है। अनेक होटलों में खाने की फुल प्लेट ही देते हैं हाफ़ प्लेट देने का प्रावधान नहीं होता। जब कभी अकेले एक ही व्यक्ति को खाना हो तो फुल प्लेट अधिक हो जाती है। वेटर से यदि कहा जाए कि पैसे भले ही पूरे ले लेना लेकिन खाना हाफ़ प्लेट ही देना। तो वो कहेगा पैसे पूरे लेंगे तो खाना भी पूरा देंगे।
कवि सम्मेलन के सिलसिले में मेरी यात्राएँ बहुत होती हैं। मुझे ही नहीं होटलों में रुकने वाले प्रत्येक व्यक्ति को ये कठिनाई आती होगी।
अकेला व्यक्ति यदि साधारण दाल, सब्ज़ी भी ऑर्डर करता है तो वो उसे ख़त्म नहीं कर पाता है। हाफ़ प्लेट माँगो तो अधिकतर होटलों में मना कर दिया जाता है। खाना बच जाता है। अब उस बचे हुए खाने का होटल वाले क्या करते हैं भगवान ही मालिक है। लेकिन दिल तो दुखता है।
एक ओर अन्न की इतनी बरबादी और दूसरी ओर दाने-दाने को मोहताज हमारे भाई-बहन और बच्चे।
विवाह समारोहों में तो अन्न की इतनी बरबादी होती है जिसकी कोई सीमा ही नहीं है। आजकल बुफे सिस्टम होता है। पश्चिमी देशों में बुफे इसलिए बनाया था कि जिसको जितना खाना है स्वेच्छा से वो उतना खाना अपनी प्लेट में ले और स्वाद लेकर खाए। लेकिन हमारे यहाँ उल्टा हो गया। खाने के सौ तरह के स्टॉल्स लगने लगे। सलाद कॉर्नर, चाट कॉर्नर, पंजाबी खाना, साउथ इंडियन खाना, चाइनीज खाना, मेन कोर्स, स्वीट कॉर्नर और न जाने कितने कॉर्नर।
अधिक से अधिक वेरायटी के खाने के स्टॉल्स लगवाना स्टेटस सिम्बल हो गया है। मेहमानों की संख्या भी भयावह होती है। जैसे मंदिरों के बाहर भिखारियों की लाइनें लगती हैं वैसे हर स्टॉल पर मेहमानों की लम्बी-लम्बी कतारें लग जाती हैं। किसी स्टॉल से बिना कपड़ों पर दाग लगवाए खाना ले आना ओलम्पिक में मैडल जीतने से कम मत मानो। निमंत्रण पत्र पर छपवाया जाता है कि वर वधू को आशीर्वाद देने अवश्य आइए। लेकिन आप किसी मुग़ालते में मत रहना। यहाँ वर वधू को आशीर्वाद देना तो दूर उन्हें देखता तक कोई नहीं है। सबकी दृष्टि और दौड़ तो लम्बी कतारों में लगकर प्लेट में अधिक से अधिक खाना भरकर लाने तक होती है। 
दहीबड़े के दही में रसगुल्ला घुल-मिल कर नई डिश बना देता है। सब्ज़ी में दाल और चावलों के विभिन्न प्रकारों में रबड़ी की मिठास सरक आती है। चटनी में गिरकर गुलाब जामुन की तबीयत हरी हो जाती है। खाना स्टॉलों पर भले ही अलग-अलग सजा हो लेकिन प्लेटों में आकर वो किसी सजा से कम नहीं लगता। शादी समारोहों में आए मेहमानों की प्लेटों में भरे खाने के दर्शन कर लो तुम्हें भारत की अनेकता में एकता के साक्षात दर्शन हो जाएंगे।
मुद्दे की बात यह है कि अच्छे खासे संपन्न लोग भी भक्षण क्षमता से कई गुना अधिक भोजन अपनी प्लेट में ले लेते हैं। खाया नहीं जाता, आफरा लग जाता है। नतीजतन जूठा बच जाता है और अंततः डस्टबिन के हवाले कर दिया जाता है।
विचारणीय यह है कि खाना फेंकते हुए हमारे हाथ नहीं काँपते,हमारा जी नहीं लरजता। हमारे मन में अपराध-बोध नहीं आता। एक ओर फैशन और दिखावे के नाम पर प्रतिदिन करोड़ों टन खाने की बरबादी हो रही है तो दूसरी ओर हजारों लोग हर साल भूख से मर रहे हैं। दाने-दाने को मोहताज हैं।
मुझे लगता है अन्न की बर्बादी और भूख से मौत इन दो विपरीत ध्रुवों को जोड़ने वाला संस्कार- सेतु टूट गया है।
छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु श्री समर्थ रामदास स्वामी जी द्वारा रचित मराठी भाषा का एक श्र्लोक है।ये श्र्लोक भोजन प्रारम्भ करने से पहले हाथ जोड़कर बोला जाता है-
वदनी कवळ घेता नाम घ्या श्रीहरीचे 
सहज हवन होते नाम घेता फुकाचे 
जीवन करी जीवित्वा अन्न हे पूर्ण ब्रह्म 
उदरभरण नोहे जाणिजे यज्ञकर्म. 
अर्थात् खाना खाना केवल पेट भरना भर नहीं है अपितु ये भी एक यज्ञकर्म है।
डॉ कीर्ति काले
+91 9810098188
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4 टिप्पणी

  1. जी आजकल रेस्त्रां में अधिक खाना पैक कराने के कोई चार्ज नहीं हैं लेकिन शादी वगैरह में माले मुफ़्त दिले बेरहम, दूसरे के पैसे पर नवाबी दिखाते अतिथियों पर गुस्सा भी आता है और तरस भी बड़े निम्न स्तर पर लोग खुशी और अभिमान खोजते हैं।
    अच्छा मुद्दा उठाया

    • शैली जी प्रतिक्रिया देने हेतु बहुत बहुत धन्यवाद।ये मैंने सच्ची घटना लिखी है। अधिकांश रेस्तरां में खाना पैक करके देते हैं इसीलिए मैंने वेटर से खाना पैक करने के लिए कहा। लेकिन बहुत सों में नहीं देते। दिक्कत ये है कि फैशन के चक्कर में लोग कहते भी नहीं हैं।खाने की बरबादी होती है।

  2. आपकी चिंता बहुत जायज है कीर्ति जी! आपके लेख के पूर्वार्ध में जो लिखा है वह बिल्कुल सही है । घर में मंत्र तो नहीं बोलते थे लेकिन छोड़ने पर पाबंदी थी। उतना ही लिया जाता जितना खाना है।
    हॉस्टल में जरूर भोजन मंत्र होता था । वहाँ पर भी थाली चेक होती थी कि कुछ छोड़ तो नहीं रहे।
    मंत्र-ओम सहना भवतु…..
    अनाज फिकते हुए देखकर हमें भी बहुत तकलीफ होती है।
    लोगों को यह बात समझना चाहिए।
    हम तो खैर होटल में खाते नहीं हैं, बच्चे लोग कभी-कभी बर्थडे वगैरह पर जाते हैं ।अगर कुछ बच जाता है तो पैक करवा कर ले आते हैं। शादी वगैरह में भी उतना ही लेते हैं जितना खा सकें।
    सभी को इस संबंध में जागरूक होने की जरूरत है बनवाने वाले को भी चाहिए कि ज्यादा दिखावा न करें।
    यहाँ तो अभी जैन समाज वालों ने पेपर में निकाल दिया है कि शादी में गिने-चुने ही आइटम बनेंगे उन्होंने लिस्ट निकाल दी है कि एक मीठा, एक नमकीन, जो इस नियम के विरुद्ध जाएगा उसे हर्जाना देना होगा।
    बहरहाल एक महत्वपूर्ण लेख पर आपने सबका ध्यान आकर्षित किया । इसके लिए तो आपका शुक्रिया बनता है।

  3. नीलिमा जी धन्यवाद।
    कहीं न कहीं तो रोक लगानी ही पड़ेगी।
    अन्न की बरबादी नहीं होनी चाहिए।

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