ग़ज़ल की दुनिया में राजेश रेड्डी का नाम किसी परिचय का मोहताज़ नहीं है। देश-विदेश के मुशायरों एवं कवि सम्मेलनों में आपकी उपस्थिति हिंदी-उर्दू के फ़लक को नया विस्तार देती है। आपके शेर, कहावतों की तरह लोगों की ज़ुबान पर रहते हैं। यह हमारे लिए प्रसन्नता की बात है कि आज हम ऐसे राजेश रेड्डी की ग़ज़लें अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
1.
अब क्या बताएँ टूटे हैं कितने कहाँ से हम
ख़ुदको समेटते हैं यहाँ से वहाँ से हम
क्या जाने किस जहाँ में मिलेगा हमें सुकूँ
नाराज़ हैं ज़मीं से ख़फ़ा आसमाँ से हम
अब तो सराब ही से बुझाने लगे हैं प्यास
लेने लगे हैं काम यक़ीं का गुमाँ से हम
लेकिन हमारी आँखों ने कुछ और कह दिया
कुछ और कहते रह गए अपनी जु़बाँ से हम
आईने से उलझता है जब भी हमारा अक्स
हट जाते हैं बचा के ऩज़र दरमियाँ से हम
मिलते नहीं हैं अपनी कहानी में हम कहीं
ग़ायब हुए हैं जब से तिरी दास्ताँ से हम
क्या जाने किस ठिकाने पे जा कर लगेंगे कब
छोड़े तो जा चुके हैं किसी की कमाँ से हम
ग़म बिक रहे थे मेले में खुशियों के नाम पर
मायूस हो के लौटे हैं हर इक दुकाँ से हम
2.
हम जी रहे हैं जान ! तुम्हारे बग़ैर भी
हर दिन गुज़र रहा है गुज़ारे बग़ैर भी
सब के लिए किनारे पे होता नहीं कोई
कुछ लोग डूबते हैं पुकारे बग़ैर भी
आसान होगा मरना समझ लें जो हम ये बात
दुनिया यूँ ही रहेगी हमारे बग़ैर भी
जीते बग़ैर जीतने वालों के दौर में
कुछ लोग हार जाते हैं हारे बग़ैर भी
ऐसे भी हैं जो डूब गए दिल के साथ-साथ
दरिया में अपनी नाव उतारे बग़ैर भी
हर ह़ाल में बड़े ही रहेंगे जो हैं बड़े
वो आसमाँ हैं चाँद -सितारे बग़ैर भी
या रब ! हर इक तिलिस्म तेरी कायनात का
खुलने लगा है हम पे इशारे बग़ैर भी
3.
ज़मीं काफ़ी न थी और आसमाँ कम-कम बहुत ही कम
मिरी वुसअत को थे दोनों जहाँ कम-कम बहुत ही कम
मिरे तो रोज़-ओ-शब होते रहे हैं ख़र्च औरों पर
मिरे काम आए मेरे जिस्म-ओ-जाँ कम-कम बहुत ही कम
ख़ुदा का शुक्र, इक दूरी बनाए रक्खी दुनिया से
करम उसका, हुए हम रायगाँ कम-कम बहुत ही कम
मुहब्बत नाम है जिसका इक ऐसी आग है जिसमें
जलन भरपूर होती है धुआँ कम-कम बहुत ही कम
कहाँ सह़रा में नक़्श-ए-पा मिलेंगे हर मुसाफ़िर के
यहाँ रह जाते हैं नाम-ओ-निशाँ कम-कम बहुत ही कम
4.
दुनिया को रेशा-रेशा उधेड़ें , रफ़ू करें
आ बैठ थोड़ी देर ज़रा गुफ़्तगू करें
जिसका वजूद ही न हो दोनों जहान में
उस शय की आरज़ू ही नहीं जुस्तजू करें
दुनिया में इक ज़माने से होता रहा है जो
दुनिया ये चाहती है वही हू-ब-हू करें
उनकी ये ज़िद कि एक तकल्लुफ़ बना रहे
अपनी तड़प कि आपको तुम, तुमको तू करें
उनकी नज़र में आएगा किस दिन हमारा ग़म
आख़िर हम अपने अश्कों को कब तक लहू करें
दिल था किसी ने तोड़ दिया खेल-खेल में
इतनी ज़रा-सी बात पे क्या हाव-हू करें
दिल फिर ब-ज़िद है फिर उसी कूचे में जाएँ हम
फिर एक बार वो हमें बे-आबरू करें
आदरणीय राजेश जी!
बहुत अच्छी ग़ज़लें है आपकी। हम तो गजलों में खाली अर्थ और भाव को भी देख पाते हैं।
गजल में जो दिल में ठहर गया –
अब क्या बताएँ टूटे हैं कितने कहाँ से हम
ख़ुदको समेटते हैं यहाँ से वहाँ से हम
परिस्थितियाँ कभी-कभी ऐसी स्थिति में भी छोड़ती हैं
हम जी रहे हैं जान ! तुम्हारे बग़ैर भी
हर दिन गुज़र रहा है गुज़ारे बग़ैर भी
यह शेर कुछ अपना सा लगा।
सब के लिए किनारे पे होता नहीं कोई
कुछ लोग डूबते हैं पुकारे बग़ैर भी
वाह!
आसान होगा मरना समझ लें जो हम ये बात
दुनिया यूँ ही रहेगी हमारे बग़ैर भी
सही कहा
जीते बग़ैर जीतने वालों के दौर में
कुछ लोग हार जाते हैं हारे बग़ैर भी
वाह और वाह
ऐसे भी हैं जो डूब गए दिल के साथ-साथ
दरिया में अपनी नाव उतारे बग़ैर भी
गज़ब
हर ह़ाल में बड़े ही रहेंगे जो हैं बड़े
वो आसमाँ हैं चाँद -सितारे बग़ैर भी
बिल्कुल ।
यह गजल बेहतरीन है
3.
मिरे तो रोज़-ओ-शब होते रहे हैं ख़र्च औरों पर
मिरे काम आए मेरे जिस्म-ओ-जाँ कम-कम बहुत ही कम
यह शेर अपना सा लगा
मुहब्बत नाम है जिसका इक ऐसी आग है जिसमें
जलन भरपूर होती है धुआँ कम-कम बहुत ही कम
वाह!! वाह!!!!और वाह!!!!!!!! बहुत सही।
4.
दुनिया को रेशा-रेशा उधेड़ें , रफ़ू करें
आ बैठ थोड़ी देर ज़रा गुफ़्तगू कर
सुन्दर
दुनिया में इक ज़माने से होता रहा है जो
दुनिया ये चाहती है वही हू-ब-हू करें
यह भी सही
उनकी ये ज़िद कि एक तकल्लुफ़ बना रहे
अपनी तड़प कि आपको तुम, तुमको तू करें
सुन्दर
उनकी नज़र में आएगा किस दिन हमारा ग़म
आख़िर हम अपने अश्कों को कब तक लहू करें
गज़ब
बेहतरीन गजलों के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयां राजेश जी