Sunday, October 27, 2024
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डॉ रमेश यादव की लोककथा : औलिया फकीर – ‘जोगी बाबा’

‘जोगी बाबा’ नामक एक औलिया फकीर ‘ताड़ोबा’ जंगल में अकेले रहते थे। लंबी श्वेत दाढ़ी, बड़े-बड़े बाल, तेजस्वी आँखें, थका शरीर और शरीर पर चोगा (कपनी) पहनते थे। कंधे पर उनके एक बड़ी-सी झोली हमेशा लटकी रहती थी। दाहिने हाथ में लुकाटी और बायें हाथ में भिक्षा पात्र।  
ताड़ोबा जंगल बड़ा घना था। कई तरह के पेड़-पौधे, झाड़ियों और जंगली पशु-पक्षियों से वह भरा पड़ा था। जंगल इतना भयावह था कि आमतौर पर कभी कोई उस जंगल में जाने का साहस नहीं जुटा पाता था। ऐसे घने जंगल में ‘जोगी बाबा’ एक इंसान होकर भी बड़ी बेफिक्री से रहते थे। उन्हें जंगली हिंसक पशुओं का बिल्कुल डर नहीं था क्योंकि वे सभी उनके मित्र थे। यहां तक कि वे पेड़-पौधों से भी बतियाते थे। वनस्पतियों से औषधियां बनाने की कला में वे निपुण थे।      
जोगी बाबा की सवारी रोज सबेरे जंगल पार करती और पहाड़ी से नीचे उतरकर आस-पास के दो-चार गाँवों की ओर कूच करती। जिस घर के सामने खड़े हो जाते उस घर से उन्हें इतनी भिक्षा मिल जाती कि फिर आगे जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। गीला भिक्षा, पात्र में और सूखा भिक्षा, झोली में रखते थे। कई लोग तो उन्हें भोजन के लिए आग्रह करते पर मियां बड़ी प्यारी-सी मुस्कान के साथ टाल जाते थे। साल के बारहों महीने उनका यही नित्यक्रम था।
जंगल पहुंचकर वे एक घने बरगद के पेड़ के नीचे बैठ जाते। थोड़ा सा सुस्ताने के बाद आस-पास से पलास के बड़े-बड़े पचास-साठ पत्ते तोड़ लाते और चारो ओर फैला देते। फिर भिक्षान्न से भरी अपनी बड़ी-सी झोली और भिक्षा पात्र से अन्न निकालकर पलास के उन पत्तों पर अलग-अलग परोसते। अन्न परोसने के बाद मंत्रोच्चारण करते और ताली बजाकर आवाज लगाते,        “आओ बच्चों, खाना तैयार है।’’
जोगी बाबा की आवाज सुनते ही जंगल के पशु-पक्षी खाने पर टूट पड़ते। इनमें हर प्रकार के पशु–पक्षियों का समावेश होता था। यहां तक कि कई हिंसक प्राणी भी आते थे। इन प्राणियों में एक हिरन परिवार का भी समावेश था, जो अपने छोटे-से बच्चे (हिरनौटा) के साथ रोज खाना खाने आते थे। हिरन का वह बच्चा बड़ा ही सुंदर, गोल-मटोल और तेज तर्रार था।
एक दिन किसी दूसरे जंगल का एक शेर उस जंगल में शिकार की तलाश में आया। उसकी नजर उस हिरनौटा पर पड़ी। फिर क्या, उसका शिकार करने के लिए वह मौके की तलाश करने लगा। हिरनौटा रोज अपनी मां के साथ आता है, इस बात को शेर ने ताड़ लिया था।
एक दिन वह बच्चा कुछ पिछड़ गया और कई दिनों से उस पर घात लगाए बैठे उस शेर ने अपना दांव साधा। उस बच्चे पर उसने हमला किया और धीरे से उसे अपने मुँह में दबोच लिया। जोगी बाबा सिर झुकाए खाना परोस रहे थे। इस घटना से वे बेखबर थे। अचानक आवाज आई और जोगी बाबा की नजर उस शेर पड़ी। वे जोर से चिल्लाए, 
“अरे ! छोड़ दे मेरे बच्चे को, नहीं तो ठीक नहीं होगा।’’
जोगी बाबा जैसे संतों की आवाज में बड़ा दम होता है। तपी-तपाई करिश्माई आवाज ने अपना रंग दिखाया। कड़ी आवाज सुनकर शेर घबरा गया। उसका शरीर थर-थर कांपने लगा और उसके मुँह से हिरनौटा आजाद हो गया। जोगी बाबा की आवाज से घबराया वह शेर जंगल की ओर ऐसा भागा कि उसने पीछे मुड़कर भी नहीं देखा।
शेर की मजबूत जबड़ों और दांतों की पकड़ के कारण हिरनौटा घायल हो गया था। जोगी बाबा ने बड़े प्यार से उस बच्चे को सहलाया। जंगल की जड़ी-बूटी से औषधि बनाई। पहले घाव को धोया फिर औषधि लगाई। कुछ ही देर में उस हिरनौटे ने आराम महसूस किया और लंगड़ाते -लंगड़ाते अपनी माँ के साथ जंगल की ओर निकल गया।
दूसरे दिन एक और आश्चर्य हुआ। जोगी बाबा ने हमेशा की तरह सबको भोजन के लिए बुलाया तो अन्य पशु-पक्षियों के साथ वह हिरनौटा भी अपनी माँ के साथ लंगड़ाते हुए आया। कमाल की बात तो यह थी कि उस हिरनौटा का शिकार करने वाला वह शेर भी वहां आया था। जोगी बाबा ने उसकी नजरों में झांका तो उन्हें अपना एक नया मित्र नजर आया।
  
जोगी बाबा का यह नित्यक्रम इसी तरह कई सालों तक चलता रहा। पास-पड़ोस के गांवों के लोग भी इस बात से परिचित थे। मगर उनके लिए हमेशा यह एक आश्चर्य का विषय रहा कि अन्य प्राणियों के साथ शेर भी भिक्षा में मिले अन्न को खाने के लिए आता है। इस बात की चर्चा अब दूर-दराज के गांवों तक फैल गई थी।
एक जमींदार ने घोषणा कर रखी थी कि जो शेर और बाघों का शिकार करके लाएगा उसे वह इनाम देगा। इस इनाम के लालच में दो बड़े शिकारी एक दिन उस जंगल में आए। शिकारियों की वेशभूषा पहने और हाथों में बंदूकें ताने वे जंगल पहुंचे। इन्हें ये जानकारी पहले से ही थी कि जोगी बाबा रोज जंगल में भंडारा करते हैं और इसमें कई पशु-पक्षी शामिल होते हैं। इसलिए वे दोनों एक बड़े से पेंड़ के पीछे छिपकर बैठ गए।
जोगी बाबा के भंडारे में शेर की व्यवस्था अलग से होती थी। खाने के बाद शेर पानी पीने के लिए पास के तालाब की ओर जाता है, इस बात की जानकारी उन शिकारियों ने पहले से ही हासिल कर ली थी।
वे दोनों तालाब के रास्ते में घात लगाकर बैठ गए। हमेशा की तरह उस दिन भी शेर भोजन करके तालाब की ओर बढ़ा। फर्लांग दो फर्लांग की ही दूरी पर तालाब था। शिकार के रेंज में आते ही शिकारियों ने अपनी-अपनी बंदूकें तान ली।
शेर की इंद्रियाँ बड़ी तीव्र होती हैं। इंसान के गंध को वे दूर से ही सूंघ लेती हैं। शेर जैसे ही कुछ आगे बढ़ा और उस पेड़ की ओर आया उसे आस-पास इंसान होने की भनक लगी और वह सावधान हो गया। शिकारियों की गोलियां चली पर वह बड़ी चपलता से कूद गया और शिकारियों का निशाना चूक गया। तब शेर ने पलटवार करते हुए एक शिकारी पर हमला किया और उसे धराशायी कर दिया। मौका देखकर दूसरा शिकारी बंदूक फेंककर पेड़ पर चढ़ गया। इस शिकारी की गोली शेर की पीठ को छूकर निकल गई थी। इससे शेर अपना संतुलन खो बैठा था। शेर को अब उस दूसरे शिकारी की तलाश थी। शेर के रुद्र रूप को देखकर उस शिकारी के हाथ-पांव काँप रहे थे। वह पेड़ पर बैठा जरूर था पर बड़ा बेचैन था। 
पहले शिकारी को यमलोक पहुंचाने के बाद शेर दूसरे शिकारी की तलाश में उस पेड़ के पास जोर-जोर से गर्जना करते हुए चक्कर काट रहा था। शेर की दहाड़ सुनकर जोगी बाबा अपनी कुटिया से बाहर निकले और सीधे आवाज की दिशा में चलने लगे। बाबा ने देखा कि एक शिकारी जो राम को प्यारा हो गया था, उसके बगल में दो बंदूकें गिरी थीं। चोटिल शेर गर्जना करते हुए किसी को तलाश रहा है, इसे जोगी बाबा ने भांप लिया। वे शेर के करीब गए, उसे थपथपाया, सहलाया और उसके जख्म को पानी से धोया। औषधीय वनस्पति की पत्तियों को पीसकर लेप बनाया और उसके जख्म लगाया। कुछ ही देर में शेर शांत हो गया और हमेशा की तरह तालाब का पानी पीकर अपने रास्ते चला गया।
पेड़ पर बैठा शिकारी यह सारा दृश्य देख रहा था। शेर दूर चला गया है, इसकी तसल्ली होते ही वह नीचे उतरा और उसने जोगी बाबा के पैर पकड़ लिए। बाबा ने उसे अपने शरण में ले लिया और उससे सारी घटना की जानकारी प्राप्त की। 
“बाबा मुझे बचा लें, मैंने शेर को जख्मी किया है इसलिए मुझे वह जिंदा नहीं छोड़ेगा। मेरे खून का प्यासा हो गया है। अब आप ही मेरी रक्षा कर सकते हैं, महाराज!’’
शिकारी की दया-याचना को स्वीकार करते हुए जोगी बाबा बोले, 
“अच्छा, तुम जल्दी से एक काम करो, अपने कपड़े उतारकर मुझे दे दो और मेरे कपड़े तुम पहन लो। शेर तरोताजा होकर लौटे इसके पहले तुम यहाँ से चले जाओ।’’ 
शिकारी के पास सोचने का वक्त नहीं था। उसने तुरंत कपड़े बदल लिए। शरीर पर हरी कपनी, कंधे पर जोगी बाबा की झोली लिए वह शिकारी धीरे-धीरे जंगल से बाहर निकलने लगा।
जोगी बाबा ने शिकारी के कपड़े पहनकर सिर पर हैट लगा लिया। अपनी सफेद दाढ़ी को कमीज से ढँक लिया और हाथ में बंदूक लिए उल्टी दिशा की ओर मुँह करके उसी पेड़ के नीचे बैठ गए। कुछ ही देर में वह शेर दहाड़ते हुए पुन: उस ओर आया। उसने देखा कि जोगी बाबा जंगल से  बाहर जा रहे हैं, तो दूसरी ओर अपने शिकार को देखकर वह पेड़ के नीचे बैठे उस शिकारी पर टूट पड़ा। पल भर में ही शिकारी राम बोल गया। उसकी हैट दूर जाकर गिरी और कमीज में छिपी दाढ़ी बाहर आ गई। 
यह दृश्य देखकर शेर काफी दुखी हुआ। उसे अपनी गलती का एहसास हो गया। हजारों पशु-पक्षियों का दाता आज उसके हाथों शिकार हो गया था, इस बात से दुखी वह शेर गला फाड़-फाड़कर रूदन करने लगा। बाबा के मृत शरीर के चारों ओर वह लगातार चक्कर काटता रहा। उसकी आंखों से आंसू, थमने का नाम नहीं ले रहे थे। 
उधर जोगी बाबा के वेश में दूसरा शिकारी सुरक्षित अपने गांव पहुँच गया। गांव वालों को उसने जंगल में घटित घटना की जानकारी दी। तमाशा देखने के लिए लोग जंगल पहुंचे। वहां का नजारा देखकर सारे लोग दंग रह गए कि एक इंसान के मृत देह के पास शेर पहरा दे रहा है और फूट-फूटकर रो रहा है, ऐसे कि जैसे रात के समय कोई बिल्ली रोती है।
चूंकि, शेर वहीं मृत शरीर के चारों ओर घूम रहा था अत: कोई करीब नहीं गया। तीन दिनों तक वह शेर इसी तरह भूखा प्यासा चक्कर काटता रहा और चौथे दिन जोगी बाबा के चरणों में  उसने अपना शरीर त्याग दिया। वह भी राम को प्यारा हो गया।
उस जंगल में आज भी दो समाधियां मौजूद हैं- एक जोगी बाबा की और दूसरी उस शेर की।


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1 टिप्पणी

  1. प्रारंभ में तो ऐसा लगा कि यह राजनैतिक व्यंग्य तो नहीं? पर क्योंकि ऊपर लिखा था की लोक कथा इसलिए पढ़ते चले गए। अंत में मन बहुत द्रवित हो गया।
    संत लोग हमेशा परोपकार के लिए ही जीते हैं। काश ….काश कि जोगी बाबा उस शिकारी को भी जंगल के अंदर ही ले जाते और जब शेर आता तो दोनों की आत्मा धुल जाती। पवित्र हो जाती।
    पशु-पक्षी भी प्रेम की भाषा समझते हैं।
    समाधियों में दफ़न शेर और जोगी, दोनों की पवित्र आत्माओं को हम अपनी आत्मा से प्रणाम करते हैं।
    छत्तीसगढ़ में भी एक जगह एक कुत्ते की समाधी है।उसकी कहानी पाठ्यक्रम में थी कभी यह लोककथा हम भी रखते हैं सबके लिये।
    इस लोक कथा के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया रमेश जी!

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