ओटीटी प्लेटफार्म अब सिनेमा से होड़ ले उसे अपनी अहमियत बताने को आतुर है। ज़िंदगी के रंग जो कभी सिनेमा या पब्लिक ब्रॉडकास्टर डीडी यानी दूरदर्शन के साथ हुआ करते थे।वो अब ओटीटी प्लेटफार्म के विभिन्न चैनलों में बिखर और निखर रहे हैं और हमारा युवा भारत और सामान्य जन अब उसे अपलक निहार रहा हैं।यूं भी पहले की फिल्मों में तकनीक कम और रील और रियल लाइफ का अंतर कम सा लगता था।
बाद में तकनीक हावी हुई और फंतासी बनावटी सी लगी। ओटीटी प्लेटफार्म ने इस पर एक नया आसमान सृजित कर दिया है।इसी उपरोक्त को सच सा दिखाने का काफी सफल प्रयास है दस एपिसोड वाला,मई 2024 में अमेजॉन प्राइम मिनी टीवी पर स्ट्रीम हुआ सीरियल जमना पार– बेहतर और सरल सजीव फिल्मांकन और अभिनय सादगी से भरी साज–सज्जा, बेहतरीन कंटेंट से सराबोर और यह सीरीज हर मिडिल क्लास या गरीब वर्ग को अपनी सी लगती है।
कभी कभी किसी जगह पर अजीबोगरीब टैग लग जाता है और बस स्थाई ही जाता है फिर वो चाहे पॉश इलाके का हो या फिर सामान्य स्थान का।बस यही टैग या ठप्पा वहां रहने वालों का स्टेटस सिंबल या ब्रांड या पहचान बस बन करके रह जाता है। बस यही है इस सारे सीरियल का मजबूत आधार।सीरीज को सोलह वर्ष से अधिक उम्र के युवा देखने का टैग ठीक ही मिला है।यह ड्रामा सीरीज आज के किशोरों और युवाओं की ही कहानी है।
सीरियल का नायक जोकि रील और रियल लाइफ का तेईस वर्षीय युवा रित्विक सीहोर यानी शांतनु बंसल है। जो चार्टेड अकाउंटेंट या सीए बनने के संघर्ष में आर्टिकल ट्रेनी है और जमना पार के एक सीए फार्म में काम कर रहा है।शैंकी या शांतनु के पिता बंसल साहाब यानी वरुण बडोला स्वयं भी एक सीए हैं और सीए बनने की तैयारी का कोचिंग सेंटर चलाते हैं।उनकी पत्नी एक आम मां और गृहिणी की भूमिका में ठीक ठाक हैं क्योंकि निर्देशक प्रशांत भागिया ने यहां महिलाओं की इस भूमिका का काफी सशक्त अंदाज़ में पेश कर सकता थे,यही स्थिति बहन का रोल निभा रही कलाकर की है यद्यपि दोनों को स्क्रीन टाइम काफी मिला है।
गौरव अरोरा और जसमीत सिंह भाटिया ने पटकथा अच्छी लिखी है पर उसकी गति कहीं तेज और कहीं धीमी है।दस के दस एपिसोड बड़े ही कॉमिक अंदाज़ में सृजित हुए है यथा कुएं के मेंढक,डर के आगे जीत है,पापा कहते हैं,दिल बनाम दिमाग,फादर फिगर,एक जमनापारी सब पे भारी,घर वापसी हैं।
कहानी आर्टिकल ट्रेनी शांतनु बंसल के ऑफिस में काम करते हुए, अपनी बहन और जीजा से नोक झोंक, पापा के सीए कोचिंग सेंटर में स्टूडेंट्स की मदद करते हुए आगे बढ़ती है।जमना पार(लक्ष्मी नगर), साउथ दिल्ली और गुड़गांव की लोकेशन्स पर टिप्पणी और संवाद बहुत कुछ बयां करते हैं।
शांतनु बंसल यानी शैंकी के पिता वरुण बडोला अपने कोचिंग सेंटर के प्रतिद्वंद्वी राणा यानी बाबला कोचर के साथ प्रतियोगिता और लड़ाई से कहानी साउथ दिल्ली और गुड़गांव के चमचमाते घरों और ऑफिस में आ जाती है।शैंकी का सीए बनना और पिता का अपने कोचिंग सेंटर में उसे एमडी बनाना परंतु उसका किसी कॉर्पोरेट ऑफिस को ज्वाइन करना तत्पश्चात पिता–पुत्र का संवाद, जेनरेशन गैप और बदलते मूल्यों को परिभाषित करता है।
कॉरपोरेट की चकाचौंध में युवा प्रतिभाओं का खो जाना,सही गलत के भेद को भूल ,बस सिर्फ तरक्की के पीछे जाना और फिर गुमराह हो जाना,,,यह आज की बेहद आम समस्या है। जिसे इस सीरीज में पूरी गंभीरता से उकेरा गया है।
सीए के उत्तरदायित्वों और उनकी भूमिका की अहमियत, पैसे को कमाने और टैक्स चोरों की दुनिया के लटके झटके–रघुरमन इस प्रकरण में खूब जमें हैं।प्रतिभाशाली और क्वालीफाइड युवाओं का प्रगति हेतु शॉर्टकट ढूंढना,माता पिता से टकराव ,,,! कुल मिलाकर एक बेहतरीन सीरीज की ओर कदम बढ़ाती कहानी होती परंतु आखिरी के एपिसोड तो बस लगता है कि काफी जल्दबाजी में निपटा दिए गए हैं। बाद के एपिसोड्स में तो दर्शक ही कहानी का अंदाज़ा लगना शुरू कर देते हैं।
फिर भी फाइनेंस सेक्टर और अन्य युवाओं के साथ साथ आम जन को यह सीरीज अवश्य देखनी चाहिए और अनुभवी,पढ़े लिखे और प्रतिभाशाली लोगों को नई पहचान बनाते समय अपने आपको और काम को सोच समझ कर ही करना चाहिए।
अस्तु एक बेहरीन सीरीज है और देखना फायदे की बात है।