डॉ० ऋतु वार्ष्णेय गुप्ता
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिंदी विभाग, किरोड़ीमल महाविद्यालय
मनु पाण्डेय
शोध छात्रा
पी०एच०डी०
हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
मीरा कृष्णकाव्य रूपी नंदनवन की कल्पलता हैं; जिसमें सूर्य, विशाल अश्वत्थ-वृक्ष के समान विराजमान है। इस भक्ति की देवी का हमारी प्राचीन हिन्दी साहित्य में गौरव है; जो अपने अलौकिक महिमा से मंडित होकर आज भी कृष्ण भक्तों का कंठाधार बना हुआ है और जिसकी सुषमा प्राचीन होने पर भी चिर नवीन लगती है।
मीरा, मेवाड़ की मरुभूमि की मंदाकिनी है, भक्ति की भागीरथी हैं और कवियों की मुकुटमणि हैं। राजस्थान के रेगिस्तान में भक्तों की निर्मल धारा बहा कर क्षात्रहधर्म की भूमि को मीरा ने वृंदावन की वंदनीयता प्रदान की है। सिसोदिया कुल के वीरों ने शीश देकर हिन्दू जाति की रक्षा की। मीरा ने गिरधर गोपाल से ‘बालपन’ से ‘मिताई’ कर हिन्दू धर्म की पावन भक्ति का उज्ज्वल आदर्श उपस्थित किया। भक्ति की जो निर्मल धारा चैतन्य और बल्लभाचार्य, रामानंद और कबीर, सूरदास और नंददास आदि कृष्णभक्तों ने प्रवाहित की थी, मीरा ने उसे अपने पद प्रभाव से वेगवती बनाया। मीरा का जीवन स्वयं करुणा की धारा है तथा उनके सजल जीवन ने उनकी कविता को मार्मिक और मधुर बना दिया। ना सूर को और ना तुलसी को ना नंददास को ना हितहरिवंश को अपने उपास्य को प्राप्त करने के लिये इतना संघर्ष करना पड़ा, इतनी बाधाएँ और यातनाएँ सहनी पड़ी थीं।
श्रृंखला की कड़ियों में बंद हिंदू नारी, उस पर राणा कुल की कुलवधू युवती और सुंदरी मीरा को अपने प्यारे नंदलाल को, अपने नैनों में बसाने में, जिन बाधाओं का सामना करना पड़ा वह इतिहास के पृष्ठों पर अंकित है। सच है कि मीरा को अपने जीवन में विष का प्याला पीना पड़ा, सूली की सेज पर सोना पड़ा, परिवार और समाज की निंदा को सहना पड़ा पर अंत में सतत् संघर्षों की ज्वाला में जलकर वह वंदनीय प्रातः स्मरणीय हो गईं।
मीरा कृष्णकाव्य रूपी नंदनवन की कल्पलता हैं; जिसमें सूर्य, विशाल अश्वत्थ-वृक्ष के समान विराजमान है। इस भक्ति की देवी का हमारी प्राचीन हिन्दी साहित्य में गौरव है; जो अपने अलौकिक महिमा से मंडित होकर आज भी कृष्ण भक्तों का कंठाधार बना हुआ है और जिसकी सुषमा प्राचीन होने पर भी चिर नवीन लगती है।
मीरा को जीवित रखने में इतिहास व साहित्य इन दोनों स्तरों पर उपेक्षा की गयी थी। इसी का परिणाम है कि इतनी सदियाँ गुजरने के बाद भी इस भक्त कवयित्री के जीवनवृत्त व पदों की प्रमाणिकता, सुधिजनों के मध्य, विवाद का विषय है।
पाँच सौ बरस के लम्बे कालखंड में जनकंठों, संतों व भक्तों ने मीरा को एक सांस्कृतिक विरासत के रूप में जीवित रखा। यही विरासत लंबे समय तक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती रही।
मीरा कृष्ण की अनन्य पुकार है
तो कृष्ण मीरा का अनन्य अंतर्नाद है।
दोनों एक-दूसरे के अनन्य हैं।
अनन्य चेता: सततं यो मां स्मरति नित्यशः
तस्याहं “सुलभ:” पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिना। (श्रीमद्भगवद्गीता)
श्रीमद्भगवद्गीता को ध्यान से पढ़ें तो आप पायेंगे कि संपूर्ण गीता में ‘सुलभ” शब्द केवल एक बार ही आया है। यह “सुलभ श्री कृष्ण का आह्वान तत्व है, जिसे सुलभ करना अर्थात् चरिचार्थ करना अत्यंत दुर्लभ है, अतिशय दुर्लभ है।
“मुझे कौन पा सकता है, वही जो अनन्य भाव से मुझे भजता है। मैं केवल उसे ही सुलभ हूँ।” ऐसी अनन्यता को चरितार्थ करता एक जन्म जिसका नाम मीरा है। वस्तुतः मीरा कोई नाम नहीं है, कोई जन्म नहीं, यह किसी “भवप्रत्यय” की यात्रा है, जो पूर्णाहुति के निमित्त देह-धारित कर, कृष्ण में ही विलीन हो विदेह हो गयी। मीरा सी अनन्या इस धरा पर अन्य कोई नहीं, ऐसी अनन्यता अन्यत्र दुर्लभतम है। प्रेम, समर्पण और भक्ति का, अनन्यता के उत्कर्ष का प्रतिमान मीरा है, जो प्रेम की गहनता में आद्योपंत भीगी हुई गहनतम भक्ति का एक अनन्य समर्पण है। उत्कट पराभक्ति का अनन्य जन्म जो अपने उत्कर्ष पर जाकर निर्वाण को पाकर ही पूर्ण हुआ। समर्पण कभी आधा-अधूरा नहीं होता है और समर्पण कभी वापस भी नहीं लिया जाता। मीरा सी अनन्यता अन्य कहीं है ही नहीं। श्री कृष्ण की अनन्य भक्ति का मानवीयकरण मीरा है, अनन्य भक्त की प्रतिमान है मीरा जो “अनन्या चेताः” की कसौटी पर खरी उतरती हैं।
उधर कृष्ण यदि “अनन्य चेता:” हैं , इधर मीरा भी कृष्ण को अनन्य भाव से पुकारती हैं— बात तो एक हुई ना कि कृष्ण को मीरा सा भक्त नहीं और मीरा को कृष्ण सा इष्ट नहीं ।
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई,
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।
तात मात भ्रात बंधु अपनों न कोई,
छाडि दई कूलकी कानि कहा करिहै कोई।
संतन ढिग बइठ बइठ लोक लाज खोई, ……..
गिरधर तारो अब मोहि ।।
यहाँ मीरा की प्रेम भक्ति, विह्वलता और अनन्यता भी तो दृष्टव्य है। वस्तुत: मीरा, गीता के आह्वान की ‘अनन्य’ प्रेम पराभक्ति का प्रतिमान है, जिसकी धृति, कृति, वृति और प्रकृति सब कृष्णमय है। अचल हिमालय सी मीरा की कृष्ण भक्ति का अनन्य समर्पण का दिव्य संयोग तो देखिये जब मीरा भी तो गा रहीं हैं।
अनन्य पराभक्ति में आकंठ डूबी भौतिक सुख-दुःख से तो परे अभय में है, किन्तु अंतर्मन की व्याकुलता अपने इष्ट से मिलने की तड़प के कारण मीरा को एक पल भी चैन नहीं मिलता है।
कृष्ण से विरह की व्याकुलता और आकुलता —
आकुल व्याकुल फिरूँ रैन दिन, विरह कलेजा खाय,
दिवस न भूख नींद नहिं रैना, मुख के कथन न आवे बैना ।।
एक चित्त, एक निष्ठ, एक मति, एक गति, अनन्य भक्ति ही चेतना की मूल प्रकृति ऐसी कृष्ण प्रेम दीवानी मीरा की पीर —
हे री ! मैं तो प्रेम-दीवानी मेरो दरद न जाणै कोय,
घायल की गति घायल जाणै, जो कोई घायल होय,
जौहरी की गति जौहरी जाणै, की जिन जौहर होय,
सूली ऊपर सेज हमारी, सोवण किस विधि होय ।।
मीरा की मति, धृति और स्मृति में समाहित कृष्णतत्व ही मीरा का प्राणतत्व है। विह्वल, व्याकुल मन की पुकार, मीरा की आंतरिक सत्ता कृष्णतत्व में परिणत हो गयी। मीरा की चेतना ही चेतना से संवाद करती है मीरा के प्राण और प्राणधार श्री कृष्ण हैं—
हरि मेरे जीवन प्राण अधार
और आसरो नांही तुम बिन, तीनू लोक मंझार ।।
मीराबाई का सम्पूर्ण काव्य उनके सामाजिक सरोकारों का स्पष्ट प्रमाण है। अपने लिये जिन व्यवहारों और निर्देशों को उन्होंने अनुचित माना उनका उन्होंने विरोध ही नहीं किया, अपने अनेक पदों में खुलकर उल्लेख भी किया। इसी तरह मानव समाज को भी मीरा ने अनेक स्थलों पर अपनी कविता के माध्यम से सीख दी है। मीरा की विनम्रता उनकी कविता में प्रबल है। यदि वह लोगों को उपदेश भी देती थीं तो बात को प्राय: स्वयं पर ढाल कर कहती थीं —
भज मन चरण कंवल अविनासी
जेताई दीसे धरनि गगन बिन,
तेताई सब उठि जासी ।
मीरा कहती हैं- हे मन ! अविनाशी श्रीकृष्ण के चरण कमलों का भजन करो। धरती और आकाश के बीच जो कुछ भी दिख रहा है सब नष्ट हो जायेगा। मीरा यहाँ संसार की नश्वरता का उल्लेख कर भक्ति-भाव की श्रेष्ठता की ओर लोक का ध्यान आकर्षित करती हैं।
एक कुलीन स्त्री का लोकाचार दुर्लभ अवसरों पर ही संभव होता है। परंतु मंदिरों में भजन कीर्तन और साधु संगत का जो मार्ग मीराबाई ने खोजा, उसके कारण ही वे आमजन के नैकट्य को भी प्राप्त कर सकीं। रही-सही कसर मीरा के हृदय की अतल गहराई से निकले पदों ने, उनकी गेयता ने, उनकी सीधी–सरल भाषा ने पूर्ण कर दी। मीरा की भवाभिव्यक्ति को लोक ने हाथों हाथ, बिना किसी कठिनाई के अपनाया। इसीलिये एक मुख से दूसरे मुख तक मीरा के भजनों का गायन और प्रचार-प्रसार स्वयमेव होता गया ।
मीरा अपने भक्ति परक भजनों से जितनी लोकप्रिय हुई, उन पर हो रहे अन्यायों के प्रतिरोध को व्यक्त करने वाले उनके पदों और उनसे जुड़े चमत्कारों की किंवदन्तियों इत्यादि के कारण भी वे कोई कम चर्चित नहीं हुई–
राणा जी थे जहर दियो म्हें जाणी
जैसे कंचन दहत अगिन में, निकसत बाराँवाणी।
राणा जी तुमने मुझे जहर दिया में जान गयी हूं। विषपान फिर भी किया मीरा ने । वे आगे कहती हैं कि मैं सतायी जाने से वैसे ही खरी हो गयी हूँ जिस प्रकार सोना आग में दहकाए जाने के बाद बारह वाणी का अर्थात् खरा सोना बन जाता है। निश्चय ही अहिंसक-प्रतिरोध में बड़ी शक्ति है। कदाचित मीराबाई की इसी आंतरिक शक्ति को बहचानकर उनकी जीवन लीला के 400 वर्षों बाद, महात्मा गाँधी ने, उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा ली और भारत के स्वाधीनता आंदोलन के दौरान सत्य और अहिंसा के मंत्र भारतवासियों को देते हुये, मीराबाई को, ‘प्रथम सत्याग्रही’ कहा था। छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा, जो आधुनिक मीरा कहलाती हैं, ने मीराबाई को “मध्य युगीन नारी के विद्रोह का प्रतीक” और “कृष्ण भक्ति आंदोलन की समर्थ नायिका बतलाया था।”
अतः कल्पना की जा सकती है कि अपने युग की जिस असाधारण स्त्री ने अपने जीवन–काल के सैकड़ों साल बाद अपने विचारों से जनमानस को इतना उद्वेलित किया और सत्याग्रह का मार्ग दिखाया, उसने अपने समय में अपने आसपास के व्यक्तियों एवं समाज, विशेषकर स्त्री- समाजको कितना प्रभावित किया होगा।
सन्दर्भ ग्रंथ सूची :—
1-1958: डॉ० सी.एल. प्रभात, मीराबाई
2–1959: डॉ० विमला गौड़, मीरां के साहित्य के मूल स्रोतों का अनुसंधान
3-1962: डॉ० भगवानदास तिवारी, मीरां की भक्ति और उनकी काव्य-साधना का अनुशीलन
4-1965: डॉ० ना. सुन्दरम्, मीरा और आण्डाल का तुलनात्मक अध्ययन
5–1969: डॉ० शशिप्रभा, मीराबाई का भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन
6–1970: डॉ० कल्याणसिंह शेखावत, मीरा के प्रामाणिक प्रतिपाद्य विषय का विश्लेषणात्मक अध्ययन
7–1974: डॉ० षणमुखय्या वीरन्तय्य कण्डगुल, अक्क महादेवी और मीराबाई का तुलनात्मक अध्ययन
8-1979: डॉ० माधुरी नाथ, मीरा काव्य का गीति-काव्यात्मक विवेचन
9-1980: डॉ० लाजवन्ती भटनागर, धर्म-सम्प्रदाय और मीराँ भक्ति-भाव
10-1981: डॉ० उषाकिरण शर्मा, मीराबाई की अभिव्यंजना-शैली
आदरणीय लेखक द्वय।
एक लंबी अवधि के बाद पुनः मीरा बाई के बारे में इतना सब पढ़ना बहुत ही सुखद लगा। वैसे तो कृष्ण से जुड़े जितने भी उनके भक्त हुए हैं, सबके अपने-अपने कष्ट हैं और सब की भक्ति भी अनन्य ही है। अनन्य का अर्थ ही है कि *ऐसा दूसरा और कोई नहीं* नरसिंह जी के लिए भी कृष्ण के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं था। उनका कष्ट भी कम नहीं था।वे भी जन्मांध थे उन्होंने भी बहुत कष्ट सहे हैं। किंतु उनके साथ यह था कि जब भी उन्हें जरूरत पड़ी तो श्री कृष्ण उनके लिए हाजिर हुए। दो ऐसे प्रसंग हमें पता है। नानी जी रो मायरो में जब उन्हें सुनते हैं या पढ़ते हैं तो आँखों में आँसू आ जाते हैं।सूरदास के लिए भी कृष्ण के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं था। सूरदास जी को भी कृष्ण जी ने आँखें दे दी थीं पर उन्होंने अपनी आंखें वापस लेने का उनसे आग्रह किया वह चाहते थे कि कृष्ण की छवि को देखने के बाद उन्हें कुछ और नहीं देखना है। बस वही छवि आँखों में बस गई।राधा और गोपिकाओं के लिए भी कृष्ण की अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं था। इस तरह सब की अनन्य है। लेकिन हाँ !इसमें कोई दो मत नहीं की मीराबाई के संकट अनन्य थे उनकी परेशानियाँ, उनकी दुविधा, उनकी तकलीफ, उनका निर्णय, और उनका हौसला सब कुछ अनन्य था।
भक्ति में भाव की प्रधानता रहती है। तुलसी ने राम को दास्य भाव से भजा है। सूरदास ने सखा भाव से भजा।
समर्पण सभी में है।
मीरा ने कृष्ण को पति भाव से भजा है। इसलिए उनके हिस्से में संकट ज्यादा हैं।
उस समय बाल विवाह का प्रचलन ज्यादा था। जब बारात निकलती थी तो बड़े उत्साह से बच्चे देखने के लिए बाहर आते थे ।ऐसी ही एक बारात को देखते हुए मीराबाई बड़ी उल्लासित हुईं। माँ के पास आकर जिद कर बैठीं कि मेरा दूल्हा कौन होगा? माँ उस समय पूजा कर रही थीं। कृष्ण की मूर्ति उनके हाथ में थीं। टालने की दृष्टि से कह दिया कि यही तुम्हारे दूल्हा हैं।
बाल मन में यह बात बैठ गई और वह शादी के बाद कृष्णमूर्ति को अपने साथ ले आईं। उन्होंने उस मजाक को सच में ही लिया और कृष्ण भक्ति में लीन हो गईं।
उनका पारिवारिक परिवेश उनके लिए संकट का कारण बना।
*मीरा कृष्ण की अनन्य पुकार है*
इस पंक्ति को हमने कई- कई बार पढ़ा।
यह पंक्ति हमें सकारात्मक अर्थ देती नहीं लगी।
यहाँ पर तो हम दुविधा में ही रहे। क्योंकि
कृष्ण के लिए पुकार कोई व्यक्ति विशेष हो ही नहीं सकता। उसकी पुकार तो सिर्फ भक्ति है।
भक्ति में ही इतनी ताकत और आकर्षण या कहें सम्मोहन है कि वह कृष्ण को खींच लाती है; फिर चाहे वह सुदामा हो, नरसिंह दास हो या फिर मीराबाई हो।
कृष्ण के लिए सिर्फ उनके प्रति अनन्य भक्ति भाव महत्वपूर्ण है, समर्पण प्रमुख है व्यक्ति नहीं ।और जो- जो अनन्य भक्ति उनके प्रति करेगा वह उनका है। और वो कई हो सकते हैं। सिर्फ एक नहीं।
*तो कृष्ण मीरा का अनन्य अंतर्नाद है।*
कृष्ण मीरा का अंतर्नाद भी हैं और पुकार भी ।
यहाँ हम आपकी बात से संतुष्ट नहीं हैं।
जितने भी पद आपने इसमें उदाहरण के लिए दिए हैं, सभी बहुत अच्छे हैं और लगभग सभी हमारे पढ़े हुए भी हैं। मीरा के पदों से मीरा की पीड़ा का एहसास होता है।
राजस्थान हमारे रग रग में रचा बसा है। मीरा बाई से तो साहित्यकार के रूप में दोहरा रिश्ता है।
आपने जिन-जिन संदर्भों का उल्लेख किया है, काफी लंबी लिस्ट है। हमने उसे भी पढ़ी। पर फिर भी सबके अपने-अपने मत होते हैं।
विश्वास है कि आप इस बात से बुरा नहीं मानेंगे।
सादर
मीरा पर लिखकर जो प्रसन्नता दी उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।