सुनो प्रिये
उसे, जिसे मैंने
कहा ही नहीं
कहूँ कैसे
जब तुम यहाँ नहीं
पर तुम क्या हो
तन मन या आनंद
तन हो तो, नश्वर हो,
मन हो, तो चंचला हो
यदि आनंद हो तो कौन सी
वासना, प्रेम या मोह
सती की साधना हो या
शिव का अटूट ध्यान
जिसमें केवल तुम ही तुम हो
सुनो ओफिलिया* बन
तुमने ने सत्य जाने बिना
मुझ हैमलेट* को दोषी माना
या संगम नगरी प्रयाग
में भारती जी* की सुधा* हो
माना मेरे अंतर भी
चन्दर* है
जिसे पम्मी* का मोहपाश
बांध लेता है, भटकाता है
संसार से परे मैं भी तो नहीं
राधा सम अनवरत
प्रतीक्षा करना क्या संभव है
मैं राम नहीं, जो तुम से
एकनिष्ठ प्रेम का प्रमाण माँगू
पर सती सम क्या
शिव ध्यान में
शिव प्रतीक्षा में
सदियों युगों तक
साधना कर सकती हो
जो कहाँ मैंने
जिसे तुमने सुना नहीं
वो इस व्योम के अनंत में
समाया मौन ही है
उस मौन में तुम्हारा ही
यशोगान गुंजित है
जिसे कोई राधा, सती ही सुन सकती है
वह निष्काम है,अनन्य है
उस प्रेम की धारिणी है
जो समय सीमा से परे है
*संजय अनंत*
** हेमलेट, ओफिलिया शेक्सपीयर के अमर नाटक *हेमलेट* के पात्र
**सुधा, चन्दर, पम्मी धर्मवीर भारती की कालजयी कृति गुनाहो के देवता के पात्र
2. नमक की खान
नमक की खान में
नमक से लथपथ
गिरता बिखरता ,
फिर अपने को समेटता
चलता वही राह
जिस पर सब चल रहे
मानो यही जीवन लक्ष्य
नमक ही सच ,
नमक ही बना मर्यादा
नमक ही रिश्ता, नमक ही नाता
बोलो कौन नहीं स्वीकारता
कड़वा सच यही
अब हमारे अंतर बाहर
सब कुछ नमक ही है
वे बली धरा पर शेष नहीं
जो नमक की खान में
नमक नहीं हुए
न डरे न सहमे
बढ़ते रहे, राह अपनी चलते रहे
कवियों के यश गीत
करते जिनका चारण
ये विरले ही काल के पन्नों पर
छोड़ जाते अपने पद चिन्ह
‘मैं’ ‘मेरे’ के सम्मोहन में
जकड़ा नमक हो चुका
लालच ईर्ष्या में गल चुका
दे, ये कुछ नहीं सकता
डरता है धरा पर एकांगी होने से
धारा के साथ बहना ही
मान लिया जिस ने श्रेष्ठ
भीड़ में सब ऐसे ही
कड़वा किंतु
सच इतना बंधु
तन में रक्त के साथ
नमक हो चुका समाहित
नमक की खान में
शनैः शनैः
हम सब नमकीन हो गए
3. अश्रु जल
अश्रु जल का क्या है
कब कहाँ क्यों छलकेगा
नहीं कह सकते
कभी रोटी के लिए
कभी बेटी के लिए
सब कुछ होने पर भी
कुछ नहीं होने पर भी
अकेले में भी
और मेले में भी
अश्रु जल की कोई जात नहीं
कोई रंग-रूप, कद-काठी नहीं
मंदिर में छलक सकता है
मस्जिद में सज़दा करते भी
तुम बँटे हुए हो
पर वो सब की आँखो में
एक सा ही है
कभी खुशी में बहता है
तो कभी तुम्हारी निराशा को
शब्द प्रदान करता है
उसका बहना और रुकना
तुम्हारे वश में नहीं
वो सब में समाया
ब्रह्म की तरह
पर प्रगट होता है
अपनी इच्छा से
वो रूप-रंग में नहीं
भावना में बसता है
उसे किस नाम से पुकारते हो
क्या फ़र्क पड़ता है
जो तुम्हारे लिए
अश्रु जल या आँसू है
किसी और के लिए
‘आब ए चश्म’ है,
तमिल के लिए ‘कन्नीर’
तो बंगाली के लिए ‘ओश्रु’ है
अंग्रेज़ों की आँखों का टियर्स
स्पेनिश की आँखों से बहने वाला ‘लेग्रीमस’ ही तो है
नाम-शब्द उसे बयाँ नहीं करते
वो तो अपनी बात ख़ुद कहता है
जब आँखों से निकलता है
न जाने कितने महाकवि
महाकाव्य रच गए
जब हृदय मन के भाव
तुझ में मिश्रित हो
आँखों से छलके
शायद ब्रह्म की तरह
तू रंग-रूप भाषा-प्रान्त
लिंग जाति में भेद नहीं करता
सब में एक स्वरूप है
बिछड़ते बेटे को देख
माँ की आँखो से छलकता है
सिंह का ग्रास बनते
मृग-छौने को देख
बेबस हिरणी की
आँखो से छलकता है
यही एकरूपता उसे महान बनाती है
ईश्वर का प्रतिरूप बनाती है
संजय जी हमने आपकी तीनों कविताएं पढ़ें आपकी तीसरी कविता हमें ‘+अश्रु जल”सबसे ज्यादा अच्छी लगी.
बहुत-बहुत बधाई आपको।
नीलिमा जी आभार
आप ने समय निकाल कर हमारी कविताओं को पढ़ा
अश्रु जल लोकप्रिय हुई है, अनेक मित्रो का आशीर्वाद मिला है