आदरणीय अजय जी!कविता को पढ़कर एक पल के लिए हम खामोश हो गए। हमें समझ में ही नहीं आया कि इस कविता के बारे में क्या लिखा जाए।
पहले टीवी फिर मोबाइल ने पुस्तकों से सभी को दूर कर दिया है। हम लोगों के समय तो पुस्तकें ही सब कुछ थीं। मनोरंजन का साधन, सीखने का जरिया, और सबसे अच्छा मित्र। समय बिताने का सबसे बड़ा साधन। किताबों का ऐसा नशा था कि की बार बिना उबासी के रात बीत जाती थी अगर कोई अच्छी किताब या कहानी आपके हाथ में हो तो। लेकिन यह सही है कि बिना ईश्वर की किताबें छपती नहीं और जो छप जाती हैं। उन्हें पढ़ने वाला कोई नहीं है।
आपकी कविता को पढ़कर सच में बहुत अधिक दुख हुआ लेकिन इस विषय में कुछ भी किया जाना संभव नजर नहीं आता।
आपकी पीड़ा महसूस हुई। एक ही रचना आपने दी है लेकिन वह कम प्रभावशाली नहीं।
शुक्रिया आपका और प्रस्तुति के लिए तेजेन्द्र जी का भी शुक्रिया।
पुरवाई का आभार।
आप प्रकाशक हैं, सच्चाई जानते होंगे, लेकिन प्रकाशन में रिश्वत? आज के ज़माने में? आज तो प्रकाशक राह देखते हैं कि कोई तो आ जाए प्रिंट करवाने…
एक search google पर करने से ही जाने कितने प्रकाशकों के messages आ जाते हैं…
कम से कम कीमत पर प्रकाशक पुस्तक छापने को तैयार हैं, वो भी जानते हैं कि कुछ ही दिन हैं जब print media चल रहा है अन्यथा एक sunset industry है, कब बंद पड़ जाए कोई नहीं जानता। ऐसे में यह रचना समयानुकूल नहीं लगी, क्षमा कीजिएगा।
अजय कुमार की यथार्थपरक कविता।
जो बिन रिश्वत बड़ा बना हो,
ऐसा कोई नहीं मिला!
वाह!
आदरणीय अजय जी!कविता को पढ़कर एक पल के लिए हम खामोश हो गए। हमें समझ में ही नहीं आया कि इस कविता के बारे में क्या लिखा जाए।
पहले टीवी फिर मोबाइल ने पुस्तकों से सभी को दूर कर दिया है। हम लोगों के समय तो पुस्तकें ही सब कुछ थीं। मनोरंजन का साधन, सीखने का जरिया, और सबसे अच्छा मित्र। समय बिताने का सबसे बड़ा साधन। किताबों का ऐसा नशा था कि की बार बिना उबासी के रात बीत जाती थी अगर कोई अच्छी किताब या कहानी आपके हाथ में हो तो। लेकिन यह सही है कि बिना ईश्वर की किताबें छपती नहीं और जो छप जाती हैं। उन्हें पढ़ने वाला कोई नहीं है।
आपकी कविता को पढ़कर सच में बहुत अधिक दुख हुआ लेकिन इस विषय में कुछ भी किया जाना संभव नजर नहीं आता।
आपकी पीड़ा महसूस हुई। एक ही रचना आपने दी है लेकिन वह कम प्रभावशाली नहीं।
शुक्रिया आपका और प्रस्तुति के लिए तेजेन्द्र जी का भी शुक्रिया।
पुरवाई का आभार।
आप प्रकाशक हैं, सच्चाई जानते होंगे, लेकिन प्रकाशन में रिश्वत? आज के ज़माने में? आज तो प्रकाशक राह देखते हैं कि कोई तो आ जाए प्रिंट करवाने…
एक search google पर करने से ही जाने कितने प्रकाशकों के messages आ जाते हैं…
कम से कम कीमत पर प्रकाशक पुस्तक छापने को तैयार हैं, वो भी जानते हैं कि कुछ ही दिन हैं जब print media चल रहा है अन्यथा एक sunset industry है, कब बंद पड़ जाए कोई नहीं जानता। ऐसे में यह रचना समयानुकूल नहीं लगी, क्षमा कीजिएगा।
एक कड़वा सच है। कुछ खास चुनिंदा लोग उन्ही के बीच का सच। बहुत बहुत साधुवाद अजय जी