यूँ न खुद को असहाय मानो
अपने होने का पर्याय मांगो
उठो जागो और न्याय मांगो
नारी हो कोई गुड़िया नहीं
कागज की कोई पुड़िया नहीं
वक्त चीख़ कर कहता है
इतना भी कोई सहता है?
सुरक्षा का तुम अध्याय मांगो
उठो जागो और न्याय मांगो
नपुंसक से उम्मीद न करो
बहुत हो गया और न डरो
प्रेम, करुणा वो क्या जाने
दया भाव में न माने
विचार जिनके दूषित हैं
संस्कार जिनके प्रदूषित हैं
आवाज दो और सहाय मांगो
उठो जागो और न्याय मांगो
कृष्ण अब नहीं आएंगे
न जामवंत बतलाएंगे।
गांडीव खुद ही संभालो तुम
और आश्रय मत पालो तुम
रणभूमि करती पुकार है
ये बेबस माँ की गुहार है
कुछ न इंसाफ के सिवाय मांगो
उठो जागो और न्याय मांगो
उठो जागो और न्याय मांगो।
अच्छी और प्रेरणादायक कविता है आपकीआनंद जी! लेकिन आजकल न्याय मांगने से मिलने नहीं है छीनना पड़ता है। स्थितियां कुछ ऐसी ही बन रही हैं। फिर भी कविता अच्छी है। लड़कियों को जागरूक रहने की बहुत ज्यादा जरूरत है। अपने बचाव के लिए कुछ शस्त्र रखने की भी आजादी होनी चाहिये।
बधाइयां आपको
समीचीन संदर्भ को मजबूती से उकेरती रचना।
बधाई हो।
अच्छी और प्रेरणादायक कविता है आपकीआनंद जी! लेकिन आजकल न्याय मांगने से मिलने नहीं है छीनना पड़ता है। स्थितियां कुछ ऐसी ही बन रही हैं। फिर भी कविता अच्छी है। लड़कियों को जागरूक रहने की बहुत ज्यादा जरूरत है। अपने बचाव के लिए कुछ शस्त्र रखने की भी आजादी होनी चाहिये।
बधाइयां आपको