ध्यान की गम्भीरता में बैठे हुए एक मौन प्रेमी हैं बुद्ध वह सृष्टि की प्रत्येक प्रेयसी को स्वतंत्रता से दूर जाने की अनुमति देते हैं किन्तु उनकी करुणा उन प्रेमिकाओं को पुनः प्रत्यावर्तन का आमंत्रण भी प्रदान करती है
उन के अंतःकरण में प्रवाहित है असीम अनुराग की सरिता प्रत्येक विमुख आत्मा को वह अपने चीवर में समाहित कर लेते हैं जैसे तट की अशांत लहरों को सागर आश्रय देता है पुनः पुनः अनवरत
बुद्ध का प्रेम तटस्थ है न वह रोकता है, न खींचता है किंतु, प्रत्येक वापस लौटी हुई प्रेयसी को आलिंगन करने का असीम अनुराग रखता है
ये निशब्द प्रेम कितना निस्संग और निस्पृह समस्त बंधनों से मुक्त प्रस्थान और आगमन से परे जो बस प्रतीक्षा करना जानता है
हमने इस कविता को तीन-चार बार पढ़ा। पता नहीं क्यों हमें प्रेमी शब्द बुद्ध के लिए खटक रहा है अनुजीत जी! बुद्ध मानवमात्र ही नहीं,प्राणी मात्र के प्रति अपनी करुणा के लिए जाने जाते हैं।करुणा में जो प्रेम रहता है वह दूध में चीनी की तरह घुला हुआ होता है।उसे अलग से नहीं देखा जा सकता।
वह कभी भी व्यक्तिगत नहीं होता। हम समझने की कोशिश कर रहे थे कि आप इस कविता में कहना क्या चाह रही हैं। वैसे कविता अच्छी है। बधाइयां आपको।
हमने इस कविता को तीन-चार बार पढ़ा। पता नहीं क्यों हमें प्रेमी शब्द बुद्ध के लिए खटक रहा है अनुजीत जी! बुद्ध मानवमात्र ही नहीं,प्राणी मात्र के प्रति अपनी करुणा के लिए जाने जाते हैं।करुणा में जो प्रेम रहता है वह दूध में चीनी की तरह घुला हुआ होता है।उसे अलग से नहीं देखा जा सकता।
वह कभी भी व्यक्तिगत नहीं होता। हम समझने की कोशिश कर रहे थे कि आप इस कविता में कहना क्या चाह रही हैं। वैसे कविता अच्छी है। बधाइयां आपको।