स्कूल के दिन बड़े ही मूल्यवान होते हैं। जैसे हिंदी साहित्य के विभाजन में भक्तिकाल को स्वर्ण युग कहा जाता है, ठीक उसी प्रकार जीवन की अल्पायु में वह समय स्वर्णकाल सा उम्र भर के लिए मानो दिलोदिमाग़ में छा सा जाता है। उम्र के साथ-साथ होने वाले अहसास व अनुभव जीवन को देखने का दृष्टिकोण ही बदल देते हैं। किशोर उम्र युवावस्था की ओर बढ़ता हुआ पहला कदम है। यह उम्र दुनिया को अपनी नज़र से देखना चाहती है, अपनी दृष्टि से, अपने अनुभवों के आधार पर सबको पहचानने और समझने की कोशिश करती है।
किशोरावस्था में कदम रखते ही लड़कियों को सजने-संवरने व तैयार होने के बाद शीशे में अपने को देखते रहने का मन करता है। एक नई उमंग, एक नई तरंग रहती है। बहुत हँसना, बहुत बातें करना, बहुत मस्ती करना, अच्छा लगता है। जोकि स्वाभाविक भी है। हर पल को आनंद से जीने की चाहत होती है।
बचपन से आँख-मिचौली के बीच अठखेलियाँ करते, शरारतें करते, धीरे-धीरे कब लज्जा प्रवेश कर गयी, पता ही नहीं चला।
अचानक हृदय की गहराइयों से आवाज़ें आती हैं कि “तुम बड़ी हो रही हो, तुम बड़ी हो गई हो!”
यही वह आवाज़ है जो विवेक को जाग्रत करती है और वही विवेक अपना अच्छा-बुरा, सही-गलत; सब कुछ समझाते हुए मार्गदर्शन करता है। अपन किसी को भी सुनते समय, स्वयं बोलने के पहले, हर कार्य को करने के पहले सोचने-समझने की कोशिश करते हैं। अपने दायरे में आने वाले उत्तरदायित्वों के प्रति जागरुक और सजग-सचेत होते हैं। संसार का आकर्षण हमें अपनी ओर खींचता है और हमारा विवेक फूँक-फूँककर कदम रखने की बात कहता है।
किशोरावस्था में स्कूल का समय ही स्वर्णिम होता है, विशेष तौर पर 9वीं से लेकर 12वीं तक। हमारे समय में तो स्कूल का एक साल कम ही था, तब 11वीं तक ही था। उस समय 9वीं से ही ऐच्छिक विषय लेना पड़ता था। ऐच्छिक विषय हम तीन साल पढ़ते थे। और कहीं का तो नहीं पता लेकिन वनस्थली में संस्कृत, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, गणित और एक विषय कला का होता था, उसमें टेलरिंग, संगीत, पेपरमशी और ड्राइंग का तो याद है, पर मिट्टी के खिलौने बनाना और कपड़ों को रंग के डिजाइन बनाना, यह सब भी था।
10वीं में हम लोगों की दो परीक्षाएँ होती थीं। इन पाँच विषयों की बोर्ड परीक्षा, जो पहले हो जाती थी, मार्च में। फिर हिंदी और इंग्लिश और तीन सब्जेक्ट का लोकल एग्जाम अप्रैल में होता था।
वह समय उम्र भर के लिए मानो दिल और दिमाग में ठहर जाता है। उम्र के साथ-साथ होने वाले अहसास वह अनुभव! बहुत कुछ बदल देते हैं। एकांत के क्षणों में पवन वेग से उड़ता मन जब भी कहीं जाने की इच्छा रखता है, तो राजस्थान के रेगिस्तान में वनस्थली के अपने स्कूल की छाया में ही पनाह पाता है; जहाँ हमारा बचपन पल्लवित-पुष्पित हुआ। बचपन की नादानियाँ कब छूटीं और भावनाओं की तंद्रा ने अंडों को तोड़ बाहर निकल, परिंदों की तरह पंख कब फड़फड़ाए और कब उन्हें आकाश में उड़ते हुए विहंगों की तरह स्वतंत्रता दी, जहाँ हमारा विवेक जाग्रत हुआ, अपनी कठिनाइयों से लड़ने की ताकत व प्रेरणा मिली, आगे बढ़ने की हिम्मत और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दृढ़ता जहाँ से प्राप्त हुई, पता ही नहीं चला। वह वास्तव में स्कूल ही तो है। यह सब स्वर्गिक आनंद से कुछ कम नहीं। हम लोगों के शिक्षक हम लोगों के लिए शिक्षक नहीं थे, वे सब गुरु थे। जिन्होंने जीवन जीने की प्रेरणा दी। जीवन को एक युद्ध मानते हुए उसके लिए हम लोगों को तैयार किया; और इसके साथ ही एक अच्छा इंसान बनाया नहीं, गढ़ा और उसे सँवारा। हम लोगों ने जीवन में हारना नहीं सीखा, फिर चाहे जैसी भी स्थितियाँ रही हों। हर स्थितियों से हँसते हुए लड़ना, झेलना, और भूल जाना हम लोगों की फ़ितरत रही।
कुछ लड़कियाँ ऐसी भी रहती थीं, जो थोड़ी तेज थीं। चिड़चिड़ा स्वभाव था। झगड़ती भी बहुत थीं और कह देती थीं कि बात मत करना, लेकिन हमको कोई फर्क नहीं पड़ता था। हम कह देते थे कि “तुम्हें ऐतराज है, तो तुम बात मत करो। हमें कोई ऐतराज नहीं, हम तो बात करेंगे। फिर वह जिस-जिस बात के लिए मना करती, उस-उस काम को हम ज़रूर करते। हम कह देते थे कि “तुमको जितना लड़ना है तो लड़ लो, जो बोलना है बोल दो। हम सुन रहे हैं चुपचाप। जब गुस्सा शांत हो जाए तो लड़ाई भूल जाना, पर भूलकर भी मत सोचना कि तुम कट्टी ले लोगी और हम बात नहीं करेंगे।” हमारी कट्टी का मतलब बात बंद करना कभी नहीं होता था। नाराजगी अपनी जगह है।
हमसे कोई वैसे कितने ही दिन, महीनों बात ना करे, लेकिन अगर नाराज़गी में कोई बात नहीं कर रहा है तो उसकी वह ख़ामोशी हमें एक पल के लिए भी सहन नहीं होती थी और आज भी यह स्वभाव ज्यों का त्यों है। इसीलिए अपनी गलती का अहसास होते ही हम माफी माँगने में एक पल की भी देरी नहीं लगाते।
आज भी किसी अपने पर भी हमें गुस्सा आता है तो हम कट्टी कह देते हैं। हमारी कट्टी का मतलब बात बंद करना कभी नहीं होता। हमारे लिए यह एक मीठे उलाहने से ज्यादा और कुछ नहीं है।
हमारी कट्टी पर कुछ साल पहले हमारी एक साहित्यिक मित्र ने हमारे लिए कविता ही लिख भेजी थी। पर वह अभी नहीं।
छात्रावास में रहते हुए भी हमारी इस आदत को, हमारे साथ रहने वाली लड़कियाँ प्राय: सब जानती थीं।
11वीं के बाद स्कूल को छोड़ना होगा, यह बात सबसे ज्यादा तकलीफ़ दे रही थी। एक अजीब सी बेचैनी थी। एक विचलन सा था, दिमाग़ में।
उस समय वनस्थली में आज की तरह कोई रेस्टोरेंट नहीं थे। सिर्फ एक स्टोर था जहाँ अपने जरूरत की सामग्री मिलती थी, खाने के लिए अधिक से अधिक बिस्कुट और चॉकलेट, सिकी हुई मूँगफली और गुड़। 12 आने में ढेर सारी मूँगफली आ जाती थीं और चार आने में मूँगफलियों के हिसाब से पर्याप्त गुड़। मूँगफलियों को वनस्थली का मेवा कहा जाता था।
फल की दो दुकानें थीं, कपड़े की तो शायद एक ही दुकान थी और दो टेलर थे। एक का नाम तो अभी याद है उन्हें हम सब ‘जगदीश जी’ नाम से जानते थे। बड़ों का नाम लेना, हम लोगों ने नहीं सीखा था। उस समय हम लोगों के लिए बाहर की दुनिया बस इतनी ही सीमित दायरे में थी।
कॉलेज के हॉस्टल में रहने की व्यवस्थाएँ व नियम शायद कुछ अलग थे और स्कूल के अलग।
स्कूल के जीवन में एक अनुशासन होता है। पूरी समय-सारणी एक नियमावली से बँधी होती थी। निश्चित समय पर उठना, नहाना-धोना, पढ़ना, नाश्ता, भोजन, स्कूल जाने का नियत टाइम-टेबल; खेल व्यायाम; पर कॉलेज में ऐसा नहीं होता था। कॉलेज में पीरियड्स के हिसाब से क्लास लगतीं। दो पीरियड के बीच में लंबा गैप होने पर हॉस्टल भी आ सकते थे और फिर जा भी सकते थे। इस तरह कॉलेज जाने-आने के फिक्स टाइम-टेबल नहीं होते। पीरियड्स के हिसाब से आना-जाना होता था।
एक तो, यहां एक संपूर्ण क्लास कहीं भी नहीं होती। सब्जेक्ट वाइज़ फ्रेंड्स होतीं। दूसरे, कोई भी कार्यक्रम आपकी अपनी इच्छा पर निर्भर होते थे। सीखना हो तो आपकी मर्ज़ी ना सीखना हो तो भी आपकी मर्ज़ी।
स्कूल का विदाई समारोह भुलाए नहीं भूलता। हम लोगों के लिए वह किसी वैवाहिक समारोह से कम ना था। फे़यरवेल की तैयारी के प्रारंभ से ही मन बुझा-बुझा सा हो जाता है। अजीब सी निराशा, दुःख, लाचारी और बेचैनी महसूस होती थी। बड़े होने या स्वतंत्रता का सुख उतना सुख नहीं देता था, जितना स्कूल से विदाई के दुःख का अहसास। ज़िंदगी एकदम बदल जाती है, सहसा मन उसे भूलने के लिये तैयार नहीं हो पाता।
अक्सर फ़रवरी माह के अंत में फे़यरवेल होती थीं। पहले से ही तैयारियों में जुट जाती थीं 10वीं की बहनें। क्योंकि उन पर दो एग्जाम का उत्तरदायित्व था। सबसे महत्त्वपूर्ण था टाइटल बनाना। सब एक साथ एक हॉस्टल में रहते थे। हर क्लास के अलग-अलग चौक थे। सामान्यतः सीनियर छात्राएँ जूनियर के पास अकारण नहीं जाती थीं और जूनियर भी नहीं आती थीं। बड़ा अदब था जूनियर-सीनियर का। नाम नहीं लेती थीं। दीदी या नाम के आगे ‘जी’ लगाकर बात करते। सीनियर आतीं तो खड़े होकर सम्मान देतीं, बैठने को कहतीं तभी बैठते। कोई लड़ाई नहीं, एक स्वाभाविक प्रेम,अदब, कायदा, बिना किसी के नियमित किये हवा सा संचरित था। रक्षाबंधन पर राखी भी बाँध लेते एक दूसरे को। यह सच्चे प्रेम का, स्नेह का बंधन रहता। जूनियर भी अपनी प्रिय सीनियर को बाँधतीं थीं। एक भाई की तरह वे उसका पढ़ाई में, बीमार होने पर या किसी अन्य मुश्किल में साथ देतीं।
हर तरह के लोग हर जगह होते हैं। कुछ ग़लत बैकग्राउंड की लड़कियाँ भी होती थीं; जो सबके लिए सिरदर्द हुआ करती थीं। बाद में भले ही निकाल दिया जाए, पर जब तक वे साथ रहतीं तो तालाब में गंदी मछली की तरह ही होती थीं। वे भी किसी समस्या से कम नहीं होती थीं। रक्षाबंधन की सुरक्षा भावना उससे भी जुड़ी थी। बहुत कुछ ऐसा था जो पीछे छूट रहा था, स्कूली जीवन के साथ। ऐसा लगता था जैसे अब जीवन की हर लड़ाई में अपना रास्ता स्वयं तय करना है। हालांकि बिल्कुल ऐसा ही हो, ऐसा नहीं था पर जो अलग था वह खटकता था।
स्कूल के प्रति अधिक लगाव का एक मुख्य कारण यह भी रहता है, कि 9वीं क्लास की उम्र से ही हारमोंस परिवर्तन प्रारंभ होते हैं। हमारे चरित्र को यह उम्र बहुत प्रभावित करते हैं। स्कूल की यादें इसीलिए महत्त्वपूर्ण होती हैं। हमारे भविष्य का बनना और बिगड़ना बहुत कुछ इस समय पर निर्भर रहता है।
फे़यरवेल के लिए हर लड़की के चरित्र के, स्वभाव के, गुण के अनुरूप टाइटल, फ्री पीरियड में लाइब्रेरी में बैठकर चयन किया जाता या किताब लाइब्रेरी से ले आते। उनमें से बड़े-बड़े कवियों की अच्छी-अच्छी कविताओं से, सूत्र वाक्य से और कुछ अपने मन से भी बना कर, अगर किसी के स्वभाव में या चरित्र में एक भी गुण है तो कोशिश यह रहती थी कि टाइटल का आधार उसे बनाया जाए। अंततः पास तो वह प्राचार्य सर की अनुमति से ही होता था।
नाश्ते के लिए जो मीनू बनता था उसकी कीमत का एक अंदाज लगाकर उस हिसाब से 9वीं और 10वीं की लड़कियों से कलेक्शन कर लिया जाता था। स्कूल में अंदर क्रॉस में चार गार्डन थे। तीन में तीन क्लास व एक में स्कूल स्टाफ के साथ कॉलेज के आमंत्रित सीनियर विशेष अतिथियों की व्यवस्था रहती। उस दिन 11वीं क्लास की छात्राओं के लिए यूनिफॉर्म का बंधन नहीं होता था। 9वीं और 10वीं की छात्राएँ यूनिफॉर्म में रहती थीं। कोई विशेष सजावट नहीं की जाती थी। निश्चित समय पर जब छात्राएं पहुँचतीं तो स्कूल के मुख्यद्वार पर 5-6 छात्राएं रहती थीं, स्वागत के लिये। एक रोली लगाती, दूसरी ग्रीटिंग कार्ड देती। फिर हाथ जोड़कर आग्रह करते हुए दो छात्राएं अंदर तक लेकर जातीं।
छात्रावास में मिलने वाले रोज़ के सामान्य भोजन से वह नाश्ता कहीं कीमती, स्वादिष्ट और मनभावन होता था। लेकिन उसके बावजूद, उस संवेदनशील स्थिति में उसे खाना बड़ा मुश्किल प्रतीत होता था। सभी की आँखों में आँसू होते थे। जो फे़यरवेल दे रही होती थीं, उनकी भी आँखों में आँसू रहते थे। उनका आग्रह करके खाने की ज़िद करना और सीनियर्स का ख़ुद न खाकर उनको खिलाने की इच्छा, चेहरे पर मुस्कान, आँखों में आँसू, कहीं सिसकियाँ…वह माहौल अपने विदाई समारोह नाम को सार्थक करता था।
स्वल्पाहार के बाद उपाधि वितरण का काम होता था। लाउडस्पीकर पर एक-एक छात्रा का नाम और उसका टाइटल सुनाया जाता था। वह समय सबसे अधिक कमजोर प्रतीत होता था। एक अनजाना सा भय मन में रहता था कि न जाने क्या टाइटल दिया गया होगा?
हमारे विदाई समारोह में जब उपाधि वितरण की घोषणा हुई तो सभी की धड़कनें बढ़ी हुई थीं। सबसे बड़ी बात तो यह कि इसमें रजिस्टर के नाम के अनुरूप क्रमबद्धता नहीं होती थी। किसी का भी नाम कभी भी आ सकता था, यह एक सस्पेंस के तौर पर परिवर्तन था। जब हमारा नाम पुकारा गया, उस समय सन्नाटा सा था। हमें भी लगा कि मानो साँस रुक गई हो और नाम के साथ ही सब कुछ थम गया हो।
घोषणा हुई कि नीलिमा वर्मा जी का टाइटल है-
“वक्त ने सौ बार ललकारा मुझे
मैं सृजन के गीत गाती रही”
इन काव्य पंक्तियों को सुनकर हमारा मन तीव्र गति से एक पल में अपने अतीत में झाँक आया। क्योंकि टाइटल भी उसी से संबद्ध था। बाद में हमें हमारी जूनियर्स ने बताया कि “दीदी आपका टाइटल तिवारी सर का दिया हुआ था!”
यह हमारे लिये गौरवान्वित करने वाली बात थी, आश्चर्यजनक और सुखद भी।
एक लंबी अवधि तक, हर क्षेत्र में निरंतर कार्यरत रहते हुए व सकारात्मक सोच के कारण, संस्था के लगभग सभी लोग हमें जानते थे। आधी रात को भी कभी किसी को किसी भी प्रकार की कोई मदद की ज़रूरत होती थी तो सब हमें ही तलाशते थे। सब कहते थे कि यह बड़ी होकर समाज सेविका बनेगी। उस समय हम लोगों को अपना भविष्य चुनने की शायद इतनी आजादी नहीं थी। यह निश्चित ही हमारे स्कूल के प्रिंसिपल विद्याधर तिवारी जी का विशेष प्रेम या स्नेह ही था या फिर वह दृष्टि जिससे किसी इंसान को पहचानना सहज रहा हो।
जिंदगी का हर पल परीक्षा की तरह होता है, और जीवन में अच्छे-बुरे, खट्टे-मीठे अनुभव होते ही रहते हैं। इसी श्रृंखला में विचार बिंदु प्रेरित करते हैं कि जीवन में स्थायित्व या एकरूपता नहीं होती, यदि होती तो जीवन नीरस हो जाता। जीवन में सुख-दुख शांति-अशांति, हानि-लाभ, सागर-मंथन या कहें ज्वार-भाटे की तरह जीवन-लहरों को प्रभावित करते रहते हैं। किंतु हर स्थिति में हमेशा शांत चित्त से, धैर्य व हौसले से, सकारात्मक रुख़ रखते हुए, निर्भयता से उसका सामना करना चाहिये। आशान्वित रहते हुए हर पल से मुस्कुराते हुए हाथ मिलाना चाहिये। हम देखेंगे कि मंजिल आसान हो गई है और विजय स्वयं चल कर अपने पास आ रही है।
यह पंक्तियाँ हमारे जीवन में प्रेरणा स्रोत की तरह पहले भी रहीं और आज भी हैं।
-नीलिमा करैया
बेहद खूबसूरत या दिलकश कहें तो ज्यादा मुनासिब होगा। विद्यार्थी जीवन वाकई में जीवन का सबसे सुनहरा या स्वर्ण काल अधिकतर कहा जा सकता है।
आपने स्कूली जीवन का शानदार और जानदार चित्रण किया है। मासूमियत और जोश का रोचक मिश्रण इस संस्मरण में है।ऐसा लगता है कि कोई साहित्यिक कृति पढ़ी जा रही है। स्कूली विदाई पार्टी भी मन को छूने में बहुत ही सक्षम है।
बधाई हो इस सुंदर और रोचक संस्मरण हेतु।
बहुत बहुत शुक्रिया आपका सूर्यकांत जी! लेखन सफल हुआ