Thursday, September 19, 2024
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सविता पाठक की कहानी – दिल ने हजार बार रोका-टोका

आसमान से बादल उतर आये थे। जैसे पौराणिक फिल्मों के देवताओं के चरणों में बादल लोटते रहते हैं, वैसे बादल मेरे पांव को छूकर सहला रहा था। हमलोग थोड़ी दूर गये तो बादल ने हमें लपेट लिया। हल्का नम सा ये कुहासा जैसे दुलारने आया हो। ये आलिंगन बहुत सुन्दर था। मैं वास्तव में भीग गयी थी। यह भींगना बाहर से नहीं था, मैं भीतर से भींग रही थी। अकड़ी-जकड़ी भावनायें नरम पड़ रही थीं। मैंने उनका स्वागत करने के लिए अपने बालों का रबरबैंड निकाल दिया। अपने सिर पर ऊँगली फिरायी और बालों को छोड़ दिया कि ‘लो तुम भी उड़ लो आज’।
लोग कहते हैं कि जगह के हिसाब से इंसान की भाषा बदल जाती है। भाषा का व्यवहार जगह से भी तय होता है शायद अंग्रेजी में उसको प्राक्झेमिक्स कहते हैं। यानी एक ऐसा संवाद जिसकी भाषा कहीं रह रहे लोगों,उनकी चीजों की दूरी-नजदीकी से तय होती हो। ये प्राक्झेमिक्स वाली बात मुझे अच्छी लग रही थी। रास्ते में बिछी बैंच बिना कहे बैठने के लिए कह दे रही थी और वर्षाशालिका मछली के शेल की तरह पीठ लिए अपने भीतर बैठने की दावत दे रही थी। इस स्थान पर कोई नहीं था जिसे मैं अपनी पहचान का कहती। और जो कुछ था वो मेरा कोई नहीं था यानी वो होकर भी मुझे प्रभावित नहीं कर सकता था। रास्ते में कोई आते जाते हल्के से अपनी टोपी उठाता है अंदाज अंग्रेजी है,पर अच्छा लग रहा है। ये एक टूरिस्ट प्लेस है। यहाँ लोग मन बदलने के लिए आते हैं। वैसे मुझे सन्देह है कि मन  बदलता है। मन क्या तात्कालिक तौर पर कोई स्वाद है जो बदल जाये। लेकिन यह सन्देह भी सन्देह में बदल गया है, जब यहाँ आकर मन का स्वाद थोड़ा बदल गया।
प्राइमरी सेक्शन में पिछले बीस साल से टीचर हूँ। नयी तरह की टीचर नहीं हूं पुरानी टाइप वाली बहनजी हूँ। आँखों पर एक थोड़ा मोटा- चश्मा चढ़ा है। चश्मा पिछले तीस साल से लगातार लगा रही हूँ लेकिन फिर भी हम दोनों की ट्यूनिंग नहीं बन पायी है। कुछ भी जरूरी बात हो या कोई ख्याल बिना चश्मा उतारे आता ही नहीं। देखने सुनने में ठीक ठाक लगती हूँ। वैसे देखना दिखाना तो नजर की बात है। चश्में की तरह मेरे पति से भी मेरी ट्युनिंग नहीं बन पायी है। पच्चीस साल से हम साथ हैं लेकिन हर जरूरी मुद्दे पर बिना अलग हुए मुझे कुछ समझ ही नहीं आता है। लेकिन बात चश्में जैसी भी नहीं रही। पति नाम के चश्में ने तो अलग दुनिया बसा ली है। ये बात उसने मुझे एक दिन में नहीं बतायी। पिछले तीन साल में मेरे कम अक्ल दिमाग में ये बात तब समझ आयी जब उसने साफ साफ कहा कि मेरे मन में तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं है। अब भला मैं क्या करती अगर किसी के दिल से उतर गये हो तो मैं सीढ़ी लगाकर चढ़ तो नहीं सकती। मुझे तो उतना अच्छा खाना बनाना भी नहीं आता है कि पेट के सहारे दिल में जाकर बैठ जाऊँ। वैसे मर्द के दिल का रास्ता पेट से जाता है, ये वाला आइडिया मुझे जमता नहीं है। मैंने तो बाहर जाने में भलाई समझी, जितनी देर समझने में लगायी थी अगर उतनी देर बाहर जाने में लगाती तो बड़ी बेइज्जती की बात थी। तो इस तरह से मैं निकल गयी। अरे अभी दिल के दरवाजे से बाहर निकली हूँ,जाते समय उनके दिल का ताला-चाभी भी वकील साहब को पकड़ा दिया कि ये लो अपनी लकुट कमरिया,बहुतै नाच नचायो। 
एक अप्रैल को पच्चीस साल पहले मेरी शादी हुई थी। आपको लगेगा कि मूर्ख दिवस पर शादी हुई थी, नहीं जी, पंडित जी ने साइत इसी दिन की निकाली थी।  तब से  एक अप्रैल को मुझे शहर से बाहर रहने का ही मन करता है। आपको बता दूँ कि पच्चीस साल की शादी में मियां मुल्तान और मियां सुल्तान की माँ होने के चलते गद्दीनशींन भी हूं और इनकी परवरिश का ठिया भी मेरे सिर खुशी खुशी फूटा है। आप कहेंगे कि ये कैसे नाम हैं, अब हैं तो है। जब मुझे प्यार आता है तो यही कहती हूँ। मियाँ मुल्तान तो पिता की छाया है,उनकी शकल सूरत देखकर तो कोई कह सकता है कि भगवान ने डी एन ए रिपोर्ट का प्रिंटआउट भेज दिया है। वैसे वो दिमाग और चाल चलन से भी बदस्तूर अपने अब्बा हूजूर,दिल पर न लीजिए अपने पिताश्री पर ही चले गये हैं। वहीं हमारे मियाँ सुल्तान अपने माँ बाप दोनों की जागीरदारी चाहते हैं। उनकी दिली-ख्वाहिश यही रहती है कि माँ पिताश्री के राज्य में विलय कर दे। कभी कभी उनके दिल में यह भी चलता है कि माँ कोई छोटी मोटी  जमींदारी से क्यों नहीं खुश रहती है। वो तो हमको समझाते हैं माँ तुमको माइक्रो मैनेजमेंट करने को मिल रहा है वो करो। हम हींग की डिब्बी,धनिया,जीरा और पिसा काला नमक सही शीशी में रखते हैं। फिर रखते हैं,लेकिन हमको माइक्रो मैंनेजमेंट वाली बात बहुत जमती नहीं है। प्राइमरी में पढ़ाते-पढ़ाते मेरा मैक्रो मैनेजमेंट जाग जाता है और भोपा बजने लगता है। लेकिन इस भोपा सुर में भी मुझे पल्ले नहीं पड़ा कि आप वकील साहब के दिल से बाहर जा चुकी है। उनके दिल में कोई और आकर विराजमान हो चुका है।
देखिये बात ये है कि हमारे जैसों की शादियों में जैसे आई लव यू के मौके बहुत कम आये वैसे ही दिल से निकल चुकी हो की साफगोई भी कम रही। दोनों ही बातों को मैं बड़े ही देर से समझ सकी। मियाँ मुल्तान कालेज में पढ़ते हुए रियासत संभाल रहे हैं और मियां सुल्तान स्कूल जाते हुए घर के हालात में उलझे हैं। हम हैं कि हमने जिन्दगी की नयी बागडोर थाम ली थी। माइक्रो और मैक्रो मैंनेजमेंट करते हुए देश की जनगणना और चुनाव तक करवाते रहते हैं।
हुआ ये कि वह दिन आने वाला था- वही एक अप्रैल का। अब घर पर रहकर खुद को बेवकूफ बना तो नहीं सकती थी। वैसे भी कोई जानबूझ कर बेवकूफ थोड़ी बनता है, वो तो कोई बनाता है। वो भी एक कला होती है। बेवकूफ बनाना और बनना। अब तो वह विलक्षण कला लुप्त हो गयी थी। खैर मैंने तय किया कि मैं भी इस दिन को कुछ अलग तरह से मनाऊँगी। 
मियाँ सुल्तान ने कहा कि “माँ तुम जहाँ जाओगी, मैं भी साथ चलाऊंगा”।
मैंने सोचा कि शिमले चलते हैं। तो इस तरह हम दोनों रात की एसी बस से शिमला निकल गये। ऐसा नहीं है कि मैने अकेले यात्रा नहीं की है लेकिन पहले की यात्रा में ये तो होता था कि- हाँ जी बैठ गयी हूँ। हाँ जी उतर गयी हूँ। अब तो किसे बताना कि बैठ गयी हूँ या उतर गयी हूँ। खुद को समझा रही थी, होता है। आखिर आदत जाते जाते जाती है।
हमने भी शाही होटल बुक किया था। उसका एक हिस्सा गिर चुका था लेकिन दूसरा हिस्सा ‘इमारत बुलंद थी’ के नारे लगा रहा था। हमारा होटल माल रोड से काफी दूर था। अंग्रेजों का बनाया बहुत पुराना होटल था। फर्श लकड़ी की थी और छत भी लकड़ी की। कमरे में आतिशदान और कोट टांगने वाली लोहे की खूंटियां लगी थी। रात में जब खिड़की खोल दी तो लगा कि आसमान के सारे तारे हमारे कमरे में आ गये हैं। जब उनको गौर से देखने लगी तब तक बादलों ने उन्हें छुपा लिया। वैसे मेरे दिमाग की तरह वहां भी खुलना और बंद होना चल रहा था।
हम और सुल्तान चलो असली नाम बता देती हूँ सौंफ कुमार। आप ये न कहो कि कैसा नाम रखा है, मुझे पहले से ही बिना बात के, बिना किसी रंग- गंध, रूप के नाम अच्छे नहीं लगते हैं। मेरा नाम बेला उपाध्याय है और बेटों का नाम फिटकरी और सौंफ हैं। वैसे ये नाम है नहीं लेकिन क्या करूँ। एक का नाम शिवाय है दूसरे का शिवांश अब आपको थोड़ा नार्मल लग रहा होगा। प्रेम में भगवान कृष्ण की माँ ने कितने नाम रखे तो क्या मुझे अपने बेटों से प्यार नहीं,तो भला मैं क्यों न ढेर सारे नाम रखती। बड़ा बेटा मुझे समझ नहीं आता इसीलिए उसको फिटकरी कहती हूँ। समझ नहीं आता तो क्या ये नहीं जानती कि वो कितना प्यारा है, कितना कारगर है। दूसरा मुझे मीठा मीठा महकता है,इसीलिए वह सौंफ कुमार है।
तो हुआ ये कि हम और सुल्तान अगली सुबह सड़क पर चलते चलते दूर निकल आये। देवदार के पेड़ों के घने साये के बीच हमदोनों चलते जा रहे थे। बीच में लाल-रंग के बुरांश के पेड़ों ने छुपकर हमको देखा। हम ठहरे बेला कुमारी-देवी। बिना चखे फूलों को भी कैसे महसूस करते। हम तो गुलमोहर की एक एक पंखुड़ी का स्वाद जानते थे। बस बुरांश के फूलों का स्वाद लेना शुरू कर किया। सुल्तान मियां ने हमें विज्ञान की याद दिलायी। “अजनबी फूलों-फलों को नहीं खाना चाहिए”। लेकिन हमने भी अपना सहज ज्ञान याद दिलाया। “अजनबी को जानेंगे कैसे, अगर चखेंगे नहीं” और फिर हम दोनों वहाँ पहुँच गये। कहाँ पहुँच गये-अभी बताती हूँ।
एक छोटी सी बाजार जैसे किसी बनिये ने नहीं, किसी चित्रकार ने बनायी हो वो जगह ऐसी थी। हम दोनों पर थकान हावी हो गयी थी। वहीं हमारी, सही कहो तो मेरी नजर चली गयी। वह खाने की दुकान थी कि कोई दो सौ साल पहले के राजा की रसोई। कैसे तो हंडे,बटुले,कलछी,परात और दनदनाता चूल्हा था। पूरी दुकान तुरूही,दमाऊ और मंजीरे से सजी थी। एक परात में बुरांश के फूल और बेला तैरते हुए लाल-सफेद,स्वाद और सुगंध की जुगलबन्दी कर रहे थे। एक तरफ काउन्टर तो दूसरी ओर दनदनाता चिट-चिट की आवाज करता जलता चूल्हा था। हमारी तो नजर वहीं टिक गयी। तब तलक मेरा ध्यान दुकानदार पर नहीं गया था।
“आ जाइये”।
“जी!” मेरे मुँह से निकला
“हाँ जाइये, पिछले चार लाख साल से ये जगह आपका इंतजार कर रही है”।
मुझे हँसी आ गयी। “अजी मेरा इंतजार तो कोई चार दिन तो क्या चार घंटा न करे आप तो चार लाख साल बता रहे हैं”।
दुकान वाला बदले में हँसा नहीं। हल्के से मुस्करा कर बोला- “क्या इंतजार वही होता है जो दिखायी देता है। गणेश जी ने चार-लाख साल पहले कुछ लिखा था और हम तबसे इंतजार कर रहे हैं”।
मेरा दिल धक से रह गया। इतना फ्लर्ट! कोई नहीं, सही है ना, कोई तो कर रहा है। क्या जा रहा है।
“आइये”
“बताइये क्या लेंगी”।
मैंने कहा “चाय पियूँगी”।
मैं उस जगह पर सम्मोहित थी। उसने मेरे हाथ पीतल के लोटे में जल डाल कर धुलाये। सुल्तान को भी  बड़े प्यार से बैठने के लिए कहा। मेरी मेज पर एक तश्तरी में  बेला के फूल और बुरांश की पंखुड़ियों को लाकर रख दिया। फिर एक लड़के से कहा “चाय बनाना”।
“क्या देख रही हैं, आपको मेरी बात का यकीन नहीं है ना”।
“मत कीजिए यकीन। लेकिन यहीं रहिए ना थोड़ी देर। ये बार बार आप कहीं और कहाँ चली जा रही हैं”।
वैसे वो सही कह रहा था मैं तो फोन  पर बीच में प्राइमरी टीचर्स के लिए आयी फाइलेरिया के टीके की गणना के लिए आयी ड्यूटी का नोटिस देख रही थी।
पूरी दुकान फूलों की सुगंध से भरी थी। उसने एक लड़के को सुल्तान को पुराने जमाने के बर्तन देखने में लगा दिया। वह मेरी मेज की सामने वाली कुर्सी पर आकर बैठ गया।
“मुझे अपने साथ चाय पीने का मौका दीजिए”।
चाय आ गयी थी। पीतल की गिलासी,पीतल की कटोरी में रखी थी और छोटी सी पीतल की तश्तरी में गुड़ की छोटी छोटी डलियां थी। एकदम वैसी तश्तरी जैसे भगवान को भोग लगाने के लिए लोग रखते हैं।
मुझे थोड़ा डर लगने लगा लेकिन दुकान आगे से खुली थी और दुकान के भीतर कोई दरवाज़ा नहीं था। वहाँ पर्याप्त रौशनी थी और सामने एक बड़ी सी खिड़की थी जिससे घाटी की ताजा हवा सबकुछ छूकर अपने होने को बता रही थी।
“हम क्यों नहीं वहाँ होते, जहाँ होते हैं। उसने कहा। लीजिए चाय पीजिए। आराम से पीजिए”।
“क्या सोच रही हैं”।
“कुछ नहीं, बस देख रही हूँ”।
“हाँ हम भी आपको देख रहे हैं। हमारी दुकान की हर चीज आपको देख रही है।ये ढ़ोल-दमाऊ और तुरूही,ये पहाड़ और ये हम सबके बीच हवा सबकुछ आपको देख रही है। जानती है कुछ भी सजीव-निर्जीव नहीं है। हम इंसान उन्हें दो भागों में बांट कर देखते हैं। लेकिन वो तो बंटे नहीं है। एक दूसरे से बनते बिगड़ते हैं। एक निर्जीव चीज सजीव बनाती है और कोई सजीव किसी को निर्जीव बना देता है”।
वह बोल रहा था। शांत प्रशांत मुद्रा में।
मैं बदले में सिर हिला रही थी और चाय पर फोकस करो खुद से कह रही थी।
“हमारे यहाँ खाना जरूर खाइयेगा। हमारी रसोई धन्य हो जायेगी”।
यकीन मानिये मैंने तो ऐसे बोलते हुए भी किसी को नहीं सुना था। मुझे लगा कि इतना बादल-वादल है, कहीं मेरा किसी देवी आदि के रूप में कायान्तरण तो नहीं हो गया है।
“कहाँ-कहाँ हैं आप”।
“यहीं रहिए यहीं इन फूलों को देखिये। इस हवा को महसूस करिये। इस चाय को इसमें मिली पहाड़ी अदरक के स्वाद को गले से उतरते महसूस कीजिए। आपके लिए गणेश भगवान ने ये लिखा है”।
“आप क्या कोई ज्योतिषी हैं या धार्मिक गुरू हैं”। मैंने पूछ ही लिया।
“कुछ भी नहीं सिर्फ दुकानदार हूँ। पहाड़ी खाना बनाता हूँ,सदियों पुरानी विधि से खाना बनाता हूँ। सदियों पुराने बर्तन ढूढ़ कर लाता हूँ। उसमें खाना परोसता हूँ सिर्फ उन्हें जिनके नाम मेरी किताब में लिखे हैं”।
मैं मुग्ध थी। वाह मेरी ऐसी प्रतिष्ठा। गुड़ की डली के पास श्यामा तुलसी की दो पत्तियां रखीं हुई थी।
“चाय हो गयी। आप घूम आइये लौटते समय खाना जरूर खाइयेगा तब तक कुछ और पकवान बन जायेगा”। मैंने देखा कि चूल्हें  पर दो लोग अलग तरह के बर्तन चढा कर कुछ भून रहे हैं।
“ठीक है।
कितने पैसे हुए”।
“कोई जरूरी है, पैसे देना”। उसने मुस्कुराते हुए कहा।
“हाँ जरूरी है, पैसे देकर मैं फ्लर्टरी का पटाक्षेप करना चाहती थी। 
“पच्चीस रूपये दे दीजिए”।
मेरा दिल खुशी से झूम उठा। दो कप चाय वह भी भर गिलासी ऐसा दैवीय स्वागत सत्कार और सिर्फ पच्चीस रूपये। मैंने पैसे दिये।
“लौटते वक्त जरूर आऊँगी”।
“आप जरूर आयेंगी,यह तो चार लाख साल पहले ही लिखा हुआ है”।
हम और सुल्तान बाहर निकल आये। उसके बाद दो ढ़ाई घंटे तक मैं उसी खुमार में रही। देवदार के पेड़,नागपुष्प,सुनुकी और काली घटायें सबकुछ मेरे लिए है। हवा बस मुझे छूने के लिए बह रही है। ऐसा विशिष्टता बोध तो मुझे पच्चीस साल पहले एक अप्रैल को भी नहीं हुआ था। जब मेरा स्वीटी ब्यूटी पार्लर से मेकअप हुआ था और जयमाल के समय में मैंने किराये पर महरून कलर का लहंगा पहना था। हम माँ-बेटा गाते गुनगाते जंगल के रास्ते पर बढ़ते रहे।
वहीं पर पहाड़ी के एक प्वाइंट पर किसी ने एक रेस्त्रां शुरू किया था। वह खुशी के मौके पर में यात्रियों को मुफ्त में कढ़ी चावल खिला रहे थे। आज क्या हो रहा है। सुल्तान ने भर पेट कढ़ी चावल खाया। मैंने भी थोड़ा सा कढ़ी चावल खाया। यहां तक घुमक्कड़ी करने वाले कम ही थे तो दानदाता बहुत ही सह्दृयता से भोजन करा रहे थे।
अब हमारी वापसी की बारी थी। अब तो वादा था कि आऊँगी खाना आपके यहाँ खाऊँगी।
लौटते समय वापस वहाँ पहुँच गयी। अबकी बार मेज़ पर तरह तरह के पत्ते पर बेला के फूल सजे थे। आइये।
उन्होंने पहले हमारे हाथ पीतल के लोटे के जल से धुलाये।
फिर एक लोटा पानी मेज कर रख कर कहने लगे-“लीजिए ये साधारण पानी नहीं है। यह शिलाजीत अवशोधित जल है। हमारे पुरखे यही पीते थे”।
वैसे ये शिलाजीत जैसे पदार्थ या कि द्रव राम जाने मुझे बड़े ही मर्दाना टाइप लगते हैं। पता नहीं मुझे दुनिया में मुझे क्या-क्या न जाने क्या लगता है।
मेरे मुँह से निकला-
“नहीं जी, मैं तो अपनी बाटल का ही पानी पियूँगी”।
“कितना आशंकित रहती हैं आप”।
उसने मेरी आँखों में झांक कर कहा। फिर उसने सुल्तान से कहा कि- बेटे “आप उस तरफ दूसरी मेज की ओर जाकर बैठ जाइये। मुझे आपकी माँ से कुछ बातें करनी है”।
सुल्तान के भीतर उसका बड़ा भाई मुल्तान जागा और वो उसकी आँख में जाकर कौंध गया। दुकानवाला समझ गया। उसने दुबारा बड़ी नर्मायी से कहा-
“अरे मित्र, वहां उस मेज पर आपके लिए एक पुस्तक रखी है एकबार उसको पलट कर तो देखिये”।
सुल्तान थोड़ा सहज हो गये और वहाँ जाकर बैठ गये।
मैंने दुकानदार की ओर देखा और थोड़ा सचेत हो गयी कि देखो ये आगे क्या करता है। लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे मेरा एंटीना घूमता।
“अपनी हथेलियां खोलिये”।
बस ये कथा बाचेगा मेरे दिमाग ने कहा। लेकिन उसने मेरी हथेलियों को देखकर बस इतना कहा कि “कितनी सुगढ़ हथेलियां हैं”। 
हाय मैं तारीफ की भूखी। मेरी आँखों में उसके लिए शुकराना चमक गया।
वह बोलने लगा-
“जिन्दगी बड़ी अजीब है। जब हमारे हिस्से का कुछ मिलता है तो हम उससे रूठे बैठे रहते हैं। ये मान-सम्मान और प्रेम आपके हिस्से का है”।
“आप सबसे ऐसे बोलते हैं” मैंने पूछा।
“हां उन सबसे जिनके लिए गणेश जी ने लिखा है”।
तब तक हमारे भोजन की थाली आ गयी। वह थाली नहीं थी वह परात था। पीतल का विशालकाय परात जिसमें छत्तीस तरह की कटोरियां थीं। अब आप चाहे जो कहो लेकिन मेरे दिल का रास्ता पेट से होकर नहीं जाता है। वैसे भी पेट में कढ़ी-चावल अभी उपस्थित थे वो भला किसी पकवान को इतनी जगह कैसे देते।
इस विशालकाय थाली में विविध प्रकार की सब्जियां थी। पहाड़ की विविध प्रकार की सब्जियां और चिलगोजे की खीर। 
हमारे राजा खाते थे ये खीर।  वह मुझे सब्जियों के नाम बता रहा था।
वैसे मुझे ये बात पता थी कि कैसे पूरा दिन औरतें चीड़ के फलों में बीज ढ़ूढ़ती थी। मैंने परात से साग की एक कटोरी निकाली बामुश्किल मैंने आधी मड़ुवे की रोटी खायी। मेरे दिमाग में पहाड़ी खाने के नाम पर थिचोड़ और थिचोड़ न सही तो चौलाई या  लिमुड़े का साग और मड़ुवे की रोटी थी। लेकिन यहाँ तो क्या क्या था। लेकिन मैं तो कोई राजा नहीं ना कि इतना खाना खा लूँ, मेरी तो इतना खाना देखते ही रही सही भूख भी मर गयी।
न मालूम क्यों एकबयक मेरा वहाँ से जी उचट गया।
सुल्तान ने तो भर पेट कढ़ी चावल खाया था,उसने जरा सा खाना चखा।
करमहीन नर वैसे मेरे मामले में नारी पावत नाही। मैं क्या जानती इतने तरह के भोज का स्वाद।
“बंधवा देता हूँ”।
“न न रहने दीजिए। वैसे भी मैंने हाथ में ये रोटी और इस कटोरी का साग लेकर खाया है बाकि सुच्चा है”।
वह मुस्कुराने लगा। “थोड़ा सा मीठा ले लीजिए”। देसी घी में लिपटा गुड़ और आटे की कटोरी उसने आगे बढ़ायी। मुझे यज्ञ की समिधा जैसा कुछ महसूस हुआ।
“फिर आऊँगी तब खाऊँगी” ।
“फिर कब आओगी। चार लाख साल बाद”।
मुझे हँसी आ गयी। “बताइये कितने पैसे हुए”।
उसने मेरी तरफ देखा और कहा- “कहाँ चली जाते हो आप बार बार”।
“अगली बार आपके यहाँ जरूर आऊँगी”।
“अगली बार, जो एक बार आकर नहीं रूकता वो  अगली बार नहीं आता है।
कहाँ हैं आप”।
“अरे मैं यहीं हूँ बताइये, कितना पे करना है”।
उसने कहा “ये तो दीवार पर लिखा है”।
मैंने दीवार की ओर देखा। यकीन मानिये काउंटर के पीछे की दीवार बहुत ही बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था-एक थाली पहाड़ी भोजन का मूल्य दो हजार रूपये हैं।
सबकुछ बहुत बड़ा बड़ा लिखा था। हाय मेरे तो दीदे फूटे थे,ढ़ोल देखा, दमाऊ देखा, फूल देखा-पत्ती देखी लेकिन थाली का दाम न देखा गया।
मैंने उसकी ओर देखा। वह वैसे ही शांत-प्रशांत बना मुस्कुरा रहा था। “आनलाइन पे कर सकती हो”।
“हाँ करती हूँ..। पर ये तो ज्यादा है”।
वह फिर मुस्काराया। 
“मैं कुछ कम दे दूँ”। कहके मैंने सोलह सौ रूपये ट्रांसफर किये। उसने मेरी ओर देखा हाँ कोई बात नहीं।
उसके बाद उसने ताजे रसभरे लौंग और मिश्री की डली वाली तश्तरी आगे बढ़ायी। मैंने किसी शाक्ड हालत में उसमें से एक लौंग लिया और मुँह में डाल लिया।
“आना फिर आना..”।
मैं और सुल्तान दोनों दुकान से भागे। तब तलक फिर से घटा छा गयी। कुहांसे ने मुझे गले लगा लिया। हमदोनों जाकर एक वर्षाशालिका में बैठ गये। आसमान से फुलझड़ियों जैसी बिजली कड़क रही थी। कभी बिजली आसमान से धरती पर आकर टकराती तो कभी लगता धरती से बिजली फूट कर आसमान जा रही है। रौशनी पहले आती और आवाज़ बाद में आ रही थी।
मुझे हँसी आ गयी। आह एक अप्रैल! तुम मुझे ऐसा देवी टाइप फीलिंग करा के क्यों धोखा देते हो।

सविता पाठक
संपर्क – [email protected]
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7 टिप्पणी

  1. सविता पाठक जी की कहानी ‘दिल ने हजार बार रोका टोका ‘ अच्छी कहानी लगी। दाम्पत्य जीवन की दुश्वारियों के बीच भी कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है जो आपको अचंभित कर जाता है। कहानी की नायिका के साथ इस तरह का घटित होना एक तरह से खाली मन के भरने की प्रक्रिया कही जा सकती है। भले ही उसे चार लाख साल का इंतजार करना पड़े अथवा चार लाख साल से प्रतीक्षा की जा रही हो।
    कहानी जब प्रथम पुरुष में लिखी जाती है तो वह और ज्यादा प्रामाणिक लगने लगती है, जबकि होता इसका ठीक उल्टा है। समाज में हम किसी घटना को देखते सुनते हैं और वह घटना हमें छू रही हो तो वह हमारे अचेतन मन में बैठ जाती है। हमारा स्वयं की जीवन घटनाएं सही चल रही होती हैं पर उस संवेदना का क्या जो हमारे अवचेतन मन में बैठ चुकी है। उसको बाहर निकालने का एक ही तरीका है कि उसे कागज पर उतार दिया जाए। एक बार कागज पर उतरी तो वह जल्दी ही दिमाग से उतर जाती है। इस कहानी में मुझे ऐसा ही कुछ लगा।
    पूरी कहानी में मुझे दो चार वाक्य ऐसे मिले हैं जो त्रुटि पूर्ण है। इसको सुधारा जा सकता था। एक वाक्य में मुझे दो बार आ गया है इससे पढ़ने में व्याघात आ गया है। तीन वाक्य ऐसे हैं जिनको समझने में समय लगा। एक दो शब्द हटाकर पढ़ा जाए तो समझ में आ जाता है।

    • लखनपाल जी आपने कहानी पढी। उसकी खूबियों- खामियों को सामने रखा। हार्दिक धन्यवाद।

  2. सविता जी!
    जब आपकी कहानी का शीर्षक पढ़ा तो थोड़ा अजीब सा लगा था लेकिन जब आपकी कहानी को पढ़ा तो समझ में आया कि शीर्षक सही था,पर इस हजार बार रोकने टोकने को भी नायिका ने झेल लिया यह बहादुरी की बात लगी।
    पूरी कहानी पढ़ गए ।बिल्कुल अलग तरह की कहानी लगी। शादी के 25 साल बाद अगर परिवार बिखरता है तो वाकई यह तकलीफदेह होता है। पुरुष के लिए कितना आसान होता है एक झटके में अलग कर देना।
    इस मामले में हम थोड़े अधिक संवेदनशील हैं आसानी से इस बात को झेल नहीं पाते हैं।
    कहानी के पूर्वार्द्ध से कहानी का उत्तरार्द्ध दुविधापूर्ण लगा, आश्चर्यजनक! एक पल को मन में ख्याल आया कि भूत प्रेत वाला मामला तो नहीं है? कितना अजीबोगरीब था सब कुछ! पढ़ते हुए दिमाग ही घूम रहा था। हम इस कल्पना में थे कि अचानक हमारे साथ ऐसा होता तो क्या होता? शायद हम उसे अपने सामने कभी नहीं बैठने देते और न ही हमारा बेटा इस बात को स्वीकार कर पाता। एक सम्मोहन जैसा लगा सब कुछ!
    कुल मिलाकर थाली की कीमत सुनकर होश फाख्ता हो गए। पर जिस तरह का वर्णन लगी हुई थाली का था थाली की कीमत जायज़ लगी।
    अजीबोगरीब लेकिन बेहतरीन कहानी के लिए बधाई आपको।
    एक जिज्ञासा सी है मन में है कि कहानी का यह प्लॉट आपको किस तरह से मिला होगा? विशेष तौर से होटल वाला? क्या वास्तव में ऐसी कोई जगह वहाँ पर है?
    कहीं कहीं कुछ ऐसा है जो समझने में असुविधा हुई।

  3. बहुत शुक्रिया मैंम! कहानियाँ हमेशा ही हकीकत और फ़साने के मिलान से जन्मती हैं। शिमला में ऐसी कोई मेरे जानने में नहीं है। यह सारे संयोग भोजन,बाबा और नायिका की मन:स्थिति अलग अलग अवस्था मिलते ही हैं।

  4. सविता पाठक समकालीन हिन्दी कथा साहित्य की सशक्त रचनाकार हैं। इससे पहले भी उनकी कई कहानियां पढ़ चुकी हूं। एक कहानी ध्यान में है जो पारम्परिक कहानी शैली से थोड़ी अलग स्वगत में है। एक स्त्री जो ख़ुद की कहानी मानों पाठक को सुना रही हो। अलग से कोई संवाद नहीं कोई चरित्र नहीं और कोई अलग से तैयार कथानक नहीं। वह स्त्री जैसे बस आपके सामने बैठी हो और अपनी बात कह रही हो। कुछ इसी शैली की यह कहानी है। कहानी के भीतर एक औरत का यात्रा संस्मरण जिसमें पाठक भी उन वादियों में घूम आता है लेकिन यह जीवन का यात्रा संस्मरण है दरअसल। 1 अप्रैल को जिस स्त्री के विवाह की सालगिरह है वह उस विवाह के महीन चालबाज़ी से निकलकर एक दूसरी यात्रा करती है। वादियों में थोड़ी आज़ाद और खुली खुली। हालांकि प्रतीकात्मक तौर पर एक गिरह यानी बेटा भी है। अपार आदर, सम्मान और आज़ादी के बावजूद अपने अनुभवों के कारण वह सतर्क है और बड़ी सावधानी से एक एक पग रख रही है लेकिन विडम्बना कहानी(जीवन) में त्रासदी को कॉमेडी के रूप में प्रस्तुत कर देती है।
    शीर्षक ही देखिए “दिल को हज़ार बार रोका टोका”। त्रासदी और कामदी एक साथ। वह स्त्री जैसे ही थोडे विश्वास और निश्चिंतता में आती है उससे कीमत वसूल ली जाती है। यानी पहाड़ी आज़ादी में ज़ुल्फ़ों को आज़ाद करती उसे उसकी अपनी निजी पहचान का सम्मान जो दिया जाता है पारम्परिक दैवीय भोजन वगैरह के रूप में अंततः दुकानदार उसे दीवार पर लगे थाली का रेट दिखाकर करता है। वह भी आक्रामक नहीं बहुत पोलाइट लेकिन कीमत तो उसे देनी ही पड़ती है।
    ऐसी कहानियां हल्के फुल्के अंदाज़ में लिखी भले जाती हैं लेकिन बड़े महीन पलों में याद रखी जाने वाली कहानियां भी साबित होती हैं। मैं यह नहीं कहूंगी कि यह उनकी बेहतरीन और रेखांकित की जाने वाली कहानी है लेकिन अपने पॉइंट पर मार्मिक और विडंबनात्मक कहानी है। इस कहानी पर हंस कर निकल जाने के अलावा रास्ता ही क्या है!

  5. सविता पाठक की कहानी ‘दिल ने हजार बार रोका -टोका’ एक अनूठे विषय की कहानी लगी। 25 साल का दांपत्य टूटता है किंतु स्त्री उससे एक अपने ढंग से निजात पा जाती है। बहुत रोचक अंदाज में कहानी का चित्रण हुआ है। पहाड़ी व्यंजनों के नाम पढ़ना अच्छे लगे। बुरांश, थिचौड़ी शब्दों ने पहाड़ी वातावरण मूर्त कर दिया। लेखिका को हार्दिक बधाई ।

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