Thursday, September 19, 2024
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सूर्यकांत शर्मा का लेख – हिंदी दिवस 2024:विज्ञान – तकनीक के साथ

भाषा जब विज्ञान और तकनीक के साथ संगमित होती है तो वही भाषा आम जन प्रिय और विकास को गति देने वाली हो जाती है।यह कथन इस वर्ष के हिंदी दिवस के थीम को रेखांकित करता है और इस वर्ष का थीम है यथा हिंदी पारंपरिक ज्ञान से कृत्रिम बुध्दिमत्ता को जोड़ना।यूं भी हर साल हिंदी दिवस पर एक खास थीम को रेखांकित कर इसे मनाने की परंपरा है।विशेष थीम इसलिए भी क्योंकि हिंदी भाषा के अलगअलग पहलुओं,भारत के सांस्कृतिक और सामाजिक तानेबाने में इसकी भूमिका केंद्रित होती है।इस बार का थीम एक बेहद खास समीकरण को उकेरने हेतु चुना गया है।हिंदी,भारतीय भाषाओं तथा मातामही संस्कृत में पारंपरिक ज्ञान का अकूत भंडार है।
यही ज्ञान हमारे साहित्य, संस्कृति, लोक साहित्य में बसता है। यों भी हिंदी भाषा अब राजभाषा और समूचे भारत को जोड़ने वाली भाषा के रूप में सशक्तता के पायदान दर पायदान सतत चढ़ती जा रही है।यहां पर यह बात भी अब अहम है कि पारंपरिक ज्ञान और विज्ञानतकनीक से संगमित हो तो हिंदी भाषा की समृद्धता तो बढ़ेगी ही परंतु इस के साथ साथ ही वैश्विक स्वरूप भी बढ़ेगा।इसके साथ यदि सब कुछ अनुशासित अंदाज़ में बढ़ा तो यही हिंदी बेरोज़गारी की रेज़गारी को समेटने में महती भूमिका निभा सकती है।
यदि विश्व की दूसरी संपन्न भाषाओं के विकास यात्रा को देखें तो वे सभी की सभी,देश की युवा और कार्यशील जनसंख्या को रोज़गार और स्वाभिमान की लालिमा से मंडित करने में सफल से सफलतम रही है।अब यही बात हिंदी भाषा के लिए भी सोची जानी चाहिए।
यद्यपि नई शिक्षा नीति 2020 अब लागू होने के मोड में चुकी है।हमारे प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी समय समय पर इसकी समीक्षा कर आम जन को इस से परिचित कराते रहते हैं।उच्च शिक्षा और वह भी खास तौर पर चिकित्सा शिक्षा, इंजीनियरिंग/अभियांत्रिकी में हिंदी भाषा में कुछेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जो एक शुभ शगुन है।हालांकि अभी इस ओर यह एक नैनो यानी छोटा सा कदम ही है।हिंदी भाषा में चिकित्सा विज्ञान,इंजीनियरिंग इत्यादि एक हिमालय सा लक्ष्य है परंतु संतोष की बात यह है कि कम से कम सात या साढ़े  दशकों के बाद शुरुआत तो हुई और जब आरंभ हुआ है और सरकारी नीयत भी स्पष्ट और साफ है तो लक्ष्य भी देर  सबेर प्राप्त हो ही जाएगा।
 इस बार का हिंदी दिवस ,यूं भी कुछ विशेष है! पाठकों को यह जानकर सुखद आश्चर्य होगा कि यह हिंदी दिवस का 75 वां संस्करण है।युवा पाठकों के लिए यह जानना बहुत आवश्यक है कि राष्ट्रीय हिंदी दिवस का इतिहास क्या है
इस पुनीत दिवस का इतिहास 14 सितंबर 1949 से शुरू हुआ है।इसी दिन भारत की संविधान सभा ने देवनागरी लिपि को आधिकारिक भाषाओं में से एक के रूप में अपने का महान ऐतिहासिक फैसला किया था। भारत का संविधान अनुच्छेद 343 हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता देता है। वहीं अनुच्छेद 351 में हिंदी के विकास की दिशा सुनिश्चित की गई थी।तिस पर सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि उसके साथ यह भी जोड़ दिया कि अगले 15 वर्ष तक विकसित होने के समय तक अंग्रेजी को राजभाषा बनाकर  रखा जाएगा।बस  यही बात अब अनंत काल तक स्थाई सी हो गई है।सन 1968 में हिंदीतर प्रदेशों में उसके विकास के लिए त्रिभाषा सूत्र जोड़ा गया। यही नहीं,वर्ष 1975 में राजभाषा विभाग का निर्माण किया गया था।हिंदी दिवस का आयोजन एक महत्वपूर्ण दिवस माना जाता है जो हमें अपना सुशासन या प्रशासन अपनी भाषा में ही चलाना है, बस यही याद दिलाता है।
हिंदी के उपयोग में बहुविधि रूप से सतत प्रगति हो इसके लिए विशेष संस्थानों यथा केंद्रीय हिंदी निदेशालय,केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो,केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान वैज्ञानिक एवं तकनीकी निदेशालय का गठन किया गया है।यह भी एक विडंबना ही समझी जाए कि हिंदी की परिधि में साहित्य और संस्कृति ही आए जब कि अन्य विषय जिसमें विज्ञान लोकप्रिय विज्ञान टेक्नोलॉजी समाज विज्ञान मनोविज्ञान,आर्थिकी,सांख्यिकी,,, यह सभी विषय अभी भी हिंदी की मुख्य परिधि में आने शेष हैं। यदि व्यावहारिक धरातल पर हिंदी की पहुंच और उसकी सघनता पर विचार करें तो विज्ञान या अन्य क्षेत्रों में अभी भी ऐसे लोग मिल जाएंगे जो कुछ देर हिंदी में बोलकर यह कहते पाए जाते हैं कि मैं हिंदी में बहुत कंफर्टेबल यानी प्रवीण नहीं हूं। अतः मैं अंग्रेजी में ही बात करूंगा।अस्सी और नब्बे के दशक में कंप्यूटर और संबंधित तकनीक आई परंतु हिंदी तब भी आमजन या प्रशासन की भाषा नहीं बन पाई इसके पश्चात पिछले डेढ़ दशक से राजनीतिक इच्छा शक्ति अपना असर दिख रही है जिसमें प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक समयसमय पर अपनी बात हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी के विकास और उपयोग पर कहते रहे हैं।वर्तमान संदर्भ में या सही अर्थों में कहें कि सन 2024 में जो थीम का चयन किया गया है वह निश्चित रूप से एक व्यवहारिक कदम है।जिसके परिणाम हमें आगामी वर्षों में देखने को मिल सकते हैं।
यदि हम हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के इतिहास और वर्तमान को जोड़कर देखें तो हम पाएंगे कि हिंदी को आधिकारिक भाषाओं में से एक के रूप में अपनाने का निर्णय,भारत जैसे विविधता पूर्ण देश में भाषाई एकता की दिशा में एक मील का पत्थर था।हमारा भारत वर्ष जहां अनेकों भाषण और बोलियां बोली जाती हैं।
भाषा की दृष्टि से देखें तो हिंदी दुनिया की सबसे प्राचीन सरल समृद्ध और वैज्ञानिक भाषाओं में से एक मानी जाती है यह भी एक कटु सत्य है कि संवैधानिक रूप से हिंदी राष्ट्रभाषा तो नहीं बन सकी लेकिन आमतौर पर हम भारतीय हिंदी को अपनी राष्ट्रीय भाषा आवश्यक मानते हैं पाठकों के पाठकों की जानकारी के लिए यह तथ्य और बताना आवश्यक है कि सन 1918 में गांधी जी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिंदी भाषा को राजभाषा बनाने को कहा था और यहां पर गांधी जी ने हिंदी को जनमानस की भाषा भी कहा था।
पाठकों को यह भी बता दें कि पहले हिंदी दिवस सन 1953 में मनाया गया और तभी से यह हिंदी भाषा को सम्मान और बढ़ावा देने के लिए एक वार्षिक उत्सव की तरह मनाया जाता है।
हिंदी भाषा की प्राचीनता लोकप्रियता के साथसाथ उसके अनूठेपन का मुकाबला ही नहीं इसी बात को उकेरने हेतु कुछ तथ्य इस प्रकार हैं:
1.कवि अमीर खुसरो पहले लेखक थे,जिन्होंने हिंदी कविता की रचना की और उसे प्रकाशित किया था।
2.एक और आश्चर्यजनक तथ्य है कि हिंदी भाषा के इतिहास पर किताब लिखने वाला पहला लेखन भारतीय नहीं वरन एक फ्रांसीसी लेखक था।
3.अब बात कुछ राजनीतिक और वैश्विक गलियारे सेहिंदी प्रेम के लिए विख्यात स्वर्गीय एवं आदरणीय भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई जी ने सन 1977 में गर्व के साथ हिंदी भाषा के प्रति सम्मान दिखाया था और वे संयुक्त राष्ट्र में हिंदी भाषा में बोले थे। 
4.एक और तथ्य जो अब लगभग इतिहास के गर्व में रह गया है वह यह की 26 जनवरी सन 1950 को संसद के अनुच्छेद 343 के अंतर्गत हिंदी को प्राथमिक भाषा माना गया है। 
  1. हिंदी के कुछ शब्द यथा अच्छा और सूर्य नमस्कार ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में यथा रूप में जोड़े गए हैं।
           अब यदि हम हिंदी भाषा की पहुंच वैश्विक रूप में देखें तो पाठकों को गर्व होगा कि भारत के अतिरिक्त हिंदी बहुत से देशों में बोली जाती है उनमें पाकिस्तान, भूटान, नेपाल,बांग्लोदश, श्रीलंका,मालदीव, म्यांमार, संयुक्त अरब अमीरात, युगांडा,फिजी,मॉरीशस, सूरीनाम, गुयाना, इंडोनेशिया,सिंगापुर, थाईलैंड, चीन,जापान, ब्रिटेन, जर्मनी,न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका, यमन, और त्रिनाड एंड टोबैगो, कनाडा आदि देश शामिल हैं।                यही नहीं ,हमारी आपकी हिंदी भाषा  दुनिया के 150 से ज्यादा देशों में बोली जाती है।एक और रोचक बात यह है कि हिंदी दुनिया भर के 200 से ज्यादा विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है। यदि हम इसे जनतांत्रिक आधार पर कहें तो हिंदी विश्व भाषा है,क्योंकि उसके बोलनेसमझने वालों की संख्या संसार में तीसरी है।समूचे विश्व के 132 देशों में जा बसे भारतीय मूल के लगभग दो करोड़ लोग हिंदी माध्यम से ही अपना कार्य निष्पादित करते हैं।एशियाई संस्कृति में अपनी विशिष्ट भूमिका के कारण हिंदी एशियाई भाषाओं से अधिक एशिया की प्रतिनिधि भाषा है। और यह भी एक सुखद आश्चर्य ही है कि  हिंदी तीसरी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है।
उपरोक्त के अतिरिक्त यदि व्यवहारिकता के धरातल पर हिंदी को लेकर बात करें तो एक ज्वलंत मुद्दा आता है,पुस्तक प्रकाशन और प्रचार प्रसार,लेखक या संबंधित सृजक क्षेत्र के कर्मी, रॉयल्टी या सृजक कार्यों का भुगतान और इन सभी को अगर एक फ्रेम में रखकर देखना हो तो निश्चित रूप से सारी बात एक स्वतंत्र पुस्तक नीति के सृजन और उसके प्रभावी रूप से लागू करने की।
        पुस्तकें किसी भी भाषा संस्कृति और देश की राजदूत होती हैं।यह राजदूत जिन घटकों से बना होता है उनमें लेखक,अनुवादक, इलस्ट्रेटर्स, प्रकाशक और मुद्रक,और अंतिम परम परंतु सबसे महत्वपूर्ण विपणन कर्मी अर्थात पुस्तक को बेचने वाले लोग  होते हैं।भारत जैसे जनसंख्या बहुल देश में जहां सभी अहम मुद्दों क्षेत्रों  में नीति विशेष होती है और उसकी समीक्षा समय समय पर होती है ताकि उस नीति को अद्यतन रखा जा सके।आश्चर्य है कि पुस्तकों से विकसित इस देश में पुस्तक नीति की ना तो कभी कोई चर्चा हुई और ना ही इस पर किसी भी राजनीतिक सामाजिक आर्थिक नेतृत्व ने पुस्तक नीति बनाने की बात कही।पुस्तक प्रकाशन और उसे देश विदेश में प्रचारित करने के सरकारी क्षेत्र में कई पुराने और नामचीन संस्थान यथा राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, प्रकाशन विभाग,सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, साहित्य अकादमी,राज्यों की अकादमी एवं सांस्कृतिक संस्थान इस दिशा में कार्यरत हैं।निजी प्रकाशन क्षेत्र में भी बहुत से पुराने और प्रसिद्ध पुस्तक प्रकाशक इसमें कार्य कर रहे है परंतु इनकी भूमिका की पड़ताल और पारदर्शिता वर्तमान में एक मानकीकरण की मांग करती है।हिंदी भाषा को यदि सजीव राष्ट्र भाषा बनना है तो सरकार के स्तर पर नियामक और उसके कार्य तंत्र को लागू करने के त्वरित मोड में लाना नितांत आवश्यक है।अस्तु पुस्तक नीति और उसका प्रभावी और समयबद्ध क्रियान्वयन हिंदी भाषा के विकास की गारंटी दे सकता है।
पाठक सोच रहे होंगे कि पुस्तक नीति और हिंदी दिवस?! जी हां ,भाषा की प्रगति का रास्ता पुस्तकों में से ही होकर गुजरता है। इसीलिए यदि हमें लॉर्ड मैकाले की काली छाया से युवा भारत को बचाना है तो अधिक से अधिक विषयों पर सहज सरल रोचक परंतु तथ्यात्मक और प्रमाणिक पुस्तकें पत्रिकाएं तथा डिजिटल प्रकाशन लाने ही होंगें।अब कंप्यूटर और इंटरनेट तथा तकनीक ने भाषा के अनुवाद और सृजनात्मक लेखन को आसान तो कर ही दिया है इस से हिंदी और भारतीय भाषाओं का विकास हो सकता है बस दरकार है तो परिश्रमी संपादन की।
हिंदी का इंद्रधनुष तब बनेगा और खिलेगा जब उसमें रोजगार के रंग अपनी छटा बिखेरेंगे।इसी इंद्रधनुष में न्यायालय में भाषांतरण इंटरप्रिटेशन की बात हो और उसे व्यावहारिक रूप दिया जाए जो प्रौद्योगिकी के माध्यम से निश्चित रूप से संभव है आसान शब्दों में कहें तो वकील और मुवक्किल अपनी भाषा में बोलें और यदि न्यायाधीश को यह भाषा नहीं आती हो तो वह भाषांतरण के माध्यम से उसे समझ सकें। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ ने भी अपनी भाषाओं में काम कार्य करने की आवश्यकता पर बहुत बोल दिया है।ऐसे में हिंदी के प्रचार प्रसार में भाषांतरण एक उपयोगी समाधान है जो जान भाषा में न्याय मिलने की समस्या का समाधान उपलब्ध करा सकेगा। 
 अतः हिंदी दिवस के अवसर पर पाठकों,नीति निर्धारकों, हिंदी भाषा के सरकारी और गैरसरकारी संगठनों संस्थाओं को एक कार्य योजना के तहत कार्यों को करना और उसे समय समय पर समीक्षित कर हिंदी को एक मजबूत स्थान दिलाना आज के समय की आवश्यकता और अपरिहार्यता दोनों ही है।
पुरवाई पत्रिका परिवार की ओर से समूचे भारत और विश्व में रह रहे हिंदी भाषियों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।
सूर्यकांत शर्मा
फ्लैट बी 1,
मानसरोवर अपार्टमेंट,
प्लॉट नंबर 3 सेक्टर 5 ,
द्वारका नई दिल्ली 110075
मोबाइल 7982620596
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3 टिप्पणी

  1. आपने हिन्दी पर काफी विस्तार से बात की है सूर्यकांत जी! हिन्दी दिवस के इतिहास को आपने अच्छा व्याख्यायित किया। हिन्दी की लगभग सभी विशेषताओं पर आपने प्रकाश डाला है।
    हिन्दी भाषा में तय चिकित्सा विज्ञान, इंजीनियरिंग इत्यादि एक हिमालय सा लक्ष्य है जरूर पर इस पर भी काम हो रहा है। और यह पुरवाई के लिए गर्व की बात है कि इस काम में सहयोग देने वाले कमलेश कमल जी अपने समूह में हैं।हिन्दी दिवस में उनका जो एक इंटरव्यू हुआ उसका एक वीडियो हमने देखा, उन्होंने भेजा था हमें और उससे यह बात हमें पता लगी।
    आपने जो लिखा है कि *”अनुच्छेद 351 में हिन्दी के विकास की दिशा सुनिश्चित की गई थी,तिस पर सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि उसके साथ यह भी जोड़ दिया कि अगले 15 वर्ष तक विकसित होने के समय तक अंग्रेजी को राजभाषा बनाकर रखा जाएगा”*
    15 वर्ष का समय बहुत अधिक होता है। 15 वर्ष की उम्र में तो बच्चा जन्म लेकर किशोरावस्था तक का रास्ता तय कर लेता है और जानने और सीखने की महत्वपूर्ण उम्र यही रहती है।जो चीज स्वभाव में आ जाती है उसको पलटना बहुत मुश्किल होता है। यह निर्णय बहुत गलत था।

    आपने 100 टका सही कहा कि *”पुस्तकें किसी भी भाषा संस्कृति और देश की राजदूत होती हैं।यह राजदूत जिन घटकों से बना होता है उनमें लेखक,अनुवादक, इलस्ट्रेटर्स, प्रकाशक और मुद्रक इत्यादि सभी होते हैं।”*
    एक बात और आपके लेख की बहुत अच्छी और सही लगी कि *”प्रगति का रास्ता पुस्तकों में से ही होकर गुजरता है।”*
    हिन्दी के लिए आपने जो पाँच तथ्य क्रमबद्ध प्रस्तुत किए हैं वह काफी महत्वपूर्ण है।
    उनमें से एक दो हमारे लिए भी नई जानकारी की तरह थे।
    यह आपका दूसरा गद्य है जो हमने पुरवाई की लिंक पर पढ़ा। दोनों को पढ़ने के बाद हमें यह लगा कि आप पद्य से गद्य में ज्यादा दखल रखते हैं।
    बहुत-बहुत बधाइयाँ आपको इस लेख के लिये।
    प्रस्तुति के लिए तेजेन्द्र जी का बहुत-बहुत शुक्रिया।
    पुरवाई का आभार।

  2. सूर्यकांत जी सीमित समय अवधि में आपने पुरवाई के लिए यह लेख लिखा उसके लिए टीम आपकी आभारी है। आपने बेहतरीन मुद्दे उठाए है। साधुवाद

  3. आदरणीय आपने हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार व क्रियान्वयन पर बहुत विस्तृत व सटीक तथ्यों पर आधारित जानकारी अपने लेख में पाठकों तक पहुँचाई है । आपने सही कहा हिन्दी भाषा के विषय में विदेशी साहित्यकारों ने हिन्दी में अधिक सार्थक जानकारी विश्व तक पहुँचाई है । नीदरलैंड में भी एक डच व्यापारी ने 1600 में हिन्दी का व्याकरण नीदरलैंड तक पहुँचाया इसी तरह रशिया में भी संस्कृत व हिन्दी भाषा का प्रचार प्रसार वहीं के लोगों द्वारा हुआ । पुस्तक नीति की बात आपने बहुत ही सार्थक है। पुस्तकें पहले भी संस्कृति वाहक थी और आज भी है। विश्व के सभी देश एक समय में किसी न किसी अन्य देश के गुलाम रहे हैं किन्तु स्वतंत्रता पश्चात सभी देशों ने अपनी मातृभाषा को ही शिक्षा व राजकाज की भाषा बनाया इसलिए आज वह बहुत उन्नति कर रहे हैं ।आज अनुवाद के बहुत सारे साधन है विदेशों में प्रवास कर रहे भारतीय भी अनेक तरह के अनुवाद कर रहें हैं । इससे लगता है कि भारत में तकनीकी व वैज्ञानिक अध्ययन हिन्दी भाषा में जल्दी ही विद्यालयों और विश्वविद्यालयों तक पहुँचेगा। सार्थक लेख के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ व बधाई ।

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