Wednesday, October 16, 2024
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संपादकीय – क्या शोध मानसिक बीमारी का कारण है?

सवाल यह भी उठाया जा सकता है कि जो बातें स्वीडन के विद्यार्थियों के बारे में कही जा रही हैं, क्या वे भारतीय शोधार्थियों पर भी लागू की जा सकती हैं? शोध निर्देशकों ने शोधार्थियों में मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट को लेकर दो मुख्य कारण रेखांकित किये हैं। उनका मानना है कि जिन विद्यार्थियों में पहले से मनोरोग के लक्षण मौजूद होंगे वही पीएचडी की पढ़ाई शुरू करते हैं। और दूसरे वो हैं जो अपने शोध कार्य के दौरान मानसिक रोगों के शिकार होने लगते हैं। शोधार्थियों के शोध शुरू करने से पहले और समाप्त करने के बाद के कुछ वर्षों का अध्ययन करके इस स्थिति की जांच की गई है।

हाल ही में अनुज तेजस पूनियां ने अपनी एक फ़ेसबुक पोस्ट में लिखा, “इस बात के पुख़्ता सबूत हैं कि पीएचडी करना आपके मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहद बुरा है।” तेजस के इस एक वाक्य ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। मैं अपने चारों ओर के हिन्दी शोधार्थियों के बारे में सोचने लगा और अंतत: यह सोचने को मजबूर हो गया कि यह कहां तक सही हो सकता है?
मुझे अचानक अंग्रेज़ी के सबसे बड़े व्यंग्यकार जोनाथन स्विफ़्ट की कृति ‘गलिवर्स ट्रैव्लस’ की याद आ गई। अधिकांश हिन्दी वाले उसे गुलिवर कहते हैं जिसका नाम गलिवर है। जोनाथन स्विफ़्ट का जन्म डबलिन, आयरलैंड में हुआ था। अपने जीवन के अंतिम तीस वर्ष वह सेंट पैट्रिक कैथिडरल, डबलिन से जुड़ा रहा। स्विफ़्ट वैज्ञानिकों के बहुत विरुद्ध था। 
गलिवर्स ट्रैव्लस की हमें केवल एक ही यात्रा के बारे में अधिक पता है – जहां वे लिलिपुट यानी कि बौनों के देश में जाता है। मगर उसकी एक यात्रा ऐसी भी है जहां वह वैज्ञानिकों के बीच फंस जाता है। इस यात्रा में स्विफ़्ट कहता है कि, “एक पागल और मेधावी में बहुत सूक्ष्म अंतर होता है।” (There is a very little difference between a genius and a mad man!) फिर वह आगे जा कर बताता है कि कैसे पेट के बीचो-बीच से गैस उठती है और जाकर दिमाग़ के एक ख़ास हिस्से से टकराती है। यदि वो गैस सही जगह पर टकरा जाए तो इन्सान मेधावी बन जाता है और अगर वो गैस इधर-उधर टकरा जाए तो इन्सान पागल हो जाता है। 
मैंने तेजस की पोस्ट को स्विफ़्ट के व्यंग्य से जोड़ कर पढ़ने का प्रयास किया। आजकल हिन्दी साहित्य में शोधार्थियों पर कॉपी-पेस्ट का आरोप लगता रहता है। यदि हिन्दी का यही हाल है तो शायद अन्य भारतीय भाषाओं में भी कमोबेश यही स्थिति चल रही होगी। शायद तेजस की पोस्ट विज्ञान, गणित, कॉमर्स, साइकॉलॉजी वगैरह के बारे में लिखी गई होगी। भाषा पर शोध के तो सीधे-सीधे चैप्टर तय किये हुए हैं उन्हीं पर बात होती है।
तेजस का व्यवहार भी मैंने उसके पीएच.डी. शुरू करने के बाद परखने का प्रयास किया है। उसके व्यवहार में भी तनाव और निराशा महसूस की है। उसकी अपेक्षाओं की कसौटी इतनी ऊंची है कि सिस्टम और सिस्टम से जुड़े लोग कभी भी उस पर खरे नहीं उतर पाते। उसके मन में कड़वाहट जल्दी घर करने लगती है। शायद इस कारण मुझे इस विषय पर सोचने को मजबूर भी होना पड़ा।   
डॉ. कैसी एम. हेज़ल और डॉ. क्लियो बैरी का मानना है कि शोध छात्र विशेष रूप से मानसिक रोगों से अधिक ग्रस्त होते हैं बनिस्बत उनके अन्य साथियों के। यानी कि एम.ए. के बाद पढ़ाई छोड़ देने वाले छात्रों का मानसिक स्वास्थ्य शोधार्थियों के मुक़ाबले बेहतर होता है। 
तेजस आगे लिखते हैं, “एक नए शोध-पत्र में स्वीडिश मेडिकल रिकॉर्ड का इस्तेमाल किया गया है और उन्हें पीएचडी छात्रों की पूरी आबादी से मिलाया गया है, जिसके लिए लेखक 2006 से 2017 तक लिंग और जन्म वर्ष का डेटा प्राप्त कर सकते हैं। कुछ बहिष्करण मानदंडों के बाद, वे 20,085 व्यक्तियों के नमूने के आकार पर पहुँचते हैं।” मगर पोस्ट में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि किन विषयों में शोध करने वाले शोधार्थियों पर मानसिक दबाव एवं तनाव अधिक संख्या में पाए गये हैं।
एक मजेदार स्थिति यह भी है कि शोध करने पर मानसिक बीमारियों से ग्रस्त होने के विषय में भी एक शोध करना पड़ा और उस शोध-पत्र के आधार पर ही तेजस ने पोस्ट लिखी और आज यह संपादकीय आप तक पहुंच रहा है। शोध-पत्र स्पष्ट करता है कि बहुत से शोधार्थी काम और तनाव के दबाव तले दबे हुए हैं और उनका मानसिक स्वास्थ्य इस दबाव और तनाव के कारण निरंतर चिंताजनक स्थिति में पहुंच रहा है। इनमें डिप्रेशन के साथ-साथ आत्महत्या तक सोचने की स्थिति पैदा हो रही है। इस बारे में नई नीतियां बनाने की बात भी कही गई है। 
इस शोध में केवल स्वीडन के विद्यार्थियों को शामिल किया गया है और तुलना उन विद्यार्थियों की आपसे में की गई है जिन्होंने एम.ए. के बाद पढ़ाई छोड़ दी और जिन्होंने पीएच. डी. में शोध करना शुरू कर दिया। इस शोध करने वाले विशेषज्ञों ने स्वीडन और अमरीका के शोधार्थियों का तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। मगर ऐसी कोई समस्या कि ज़िक्र इसमें नहीं किया गया है कि शोधार्थी का विषय निर्देशक द्वारा कहीं भी किसी प्रकार का शोषण हो रहा है।
सवाल यह भी उठाया जा सकता है कि जो बातें स्वीडन के विद्यार्थियों के बारे में कही जा रही हैं, क्या वे भारतीय शोधार्थियों पर भी लागू की जा सकती हैं? शोध निर्देशकों ने शोधार्थियों में मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट को लेकर दो मुख्य कारण रेखांकित किये हैं। उनका मानना है कि जिन विद्यार्थियों में पहले से मनोरोग के लक्षण मौजूद होंगे वही पीएचडी की पढ़ाई शुरू करते हैं। और दूसरे वो हैं जो अपने शोध कार्य के दौरान मानसिक रोगों के शिकार होने लगते हैं। शोधार्थियों के शोध शुरू करने से पहले और समाप्त करने के बाद के कुछ वर्षों का अध्ययन करके इस स्थिति की जांच की गई है।  
वहीं यह भी नोट किया गया है कि स्वीडन के स्थानीय शोधार्थियों के मुक़ाबले विदेशी शोधार्थियों में मानसिक तनाव और दबाव के लक्षण कहीं कम संख्या में पाए गये हैं। यदि स्वीडिश शोधार्थियों में यह संख्या सात प्रतिशत है तो विदेशी छात्रों में केवल दो प्रतिशत है। हालांकि ध्यान देने लायक बात यह भी है कि विदेशी छात्रों को तो नये माहौल और संस्कृति के साथ अपना सामंजस्य बिठाने में भी अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है। इसका एक कारण यह भी समझा जा रहा है कि विदेशी छात्र स्वीडन की मुफ़्त स्वास्थ्य सेवा से परिचित ना होने के कारण, अपने मानसिक तनाव के बारे में किसी प्रकार कि सहायत मांगने के लिये आगे ही नहीं आते होंगे। 
हमें इसे एक अमीर देश की नख़रेबाज़ी ना समझते हुए इस बात की ओर गंभीरता से ध्यान देना होगा कि क्या सचमुच ही शोध से जुड़े भारत के तमाम विश्वविद्यालयों में शोधार्थियों को तनाव, दबाव और डिप्रेशन का शिकार होना पड़ रहा है। बचपन से एक बात सुना करते थे कि हमारा जीवन इतना लंबा नहीं हैं कि हम तमाम ग़लतिया ख़ुद कर सकें। इसलिये हमें दूसरों की ग़लतियों से सबक लेना आना चाहिये। उसके अनुसार भारत में भी यह जांच आवश्यक है कि शोध करने वाले छात्रों को कैसी-कैसी प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है। सफलता से पीएच डी की डिग्री हासिल करने वाले किन-किन समस्याओं से जूझते हैं। रजिस्ट्रेशन के दबाव से लेकर शोध पूरा करने के तनाव से गैसे निपटते हैं हमारे शोधार्थी। 
मेरे दिमाग़ में कोविद-19 की स्थितियां कौंधने लगीं। उन वैज्ञानिकों के बारे में सोचने लगा जिन्होंने इस विश्वमारी के लिये वैक्सीन बनाने का काम किया होगा। सबसे अलग-थलग रह कर; केवल लैबोरेटरी में बन्द हो कर कैसे ऐसा महत्वपूर्ण काम कर रहे होंगे जबकि रोज़ाना सैंकड़ों लोगों के मरने की ख़बरें उन पर दबाव, तनाव, निराशा और कुंठा का पहाड़ खड़ा कर रही होंगी।
डेडलाइन का तनाव अलग से रहा होगा। और यहां तो कोई गाइड भी नहीं था राह दिखाने के लिये। मगर भारत, अमरीका, ब्रिटेन जैसे देशों में वैक्सीन बन कर तैयार ही नहीं हुए, उनका सफल परीक्षण भी हुआ और इस्तेमाल भी। क्या हमें उन तमाम वैज्ञानिकों के मानसिक स्वास्थ्य के बारे में भी सोचना होगा कि हमें बचाने के चक्कर में उन्होंने कितना कुछ अपना खोया! 
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
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67 टिप्पणी

  1. एक लीक से हट कर संपादकीय।डॉक्टरेट या आम भाषा में पीएचडी करते हुए मनः स्थिति निश्चित रूप से अलग देखी गई है।पढ़ाकू किस्म के छात्र मनोविकार या मानसिक तनाव या मानसिक कुंठाओं का अधिक शिकार होते देखे गए हैं।मेरा व्यक्तिगत अनुभव दिल्ली विश्वविद्यालय के डी स्कूल या इंस्टीट्यूट ऑफ इकनॉमिक ग्रोथ या फिर साहित्य या ह्यूमैनिटीज विषयों पर रहा है। पढ़ाकू या फिर शो ऑफ वाले छात्र निश्चित रूप से अपना नैसर्गिक व्यवहार खो बैठते देखे गए हैं।
    पर यह विषय तो निश्चित रूप से शोध और सिर्फ शोध का है।
    हिंदी का गुलिवर और अंग्रेज़ी का गलिवर भी शोध के विद्यार्थियों में बहस का विषय होता था।पर भला हो जोनाथन स्विफ्ट साहाब का जिन्होंने आम पढ़ाकुओं को मज़ेदार कहानियां पढ़ने को दी।
    बढ़िया संपादकीय।

    • हार्दिक आभार, भाई सूर्यकांत जी। हमारा प्रयास रहता है कि पुरवाई लीक से हट कर ही लिखे।

      • शोध से बहुत सी बातों का पता चलता है लेकिन कई बार वास्तव में यह मानसिक रोगों का कारण बन जाता है। ठीक उसी प्रकार से जैसे कि किसी परीक्षा में कामयाबी नाम मिलने पर लोग निराश होकर आत्महत्या कर लेते हैं। इस प्रकार शोध दिशा नहीं पकड़ता तो शोधार्थी की मानसिक दशा तक बदल देता है। ऐसा अक्सर होता है जब शोध गाइड अच्छा ना मिले।

  2. बहुत आभार साहित्यिक पिता। यकीनन मैं इस तनाव से गुजरा हूं और जब लोग आपकी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते तो शोध का तनाव और बढ़ जाता है। फिर चाहे आप पूरी दुनिया की अपेक्षाओं पर खरे उतरते रहें उन्हें इससे कोई सबका नहीं।
    बेहद व्यवस्थित संपादकीय लिखा है आपने। मेरे साथ साथ कई सैंकड़ों शोधार्थियों की जिज्ञासाओं का भी अवश्य ही शमन होगा इससे।
    शोध तथा अपेक्षाओं पर खरा उतरने और ना उतरने का जो मानसिक तनाव है उससे भी निजात पाने का जो उपाय आपने दिया था उसे अपनाने लगा हूं।
    पुनः शुक्रिया।

  3. संपादकीय में आपने यह अलग तरह का विषय उठाया है। ‘क्या शोध मानसिक बीमारी का कारण है ‘?’ आपने इस संपादकीय को गहन शोध के साथ लिखा है। आपने संदर्भों के साथ इस बीमारी को पाठकों के सामने रखकर एक ? लगाकर छोड़ दिया है।
    इसको तो वह ज्यादा जान सकता है जिसने शोध कार्य किया हो या करवाया हो। मैंने शोधकार्य किया है इसलिए मेरा मानना है कि यदि रुचि का विषय मिले तो शोध में कोई तनाव नहीं है। न बीमारी जैसे लक्षण दिखाई देते हैं।
    शोधार्थियों के मानसिक तौर पर बीमार होने के कुछ कारण है जिन्हें समझना आवश्यक है। शोधार्थी को लिखना ही नहीं आता है। वह ढंग से वाक्य संरचना जीरो होती है। उस विषय पर उसकी जानकारी होने के बावजूद वह लिखने से घबराता है। इस कारण उसके शोध की समय-सीमा पार हो जाती है। गाइड अलग से समय से पूरा करने का हमेशा दबाव बनाता रहता है। यूनिवर्सिटी से समय बढवाकर वह जैसे-तैसे इधर-उधर की नकल मारकर थीसिस सम्मिट कर देता है। कुछ गाइडों ने धन कमाने का जरिया बना लिया है।धन के अभाव में वह मानसिक परेशानी में आ जाता है।
    मैं फिर कहता हूं कि शोध में जिसकी रुचि होगी उसके लिए शोध खेल है। नई नई चीजों पर शोध करना उसे भाएगा। अयोग्य लोगों को इस कार्य से दूर रहना चाहिए। लेकिन डिग्री के चक्कर में ऐसे लोग घिसट घिसटकर, मानसिक तनाव में रहकर कर तो लेते हैं लेकिन वे मानसिक तौर पर बुरी तरह प्रभावित भी हो जाते हैं।
    आपकी संपादकीय ने इस विषय को उठाकर नई तरह से सोचने पर बाध्य किया है। पुरवाई के संपादक जी को बधाई। आशा करता हूं कि आप इसी तरह के नए-नए विषयों के साथ पाठकों का ज्ञानवर्धन करते रहेंगे।

    • भाई लखनपाल जी, आपकी टिप्पणी सच में बेहतरीन है। हर पाठक को यह टिप्पणी पढ़नी चाहिए। हार्दिक आभार।

    • रुचि का विषय मिलता नहीं, विषय शोधार्थी का होता है। रुचि, योग्यता, परिश्रम की क्षमता होते हुए भी शोध छोड़े जाते हैं, जिनकी वजह से गहरा अवसाद होता है। कुछ उबर जाते हैं कुछ टूट जाते हैं।
      अयोग्यता ही कारण नहीं होती मानसिक सन्तुलन खोने की। शायद आप इतने भाग्यशाली रहे कि अभद्र और शोषक गाइड देखे नहीं। गाइड के लिए शोध गुनाह- बे-लज़्ज़त है। बस अपनी cv strong करने के लिए शोध कराते हैं। इस लिए शोधार्थी से बहुत कुछ पाने की जोड़-तोड़ में लगे रहते हैं।
      यदि शोधार्थी किसी भी सीमा तक जाकर compromise करने को तैयार नहीं तो, उसे पीएचडी का लक्ष्य छोड़ना पड़ता है। स्त्री शोधार्थियों के साथ यह समस्या अधिक आती है, यदि गाइड पुरुष है।
      तेजेन्द्र जी की काफ़ी पहले की लिखी एक कहानी भी इसी विषय पर है।

      • मैडम जी, मैं आपकी इस टिप्पणी पर अपनी प्रतिक्रिया देना चाहता हूं, आप इसे अन्यथा न लीजिएगा। मेरे शोध के समय भी ऐसी स्थितियां आई है। मैं स्त्री नहीं हूं तो वैसा तो नहीं आई पर अन्य सभी प्रकार की आई है। मेरा शोध फील्ड वाला था। एक जनपद के साहित्यकारों पर। मैं जिससे मिलता था, सब यही कहते थे कि तुम्हारे गाइड बिना पैसे के थीसिस में साइन नहीं करेंगे। यह बात सच भी थी। पूर्व के शोधार्थियों ने, यहां तक कि उनके रिश्तेदारों तक ने यही बात कही थी। उनके एक परिजन ने तो यहां तक कहा था कि हमें इतने रुपए दो हम थीसिस लिख देंगे। मैंने मना कर दिया। मेरे पास उस समय पैसे भी नहीं थे। गांव से आया ही था। बहुत कम पैसों में एक विद्यालय में शिक्षण कर रहा था। गरीबी आदमी को औकात से ज्यादा चालाक बना देती है। जिस किसी ने मुझसे यह बात कही मैंने वह बात अपने गाइड को बताई। गाइड अपने पक्ष में कहते कि गलत कह रहे हैं लोग। मैंने आपसे कुछ लिया। मैंने कहा, नहीं। मैंने उन्हें कहा कि आपके पक्ष में जब मैं बोला तो तीखी बहस हो गई। जबकि ऐसा हुआ नहीं था। मैं अधिकतर उनके विरोधियों के पास जाता था जो कि वे साहित्यकार होते थे। वे गाइड की खूब सच्ची बुराई करते थे। जब मैं थीसिस में साइन कराने गया तो उन्होंने मेरी थीसिस में बिना कुछ लिए साइन कर दिए। मैंने अपनी तरफ से उन्हें कुछ पैसे गुरु दक्षिणा के रूप में देने चाहे पर उन्होंने नहीं लिए। मैंने कहा गुरु जी मुझे कपड़े खरीदने नहीं आते हैं नहीं तो मैं आपके लिए कपड़े खरीद लाता। आप इन रुपयों से अपने लिए कपड़े खरीद लेंगे तो मुझे अच्छा लगेगा। उन्होंने पैसे लिए ही नहीं पर मैं उन पैसों को उनके चरणों में रखकर चला आया। इसके बाद मैं उन सबके यहां यह बताने के लिए गया कि मेरी थीसिस में सर ने बिना पैसों के साइन कर दिए हैं। मैं अब मानता हूं कि लोग व्यर्थ में कुछ का कुछ कहते हैं।
        मेरी वह थीसिस 600 पृष्ठों से अधिक की है। जिले का कोई ऐसा साहित्यकार नहीं बचा था जिसके पास मैं न गया हूं। मैंने उनकी रचनाओं पर जो विश्लेषण किया है उसे युनिवर्सिटी में इंटरव्यू के समय बाहर से आए हुए प्रोफेसरों ने प्रशंसा की थी। हमारे गाइड की छाती चौड़ी हो गई थी। मैंने इसमें अपनी प्रशंसा कुछ ज्यादा लिख दी है। इसके लिए आप मुझे माफ कीजिएगा।

  4. अत्यंत विचारणीय… जैसे जैसे विकास की दिशा में हम बढ़ते हैं… ऐसे ही असहनीय स्थिति भी प्रकट होती है। इसका समाधान कल भी नहीं था आज भी नहीं। आजका संपादकीय छात्रों की मानसिक स्थिति पर ही केवल आधारित नहीं है.. मानवीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो आज का वातावरण कलुषता से कितना परिपूर्ण है,यह भी चित्रण किया गया है।

    आपकी लेखनी से इस महत्वपूर्ण विषय पर जो विचार लिखे गए हैं, आशा है कि इससे विद्यार्थिओं का मनोबल दृढ़ हुआ होगा।

  5. शोधार्थी के विषय में जो बात कही गई उसमें कुछ हद तक गलत नहीं है क्योंकि इस विषय में – मैं एक ऐसी भुक्तभोगी शोधार्थी रही हूँ, जिसने अपना कार्य संपूर्ण करने की बाद अपनी थीसिस को अपने ही हाथ से नष्ट कर दिया लेकिन इसके पीछे क्या होता है ? मुझे कोई मनोरोग नहीं था , मैंने ऐसा विषय चुना था जो उस समय के कानपुर विश्वविद्यालय में कोई भी नहीं जानता था क्योंकि मैंने शिक्षा शास्त्र विषय में अपने आईआईटी की शोध सहायक होने के नाते मशीन अनुवाद पर जो कार्य कर रही थी, उसी को विश्वविद्यालय में पंजीकृत करवाया था। मेरी जो निदेशक थी वह मेरी परिचितों में थी और जब मेरी किसी विश्वविद्यालय में मेरा विषय का पंजीकरण हो गया तो वह बहुत खुश थी कि उनके निदेशन में सबसे अलग विषय पर शोध होगा। मेरा विषय था शिक्षा में मशीन अनुवाद की भूमिका इस विषय मैं वास्तविक निदेशक हमारे आईआईटी परियोजना निदेशक और उनको मैंने को गाइड के रूप में प्रस्तुत किया था। जब कार्य मेरा चल रहा था, उसी दौरान मेरी निदेशक ने मुझे कई तरह के कार्य दिए कि यह काम भी कर दो क्योंकि वह अपने प्रभाव से विश्वविद्यालय में छात्रों को पंजीकृत करवा कर और दूसरों से थीसिस तैयार करवा के उसके नाम से जमा करके उपाधि दिलवाने का काम भी करती थीं , ये बात मुझे तब पता चली। उनको इसके एवरेज में उनको खासी रकम और सोने आदि के आभूषण भी प्राप्त होते थे। मैं अपनी नौकरी के साथ-साथ यह कार्य कर रही और इसके साथ परिवार भी। मैंने जब अपने अध्याय तैयार किये और उनको दिखाए तो वह उन सब चीजों से बिल्कुल अनभिज्ञ थींं। उन्होंने कहा तुम काम पूर्ण कर लो मैं आईआईटी की कार्य प्रणाली के अनुसार काम कर रही थी। मेरा कार्य बहुत तेजी से आगे बढ़ा। जब मैंने उनको कहा कि आधे से ज्यादा कार्य मेरा हो चुका है, जल्दी ही मैं उसको समाप्त कर दूंगी तो उन्होंने सोचा इसको मानसिक तौर पर तैयार कर दिया जाय और मुझे उन्होंने कई तरह से बताया उसका शोध पूर्ण होने पर उसने मुझे सोने की अँगूठी थी, किसी ने जंजीर दी और किसी ने नगद राशि। धीरे-धीरे मुझे समझ आने लगा कि हमसे भी कुछ चाहती हैं, लेकिन मैं इतनी समर्थ नहीं थी कि उनको कोई उपहार दे पाती और अपने ही हाथों से अपने कार्य को आग के हवाले में कर दिया और शोध का इरादा छोड़ दिया। इसके बाद में कई लोगों ने कहा कि मैं विश्वविद्यालय में एक एप्लीकेशन देकर अपनी निदेशक को बदल सकती थी लेकिन मैं और तनाव झेलने की स्थिति में नहीं थी। अगर यह कहा जाता है कि शोधार्थी पहले से मनोरोगी होते हैं या फिर बाद में हो जाते हैं तो इसके बाद की स्थितियां बहुत अलग ह़ोती हैं। कभी-कभी तो शोधार्थी आत्महत्या तक का निर्णय लेते हैं। वे अपनी बात कह नहीं सकते अपनी निदेशक की दबाव को बात नहीं कह सकते हैं। और इसका परिणाम यही होता है कि वह अवसाद में चला जाता है और फिर उनके बारे में कुछ भी कहा जा सकता है जो कि आज कहा जा रहा है।
    कई निदेशक तो शोधार्थी को घर के कामों में, बच्चों को पढ़ाने में भी प्रयोग करते हैं। फिर क्यों न हों वे मनोरोगी?

    • रेखा जी आपकी इमोशनल टिप्पणी हर पाठक की आंखें गीली करने में सक्षम है। हर पाठक को यह टिप्पणी पढ़नी चाहिए। हार्दिक आभार।

  6. आपके सम्पादकीय ने दुःखती रग पर हाथ रख दिया। अपने शोध के दिन याद आ गए। मेरे अनुभव से शोध कार्य से मानसिक दबाव नहीं पड़ता लेकिन शोध कराने वाले मानसिक दबाव पैदा करते हैं। गाइड, सिर्फ़ मिस गाइड करते हैं और शोधार्थी को ऐसी परिस्थितियों में डालते हैं कि बेचारा अपना मानसिक संतुलन खो सकता है या खो देता है।
    मुझे लगता था कि भारत के ही गाइड ही ऐसे बीहड़ होते हैं। लेकिन विदेशों में भी यही हाल है जानकर मन को तसल्ली हुई की हमीं इस ग़म के मारे नहीं।
    तेजस की स्थिति मैं बहुत अच्छी तरह से समझ सकती हूं, मैं भी भुक्त भोगी हूँ। मेरी Ph.D. तो पूरी नहीं हो सकी लेकिन ईश्वर उसकी सहायता करे।
    जैसा आपने ने कहा कि इस मामले की पड़ताल होनी चाहिए। निश्चय ही यह मुद्दा विचारणीय है। आपकी बात राष्ट्रीय स्तर तक पंहुचे, यही शुभकामना है। लीक से हटकर लिखे उत्तम संपादकीय के लिए हार्दिक धन्यवाद और बधाई।

    • शैली जी, आपने अपने निजी अनुभव के साथ संपादकीय को जोड़ कर सही पड़ताल की है। हार्दिक आभार।

    • शैली जी आपकी दी गई शुभकामनाओं के लिए बेहद शुक्रिया मुझे तनाव शोध के कारण होता है पर उससे कहीं ज्यादा तनाव का कारण बाहरी तत्व हैं। शोध का तनाव भी इसलिए है की लीक से हटके एकदम नया विषय खोजा है जिस पर आज तक कोई शोध नहीं हुआ। ना किताबें ठीक से उपलब्ध है। मेरे गाइड मोहसिन खान जी बेहद प्यार करने वाले और अच्छे इंसान है मेरी हर संभव मदद करते हैं शोध में।
      फिर भी तनाव तो हो ही जाता है आजकल का समय ही ऐसा है शायद। बाकी मुझे अपने ईश्वर पर भी यकीन है पूरा कि वे मेरी हर मुश्किल को आसान करते हुए मुझे मंजिल तक पहुंचा ही देंगे।

  7. संपादकीय का विषय वास्तव में नया और विचारोत्तेजक है और काफी रोचक तरीके से लिखा गया है। जिस तरह से आपने इसे गुलिवर की यात्रा और वैज्ञानिकों पर जोनाथन स्विफ्ट के विचारों से जोड़ा है, वह अद्भुत है। यह दिलचस्प होने के साथ-साथ हमारे अंदर कई सवाल भी छोड़ता है। वाकई एक बेहतरीन लेख

  8. शोध का मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पर अद्भुत शोधपरक ज्ञानवर्धक जानकारी। आपके सम्पादकीय सदैव विशिष्ट होते हैं। हम सभी इस दौर से गुजर चुके हैं पर कारण अब पता चला।

    • ऊषा जी, पुरवाई का निरंतर प्रयास रहता है कि अनछुए विषयों पर संपादकीय लिखे जाएं। हार्दिक आभार।

  9. आदरणीय तेजेन्द्र जी! आपने ये संपादकीय लिखकर हम शोधार्थियों को नई राह दिखाई है। आपने इसमें मानसिक स्वास्थ की समस्या पर चर्चा करके शोध-केंद्रों, शोध-निर्देशकों एवं शोधार्थियों की समसामयिक वैश्विक स्थिति को प्रस्तुत किया है।

    हम भी स्वत्रंत रूप से शोध में संलग्न हैं और जल्द ही पीएचडी स्कॉलर बनने वाले हैं। शोध एक तपस्या है। जिसमें शोधार्थी को 3-4 वर्षों तक अपने शोध-विषय पर केंद्रित होकर तन-मन-धन का व्यय करना होता है। यदि शोधार्थी को लेखन में रूचि होती है और उसे मनपसंद शोध-विषय और शोध-निर्देशक मिलता है तो उसे नाममात्र की समस्या का सामना करना पड़ता है और मानसिक स्वास्थ्य की हानि नहीं उठानी पड़ती।

    महिला शोधार्थियों के शोध-निर्देशक यदि पुरूष होते हैं तो उन्हें एक गंभीर समस्या से जूझना पड़ता है। और वो गंभीर समस्या है – यौन-शोषण। पुरूष शोध-निर्देशकों और महिला शोधार्थियों के बीच यौन-शोषण के मामले चर्चा में बने ही रहते हैं। शोध में दाखिला लेने की प्रक्रिया से शोध समाप्ति तक उक्त समस्या बनी रहती है। ऐसा कैसे होगा कि महिला शोधार्थियों को यौन-शोषण की समस्या से न गुजरना पड़े? इस समस्या का भी समाधान सुझाईए
    आदरणीय तेजेंद्र जी।

    पुरवाई की नए-नए विषयों पर संपादकीय लिखकर आप युगान्तकारी काम कर रहे हैं।
    आपको भौत-भौत बधाई! आदरणीय तेजेन्द्र जी

    • भाई गिरिजा शंकर, आपने शोध प्रक्रिया के प्रेक्टिकल पहलुओं को अपनी टिप्पणी में उजागर किया है। हार्दिक आभार।

  10. आपने एक महत्वपूर्ण विषय उठाया है l वाकई में शोधार्थी तनाव झेलते हैं और माहौल ऐसा नकारात्मक बना दिया जाता है कि व्यक्ति मानसिक तनाव और दवाब का शिकार हो जाता है l साथ मैं ये देखती हूँ की पूरी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी बना दी गई है l विज्ञान के शोधार्थी तो और ज्यादा दुर्गति झेलते हैं, क्योंकि उन्हे लैब भी चाहिए l वे केवल किताबें पढ़कर या कहीं जाकर सूचनाएँ इकट्ठी करके अपना काम नहीं कर सकते हैं l इसमें शासन-प्रशासन, लाल फीताशाही सब उनके मार्ग में अवरोध बन कर खड़े हैं l आपने वैज्ञानिकों की बात को भी इसमें जोड़ा है, वाकई में हमें इस ओर भी ध्यान देना चाहिए कि वे कितना तनाव झेलते हैं। मुझे आई आई एम कोझिकोड के एक विधार्थी से बात करने का अवसर मिला l वहाँ निश्चित समय के अलावा किसी भी समय प्रोफेसर बुलाया लेते हैं l ये समय रात के दो बजे, तीन बजे सुबह के चार बजे कभी भी हो सकता है l अपने घरों से दूर हॉस्टल में रह रहे बच्चों पर क्या गुजरती है ये तो बच्चे ही जानते होंगे पर संस्थानों का कहना है कि भविष्य में उन्हें हाई टेक जॉब करने के लिए हर समय अलर्ट की अवस्था में रहना होगा । आपके संपादकीय ने एक ऐसे विषय पर सोचने के लिए विवश कर दिया, जिस पर अमूमन ध्यान नहीं दिया जाता, जबकि मानसिक स्वास्थ्य शारीरिक स्वास्थ्य जितना ही महत्वपूर्ण है l

    • वंदना आपने अपनी सृजनात्मक टिप्पणी से संपादकीय में नये आयाम जोड़ दिये हैं।
      हार्दिक आभार।

  11. Your Editorial of today is very interesting and leads one to deep thought.
    It is true during one’s research work one indulges in overthinking which may further lead to tension.
    Warm regards
    Deepak Sharma

  12. बड़ा ही मौजूँ विषय पर जानकारी से भरा आवश्यक चिंतन.
    तेजस जी की पोस्ट से ये विचार उपजे अर्थात मानवीय जीवंत संवेदना से लिखा गया संपादकीय।
    कई जरूरी चिंताओं की ओर ध्यान दिलाया है आपने।
    बेहतरीन।

    • अनिता जी, किसी भी संवेदनशील लेखक को केवल एक सूत्र की ज़रूरत होती है। उसी सूत्र से सृजन का आग़ाज़ हो जाता है।

  13. लीक से हटकर है आपका आज का संपादकीय…
    स्वीडन का उदाहरण देकर, उसे भारतीय परिपक्ष्य में देखने की कोशिश आपके अनुसन्धान प्रेमी दिल की आवाज है।

    जहाँ शोध का प्रश्न है…मुझे याद है जब मैं गोरखपुर विश्वविद्यालय में हॉस्टल में रहकर पढ़ती थी तब हॉस्टल में रह रही कुछ लड़कियां शोध कर रही थीं। उस समय भी किसी को चार वर्ष, किसी को पांच वर्ष से शोध करते हुए सुनकर लगता था कि ये कब तक यूँ ही पढ़ती रहेंगी?

    जहाँ तक मनोरोग की बात है तो जो शोध करना चाहता है, उसे मनोरोगी कहना उचित नहीं है क्योंकि शोध वही करेगा जिसे अपने विषय में और जानने की ललक होगी । यह बात और है कि उचित गाइड या मनोनुकूल विषय के अभाव में या समय अधिक लगने के कारण वह मनोरोग का शिकार होने लगता है।

    कोविड के समय का उदाहरण देकर
    आपने स्वतः सिद्ध कर दिया है कि परिस्थितियां चाहे कितनी भी प्रतिकूल हों, अगर ध्येय निश्चित हो तो इंसान सफलता प्राप्त कर ही लेगा।

    • आदरणीय सुधा जी, आप पुरवाई के संपादकीय पर हर बार गंभीर एवं सार्थक टिप्पणी देती हैं। हम आपकी टिप्पणियों से भी सीखते हैं। हार्दिक आभार।

  14. शोध की सर्वप्रथम शर्त होती है धैर्य, आप में जितना धैर्य होगा आप उतना अपना शोध अच्छे से कर पाएंगे,दूसरी शर्त होती है आपका रुचिकर विषय‌ और तीसरा आपका गाइड कितना सपोर्टिंग है। इन तीनों में किसी एक की भी अनुपस्थिति शोध में तनाव का कारण बन सकती है। इन तीनों विषय में मैं सौभाग्यशाली रही हूं।धैर्य की इसलिए आवश्यकता होती है क्योंकि थीसिस में एक लंबा समय लगता है और विषय रुचिकर होगा तो आप लंबे सफर को आराम से तय कर सकते हैं मैंनें 2016 में एंट्रेंस दिया था 2018 में लिस्ट तैयार हुई 2019 में कोर्स वर्क हुआ और 2021 में आरडीसी हुई उसके बाद थीसिस प्रारंभ हुई और अभी मेरा प्रसन्नतापूर्वक कार्य चल रहा है।

  15. एक और गंभीर सरोकार से जुङे विषय पर बात करने के लिए आभार। आपका कहना उचित ही है किन्तु मेरा ऐसा मानना है कि शोध करने वाले छात्र को यदि अंत तक उसमें रुचि बनी रहे तो संभवतः वो मनोविकार से ग्रस्त न हों । दूसरी बात केवल शोधार्थी ही नहीं आजकल एक बङा तबका उन लोगों का भी है जो अपने कार्य स्थल पर भी बेहद तनाव में रहते हैं । लगातार 12 से 14 या 16 घंटे काम । ऊबाऊ माहौल, रोज की अपने व्यक्तिगत तनाव सब कुछ । अतः सिर्फ शोधार्थी ही नहीं इस समय में हर व्यक्ति गहरे तनाव में है
    अपेक्षायें कभी किसी की पूरी होती नहीं हैं। ये सिर्फ दिल बहलाने वाली बात है कि अपेक्षाओं पर कोई खरा उतर गया। जहां तक हो अपनी विपरीत स्थितियों में सहज रहने का मार्ग खोज लेना ही श्रेयस्कर है। कहने में आसान है मगर कोशिश करने से मिल भी जाता है। अच्छे दोस्त बनाइये चाहे एक ही सही

    • रेणुका जी, आपने संपादकीय पर टिप्पणी करते हुए बहुत महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा की है। हार्दिक आभार।

  16. शोध है मानसिक तनाव पैदा करता ही है, बस उस तनाव को हावी होने नही देना है। विषय की रूचि और उसे साकार करने का जज़्बा शीधार्थी को कामियाब बना देता है।

  17. आदरणीय सादर प्रणाम इस सुंदरी संपादकीय भी फिर से अपने पीछे एक महत्वपूर्ण प्रश्न छोड़ जाता है। भारत के शोधार्थी और विदेश के शोधार्थियों में अंतर तो ज़रूर है। भारत में यह तथ्य कितना सही निकलता है। यह सोचने की बात है।

    • प्रिय ऋतु, प्रयास रहता है कि हर बार कुछ नया किया जाए। इतनी प्यारी टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।

  18. आदरणीय संपादक जी,

    संपादकीय में एक नये विषय की चर्चा व मनोविज्ञान को समझने का प्रयास सराहनीय व प्रशंसनीय है। मैं इसे एक प्रगतिशील प्रयोग मानता हूँ।
    शोधार्थियों के मनोविज्ञान पर आपका विश्लेषण तार्किक तथ्यात्मक, सत्य एवं स्वभाविक है। हर विषय की तरह इस विषय के भी कई पहलु हो सकते हैं। इसलिए इस विषय के यदि एक और पहलु पर विचार किया जाए तो मुझे लगता है शोध प्रवृत्ति एक ईश्वरप्रदत जन्मजात प्रतिभा है जो सर्व सामान्य के लिए नहीं है।
    प्रतिभासंपन्न शोधार्थियों के लिए शोध जहाँ उसका जुनून है, आनंद है। वहीं शौकिये परिश्रमी अभ्यासी शोधार्थियों के लिए शोध कार्य एक कठिन टास्क है।
    प्रतिभासंपन्न व्यक्ति जब क्रिकेट सीखता है तो सचिन बनता है और परिश्रमी अभ्यासी व्यक्ति जब क्रिकेट सीखता है तो अर्जुन!
    खेलने को क्रिकेट दोनों हीं खेलता है। परिणाम अलग अलग होते हैं। ठीक उसी तरह जैसे अलग अलग व्यक्तियों में अलग अलग जन्मजात प्रतिभा कला अथवा कोई विशेष गुण अवगुण इत्यादि होता है।
    पूर्वी हिन्दी में एक कहावत है। हुलकाया हुआ (उकसाया हुआ) कुत्ता शिकार नहीं करता। यानि शिकारी कुत्तों में शिकार करने की अलग से विशेषता व कुशलता होती है। किसी किसी व्यक्ति में प्रतिभा प्राकृतिक रुप से होती है। और किसी किसी में प्रशिक्षण से भरी जाती है। प्रशिक्षण से भरी गई प्रतिभा प्रतियोगिता जीत सकती है। परंतु पूर्ण परिणाम नहीं दे सकती।
    प्रतिभासंपन्न शोधार्थी के लिए शोध उसके आनंद का लक्ष्य है। वही शोध जब कोई सामान्य शौकिया व्यक्ति प्रशिक्षण, परिश्रम व अपने अभ्यास से करना चाहता है तो उसके लिए कठिन सरदर्द अथवा एक बोझ जैसा हो सकता है।
    उदाहरण के लिए हम किसी कला जैसे गायन को ले सकते हैं। जिस व्यक्ति में गायन की जन्मजात प्रतिभा है उसे मात्र थोड़ा सा प्रशिक्षण और स्थापित गायन विद्या की सामान्य बारिकियों के ज्ञान से अवगत होने की जरुरत होती है। शेष वह अपने आप हीं अपनी नई शैली व नये नये राग सुर ताल इत्यादि की सहज हीं खोज करने लगता है, कर लेता है।
    दुसरी संभावना किसी को संगीत से शौक या पेशे की हो सकती है। वह सतत परिश्रम अभ्यास एवं प्रशिक्षण से भी संगीत सीख सकता है। मगर इस तरह के अभ्यासी संगीतज्ञ के लिए इतनी जल्दी कोई नया राग सुर अथवा शैली बना लेना आसान नहीं होगा। बल्कि किसी कारण वश यदि उसे उसके गुरु से टास्क मिल जाए कि उसे कोई विशेष लेवल पार करना है तो एक नया राग बनाकर दिखाना हीं पड़ेगा तो यह टास्क उसके लिए सरदर्द बन सकता है। किसी जुगाड़ से अथवा अपनी मेहनत से संभवतः वह अपना टास्क पुरा भी कर ले परंतु उसके नये राग में वह सहजता सफाई बारीकी सुंदरता और सृजनात्मकता नहीं होगी जो किसी सचमुच के जन्मजात प्रतिभाशाली कलाकार के काम में होगी।
    निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि हमारा काम यदि हमारा सरदर्द बनता है अथवा हमारी मानसिक संतुलन को प्रभावित करने लगता है तो संभव है उस कार्य की हममें क्षमता व दक्षता हो, परंतु निश्चित रुप से हीं उस कार्य विशेष की प्रतिभा से हम वंचित है।

    • भाई राजनन्दन जी, इतनी विस्तृत टिप्पणी (जिसमें आपने जीवन के कई क्षेत्रों से उदाहरण लिए हैं) पा कर संपादकीय धन्य महसूस कर रहा है। अपना स्नेह बनाए रखें।

      • विचारणीय और रोचक विषय। एक कहावत यह भी है कि देयर इज नो जीनियस विदाउट मिक्सचर आफ मैडनेस। प्रोफेसर का अब्सेंट माईंडेड और वैज्ञानिक का नीरस होना एक स्टीरियोटाईप है। दरअसल वस्तुनिष्ठ और विश्लेषणात्मक दृष्टि या प्रवृति होने से शोधकर्ताओं के मस्तिष्क का वह भाग निष्प्रयोज्य सा हो जाता है जो लालित्यपूर्ण और रसात्मक अनुभूति का केंद्र होता है। फलतः इनके व्यवहार में शुष्कता नीरसता आती जाती है। चार्ल्स डार्विन ने अपनी जीवनी में इस कमी को बड़ी शिद्दत से महसूस करते हुये उल्लिखित किया है। और उन्होंने यह इच्छा इच्छा व्यक्त की है कि अगला जन्म यदि होता हो तो उनके मस्तिष्क के इस हिस्से को कोई क्षति न हो और वे संगीत का आनंद लें सकें। आईंस्टाईन इस मामले में विलक्षण हैं। एक साथ चोटी के वैज्ञानिक और संगीत वादक भी।

        मगर शायद विवेच्य विषय इससे अलग हटकर है जिसमें शोधार्थियों को तमाम दबावों और शोषण से गुजरना होता है तो बात अलग है। यदि बिना मौलिक प्रवृत्ति के बतौर प्रोफेशनल आवश्यकता या नौकरी के लिये जबरिया शोध करने वाले रोगग्रस्त मनःस्थिति तक पहुंच सकते हैं।

        • अरविंद भाई डार्विन और आइंस्टीन का उदाहरण दे कर आपने संपादकीय को नये आयाम प्रदान किये हैं। हार्दिक आभार।

  19. नितांत नए विषय को सम्पादकीय में स्थान देना आपकी विशेषता है । कई जगहों पर शोधार्थी वास्तव में मानसिक रूप से परेशान होते हैं जब उनके गाइड आवश्यकता से अधिक हस्तक्षेप करते हैं, अपनी ही बात को सर्वोपरि रखते हैं । …लेकिन मैं इस संदर्भ में भाग्यशाली हूँ कि मेरे गाइड आदरणीय स्व. प्रो शंकर लाल यादव जी ने बहुत ही संतुलन स्पष्टता और समग्रता के साथ मार्ग दर्शन किया., हमे विषय चुनने की भी स्वतंत्रता दी।
    जब स्वतः, स्वेच्छा से शोध करते हैं तब आनंद मिलता और जब दबाव रहता है तो मानसिक रूप से परेशान होना स्वाभाविक है।

    • संपादकीय पर उल्लेखनीय टिप्पणी करने के साथ-साथ तुमने अपने निजी अनुभव भी साझा किए जया। हार्दिक आभार।

  20. आपके संपादकीय हमेशा ही कुछ हट कर होते हैं। ये विषय और इन पर आपकी बात उस विषय में और गहरे जाने को प्रेरित करती है।
    साधुवाद!

  21. शोध निश्चित ही अत्यंत श्रमसाध्य काम है, जिसमें तनाव होना स्वभाविक ही है। आपने शोध पर गहराई से शोध कर कई परतें खोल दी। पुन: एक विचारणीय संपादकीय के लिए साधुवाद सर।

  22. तैजेन्द्र जी, पीएचडी के बारे में आपने इतना कुछ लिखा, वह भी एक तरह पीएचडी का एक चैप्टर ही है।
    मैं अपने experience को देखती हूँ तो लगता है कि आपने जो कुछ भी शोध के अन्तर्गत स्पष्ट करने की कोशिश की। वह बिल्कुल ठीक है ।
    क्योंकि मैंने पीएचडी 10-15 वर्ष में पूरी की(तब मैं जॉब पर भी थी) और मैं बहुत तनाव ग्रस्त रही हूँ.. आत्महत्या तक सोचती थी, नार्मल भी नहीं रही। थीसिज जमा करने से लेकर डिग्री लेने तक में नीम हकीम सी अवस्था में रही..
    पढ़ कर अच्छा लगा कि इन बातों से अन्य लोग जो रिसर्च कर रहे हैं वह सीख ले सकते हैं और अपना मानसिक संतुलन बनाने में सहाय हो सकते हैं ..
    आपकी खोज को

  23. निर्मल जी, संपादकीय पर आपकी टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है। आपने अपने अनुभव साझा करके संपादकीय का औचित्य स्थापित कर दिया है। हार्दिक आभार।

  24. बहुत सुंदर. सारगर्भित और महत्वपूर्ण संपादकीय हमेशा की तरह। एक आवश्यक मुददा बहुत ही रोचक.और विचारणीय प्रश्न के रुप में उठाया गया है।शायद मेरी दृष्टि से यह बात और समस्या अन्य देशों की तरह भारत में भी.लागू.होती है.और सशक्त तरीके.से।यहां भी शोध या पी एच डी एक मानसिक बीमारी बन चुकी है.।जो शोधार्थी है वे निदेशकों के नखरे और निर्देशन के अनुसार चलते चलते लगभग आठ से दस वर्ष निकाल देते.हैं.और जो शोध नहीं कर पाते वे अन्य गलत तरीकोः से.वो डिग्र प्राप्त करने की कोशिश में लग जाते.हैं।विद्य वाचस्पति. विद्य वारिधि जैसे और भी खूबसूरत उपाधियों के लिए कुछ सौ.हजार रुपये दीजिए और नाम के आगे डा लगाने वाले शोधार्थियों की लिस्ट में.शामिल हो जायें।मै साक्षी रही हूं.अपने मित्रों के श्रम और बिना श्रम हासिल किए पी एच डी की।रातोंरात लोग डा बन जा रहे हैं।ये सोचना भी कितना हास्यास्पद लगता है कि उच्च कक्षाओं में अध्यापन के लिए आवश्यक डिग्री का इस तरह दुरुपयोग होता है।विदेशी डिग्रियां भी मिल रही हैं।

    • पद्मा आपने बहुत कम शब्दों में बहुत सारगर्भित टिप्पणी की है। यह टिप्पणी सबको पढ़नी चाहिये। हार्दिक आभार।

  25. संपादकीय के शीर्षक को पढ़ते ही पहली फुर्सत में जो भाव हमारे दिमाग में आया तो उस प्रश्न का जवाब हमारे लिए यही था-
    ” पर क्यों?”
    क्योंकि पहला प्रभाव शीर्षक से ही पड़ता है तो इस बार का संपादकीय हमारे लिए इसलिए भी सिर्फ महत्वपूर्ण ही नहीं चिंता का विषय भी था क्योंकि हमारी नातिन टुकटुक जिसका स्कूल में नाम आराध्या है, इस समय पी एचडी के लिए NET की कोचिंग कर रही है इंदौर में। पूरा संपादकीय पढ़कर एक प्रकार से डर ही लगा। एक मन हुआ कि उसे यह संपादकीय पढ़ाएँ, फिर लगा कि नहीं पढ़ाना चाहिए ,वह अनावश्यक डर जाएगी। तेजस पूनिया के फेसबुक पर लिखे गए आपके उद्धृत
    कथ्य कि,”इस बात के पुख़्ता सबूत हैं कि पीएचडी करना आपके मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहद बुरा है।” चिंतनीय है।
    जब कोई अपना परिचित और अजीज इस तरह की बात कहता है तो निश्चित ही बात की गंभीरता महसूस होती है। इसी भाव ने आपको इस विषय पर संपादकीय लिखने के लिए प्रेरित किया।
    स्विफ़्ट का जो उदाहरण आपने इसमें पेश किया है कि, “एक पागल और मेधावी में बहुत सूक्ष्म अंतर होता है।” (There is a very little difference between a genius and a mad man!)
    फिर इसके आगे भी जो कुछ कहाउस पर जब हमने बहुत गहरे से इस पर विचार किया तो हमें लगा कि निश्चित ही इसमें सच्चाई तो है।
    दरअसल जब हमारा परिश्रम बहुत अधिक होता है और अपेक्षाओं के साथ होता है तब ऐसी स्थिति घातक होती है ।ऐसी स्थिति में ही कोई व्यक्ति अगर गंभीर है तो वह विद्वान हो सकता है और या फिर वह पागल भी हो सकता है। हमने अपने जीवन में ऐसे दो व्यक्ति देखे। बदकिस्मती से दोनों ही जीवित नहीं हैं। यहाँ बात पीएचडी कि नहीं थी। एक हमारे इंग्लिश वाले सर का बेटा था और एक हमारे ही साथ पढ़ने वाला भूगोल का एक जूनियर।
    एक तो हमारे स्कूल के इंग्लिश वाले सर का बेटा था जिसके बारे में हमने शर्मा सर से ही सुना था। वाकई वह बहुत जीनियस था, उसने बहुत मेहनत से तैयारी की थी लेकिन हर बार कुछ ऐसा होता था कि उसकी जॉब किसी न किसी कारण से रह जाती थी और दूसरे को मिल जाते थी, क्योंकि बात बहुत ज्यादा पुरानी है अतः पूरा याद नहीं और हमें याद नहीं कि वह कितना पढ़ा था लेकिन इतना तो याद है कि बहुत सारी डिग्रियां थीं उसके पास और एक अच्छी नौकरी के लिए किसी भी तरह वह कमतर नहीं था पर उससे कम अंक वाले एससी एसटी और पिछड़ी जाति के चक्कर में वह हमेशा पिसता रहा। अंततः इतना अधिक डिप्रेशन में गया कि उसकी मृत्यु हो गई।
    उमेश शर्मा तो हमसे बहुत जूनियर था। वह पीएससी की तैयारी कर रहा था।बहुत इंटेलिजेंट था इसमें कोई दो मत नहीं। उसने बहुत अच्छे से तैयारी की ।दो बार उसका सलेक्शन भी हुआ लेकिन सिर्फ इंटरव्यू में पैसे माँगने के कारण वह जॉब नहीं कर पाया क्योंकि उसे पैसे देकर जब लेना गवारा नहीं था, शायद पैसे भी न रहे हों।
    एक बार बातों ही बातों में उसने जिक्र किया था की मैडम पढ़ने के लिए मैं बहुत मेहनत करता हूँ, नींद ना आने के लिए उसने जो-जो जतन किए वह भी आश्चर्य जनक ही थे।।और चिन्तनीय भी। एक किसान परिवार का वह लड़का हमारे लिए चिंता का विषय था हम अक्सर उसे समझाते रहते थे और उसके लिए एक डर हर वक्त हमारे मन में रहता था। अंततः वह रिश्वत की बलि चढ़ गया दोनों बार जॉब छोड़ने के बाद वह इतना अधिक डिप्रेशन में चला गया कि अंत में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मस्ती, उसकी हँसी, उसका मजाक से भारा स्वभाव, हर वक्त छेड़खानी करना, अपनी निराशा को साझा करना, सब बहुत याद आता है। एक फूल पूरा विकसित होकर, खिलकर, अपनी सुगंध बिखेर सकता था ; लेकिन पहले ही रिश्वत के पैरों के नीचे कुचला गया।
    एक तो अभी भी घर के सामने 5:00 बजे से उठकर हर मौसम में सड़क में झाड़ू लगाता है, अपने घर के सामने से लेकर काफी आगे- पीछे तक। यहाँ तक कि नालियों का कचरा भी उठाता है और सिर्फ एक बार नहीं, कभी- कभी दिन में तीन बार इस तरह की हरकत करता है। सच में उसे देखकर बहुत दुख होता है वह भी इसी तरह आरक्षण के चलते कठिनाई में पड़ा।
    आज पहली बार महसूस हुआ कि स्विफ़्ट ने जो कहा वह सही है। इंसान जिन कठिनाइयों को स्वयं महसूस करता है उसके बारे में उससे बेहतर कोई दूसरा नहीं जान सकता।
    आपकी एक बात काबिलेगौर है तेजेन्द्र जी कि,*हमें दूसरों की ग़लतियों से सबक लेना आना चाहिये।* अपनी गलतियों से भी सीखना और संभलना आना जरूरी है। साथ ही आपकी इस बात से भी 100% सहमति है कि भारत में भी यह जाँच आवश्यक है कि ,*शोध करने वाले छात्रों को कैसी-कैसी प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है। सफलता से पीएच डी की डिग्री हासिल करने वाले किन-किन समस्याओं से जूझते हैं? रजिस्ट्रेशन के दबाव से लेकर शोध पूरा करने के तनाव से कैसे से निपटते हैं हमारे शोधार्थी?*
    कोविद-19 की स्थितियों के संबंध में आपने जितना भी लिखा है यह एक प्रेरणास्पद सोच है, जो सकारात्मक राह पर चलने के लिए हौसला देती है। जहाँ तक हम सोचते हैं, कुछ आदतें हमें अपने स्वभाव में डाल लेना चाहिये अगर हम विद्यार्थी हैं या शोधार्थी हैं।
    1- अधिक से अधिक जानने की इच्छा रखें, जिसे जिज्ञासा कहते हैं। 2-‌दृढ़ आत्मविश्वास । जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तब भी कोई ना कोई रास्ता खुला रहता है और हमें उस रास्ते को तलाश करने की कोशिश करनी चाहिये ,हार मान कर नहीं रुकना चाहिये। 3-अपने विरुद्ध होने वाले अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की ताकत रखें। 4-शोधार्थी गाइड चुनते वक्त सावधानी बरतें। 5-आदत रहे कि अपना काम स्वयं करें। स्वयं सक्षम बनाने की कोशिश करें। इतना सब लिखने के बाद अंतिम बात यह है कॉलेज प्रशासन को भी इस विषय में सचेत होने की आवश्यकता है, विशेष तौर से प्राचार्य को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि उसके कॉलेज में जो शोधार्थी हैं उनके साथ कोई अन्याय या कुछ गलत न हो।
    एक महत्वपूर्ण ऊर्जा इस चिंता को संपादकीय में स्थान देने के लिए आपका तहेदिल से शुक्रिया तेजेंद्र जी!

    • आदरणीय नीलिमा जी, आपने इतने विस्तार से टिप्पणी लिखी है कि इसे एक समानांतर संपादकीय कहा जा सकता है। आपकी डिटेलिंग कमाल की है। हार्दिक आभार।

  26. शुक्रिया तेजेंद्र जी अगर आपको ऐसा लगा तो।

    आपका इस बार का संपादकीय हमारे लिये इसलिए भी महत्वपूर्ण था तेजेन्द्र जी!क्योंकि हमारी नातिन टुकटुक भी इसके लिए तैयारी कर रही है। इस पर लिखने के पहले हमने काफी सोचा और सच पूछा जाए तो हम टेंशन में आ गए थे। इस संपादकीय पर लिखी गई सारी तो नहीं पर कुछ टिप्पणियाँ भी हमने पढ़ीं। विशेष तौर से तेजस की। और उनकी भी जिनकी टिप्पणी नकारात्मक थी। हमारे घर में भी हमारे कुटुंब में एक बहू पीएचडी है और हमारी छोटी बहन की लड़की और उसके हस्बैंड ने भी पीएचडी की है लेकिन कभी इस तरह का जिक्र नहीं हुआ कि उन्हें कोई परेशानी आई हो। पर तीनों ही जब में रहे बहू स्कूल में लाइब्रेरियन थी और बेटी दामाद इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रोफेसर शायद यह कारण रहा हो कि उन्हें दिक्कत नहीं आई। पर आपके संपादकीय को पढ़कर हम टुकटुक के मामले में सचेत रहेंगे और बराबर उसका ध्यान रखेंगे। इस तरह की कोई भी परेशानी आई तो हम उसके साथ जरूर खड़े रहेंगे। जरूरत पड़ी तो उसके गाइड से भी मिलेंगे। इस मामले में आपने हमें सचेत किया। सच में इस संपादकीय के लिए तो हम दिल की गहराइयों से आपका शुक्रिया अदा करते हैं।

  27. बहुत अच्छा विषय है। मुझे लगता है कि रुचि के अनुसार सोच -विचार कर विषय का चुनाव हो और निर्देशक भी सहृदय और सहानुभूति रखने वाला हो,‌उसे विषय कीजानकारी हो तो शोध में कोई मुश्किल नहीं आती। कुछ लोभी किस्म के निर्देशक होते हैं ,जो विद्यार्थी का तरह-तरह से दोहन करते हैं। ऐसे निर्देशक के साथ मानसिक अवसाद का हो जाना कोई असंभव बात नहीं है ।हार्दिक धन्यवाद संपादक महोदय।

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