Wednesday, October 16, 2024
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डॉ नीलिमा तिग्गा का लेख – रामायण के पात्र और उनका तथ्यात्मक विश्लेषण

प्रस्तावना- लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी की इंग्लिश में लिखी और ओरिएण्टल पब्लिकेशन से प्रकाशित, दो पुस्तकें ‘The ORIAN’ अर्थात वैदिक प्राचीनता की खोज तथा  ‘ARTIC HOMES IN VEDAS’ ‘मानव के मूल स्थान’ पर यह शोध प्रबन्ध आधारित है।    
आर्यों के इतिहास से आरम्भ होती है पुस्तक। रहने के लिए अच्छी जगह तलाशने के लिए आर्यों का स्थानांतरण करते थेI सर्वप्रथम साइबेरिया से होकर वह घूमते-घूमते ईरान से होकर आर्यावर्त आये थेI आर्यावर्त अर्थात आज के भारत के साथ अन्य देश भी सम्मिलित थे जैसे- ब्रम्हदेश(म्यांम्यार), अफगानिस्तान (कंधार), इंडोनेशिया, नेपाल, तिब्बत, भूटान, बांग्लादेश, कंबोडिया, जावा, मालदीव, सुमात्रा(लक्ष्मण) के नाम से उसे सौमित्र भी कहते थे अर्थात सुमित्रा का बेटाI अंदमान को हनुमान द्वीप कहते थे, जो हनुमान जी के नाम पर हैI ब्रिटिशों ने अपभ्रंश कर अंदमान कियाI 
अध्ययन करने सेयह बात समझ में आयी थी कि जो भी पुराण में हैं उनका सम्बन्ध सृष्टि और खगोल शास्त्र से हैI
ऋग्वेद में, ब्रह्म यानि ब्रह्मांड के बारे में बताया गया ज्ञान हैI ऐसा कहते है कि यह ज्ञान अपौरुषय याने किसी पुरुष द्वारा लिखित नहीं हैI इसलिए इसे वेद वाणी भी कहा जाता हैI आदि मानव प्राकृतिक परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित था अतः उसने प्रकृति का अध्ययन कियाI उस समय लेखन कला ज्ञात नहीं थी तो वाचा एवं श्रवण(ऋती) से ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ायाI  ज्ञान को ही वेद कहते हैं। यह संस्कृत की धातु ‘वद्’ से बना है जिसका का अर्थ है ‘बोलना’। वेदों में रूपालंकार द्वारा सृष्टि में के परिवर्तनों को बताया गया हैI 
ब्रिटिश काल में इस ज्ञान को निहित स्वार्थ के कारण विकृत किया गया और मनगढ़ंत कहानियों से ईश्वर, दानव और मनुज के बीच में युद्ध तथा नारियों के चरित्र की धज्जियां उड़ाकर उनके मानहानी की भरसक चेष्टा भी अपने ढंग से अनुवाद कर या नये श्लोक गढ़कर कपोलकल्पित तथ्य लिखेI भ्रमित होकर इस झूठ कोहम आज  तक सत्य मानलेते हैं I 
( ब) शोध आलेख तथा विश्लेषण
महर्षि वाल्मीकि की लिखी ‘रामायण’ ही आद्य हैI वाल्मीकि रामायण में कहीं भी विपरीतअर्थ नहीं हैंI तुलसीदास जी ने रामचरित मानस उस, आम जनता की भाषा में लिखीI उन्होंने ने कथा में लोक रुचि हेतु कुछ परिवर्तन किए। जिसका कालांतर में का गलत अर्थ लगाया गया और विवादों को जन्म दिया। वाल्मीकि रामायण में इक्ष्वाकु वंश से आरम्भ करके संपूर्ण राम चरित लिखा गयाI राम एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने राजधर्म के साथ ही विविध कर्तव्यों का निष्ठा से पालना कियाI 
बचपन से पढ़ते आये कि, एक धोबी के आरोप से राम ने सीता का त्याग किया  ये जानते हुए भी कि वह प्रतिव्रता थीं। प्रश्न उठता है कि राम ने ऐसा कदम क्यों उठाया? ऐसे ही कुछ प्रसंगो से मेरी कल्पना अलग दिशा में दौड़ने लगी, तब कुछ प्रसंग तथा पात्रों के तथ्य को नये से देखने का साहस कियाI
ब्रिटिश ने भारत भूमि पर कब्ज़ा किया तो उनका उद्देश्य यहां अपनी सार्वभौमिकता प्रस्थापित करना था फलतः उन्होंने हमारे प्राचीन वांग्मय पर वैचारिक डाका डालकर मिथ्या एवं असत्य धारणाएँ प्रस्तुत कींI ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा यह लेखन कार्य सत्रह से बीसवीं शताब्दी के मध्य में हुआ I  
मैक्स मूलर को बहुत लोग विद्वान् मानते हैं। क्योंकि उन्होंने संस्कृत सीख कर वेदों को पचास खण्डों में  बाँटकर उसकी व्याख्या कीI लेकिन विपरीत अर्थों में उसका अनुवाद कर हमारी पीढ़ियों को भ्रमित कियाI जिससे आज हम जाति-पाँति में बँट गयेI मुग़ल आक्रमणकारियों ने हमारी धरोहर, नालंदा और तक्षशिला जैसे प्राचीन विद्यापीठों के साथ, हमारे अमूल्य ग्रंथों को भी जलायाI कुछ विद्वानों की सजगता से कुछ ग्रंथों को बचा लिया गया। अतः हम अपनी विरासत को आज फिर से जीवित देख रहे हैंI
शोध के दौरान एक पत्र को पढ़कर ज्ञात हुआ कि कैसे हमारी  संस्कृति को तहस-नहस कर ब्रिटिश साम्राज्य  स्थापित किया गयाI यह पत्र है ‘the study in relation to missionary work in india-(1860)।’ यह पत्र तथाकथित विद्वान् ‘मोनियर वीलियम्स’ स्वयं लिखते है I उन्होंने संस्कृत-अंग्रेजी-संस्कृत शब्दकोश लिखा है; जिसमें अनेक शब्दों का विपर्यास अर्थ लिखा हैI उनके पत्र का यह सारांश जानकर पाठक भी हैरान हो जायेंगेI जानबूझकर यह पत्र-व्यवहार छुपाया गया- 
‘जब हिंदू धर्म के किलों की मजबूत दीवारों को घेरा जाएगा, उन पर सुरंग बिछाई जाएगी और अंत में ईसा मसीह के सैनिकों द्वारा उन पर धावा बोला जाएगा तो इसाइयत की विजय अंतिम और पूरी तरह होगीI’   
       इस उद्देश्य से प्राचीन साहित्य को  विकृत किया गया जिसे हम आज भी  सत्य मानते हैंI अब मनुस्मृति को ही देखिए जिस में श्लोक है ….
“जन्मना जायते शुद्र: संस्कारात द्विज उच्यते I 
विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठम् क्षत्रियाणं तू वीर्यत: II
(जन्म से सभी शूद्र अर्थात ‘अज्ञानी’ हैं I संस्कार से ब्राह्मण, विद्वान् की प्रतिष्ठा ज्ञान से तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से होती हैI मनुस्मृति का यह श्लोक देखिएI 
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य: त्रयो वर्णा द्विजातय: I
चतुर्थ एक जातिस्तु शूद्रो नास्ति तू पंचम:II
 इसका सीधा अर्थ है कि, अपने माता-पिता से संतान उत्पन्न होती है वह पहला जन्म और जब गुरुकुल में जाकर शिक्षा ग्रहण करते है वह दूसरा जन्म होता हैI इस जन्म में उन्हें ज्ञान प्राप्ति होती है और इसीसे वह वेद का ज़्यादा अध्ययन करने वाला ब्राह्मण, शस्त्र-शास्त्र में तज्ञ क्षत्रिय और व्यापार-विनिमय को समझने वाला वैश्य बनकर निकलता हैI गुरुकुल में जो वैदिक शिक्षा ग्रहण नहीं करते वह शूद्र अर्थात अज्ञानी है,अछूत नहीं हैंI कोई पाँचवाँ वर्ण नहीं हो सकताI उपरोक्त तीन कार्यों को जो नहीं कर सकता वह लघु और आसान उद्योग अपना कर जीवन यापन करने वाला हैI  
मूल मनुस्मृति केवल तीन सौ पैंसठ श्लोकों की हैI बाद में उस में जानबूझ कर सात सौ मनगढ़ंत श्लोक लिखे गए। जिसमें हमें जाति-पाँति में बाँटकर बतायागया। ब्राह्मण को श्रेष्ठ, शूद्र को निकृष्ट , जिसे कोई भी अधिकार नहीं है, वह केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य  की गुलामी करेगा और फिर इसे उप-जातियों में बाँटा गयाI 
गीता प्रेस गोरखपुर या गायत्री परिवार से प्रकाशित मनुस्मृति अपेक्षाकृत शुद्ध रूप में है जिसे प्रथम मनु ने लिखा हैI मनु से ही ‘मानव’ अर्थात ‘मनु के वंशज’ शब्द आया हैI मनुस्मृति में कहीं भी जन्मना, जाति का उल्लेख नहीं हैI ऋग्वेद से लेकर उपनिषद् तक कुछ श्लोकों में रामायण के पात्रों का उल्लेख हैI 
रामायण के पात्रों के बारे में असत्य एवं मिथ्या धारणाएं बतायी गयीं और हमारे आदर्शों को विकृत स्वरूप में दिखाया गयाI ऐसे ही कुछ पात्रों के बारे में शोध किया तो सत्य जानकारी मिलीI गाँव या जंगल में रहने वालों ने अपनी पहचान बनाने के लिए सांकेतिक नाम भी रखे थे, जो अलग-अलग जानवरों से उनकी पहचान बन गयी थीI ऐसे ही कपि समाज के हनुमान जी थेI अब विडंबना देखिए कि हनुमान जी, बालि, सुग्रीव जैसे कपि समाज के योद्धाओं को बंदर बना दिया गयाI ऐसे ही जटायु के बारे में पढ़ाया गयाI जटायु के राज्य का ध्वज-चिन्ह गिद्ध थाI जटायु गिद्ध नहीं था।
गुरुकुल में सभी विद्यार्थियों को हर प्रकार से विद्या सिखायी जाती थीI चौसठ कलाएं अर्थात विद्या के प्रकार थे; जिस में वस्त्र बुनने, खाना बनाना, युद्ध-कौशल और हथियार के साथ ही वेद-विद्या, नृत्य आदि जीवनोपयोगी विद्यायें पढ़ाई जाती थींI सभी गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करते थेI श्रीकृष्ण को तो सभी चौसठ कलाएं आती थींI  (क) रामायण के कुछ पात्र एवं नये सिरे से दृष्टिपात  
1) सीता— सीता एक नाम अर्थ अनेक- सीता अर्थात वह रेखा या गढ्ढा, जो जमीन जोतते समय हल की फाल धँसने से बनता हैI सीता कृषि की अधिष्टात्री देवी भी हैंI हो सकता है कि जब राम ने स्वयंवर में सीता को जीत लिया था, तो खुश होकर जनक राजा ने उन्हें सीता के साथ अपने राज्य का कुछ भू-भाग दिया होगा जिसमें यह हिस्सा भी थाI 
सीता यानी ‘राजा की व्यक्तिगत कृषि भूमि’ ऐसा भी एक अर्थ हैंI संस्कृत में एक शब्द के अनेक अर्थ निकलते हैंI प्राचीन काल में कृषि अधिकारी को सीताध्यक्ष भी कहते थे (बी.सरकारी.कॉम)I जब राम वनवास में गये थे, तो इसी भूभाग पर रावण ने भी कब्ज़ा कर लिया थाI संयोगवश सीता जी के पुत्रों के नाम भी लव-कुश थेI रावण को मारने के पश्चात यह भू-भाग फिर राम ने ले लिया थाI यह बंजर जमीन थी जिसे रावण के क़ब्ज़े से छुड़ाया थाI 
अब यहाँ प्रश्न आता है क्या सीता जी ने सचमुच अग्नि-दिव्य किया था? इसका उत्तर ‘नहीं’ ऐसा ही देना पड़ेगाI उस बंजर जमीन को संपूर्ण जलाकर फिर से उसे उपयोग में लाने के लिए श्री राम ने सोचा थाI फिर भी उपज न होने के कारण एक धोबी ने इस जमीन को त्याग ने कहा थाI इसीलिए जमीन वाल्मीकि मुनि को दान कर दी गयी थीI जिससे वह इस जमीन पर कम-से-कम आश्रम के लायक कुछ कार्य कर सकें। कालांतर से इस जमीन पर लव-कुश याने एक प्रकार से घास उग आयी थीI इसी घास को देखकर अश्वमेध यज्ञ का अश्व, हरी-हरी घास खाने वहाँ अड़ गया थाI
इसे ही बाद में, लव-कुश ने अश्वमेध के घोड़े को पकड़ा, ऐसा कहा गया हैI कुश अर्थात दूर्वा जो हमारे संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा हैI ऐसी किंवदंती है कि कुश घास से लव का निर्माण किया तो उसी के जैसा जुड़वां बालक तैयार हुआ जिसका नाम लव रखा गयाI आसानी से दूब और दूर्वा में फर्क नहीं कर सकतेI दोनों ही हरी-हरी और एकदम कोमल रहती हैंI
मूलत: रामायण वाल्मीकि ऋषि ने लिखी थीI रामायण काल में वाल्मीकि स्वयं भी थेI जब भी कोई ग्रंथ संपूर्ण होता है तो इसके बाद फल-श्रुति लिखते हैं अर्थात यह पढ़ने से पाठक को क्या लाभ मिलता है और जो लिखा है उससे पाठक को क्या बोध लेना हैI 
वाल्मीकि रामायण में अठराह अध्याय नहीं थे, बाद में कुछ अराजक तत्वों ने सनातन संस्कृति को बदनाम करने हेतु यह अध्याय लिखे कि श्री राम ने सीता का त्याग किया; यह बताकर नारी की महत्ता को भी घृणित करने का कार्य कियाI वाल्मीकि रामायण में कहीं भी राम ने सीता जी का त्याग किया ऐसा नहीं लिखा हैI ऐसे ही हमारी संस्कृति के ऊपर कठोर प्रहार होते गए और इसीके बिगड़े स्वरुप से हमारी धारणायें बनती गयींI ऐसा लगता हैं कि दो अलग-अलग कहानियों का एकीकरण कर इस तरह एक नयी कहानी बनायी गयी हैI 
कुछ लोगों की विद्वता ने और एक कहानी गढ़ डाली। जिसमें सीता की छाया को रावण सीता समझकर ले गया थाI अब इसे सिद्ध करने केलिए फिर नयी-नयी कहानियाँ उद्धृत की गयींI राम को शक्तिशाली पराक्रमी बताना हैं तो दूसरे के चरित्र का हनन करो। 
रावण, वेदों का अध्ययन करने वाला महान ज्ञाता थाI कभी भी पर-स्त्री के ऊपर बुरी नजर नहीं डाली थीI फिर सीता का हरण वह कैसे कर सकता था? केवल अपनी बहन शूर्पणखा का जो अपमान लक्ष्मण ने किया था उस क्रोध के आवेश में किया गया कृत्य थाI ना तो रावण ने सीता को कभी हाथ लगाने का प्रयत्न किया था, ना ही उससे विवाह की कामना की थीI जैसा कि पहले बताया है कि पुराण की इन कहानियाँ का रूप एक से दूसरे तक पहुँचने में ही बदल गया थाI 
आम जनता को वेदों का ज्ञान नहीं थाI इसमें क्या लिखा है, सही अर्थ क्या है?  इसीका फ़ायदा लेकर कुछ तथाकथित विद्वानों ने उन्हें भ्रमित किया। इन विद्वानों की समझ भी उतनी नहीं थी कि वेद-ज्ञान का सही अर्थ लगा सकेंI यह भी हो सकता है कि नारी को हेय दृष्टि से देखने के कारण ऐसा अनुवाद कर, भोली जनता को बरगलायागया और हमारी सांस्कृतिक परंपरा को कलुषित किया गया।   
2) अहिल्या —  दूसरा प्रसंग है अहिल्या उद्धार का जिसमें गौतम ऋषि के शाप से शापित होकर वह शिला बन जाती है I अहल्या अर्थात जिसके ऊपर खेती के लिए हल नहीं चल सकता, ऐसी पथरीली जमीनI इसी जमीन को श्री राम के अथक प्रयासों से शिला याने पत्थर हटाकर खेती योग्य बनाया गया थाI गौतम का अर्थ अँधेरे को दूर करने वाला हैI अँधेरे को दूर करने वाला सूरज भी है, हो सकता है कि पर्जन्य याने इन्द्र आने के बाद भी उस जमीन पर कुछ न हो सका, इस पर कुपित होकर गौतम मुनि ने ऐसी ज़मीन का त्याग किया होI जब वनवास में रहते हुए श्रीराम को यह बात पता चली थी तो उन्होंने उस जमीन पर से बड़े-बड़े शिला-खंड हटवाकर उसे हल चलाने लायक बनाया होI आगे जाकर उस जमीन में पैदावार भी हो सकी होI
कोई पराया मर्द भेस बदलकर भी आए तो उसके स्पर्श या कुछ अनुभूति से स्त्री सच्चाई का पता लगा सकती हैI अहिल्या एक ऋषि पत्नी थीI वह न केवल वह ऋषि-पत्नी थी बल्कि उन्हें वेदों का ज्ञान भी थाI वह ऐसा घृणित कार्य नहीं कर सकती थी, ना ही इंद्र का साहस था जो उसे हाथ भी लगा सकताI इंद्र देवता अर्थात पर्जन्य के देवता हैं जो किसी मूर्त स्वरुप में नहीं परंतु रूपकात्मक हैंI हमारे वेदों के ज्ञान में ख़ुराफ़ात की खिचड़ी पकाकरउसे नष्ट कर दिया ही गयाI 
मनुष्यों के ज्ञान के लिए रूपकालंकार कथाओं का उपदेश किया है I उदाहरण देखिए I
 इन्द्रागच्छेति I गौरावस्कन्दिन्नहल्यायै जारेति I तद्यान्येवास्य चरणानि तैरेवैनमेतत्प्रमोदयिषति II (शत ०३ अ०३ ब्रा ०४ मंत्र १८)
रात्रिरादित्यस्यादित्योदये sन्तर्धयीते II (निरुक्त अ०२/६)
जार आ भगम् I जार इव भगम् I आदित्यो sत्र जार उच्यते, रात्रेर्जरयिता II (निरूक्त अ० ३/१६)
यह मूल श्लोक हैंI यहाँ सूर्य, स्कंध, प्रजापति, सविता प्रत्यक्ष दिख रहे सूर्य के पर्याय हैं तथा रात्रि का नाम अहल्या और चन्द्रमा का गौतम हैI गौतम अर्थात गतिशीलI चन्द्रमा और रात्रि मिलकर सभी प्राणियों को आनंद प्रदान करते हैं क्योंकि शयन और विश्राम सभी पारियों के लिए कल्याणकारी हैI यही सूर्य उदय होकर रात्रि को निवृत्त अर्थात अंतर्धान कर देता है  रात्रि को भगाने(भग) वाला अर्थात अँधेरे का आवरण हटाकर उसे निवृत्त करने वाला इस अर्थ से जार अर्थात दुष्कृत्य और चन्द्रमा( गौतम) उसे देख लेता हैI  अब नीचे का श्लोक पढ़िए- 
 “कश्चिद्देह्धारीन्द्रो देवराज आसीत्I स गौतमस्त्रियां जारकर्म कृतवान्I तस्मै गोतमेन शापो दत्तस्त्वं सह्स्त्रभगो भवेतिI तस्यै अहल्यायै शापो दत्तस्त्वं पाषाणशिला भवेतिI तस्या रामपादरज: स्पर्शेन शापस्य मोक्षणं जातमितिI”
 यह श्लोक मूल श्लोक को बिगाड़कर लिखा हैI ऐसे ही स्वरुप बिगाड़कर अपनी ख़ुराफ़ाती सोच को आगे ले जाने का कार्य किया गया हैI पहले ही स्पष्ट किया गया है कि वेदों में जो लिखा है वह सृष्टि से सम्बन्धित है, ना कि भी देहधारी देवता या मनुष्य सेI ऐसा लगता है कि कालांतर से कुछ लोग या तथाकथित पुरुष वर्ग जो, स्त्री के ऊपर अपनी सत्ता स्थापित करना चाहते होंगे उन्होंने अर्थ का अनर्थ कर के ऐसी मनगढ़ंत कहानियों द्वारा स्त्री को लांछित किया होगाI 
सोचिए कि जब हमारी परंपरा 
“यत्र नार्योत्सु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:, यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफाला: क्रिया:”
तो इस प्रकार की कहानियांनिश्चय ही  सत्य को तोड़-मरोड़कर कर लिखी गई हैं। सर्वप्रथम मानव (जब भटकते हुए मानव भारत भू में आया तब देखा था कि यहाँ की भूमि उनके सर्वथा अनुकूल है अतः वे यहाँ बस गयेI इसी धरती पर उन्होंने बहुत धार्मिक कार्य अर्थात वेदों की रचनाएँ कीं। मनुष्य पर प्राकृति के प्रभाव का अध्ययन किया और मानव को प्रचुर ज्ञान दियाI जिस में आचार-विचार, रहन-सहन, नित्य कर्मों के लिए क्या उचित हैं बताया वह ज्ञानी थे अतः स्वयं को श्रेष्ठ अर्थात आर्य कहते थेI आर्यशब्द संस्कार, सभ्यता एवं विचार का प्रतीक हैI यह जाति या वंश वाचक नहींI 
3) हनुमान जी – हनुमान जी को वा-नर कहते थे जिसका तात्पर्य है, ‘ वाह क्या नर है’ जो एक प्रशंसा सूचक शब्द है जिसे मूढ़मति लोगों ने वानर याने बंदर की उपमा दीI यथार्थ में वानर का अर्थ है, ‘वन में उत्पन्न अन्न को ग्रहण करने वाले’ इससे प्रजाति या योनी विशेष का बोध नहीं होताI वानर, दक्षिण भारत में, विंध्याचल के दक्षिणी भाग के घने वनों में निवास करने वाली जनजाति थीI आज भी बिहार और झारखंड के आदिवासियों के उपनाम(कुलनाम)  वन्य-प्राणी के सूचक शब्द हैंI  ध्वज चिन्ह पर अंकित प्राणी या पंछी उस कबीले की पहचान होती है, जैसे- अर्जुन की पत्नी ‘उलूपी’ नागकन्या अर्थात नाग कबीले से थीI
हनुमान जी का एक नाम मारुति है जो मरुत(वायु) से आया हैI हनुमान के पिता केसरी, वानर साम्राज्य के राजा थेI केसरी अर्थात सिंह जो हाथी को मार सकता हैI हनुमान के पिता में यह गुण था इसलिए उन्हें केसरी कहते थे I इनका साम्राज्य कपिस्थल, कुरु साम्राज्य का एक हिस्सा थाI कुछ लोगों की धारणा यह भी है कि हरियाणा का ‘कैथल’ ही पहले कपिस्थल थाI हनुमान जी को पवन पुत्र इसलिए कहा जाता है कि पल में वह वायु वेग से इधर उधर चले जाते थे I
किष्किंधा काण्ड (3128-32)-जब श्री राम की हनुमान जी से प्रथम भेंट हुई तब बातचीत के बाद श्राम ने लक्ष्मण से कहा था ….
न अन ऋग्वेद विनयस्य न अ यजुर्वेद धारिण:I
न अ सामवेद विदुष: शक्यं एवम् विभाषितुम:II
जिसने ऋग्वेद, सामवेद,यजुर्वेद का अध्ययन नहीं किया है वह इस प्रकार परिष्कृत बात नहीं कर सकताIहनुमान ने एक भी अशुध्द शब्द का उच्चारण नहीं कियाI संस्कार संपन्न शास्त्रीय पद्धति से उच्चारण की हुई उनकी वाणी हृदय को हर्षित करती हैI
सुंदर कांड (30/18,20) से पता चलता है कि जब हनुमान सीता जी को मिलने गये थे तो उन्हें ऐसा लगा कि यदि ज्यादा पंडितों के तरह बोलेंगे तो, सीता को रावण ही छद्मवेश में आया है, ऐसा प्रतीत होगा इसलिए हनुमान जी ने लोक भाषा में सीता से बात की थी I
क्या हनुमान जी उड़कर लंका गये थे?-
हनुमान जी को योग की अष्ट सिद्धिया प्राप्त थींI इन आठ सिद्धियों के नाम हैं अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व, वशीत्व I लघिमा से उड़ सकते हैंI हनुमान जी ने इन्हीं सिद्धियों के बल पर समुद्र पार कियाI सिद्धियां यम नियम के पालन से मिलती हैं I यह कठिन अभ्यास है जो निश्चय ही हनुमान जी ने किया थाI
वाल्मीकि रामायण में एक श्लोक …
सागरस्योर्मिजालानामुरसा शैल वर्मणाम् I
अधिध्रंस्तु महावेग पुपुलवे स महाकपि II69II-सुंदर काण्ड प्रथम सर्ग 
अर्थात जब वे समुद्र के तल में जाते थे तो समुद्र में भयंकर लहरे उठती थी I ऐसा लगता था जैसे समुद्र क्रोधित हुआ है I ऐसा प्रचंड हनुमान जी के तैरने का वेग था I वे छाती से जैसे समुद्र को छेद रहे थे I
श्वेताभ्रघनराजीव वायुपुत्रानुगामिनी II
तस्य सा शुशुभे छाया वितता लवणाम्भसि II सुंदर काण्ड प्रथम सर्ग 
खारे समुद्र के पानी में हनुमान जी की छाया श्वेत बादल की तरह दिखाई देती ऐसा प्रतीत होता था I
शुशुभे स महातेजा महाकायो महाकपि: I
वायुमार्गे निरालम्बे पक्षवानिव पर्वत: II सु.का .प्र.सर्ग 
ऐसे लगता था जैसे कोई पंछी पर्वत के ऊपर वायुमार्ग से उड़ रहा है I
यह उनकी योग साधना थी जिससे वह  शरीर को छोटा बड़ा कर वायुवेग से कहीं भी जा सकते थेI किसी भी दृष्टांत में हनुमान जी के आकाश में उड़ने का उल्लेख नहीं हैI ऐसे ही हमें भ्रमित कर हमारे पौराणिक पात्रों को, जादुई प्राणियों के रूप में, अर्थ का अनर्थ कर दिखलाया हैं I तैरते- तैरते हनुमान अंदमान पहुँचे थे I सीता जी कहां हो सकती हैं ये जानने के लिए दो दिन रुके थेI उसी समय उनकी विद्वत्ता और तेज देख वहाँ के मूल निवासियों ने उस द्वीप का नाम हनुमान द्वीप रखा; जो ब्रिटिशों द्वारा बिगाड़कर अंदमान कर दियाI यहाँ ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ सीता जी हो सकती हैं, इसका ज्ञान होने पर वे धनुषकोटि के तरफ तैरकर चले गयेI  
महर्षि व्यास के योग दर्शन के अनुसार, यदि सही योग विद्या से कोई भी पानी में, काँटों में या कीचड़ में भी तैर सकता हैI 
“उदानजयाज्जल पंककंटकादिषवसड:ग उत्क्रान्तिश्च II
कायाकाशयो: सम्बन्ध संयमाल्लघुतुलसमापत्तेश्चाकाशगमनम् II42II”
अशोक वाटिका में पकड़े जाने पर सैनिकों ने हनुमान जी का उपहास करने के लिए, पूछ लगाकर उसमें आग लगाई थीI तब उन्हें सबक सिखाने के लिए हनुमान जी ने लंका जलाई थीI हनुमान बंदर थे ऐसा कहकर फिर हमें इतिहासकारों ने भ्रमित किया I
(वीर सावरकर के अंडमान संस्मरण में ये लिखा है कि वहाँ की एक ऐसी जनजाति जो घने जंगलों में रहती हैI वह आज भी जब हनुमान जी ने लंका जलाई थी उसके प्रतिक स्वरुप एक बाह्य पूंछ लगाकर रहती हैI हनुमान जी के नाम पर ही उस द्वीप का नाम हनुमान था जो ब्रिटिशों द्वारा अंदमान कर दिया है, इसे भी अब सही करना पड़ेगाI  (मैं वहाँ भ्रमण करने गयी थी, उस समय वहाँ सीता मढ़ी, लक्ष्मण गुफा की जानकारी भी प्राप्त हुईI)
4) अंगद– बाली पुत्र अंगद भी अष्टांग बुद्धि से संपन्न, चार प्रकार के बल से युक्त तथा राजनीति के चौदह गुणों से युक्त थेI अष्टांग अर्थात सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर धारण करना, उहापोह करना, अर्थ या तात्पर्य को ठीक से समझना, विज्ञान एवं तत्वज्ञान ये हैं I चार बलों से युक्त अर्थात साम, दाम, दंड, भेद का उपयोग कैसे और किस समय करना इसका ज्ञान था I 
राजनीति के चौदह गुण अर्थात देशकाल का ज्ञान, दृढ़ता, कष्ट-सहिष्णुता,सर्व विज्ञाता, दक्षता, उत्साह, मंत्रगुप्ती,एक वाक्यता, सुरता, भक्तिज्ञान, कृतज्ञता, शरणागत वत्सलता, अधर्म के प्रति क्रोध और गंभीरता, हैI अतः अंगद को ही रावण के दरबार में बातचीत के लिए भेजा गया थाI
क्या कोई बंदर इस तरह ज्ञान प्राप्त कर सकता है …? तथाकथित विद्वानों ने अपनी बात की पुष्टि के लिए, हनुमान जी की पूंछ में आग लगाना और अंगद का पूंछ को बढ़ाकर बैठने का साधन बनाना, लिख कर हमारे संस्कृति से खिलवाड़ किया है I
5) तारा – कि.का.16/12- अंगद की माँ तथा बाली की स्त्री। तारा सूक्ष्म विषयों के निर्णय करने, नाना प्रकार के उत्पातों को समझने में दक्ष थीI सभी वानरों का यह मानना था कि, वह जो भी कहती है बहुत सोच-विचार के बादI उसकी बातों पर विश्वास करने से अंत में विजय होती थी। क्या कोई पशु इस तरहका व्यवहार कर सकता है?
6) बाली और सुग्रीव-  इनके इतिहास और जन्म को भी तोड़-मरोड़कर भ्रमित किया हैI इतना ही नहीं, स्त्री को पतिता, पापी दिखाने का भी भरसक प्रयत्न इन तथाकथित इतिहासकारों ने किया हैI
सुग्रीव भूगोल के जानकार थे इसलिए जब राम ने उनके साथ चर्चा की तो उन्होंने ख़ास-ख़ास चुने हुए योद्धाओं को अलग अलग दिशा में भेजा और हनुमान को दक्षिण दिशा में भेजा जहाँ सीता के मिलने की संभावना अधिक थीI
सुग्रीव का राज्याभिषेक भी जैसे एक राजा का होता था, मंत्र उच्चारण के साथ, कियाI बाली के मृत्यु के पश्चात आर्य संस्कृति के अनुसार ही उसकी अंत्येष्टि की गई थी I सबकी संस्कृति आर्यन थीI
उस समय लोग,आज से अधिक शिक्षित थेI गुरुकुल में उचित शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात, इनकी बुद्धि में प्रगल्भता आयी थीI जिस विद्यार्थी की रुचि आगे किसी विषय-विषेश में होती थी तो उसे उस विषय में प्रवीण किया जाता थाI लेकिन प्राथमिक अध्ययन के कुछ वर्ष में सभी विषयों की शिक्षा दी जाती थीI
7) नल और नील – ये दोनों भी वानर जनजाति समूह के थे, अर्थात उनके समाज की पहचान बंदर संकेत चिन्ह से थी I कितना हास्यास्पद (अपमानजनक लगता है, जब उन्हें  पशु कह कर उपहास किया गया है) नल और नील उस समय के प्रख्यात इंजिनियर अर्थात तंत्रज्ञ थेI इन्हें नदी, समुद्र आदि पर पुल बनाने की जानकारी थी अतः उन्हें यह कार्य दियाI उनके कौशल के परिणाम स्वरूप पानी पर तैरते पत्थरों से लंका जाने के लिए पुल बनायाI यह बात मिथ्या है कि हर पत्थर पर श्री राम लिखने से वह पानी में तैरता हैI 
8) जामवंत(जाम्बुवंत)- धर्म और नीति के ज्ञाता थे I समय–समय पर रावण से युद्ध करने के पहले, जामवंत से सलाह ली जाती थीI वे रीछ जनसमुदाय से थे; जिनकी पहचान, ध्वजा पर रीछ चिन्ह से थीI वह ख्याति प्राप्त विद्वान् वैद्य थेI जब लक्ष्मण, मेघनाद के ब्रह्मास्त्र से मूर्छित हुए थे तो जामवंत ने ही संजीवनीबूटी के कैलाश या ऋषभ पर्वत पर होने की बात कही थीI 
9) जटायु-   जटायु कोई गिद्ध जाति का पक्षी नहीं थाI रावण को अपना परिचय देते हुए जटायु ने कहा था  कि…
“मैं गृध-कूट का भूतपूर्व राजा जटायु हूँI वार्धक्य के कारण वन में वानप्रस्थाश्रम में रहता हूँI जटायु खुद को दशरथ के मित्र बताते हैंI 
आरण्यक (50/4)- “जटायु: नाम नाम्ना अहम् गृध राजो महाबल: वयस्यं पित्रुरात्मना:”
    वाल्मीकि रामायण के अनुसार जटायु के ज्ञान तथा कर्म के दो पक्ष थे इसलिए उन्हें पक्षी कहते थेI जटायु को वाल्मीकि ने ‘आर्य’ कहकर संबोधित किया हैI तांड्या ब्राह्मण का यह श्लोक देखिए ….
ये वै विद्वांसस्ते पक्षिणोI
ये अविद्वांसस्ते अपक्षा:II (14/1/13) 
अर्थात जो विद्वान है वह पक्षी और अविद्वान, पक्ष रहित अर्थात मूर्ख है; जो अपनी बात सही तर्क से प्रमाणित करता है वह पक्षी अर्थात अपना पक्ष (विचार) रखने वाला हैI उल्लेखनीय है कि वाल्मीकि रामायण में भी कहीं भी जटायु को पक्षी नहीं बताया हैI जटायु नाशिक के पंचवटी क्षेत्र के वासी थे और बाद में वानप्रस्थाश्रम हेतु दंडकारण्य गएI जब राजा दशरथ आखेट के लिए पंचवटी क्षेत्र में थे, उस समय जटायु से उनकी भेंट हुई थीI तभी दोनों में मित्रता हुई थीI श्रीराम भी वनवास के समय पंचवटी आये और पर्णकुटी बना कर रहे। उस समय वह जटायु से मिले थेI जटायु ऋषि कश्यप और विनीता के पुत्र थेI उनके भाई का नाम सम्पाती थाI जब रावण सीता को उठाकर ले जा रहा था तब सीता जी ने भी जटायु को देखकर कहा था …
अरण्यक (49/38)- जटायो पश्य मम आर्य हियमाणम् अनाथ वतI
अनेन राक्षसेद्रेण करुणम् पाप कर्मणा II 
  “हे आर्य जटायु! यह पापी रावण एक राक्षस जैसा कृत्य कर मुझे अनाथ की भांती उठाकर ले जा रहा हैI”
 जब जटायु ने विरोध किया तो रावण ने उनकी दोनों भुजाएँ काट दींI सीता की खोज में राम जब उस रास्ते से निकल रहे थे तो जटायु की हालत देख उन्हें पीड़ा हुईI उसी समय,रावण, सीता को किस दिशा में ले गया, ये जटायु ने बतायाI वृद्धावस्था में गंभीर रूप से घायल जटायु की मृत्यु, राम से बात करते, हुईI राम ने उनका दाह संस्कार और पिंडदान किया थाI इंसान के मरने के बाद ही ये कर्म होते हैंI आज के छत्तिसगढ़ के दंडकारण्य में उनका एक  मंदिर हैI जटायु के मरने के बाद राम ने लक्ष्मण से कहा कि….. 
“ये हमारे पिता के मित्र थे और मेरे लिए भी पितृ तुल्य हैं। मेरे कारण हीउनकी मृत्यु हुई हैI एक पुत्र का कर्तव्य निभाते हुए मैं इनका दाह संस्कार करूँगाI”
 उनका शरीर जब चिता पर रखा था उस समय राम ने उद्वेलित होकर कहा  ‘हे द्विज जटायु! जिस लोक में यज्ञ एवं अग्निहोत्र करने वाले, समरांगण में युद्ध करते समय प्राण देने वाले और धर्मात्मा व्यक्ति जाते हैं वहीं आप प्रस्थान करेंI’ अतः जटायु पक्षी नहीं थे यह सिद्ध होता हैI  
मध्य प्रदेश के देवास जिले में जटाशंकर नाम का स्थान हैI इस पर्वत को नीचे से देखने पर लम्बी, फैली हुई विशाल जटाओं से गिरती जल धारा देख ऐसा लगता है कि शिवजी के जटाओं से जलधार गिर रही हैं, इसीलिए ‘जटाशंकर’ नाम मिलाI जटायु यहाँ तपस्या करने आते थेI 
10) कुंभकर्ण– कुंभकर्ण छ: महीने सोता था और छ: महीने जगा रहता थाI ऐसा कभी नहीं हो सकता कि कोई मनुष्य या प्राणी छ: छ: महीने सोना और जागरण कर सकेI उत्तर ध्रुव में छः महीने रात और छ: महीने दिन होते हैंI तिलक जी ने अपनी खोज में कहा है कि आर्य मूलतः उत्तर ध्रुव के निवासी थे जो बाद में प्रलय के कारण मूल स्थान से स्थांतरित हो गयेI इसका तात्पर्य कुंभकर्ण का राज्य उत्तरी ध्रुव पर होगाI ऐसे ही मेरु पर्वत का उदाहरण हैI मेरु पर्वत याने नार्थ-पोल I 
11) रावण(दशानन)- वास्तव में रावण एक महान योद्धा और वेदों का ज्ञाता थाI मनुष्य कितना भी विद्वान्  हो, अनुचित कार्यों से वह दुष्ट और पापी कहलाता है, ऐसे ही रावण के बारे में कह सकते हैंI उसे दशानन कहते थे इसका कारण है कि, उसका आदेश दश दिशाओं में व्याप्त थाI तुलसी जी ने  दशानन अर्थात दस मुँह वाला, व्याख्या की है, जो उनकी गलत अवधारणा है I
दशानन, दशस्कंध, दशमुख, दशग्रीव ये पर्यायवाची संबोधन हैंI वाल्मीकि रामायण का ये श्लोक देखिए!
“दशसु दिक्षु आननं मुखाज्ञा II
यस्य स: दशानन: II
“दस दिशाओं में जिसका प्रभुत्व था वह दशाननI”  सही क्या, गलत क्या, इसका गंभीरता से कभी विचार ही नहीं करता थाI दूसरों के विचार उस पर हावी होते थेI कुबेर की लंकाऔर पुष्पक विमान छीन लिए थेI वह शिवजी का भक्त था, उन्हें अपना आराध्य देवता मानता था लेकिन अनुचित कार्यों के कारण वह दैत्य कहलाता थाI राक्षस का सही अर्थ है रक्षा करने वाला और उसे विपरीत अर्थ में बतलाया गयाI
“वयं रक्षाम: I
अहम रक्षामि II” 
अर्थात ‘आपका रक्षण करने मै हूँ ‘I लेकिन हम लोग रावण को राक्षस यानि दैत्य मानते है और उसे भयंकर स्वरूप में उसे दिखाते हैI उसक का निम्नलिखित है ….
वास्तव में श्री लंका, हेती और प्रहेति नामक दो दैत्य भाइयों की राजधानी थी जो उन्होंने बसायी थीI रावण ने दक्षिण से उत्तर को जोड़ने के लिए नये संस्कृति का प्रचार किया और उसे रक्ष संस्कृति का नाम दिया अर्थात रक्षण करने वाली संस्कृतिI रावण जब भगवान शिव के शरण में गया तो उसने कहा था कि आर्यों ने भरतखण्ड में आर्यावर्त बना लिया हैI जिन्हें दंड दिया जाता है उन्हें बहिष्कृत कर के दक्षिणारण्य भेजा जाता हैI उन दिनों आर्यों में नियम था कि यदि कोई मान मर्यादा का भंग करने का कुकृत्य करेगा, सामाजिक नियम भंग करेगा, उसे निष्कासित कर दक्षिणारण्य भेज दिया जाता था। जब यह सब दक्षिणारण्य आने लगे थे तो वहाँ की जनजातियांसे उनका तालमेल करने केलिए, रावण ने रक्ष संस्कृति को स्थापित कियाI लेकिन जब कुबेर ने लंका पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन किया था तो बाद में रावण ने कुबेर से वह राज्य और पुष्पक विमान छीना थाI रावण को राक्षस कहते हैं, जिसका अर्थ दैत्य नहीं, ‘रक्षा करने वाला’ है I अब यह बात दूसरी है कि उसके दुर्गुणों के कारण राक्षस अर्थात भयंकर दैत्य की पहचान बन गयीI
अब दशानन का वास्तविक अर्थ रावण के सन्दर्भ में क्या है इसे देखते हैंI रावण का शब्दशः अर्थ ‘दूसरों को रुलाने वाला’, ‘हाहाकार मचाने वाला’ भी है I
1) रावण वेदों का ज्ञाता, विद्वान था तो उसने केवल शूर्पणखा के अपमान का बदला लेने के लिए सीता हरण किया था क्या?  इसका उत्तरहै ‘नहीं’I रावण के विचारों पर दूसरों के विचारों का प्रभाव ज्यादा होता था। एक धनाढ्य, शक्तिशाली, वेदों का ज्ञाता कैसा गलत विचारों के आगे दुर्बल होता है, रावण इसका उदहारण हैI सही या गलत, के विचार बिना आचरण करता थाI वह ऐसे ही दस विकारों का शिकार थाI प्रभावों में जीना, खंडित होकर जीना, खुद के आत्मसम्मान को त्याग देना यही तो विकार हैंI
2) रावण के पास दस गुना बुद्धि-शक्ति थीI वह चार वेद और छ: दर्शनों का ज्ञाता थाI उसकी विद्वत्ता को दस विद्वान भी हरा नहीं सकते थेI रावण को दशानन (दश-दस, आनन्- मुँह) या दशकंठी भी कहते थेI  तुलसीदास ने रावण को दशानन अर्थात दस मुँह वाला लिखाI फलतः हम भ्रमित हुए और बाकी भ्रमित करने का कार्य आंग्ल इतिहासकारों ने कियाI
3) रावण को दशग्रीव भी कहते हैं अर्थात वह दस दिशाओं में अपने शत्रु को पराजित करने में दक्ष थाI आतंरिक विभाजन का नाम ही रावण हैI सीता हरण के बाद मंदोदरी तथा बिभीषण का उसे समझाना व्यर्थ हुआI उपनिषद के अनुसार “ना अल्पे सुखम” अर्थात अल्प में संतुष्टि नहीं I रावण ऐसे ही विचारों का महत्वाकांक्षी व्यक्ति थाI उसे अल्प में संतुष्टि नहीं थीI इसलिए उसने कुबेर का भी राज्य और पुष्पक विमान हथिया लिया था I पुष्पक विमान भी एक कोरी कल्पना नहीं है I वास्तव में वह विमान था और इस विमान तथा अन्य विमानों को  रखने के लिए छ: विमान क्षेत्र थेI एक विमान क्षेत्र का नाम उसानगोड़ा थाI गोड़ा का अर्थ ‘बस्ती’ हैI लंका दहन के समय यह विमान क्षेत्र नष्ट हुआ थाI
वाल्मीकि रामायण (16) के अनुसार पुष्पक विमान का वर्णन इस प्रकार है ….
“तस्य हर्मस्य मध्यथ्वेश्म चान्यत सुनिर्मितमI बहुनिर्हुयसंयुक्तं ददर्श पवनात्मज:II”
अन्य विमान क्षेत्रों के नाम थोटूपोला कांडा, वारियापोला, गुरुलोपाथा, वेराग्न्टोटा जो वर्तमान श्री लंका का महियांगना विमान क्षेत्र हैI (वेरान्गटोटा सिंहली शब्द है जिसका अर्थ विमान अवतरण का क्षेत्र। ये सभी सिंहली भाषा के नाम हैं जो उस समय भी प्रचलित थीI ऋग्वेद में भी दो सौ से अधिक बार विमान के बारे में बतलाया हैं I विमान शब्द वायुयान का अपभ्रंश हैI “समरांगण सूत्रधार” में इसकी विस्तृत जानकारी हैI 
उपसंहार-  मेरे इस आलेख से मेरा प्रयास है कि से समाज नए सिरे से सोचेI जाने-अनजाने में हमने जो कुछ गलत पढ़ा है उसका सही रूप जानेंI मुझे विश्वास है कि हमारी महान संस्कृति को पहचानने में जो गलत धारणा थी वह दूर होगीI शोध कार्य 
प्रस्तुति
डॉ. नीलिमा तिग्गा
नाशिक, महाराष्ट्र
संदर्भ सूची-
1 . दी ओरायन एवं आर्क्टिक होम्स इन वेदाज-लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
  1. महर्षि वेद व्यास प्रतिष्ठान, पुणे
  2. ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका -महर्षि दयानंद सरस्वती
4 . वैदिक फिजिक्स- आचार्य अग्निव्रत(प्रवचन)
  1. अनिरुद्ध जोशी(वेब दुनिया)
  2. विकी पीडिया
7 .महाराष्ट्रीय कृत रामायण समालोचन
8 . वयं रक्षाम:-आचार्य चतुरसेन
9.वाल्मीकि रामायण – किष्किंधा काण्ड,अरण्य काण्ड , सर्ग 69 श्लोक 9-38
  1. महाभारत वनपर्व 282-46-57


डॉ. नीलिमा तिग्गा ‘नीलांबरी’ 
पिता – स्व.आनंद तुळपुळे
जन्म दिनांक – 08/10/1949
जन्म स्थळ- नागपूर(महाराष्ट्र)
शिक्षा-  विज्ञान स्नातक, बि. एच. एम. एस( स्वर्ण पदक), जर्मन भाषा प्रवेशिका (प्रावीण्य प्राप्त), संस्कृत प्रवीण परीक्षा 
व्यवसाय- निवृत्त वरिष्ठ परामर्शक ( स्टार होमियोपैथी/आयुर्वेद कॉर्पोरेट क्लिनिक ), स्वेच्छिक निवृत्ति( कोयला मंत्रालय- वरिष्ठ तकनिकी सहायक)
साहित्यिक :- ‘बलिवेदी पर’ उपन्यास तथा दो कविता संग्रह प्रकाशित , हिंदी उपन्यास का मराठी अनुवाद  
पुरस्कार:- विविध प्रतिष्ठित साहित्यिक मंचों से महादेवी वर्मा मेमोरियल पुरस्कार, धीरज सम्मान, श्री नाथद्वारा के साहित्य सम्मेलन में ‘ हिंदी साहित्यिक मनीषी’ की मानद उपाधि,  8 वा गोपालराम गहमरी और साहित्य सरोज मासिक पत्रिका द्वारा आयोजित साहित्य संमेलन  2022 में लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान तथा मराठी मातृभाषा होते हुए भी हिंदी में स्तरीय साहित्य सेवा के लिए ‘आशिष चंद्र शुक्ल स्मृति हिंदी मित्र सम्मान’,  जयपुर साहित्य संगीति तथा भोपाल के साहित्यिक संमेलन में उपन्यास ‘बलिवेदी पर’ अखिल भारतीय स्तर पर पुरस्कृत, राष्ट्रिय स्तर पर आयोजित डॉ. कुमुद टिक्कू एवं शब्दनिष्ठा कहानी प्रतियोगिता में कहानियाँ पुरस्कृत हैं I
शोध कार्य में रूचि है , हिंदी, मराठी, अंग्रेजी पत्र पत्रिकाओं में लेख, कहानियाँ प्रकाशितI



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