Wednesday, October 16, 2024
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पद्मा मिश्रा की कहानी – गांव की बेटी

उस दिन पूरे गांव में बड़ी चहलपहल थी..अभी तीन दिन पहले ही शहर से सरकारी कर्मचारी आये और गांव की कच्ची सड़कों व गलियों की मरम्मत शुरु कर दी..शिव मंदिर से लेकर बूढ़े पीपल तक रास्ते के झाड़ झंखार साफ हुए..नालियां बनीं..ब्रह्म बाबा भी साफ सुथरे नजर आ रहे थे…इस पूरे अभियान से लोगों को ये तो अंदाजा हो ही गया था कि या तो कोई सरकारी साहब आ रहे हैं या कोई बड़ा आयोजन होने जा रहा है..पर क्या ?..यह किसी को पता नही चल पा रहा था. सरकारी आदमियों से पूछा तो इतना ही पता लगा कि कोई सरकारी महिला अफसर आ रही हैं..गांव में हाईस्कूल का उद्घाटन करने..वे इस गांव को पहचानती हैं. तभी तो पोस्टिंग होते ही सबसे पहले इसे ही चुना, स्कूल बनवाने के लिये…
धरमू काका के बाइस वर्षो से खाली पडे मकान को मरम्मत कर चमका दिया गया था.रंग रोगन और सफाई कर रहे मजदूर ने बताया कि इसी में स्कूल चलेगा…गांव के पुराने लोगों में कुछ दबे छिपे प्रतिरोघ के स्वर भी उभरे…”ये मकान लावारिस थोडे ही है .जो सरकार ने ले लिया..धरमू काका नही रहे तो क्या हुआ?.. शहर में कहीं उनकी बेटा है ..उसे ही सौंप देते या पूछ लेते ?””
पर धरमू काका की बेटी का नाम आते ही न जाने क्यों पूरी पंचायत की बोलती बंद हो जाती हैं…. सभी एक दूसरे से बचने की कोशिश करने लगे.अपने ही गांव की बेटी को उन्होने ही तो दे दिया था..तब तो धर्म व नैतिकता की दुहाई देने पूरा गांव उठ खडा हुआ था…
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धरमू काका की मेधावी बेटी सुगंधा ने गांव में महिलाओं और बेटियों को पढाना शुरु किया था..प्राइमरी स्कूल से सातवीं पास सुगंधा में पढने और पढाने का जुनून सा सवार हो गया था.जब उसने एक दिन स्कूल में प्रौढ शिक्षा की एक फिल्म देखी..उस छोटी सी बच्ची के मन में इतनी बडी बात कैसे घर कर गई… सबके लिये सवाल खडाकर रही थी..गांव की बहुएं जब उससे अपने परदेशी पिया को पत्र लिखवातीं तो वह अक्सर उन्हे खुद भी लिखने व पढने की नेक सलाह देना नही भूलती थीं… क्योंकि खुद भी मॉ बाबूजीऔर पूरे गांव का विरोध सह कर भी वह अकेली लडकी लडकों के साथ कंधे से कधा मिलाकर आगे बढती गई. गांव के बूढे बुजुर्गो का निरर्थक विद्रोह कहीं से भी उचित नहीं था…और उनका मानना था कि अगर हमारी बहू बेटियां पढ गई तो वे भी शहरी हवा में बहेंगी..और हमारी विचारधारा ..हमारा बातों को नहीं मानेंगी…पढकर क्या करना है ?..कहीं नौकरी तो करनी नहीं है..””. पर सुगंधा का ही जुनून था जो उसके मनोबल को तोड नहीं पाया…. जब स्कूल में प्रथम आती तो उसकी खुशियों को बांटने वाला कोई नहीं होता था..सिवाय राजवीर के…जो उसके साथ ही पढता था.स्कूल से लौटने के बाद अकारण किसी छोटी सी गलती पर भी मार पडती उसके आंसुओं का मौन रुदन केवल
राजवीर ही समझता था.दोनो बच्चे लगन से साथ साथ पढते.. श्रम करते ….यही बात पूरे गांव को खटक गई… थी..उम्र चाहे छोटी ही क्यो न हो …लडकी का लडके के साथ उठना बैठना गलत है..यह फैसला पूरे गांव ने सुना दिया था. फिर राजवीर हरिजन टोले का था..यह तो और भी अक्षम्य अपराध था…
सुगंधा की कोशिशों से गांव की बहू बेटियां चिट्ठी लिखना सीख गई थीं… बेटियां छुप छुपकर “चंपक” पढतीं.जो सुगंधा उन्हे लाकर देती थी.
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राजवीर ने ही जिद कप उससे हाईस्कूल का फार्म भरवाया और फीस के दो सौ रुपये गोबर से बने गोईंठा और दूध बेचकप दोनो ने कमाये थे.सुगंधा ने रात दिन मेहनत की थी..खुद भी पढी और राजवीर की भी मदद की ..बदले में उसे शहर में रहने वाले राजवीर के चचेरे भाई की पुरानी किताबें पढने के लिये मिल जाती थीं… परंतु परीक्षा देने शहर जाने के नाम पर गांव में पूरा तमाशा मचा था..घर की चौखट से लेकर गांव की चौपाल तक..
चरचा तो यहभी था कि सुगंधा और राजवीर के बीच गलत संबंध हैं…वह नीच जाति का लडका ब्राह्मण की लडकी को अपमानित कर रहा है..बस.फिर क्या था !!पंचायत बैठ गई… फैसला सुना दिया गया कि “सुगंधा अब यहां नहीं रह सकती…चाहें तो धरमू काका उसे शहर भेज दें..अपने रिश्तेदार के यहां.. राजवीर के पिता निम्नवर्गीय दलित नेता थे ..अत:कोई उन्हे कुछ न कह सका.
********सुगंधा चली गई शहर!  …और एक दिन अखबार में उसकी फोटो छपी ..वह पूरे जिले में प्रथम आई थीं… यह समाचार गांव मे छाया रहा..कुछ तो पछताये भी… बहुओं ने तो उस अखबार की प्रति को ही सहेज लिया..परंतु सुगंधा कहां गई.. किसी को भी पता नहीं चला.धरमू काका को भी नही.
यह रहस्य ही बना रहा.जिसे कोई नहीं जानता था सिवाय राजवीर के..मगर उसने गांव में कभी उसकी चर्चा तक न की. धरमू काका ने भी लोगों के तानों से तंग आकर, जीते जी बेटी का श्राद्ध कर दिया. मन का दुख पत्थर बनाकर  सीने में ही दफन कर लिया ……सुगंधा के श्राद्ध में पूरे गांव ने जमकर जीमा था. धरमू काका ने भी आंसुओं को छिपाकर इकलौती बेटी के भोज की व्यवस्था में कोई कसर न छोड़ी थी.
क्रूर समाज ने एक प्रतिभा को मार डाला था..अकारण ही..
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एक मनहूस सुबह धरमू काका चुपचाप चले गये. अपनी चिर यात्रा पर. रात को जो सोये तो सुबह उठे ही नही.. कुछ दिन गांव ने शोक मनाया..फिर सभी भूल गये..न याद रही सुगंधा.. न धरमू काका का असहनीय दुख.. जिसमें घुल घुलकर उनकी जान चली गई थी..
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गांव दुलहन की तरह सज गया था. गांव के दोनो किनारों पर बिजली के दो खंभे गाडकर रोशनी भी आ गई थी. बच्चों ने पहली बार बिजली की रोशनी में खेलने का सुख जाना था. पर लोगों की उत्सुकता शांत नहीं हो पा रही थी…*कौन आ रहा है ?..यह रहस्य ही रहा…शाम को शामियाना लगाकर माइक वगैरह सजा दिये गये.. गांव वाले भी साफ-सुंदर कपड़े पहन वहां जमा हो गये. प्रधानजी जी दोनो हाथों में फूल मालायें लिये प्रतीक्षारत खड़े थे.
*******,,*,तभी कारों का एक लंबा काफिला गांव में प्रवेश करने लगा. पुलिस वालों से घिरी हुई एक आकर्षक महिला कार से उतरी ..गांव की गलियों में पैदल चलती हुई मंदिर के पास रुकी और प्रणाम किया..मानो वह इस गांव के चप्पे चप्पे से परिचित हो..वह स्वयं चलकर धरमू काका के घर तक आई और उसकी देहरी को झुककर नमन किया..  तभी गांव की छोटी छोटी बच्चियों ने उसे कैंची थमा दी और उसने फीता काटकर उद्घाटन कर दिया अपने गांव के पहले हाईस्कूल का…..”अरे !!यह तो सुगंधा है.!..अपनी सुगंधा.. भीड़ में खुसुर फ़ुसुर शुरु हो गई थी…वह आज डिप्टी कमिश्नर थी अपने शहर की.अपने गांव का मान बढाया था उसने..
गांव की महिलायें उसके आसपास सिमट आई.. गले भी लगीं और रोईं भी.. कल की युवतियां आज वयस्क हो चुकी थीं..
ंपर भावनाओं में उमड़ रहे आंसू उन्हे अपने गांव घर की बिटिया को गले लगाने से नहीं रोक पा रहे थे…..तभी राजवीर और उसके पिता वहां आये..गांव वालों ने उन्हे फूलों से लाद दिया.सुगंधा ने झुककर पांव छुए ..पर आज किसी ने उस का विरोध नही किया..धर्म व जाति के ठेकेदारों की बोलती बंद थी….सुगंधा ने उनसे पिता का प्यार पाया था और संरक्षण भी. आज वह जो कुछ भी बन सकी थी उन्ही के आशिर्वाद से बन सकी थी…तभी गांव के बुजुर्ग प्रधानजी आगे आये और माइक संभाला..”जो गलती हमने आज से बीस वर्ष पूर्व की थी ..उसके लिये हम क्षमा मांगते हैं.. तू तो हमारे गांव का गौरव है बेटा””कहकर उन्होने हाथ जोड दिये.”आज मैं पूरे गांव के सामने सुगंधा व राजवीर की जोडी को ..एक पिता की हैसियत से अपना आशिर्वाद देने की आज्ञा मांगता हूं””…
पूरे गांव ने तालियां बजाकर उनका जोरदार समर्थन किया.””कल्याणहो.”कहकर स्वागत किया.उस क्षण मानो धर्म व जाति की दीवारें टूट गई थीं. गांव में नई सोच का उजाला फैलने लगा था..ज्ञान का उजाला…. दोनो की आंखों में गर्व, अनुराग और जागृति के दीप झिलमिला उठे थे…गांव दीवाली मना रहा था. खुशियों में झूम रहा था..जिसमें उसकी संकीर्ण सोच, अंधी, सड़ी-गली मान्यताओं का कायाकल्प हो गया था..नये उजाले में अपने दोषों को पहचानकर उन्हे संवारना संभव हो सका था.
गांव की बेटी घर लौट आई थी…
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2 टिप्पणी

  1. पद्मा शर्मा जी की कहानी’ गांव की बेटी ‘ पढ़ी। कहानी कहने का ढंग काफी अच्छा है। लड़का-लड़की का एक साथ मिलकर पढ़ना या बात करना आज भी गांव में अच्छा नहीं माना जाता है। यद्यपि यह कहानी बीस वर्ष पहले की घटना को लेकर रची गई है । लड़कियों की शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ वे स्कूल जाने लगी थीं।
    मुझे लगता है कि यह कहानी बहुत जल्दबाजी में लिखी गई है। गांव की कहानी है तो कुछ भी लिख दो मेरे हिसाब से यह ठीक नहीं है। या तो यह धारणा बना ली गई है कि पिता गांव का है तो उसे कहानी में क्रूर होना ही होगा, नहीं तो कहानी जमेगी नहीं। दलित लड़के से उसके नाजायज संबंध थे तो पहले उसे रोका जाता है। लड़की की पढ़ाई छुड़ाकर घर बैठा लिया जाता है। लेकिन मैंने किसी पिता को बेटी को घर से निकालते हुए नहीं देखा है। लड़की के ऐसे कामों पर पिता को गांव समाज के सामने शर्मिंदा होते हुए देखा है। शर्मिंदगी दूर करने के लिए वह लड़की की जल्दी शादी भी कर देता है। गांव में एक कहावत है कि संतान जांघ पर हग दे तो जांघ नहीं काटी जाती है, उसे धो दिया जाता है। ये ऐसे बहुत से कारण है जिससे यह कहानी मुझे अस्वाभाविक लगी।

  2. कहानी तो आपकी अच्छी है पद्मा जी। गाँव में प्राय: लड़कियों की पढ़ाई को लेकर लोगों के मन में संकुचित सोच रहती है। यद्यपि अब समय बदल रहा है लेकिन फिर भी कहीं-कहीं गाँवों में आज भी पिछड़ापन व संकुचित सोच है। और ऐसे में अगर कोई पिछड़ी जाति वाला सहायक बने तो बात आग में घी डालने जैसी हो जाती है।
    पिता के छोड़ देने और श्राद्ध कर देने वाली बात पर हमें जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ। क्योंकि हम जानते हैं कि ऐसे लोग हैं अभी भी, कुछ जातियाँ ऐसी हैं जो लड़कियों के लिए यह सब कर सकती हैं। लड़की का चला जाना ,पढ़ना और अधिकारी बनकर आना; यह प्रेरणास्पद बात है और समाज के लिए एक सकारात्मक संदेश है लेकिन इस कहानी में कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं जिसमें सुधार अपेक्षित है। सबसे पहली तो यह कि प्राइमरी स्कूल से सातवीं कैसे पास किया जा सकता है? प्राइमरी स्कूल में सिर्फ पाँचवी तक की क्लास होती हैं। यहाँ मिडिल स्कूल लिखा जाना जरूरी है। क्योंकि मिडिल स्कूल की अगर एक क्लास भी खुलती है तो स्कूल प्राइमरी से मिडिल में आ जाता है। क्योंकि उसके लिए शासन से मान्यता लेनी पड़ती है मिडिल स्कूल की।भले ही आप एक भी क्लास क्यों ना खोलें और स्कूल मिडिल कहलाता है। दूसरी गलती जो महसूस हुई।
    “स्कूल में प्रथम आती थी “नहीं! क्लास में प्रथम आती थी लिखना चाहिए था। ‌‌आज भी देश में कई स्कूल ऐसे हैं जहाँ बोर्ड का एग्जाम देने के लिए बच्चों को दूसरे शहर जाना पड़ता है। बच्चों के लिए यह कष्टदायक होता है और लड़कियों के लिए तो बहुत ज्यादा। काश! इस क्षेत्र में सरकार कुछ काम कर पाए। कहानी का अंत अच्छा रहा। बहुत सी परंपराएँ टूटीं। लड़कियों को पढ़ाने के संबंध में लोगों की सोच तो बदली ही लेकिन धर्म और जाति का बैर भी समाप्त हुआ। गाँव में ज्ञान की ज्योति जगी।यह बहुत बड़ी बात रही। एक सकारात्मक सोच पर बल देती प्रेरणास्पद कहानी है।
    वर्तनी की कुछ गलतियाँ खटकीं।

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