Wednesday, October 16, 2024
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दीपक शर्मा की कहानी – कुल जोड़

(1)
पपा के दफ़्तर पहुँचते-पहुँचते मुझे चार बज जाते हैं|
वे अपने ड्राइंगरूम एरिया के कम्प्यूटर पर बैठे हैं|
अपनी निजी सेक्रेटरी, रम्भा के साथ|
दोनों खिलखिला रहे हैं|
“रम्भा से आज कुछ भी ठग लो,” मुझे देखते ही पपा अपनी कम्प्यूटर वाली कुर्सी से उठकर मुझे अपने अंक में ले लेते हैं, “इसने अभी कुछ देर पहले ५०,००० रुपए बनाए हैं…..”
“कैसे?” उनके आलिंगन के प्रति मैं विरक्त हो उठती हूँ| पहले की तरह उसके उत्तर में अपनी गाल उनकी गाल पर नहीं जा टिकाती|
“शेयर्स से| सुबह जो शेयर ख़रीदे थे उनकी कीमत तीन बजे तक पांच गुणा  चढ़ गई और इसने उन्हें बेच डाला| बधाई दो इसे…..”
“इधर मैं इसे बधाई देने ही तो आई हूँ,” पपा से मैं थोड़ी अलग जा खड़ी होती हूँ, “इसकी ड्राइविंग सीखने के लिए और इसकी नई ऑल्टो के लिए…..”
रम्भा की खिलखिलाहट लोप हो रही है|
हरीश ने तो सिखाई नहीं होगी,” मैं व्यंग्य कर रही हूँ|
रम्भा हरीश की पत्नी है, जो पपा के रिटायरमेन्ट के समय के सरकारी दफ़्तर में एक जूनियर पी. ए. है और पपा ने उससे जब अपनी रिटायरमेन्ट के बाद खोली गई अपनी इस नई कन्सलटेन्सी के लिए एक निजी सेक्रेटरी की ज़रुरत की बात की थी तो उसने रम्भा को आन पेश किया था| 15000 रु. माहवार पर|
“किचन को फ़ोन करो, रम्भा,” पपा तुरंत स्थिति संभाल ले जाते हैं, “तीन चाय और एक प्लेट पनीर पकौड़े इधर भेज दे…..”
“जी, सर,” मेरे प्रश्न का उत्तर दिए बिना रम्भा सोफ़े के बगल में रखे फ़ोन पर तीन अंक घुमाकर पूछती है, “किचन?”
पपा ने अपना यह दफ़्तर अपने एक मित्र के गेस्ट हाउस के एक स्वीट में खोल रखा है जिसकी रसोई से जो चाहें, जब चाहें, कुछ भी मँगवा सकते हैं| सच पूछें तो यह पपा का दफ़्तर कम और अतिथि आवास ज़्यादा है| शहर से बाहर के अपने मित्रों और परिवारजन को पपा यहीं ठहराते हैं| उधर ममा के पास नहीं|
“पपा, मेरे लिए कुछ मत मंगवाइए,” पहले की तरह सोफ़ा ग्रहण करने की बजाए मैं वहीं खड़ी रहती हूँ, “मुझे आप से एक बात करनी है| सौरभ के बारे में| अकेले में|”
सौरभ मेरे पति हैं| 2009 से| रईस पिता के इकलौते बेटे| शहर के सबसे बड़े मॉल की एक बड़ी दुकान के अपने पिता की साझेदारी के मालिक| पंद्रह वर्षीय मेरे रोहित और ग्यारह वर्षीया मेरी वृन्दा के पिता|
“अकेले में?” हड़बड़ा कर पपा रम्भा की ओर देखते हैं|
“मैं जाऊँ?” वह अपनी हीं-हीं छोड़ती है|
(2)
पिछले शनिवार  के अंदाज़ में|
सौरभ उस दिन बच्चों को अपने क्लब के स्विमिंग पूल ले जा रहे थे और मैं ममा-पपा से मिलने उनके घर पर गई हुई थी| रम्भा उस समय वहीं थी| अभी तीन ही दिन पहले पपा ने मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया था और उन दिनों दफ़्तर नहीं जा रहे थे| रम्भा ही दफ़्तर से डाक ला रही थी|
लंच के लिए जब हमारा नौकर, परसराम, पपा को बुलाने गया तो उन्होंने उससे खाने की मेज़ पर रम्भा की प्लेट भी लगवा ली|
“यह लड़की बाद में खाएगी,” माँ ने मेज़ पर पहुँचते ही परसराम को रम्भा की प्लेट उठा ले जाने का आदेश दिया|
जब तक पपा भी रम्भा के साथ वहां पहुँच लिए, “या तो यह लड़की भी अभी खाएगी या फिर मैं बाद में इसके साथ खाऊँगा…..”
“नो कोहौर्टिन्ग विद अ सर्फ़ औन माए टेबल,” (अपनी मेज़ पर मुझे एक दास की संगत स्वीकार नहीं), रम्भा की कमज़ोर अंग्रेज़ी का लाभ उठाते हुए ममा ने अंग्रेज़ी में पपा से कहा|
“वह दास नहीं है,” रम्भा की सुविधा के लिए पपा हिंदी में बोले, “मेरी मित्र है| मेरी मेहमान है…..”
हाथ बांधकर परसराम ममा की ओर देखने लगा|
पपा से ज़्यादा वह ममा की बात मानता है| जानता है उसे पक्की सरकारी नौकरी दिलाने में ममा उसके लिए अधिक सहायक सिद्ध हो सकती हैं| यों तो पपा और ममा आए.ए.एस. में एक ही साल में आए थे और रिटायर भी इसी एक ही साल में हुए थे। ममा मार्च में। और पपा सितंबर में। किंतु ममा को अपनी एक विदेशी पोस्टिंग के आधार पर सार्वजनिक एक विशाल संस्था में अध्यक्षा की नियुक्ति मिल गई थी| इसी पहली अप्रैल ही से| रिटायरमेंट के बाद का एक दिन भी उनका खाली नहीं गया था| जैसे पपा के जनवरी तक के ये पूरे चार माह|
“लेट-अप यौर टेम्पर ममा| लेट इट बी,” मैंने ममा को संकेत दिया, (वे अपने गुस्से को विराम दे दें और ऐसा ही चल लेने दें)|
“येट अगेन? (एक बार फिर?)”, ममा का चेहरा बुझ चला, “बट शी इज़ नॉट आर इक्युल (किंतु वह हमारे बराबर की नहीं…..)”
“क्यों?” पपा चिल्ला पड़े, “उसके हाथ में उंगलियाँ कम हैं? या खाने के लिए मुंह ज़्यादा हैं?”
“मैं जाऊँ?” रम्भा ने पपा की ओर देखकर अपनी हीं-हीं छोड़ी| उसकी इसी हीं-हीं की बारम्बारता को देखते हुए हम माँ-बेटी उसे अकेले में ‘लाफ़िंग गैस’ (हास्स-गैस) पुकारा करते हैं|
“आए डिड नॉट वौंट टु शेयर द डेलिकेसीज दैट आए हैड गौट फ़ौर यू (तुम्हारे लिए विशेष बना भोजन मैं उसके साथ बाँटना नहीं चाहती थी),” ममा की आवाज़ टूटने लगी|
“रिमिट यौर हौटर, ममा (अपना दर्प छोड़ दो, माँ)| फ़ौर माए सेक (मेरी ख़ातिर)|”
“ठीक है,” ममा ने परसराम को संबोधित किया, “सभी प्लेट यहीं रहने दो…..”
खाने की कुर्सी के पास खड़ी रम्भा ने अपनी हास-गैस फिर छोड़ी| पपा की ओर देखते हुए|
“बैठो, रम्भा,” पपा से पहले मैंने उसे कह दिया|
मर्यादा बनाए रखने के लिए ममा फिर वहां खाने के अंत तक बैठी तो ज़रूर रहीं मगर पुराने अभ्यास के विपरीत उन्होंने कोई भी पकवान न ही किसी को परोसा और न स्वयं ही भरपेट खाया|
(3)
“सौरभ के बारे में है?” पपा सोच में डूब जाते हैं, “तो चलो हमीं उधर हॉल में चलते हैं| रम्भा यहाँ कम्प्यूटर का अपना काम पूरा कर लेगी…..”
“ठीक है,” पपा के साथ मैं भी अपने कदम दरवाज़े की ओर बढ़ाती हूँ, “और चाय, भी हम दोनों वहीं ले लेंगे…..”
“और मेरी चाय?” रम्भा मचलती है|
“वह मैं यहाँ भिजवा दूँगा| तुम्हारे पनीर-पकौड़ों के साथ…..”
हॉल में पपा के मित्र के दूसरे किराएदार ने दो सोफ़ों के साथ आठ कुर्सियाँ और एक लंबी मेज़ लगवा रखी है जो उसकी कंपनी की मीटिंग़्ज़ के दौरान कॉन्फ्रैन्स के काम में लाई जाती है और मीटिंग़्ज़ के बाद खाने-खिलाने के|
रसोई की तरह पपा इस हॉल के खाली होने पर इसका प्रयोग भी मुक्त रूप से कर सकते हैं, करते हैं| वास्तव में इस फ़्लैट की एंट्री ही हॉल से होती है|
“हाँ, तो सौरभ क्या कहता है?” हम दोनों के सोफ़े पर अपने-अपने आसन ग्रहण करते ही पपा पूछते हैं|
“उसने आज रम्भा को वह नई ऑल्टो ड्राइव करते हुए क्या देख लिया, मुझे आप से यह पूछने के लिए इधर भेज दिया, क्या वह मोटर आपने उसे ख़रीद कर दी है…..”
“उसे बता देना मेरे निजी मामलों में उसे दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिए…..”
“मुझे भी नहीं?” मैं सतर्क हो जाती हूँ| इधर मैं पपा को नाराज़ करने नहीं आई हूँ|
“तुम जानना चाहोगी तो मैं ज़रूर बताऊँगा| तुम तो मेरी लाडली हो| मेरी निहंगलाड़ली, पपा मेरे हाथ से खेलने लगते हैं| मानो अभी भी मैं कोई बच्ची रही|
“हाँ, पपा| मैं जानना चाहती हूँ,”
“मैं ने उसे खरीद कर नहीं दी, सिर्फ़ उसे खरीद का लोन दिया है…..”
“जिसे वह आप ही के शेयर्स बेचकर उतार रही है| प्लीज़, पपा, थ्रो दैट पैरासाइट आऊट (कृपया उस परजीवी को बाहर निकाल फेंकिए)”|
“कौल मी अ पैरासाइट| (तुम मुझे परजीवी कहो)| नौट हर (उसे नहीं)| आए लिव औन हर| शी डज़ नौट लिव ऑन मी (मैं उसके सहारे जी रहा हूँ, वह मेरे सहारे नहीं जी रही…..)”
“मगर क्यों? जीने के लिए आपको ऐसी वौन-न-बी (साधन-विहीन उच्चाकांक्षी), ऐसी वौंट-विट (मूर्खा) का सहारा क्यों चाहिए? जब ममा आपके साथ खड़ी है…..”
“वह मेरे साथ कहाँ खड़ी होती है? आगे ही आगे निकल भागती है| भूल जाती है हम दोनों बराबर की तनख्वाह पाते रहे हैं, बराबर के रैंक से रिटायर हुए हैं, बराबर की पेंशन पा रहे हैं और सच बताऊँ तो वह यह भी भूल जाती है हम सबसे पहले मानव जीव हैं, हमें मानव स्पर्श की, मानव प्रेम की ज़रुरत रहती है…..”
मैं चाहूं तो कह सकती हूँ पपा, यह शिकायत तो ममा भी कर सकती हैं। लेकिन परस्पर-विरोधी, अव्यवस्थित माता-पिता की संतान सामान्य बच्चों की तरह न तो उन तक दूसरे की शिकायत पहुंचाती है और न ही एक से दूसरे की शिकायत करती है|
“और क्या तुम्हें मालूम है इधर मेरी दोनों आँखें मोतियाबिंद से कमज़ोर से कमज़ोरतर हो रही थीं और उधर तुम्हारी चेयरपर्सन साहिबा मुझे क्या बता रही थीं? हमारे मंत्री मेरे विभाग के सभी रीजनल डायरेक्टर्ज़ की एक मीटिंग बुलाने वाले हैं| और उस मीटिंग से पहले मुझे सभी का काम उनके रीजन में जाकर देखना-परखना है| ऐसे में मुझे किसने देखा? तुम्हारी उस वौन-न-बी ने, उस वौन्ट-विट ने| मेरे साथ वह डॉक्टर के पास जा रही थी| तीन-तीन घंटे मेरे साथ वहां बैठ रही थी| और मालूम है? ऑपरेशन के दिन वहां मेरे साथ कौन था? वही वौन-न-बी, वही वौन्ट-विट| और ऑपरेशन के बाद आँख में हर घंटे दवा डालने का काम किसने संभाला? दिन में उस लड़की ने और रात में उसके पति ने| इस बीच चेयरपर्सन साहिबा क्या करती रही थीं? एक दौरे के बाद दूसरे दौरे की तैयारी| एक रिपोर्ट के बाद दूसरी रिपोर्ट का आयोजन…..”
“आपने मुझे क्यों नहीं बुलाया पपा?” अपनी बाँहों से मैं उनके कंधे घेर लेती हूँ|
“क्या मैं जानता नहीं वह सौरभ और उसका परिवार तुम्हारे समय को कैसे अपनी पकड़ में रखते हैं? ब्लडी बास्टर्ड्ज़ (पुश्तैनी हरामज़ादे)!”
“चाय, सर,” रसोई की दिशा से एक आदमी चाय की ट्रे के साथ आन उपस्थित हुआ है|
मैं अपनी बाँहें पपा के कंधों से अलग कर लेती हूँ|
“दो चाय यहाँ रख दो, और तीसरी चाय और एक प्लेट में कुछ पकौड़े रखकर अंदर, मेरे स्वीट में पहुँचा आओ|”
“जी, सर…..” 
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(4)
अपनी मोटर की हैंड-ब्रेक खोलते समय मैं अपनी घड़ी देखती हूँ|
वह चार पैंतालिस दिखा रही है|
गेस्ट हाउस से बाहर निकलते ही मैं ममा के दफ़्तर की सड़क लेती हूँ| सौरभ का मानना है मेरी ममा को चेताना बहुत ज़रूरी है ताकि पपा रम्भा को कुछ और न दे-दिला दें|
अपनी मोटर कम भीड़ वाली एक सड़क के एक किनारे पर रोककर मैं ममा का मोबाइल मिलाती हूँ| ममा से मिलने के लिए मुझे पहले उनके दफ़्तर में उनकी उपस्थिति की पुष्टि करनी होती है|
“बोल,|” ममा अपना मोबाइल उठाती हैं|
“मैं आपसे मिलने आ रही हूँ…..”
“बिल्कुल मत आना| इस समय मैंने यहाँ अपने रीजनल डायरेक्टर्ज़ की एक मीटिंग बुला रखी है…..”
“कब तक खाली हो जाओगी?”
“मालूम नहीं| कोई ख़ास बात है?”
“हाँ, सौरभ ने आज उस ‘लाफ़िंग गैस’ को एक नई ऑल्टो खुद ड्राइव करते हुए देखा तो मुझे बोला, ममा को चेता दो, पपा उस सैक्रेटरी-वैक्रेटरी को कुछ ज़्यादा ही भाव दे रहे हैं…..”
“तो?” ममा झल्लाती हैं|
“वह सोचता है पपा उसे और भी कुछ दे-दिला सकते हैं…..”
“क्या दे देंगे?” ममा ठठाती हैं, “मकान मेरे नाम हैं…..”
“और उनका बैंक-बैलेंस?”
“वह तुम्हारा सिर-दर्द है, मेरा नहीं….. मेरे पास अपना बहुत है…..”
“लेकिन ममा…..”
“सौरभ को समझाओ, उसे तो खुश होना चाहिए एक गरीब लड़की आगे बढ़ रही है…..”
“लेकिन ममा उसे आगे बढ़ा कौन रहा है?”
“सफल स्त्रियों के पति ऐसी ही गरीब, लड़कियों को आगे बढ़ाया करते हैं…..”
“और सफल स्त्रियाँ क्या करती हैं?”
“वे अपने आपको और आगे बढ़ाने लगती हैं और इस तरफ़ अपनी आँखें मूँद लेती हैं…..”
“किंतु उससे समस्या हल हो जाती है क्या?” मन में उठ रहे अपने प्रश्न को मोड़ कर मैं व्यावहारिकता का वेश पहना देती हूँ| क्यों पूछूँ उनसे, आँखें बंद कर लेने से क्या मन में खुल रहे, रिस रहे घाव भी अपनी टपका-टपकी बंद कर दिया करते हैं? मैं जानती हूँ ममा अपने मन के घाव को, अपनी अवमानना, अपनी असफलता के रूप में नहीं, बल्कि एक समस्या के रूप में प्रस्तुत हुए देखना चाहती हैं|
“समस्या भी वह गरीब औरत ही हल करती है,” ममा फिर ठठाती हैं, “आगे बढ़ जाने के बाद वह दूसरे बड़े शिकार ढूँढने लगती है और आपकी गृहस्थी चलती रहती है…..”
ममा के लिए गृहस्थी का मतलब शायद उसके स्वरुप से है, जिस पर हो रहे व्यय का परिचालन वे पपा के साथ बखूबी बाँटती रही हैं| और अब भी बाँट रही हैं| क्योंकि मैं जानती हूँ गृहस्थी के तत्वावधान का स्वभाव तो वे दोनों ही अपने वैवाहिक जीवन के प्रारंभिक वर्षों ही में खो चुके हैं|
“यू आर वेरी ब्राइट, ममा, (तुम्हारी बुद्धि बहुत तेज़ है, माँ)” मैं कहती हूँ|
“अच्छा बाए, मेरा चपरासी इधर दो बार झाँक कर गया है| कॉन्फ्रैंस रूम में सभी डायरेक्टर्ज़ पहुँच गए होंगे| लेकिन तुम बोलो, तुम्हारे मन से मेरी चिंता दूर हुई?”
“हाँ, ममा, दूर हो गई…..”
“मैं सच कहती हूँ, स्वीटहार्ट (प्रियतमा)| जब तक मैंने चिंता की, बहुत कष्ट पाया| चिंता छोड़ी, तो सब मिला| मिल रहा है…..”
“हाँ, ममा” मैं उदास हो जाती हूँ|
कस्बापुर के कष्टदायक वे तीन वर्ष मेरे सामने चले आए हैं| जब ममा वहां जिलाधीश थीं और पपा मेरी आया को ममा से ज़्यादा तूल दिया करते थे|
“ठीक है, बाए| मेरा चपरासी फिर इधर झाँक रहा है| मुझे अब उठना ही होगा…..”
ममा मोबाइल काट देती हैं|
किनारे से सड़क के डिवाइडर तक अपनी मोटर ले जाने में मुझे समय लग रहा है|
पांच बजे वाले ऑफ़िस से छूटे लोगों की भीड़ लगातार बढ़ रही है|


दीपक शर्मा
दीपक शर्मा
हिंसाभास, दुर्ग-भेद, रण-मार्ग, आपद-धर्म, रथ-क्षोभ, तल-घर, परख-काल, उत्तर-जीवी, घोड़ा एक पैर, बवंडर, दूसरे दौर में, लचीले फीते, आतिशी शीशा, चाबुक सवार, अनचीता, ऊँची बोली, बाँकी, स्पर्श रेखाएँ आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित. संपर्क - [email protected]
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9 टिप्पणी

  1. दीपक शर्मा जी की’ कुल जोड़ ‘ कहानी उच्च मध्य वर्ग की कहानी है। यह वर्ग धनी है, साधन सम्पन्न है पर पारिवारिक जीवन बहुत ही अस्थिर है। तुक्का यह है कि फिर भी समाज में उस पर आजीवन पर्दा चढाए रहते हैं। बेटी हो या दामाद सभी अपने स्वार्थ के प्रति चौकन्ने है। मां काफी प्रेक्टिकल है। तभी तो कहती है कि मेरा मत देख, अपना देख। जीवन में सब कुछ घटित होने के बाद मां ने सबसे किनारा कर लिया है और अपने काम में मस्त है।
    चूंकि कहानी उच्च मध्य वर्ग की है तो वार्तालाप भी उसी स्तर का है ,जो कहानी को स्वाभाविक बनाता है। यह कहानी मनुष्य की वास्तविकता को दिखाती है कि मनुष्य पद, पैसा, खान-पान में आम लोगों से भले अलग हो लेकिन उसकी जो मूल प्रवृत्ति स्वार्थ और लोभ की है , वह नहीं जाती है। वह हमेशा बनी रहती है। इस वर्ग का आदमी संस्कारवान ही हो इसकी कोई गारंटी नहीं है। कहानी पाठक को बांधती चली जाती है। बधाई आपको।

  2. पद्गाँमा मिश्रा जी की कहानी “गाँव की लड़की” एक साधारण सी बिना किसी व्यंजना के लिखी गई कहानी है जिसमें “ये तो होना ही था की गंध है।”
    अब भी गाँव में विपरीत लिंग की समीपता को बुरा माना जाता है और यदि वर्ग और जाति भिन्नता हो तो और भी बुरी बात। सफलता मिलने पर सब अपनाने को तैयार रहते ही हैं।
    —ज्योत्स्ना सिंह

  3. उच्च वर्ग में तेजी से हो रहे हैं विघटन को रेखांकित करती है दीपक शर्मा जी की कहानी कुलजोड़। संस्कारहीनता कितनी तेजी से हमारे समाज में फैल गई है यह कहानी उसका उदाहरण है। पत्नी, बेटी, दामाद और पति एक अवांछनीय रिश्ते को स्वीकार रहे हैं और समाज के सामने ऐसे जी रहे हैं जैसे सब कुछ सामान्य हो। सबके अपने अपने स्वार्थ हैं। दामाद को भविष्य में मिलने वाली अपनी संपत्ति की चिंता है। पत्नी ने पति से उम्मीद छोड़ दी है। परिवार संस्था के बिखराव की कहानी है कुल जोड़। दीपक शर्मा जी की सधी हुई लेखनी ने इसे ऊँचाई प्रदान करी है। बधाई स्वीकारें।

  4. Thank you very much,dear Neelam.
    Your appraisal of my story means a lot to me.You are yourself a writer of substance.

    It speaks of your keen observation of the failing values of present times.
    Warm regards
    Deepak Sharma

  5. कहानी बार बार पढ़ कर भी ताज़ा लगे यह कहानी की सबसे बड़ी विशेषता है। कुछ भी गणित के सवाल जैसे हल जिंदगी की समस्याओं के नहीं होते।सब धूसर।जो दिखता या लगता है वह होता नहीं। सभी सही और, सभी गलत भी हो सकते हैं। किसी निश्चित फैसले पर नहीं पहुंचने देती जिंदगी की किताब

  6. यही तो जिंदगी का संतुलन या असंतुलन है यही इस कहानी से पता लगता है

  7. दीपक जी की कहानियों में समाज के कड़वे सच इतनी बेबाकी और सघनता से व्यक्त होते हैं कि आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है।
    यह कहानी भी सोचने पर मजबूर करती है ,किस तरफ हमारा समाज जा रहा है ।
    दीपक मैम की पैनी लेखकीय दृष्टि छोटी से छोटी बात पर रहती है और बड़ी बारीकी और कुशलता से वह बात कहानी में पिरो देती हैं।

  8. आदरणीय दीपक जी!
    आई ए एस की पोस्ट कोई सामान्य पोस्ट नहीं होती है।और एक लंबे समय तक पद पर काम करते हुए जबकि पति- पत्नी दोनों ही एक ही पोस्ट में हों, जाहिर है कि पूरी नौकरी भर दोनों अलग-अलग ज्यादा रहे एक साथ कम। हम यह नहीं कहते कि सभी लोग ऐसे रहते होंगे लेकिन कुछ लोग ऐसे भी रहते हैं जिन पर पारिवारिक दृष्टि से अलग रहने का अलग प्रभाव पड़ता है। दोनों को ही दूसरों पर आश्रित रहने की आदत ज्यादा हो जाती है। जब तक नौकरी में रहते हैं तो लाइफ बिल्कुल अलग रहती है लेकिन नौकरी से रिटायर होने के बाद भी जब पत्नी अपने लिए काम तलाश ले और पति अकेला रहे तो स्थितियों मैं अपनापन आने में संदेह रहता है
    स्त्रियों को तो फिर भी थोड़ा बहुत आदत रहती है घर संभालने की पर प्राय पुरुषों को नहीं रहती और वो आश्रित हो जाते हैं। कुछ लोग संवेदनशील होते हैं। कोई उनके लिये यदि यथासंभव मददगार है तो उसके प्रति सह्रदय हो जाना स्वाभाविक है।

    परिवार को सही तरीके से ना चला पाना श्रीमती जी के लिए अपने असफलता नहीं बल्कि समस्या थी। एक जगह बेटी स्वयं यह बात कहती है- “मैं जानती हूँ ममा अपने मन के घाव को, अपनी अवमानना, अपनी असफलता के रूप में नहीं, बल्कि एक समस्या के रूप में प्रस्तुत हुए देखना चाहती हैं|”
    माँ का अपनी बेटी के प्रति इतना लगाव समझ में नहीं आया जितना पिता का था। यह भी कार के संबंध में बात करने पर सवाल जवाब-“और उनका बैंक-बैलेंस?”
    “वह तुम्हारा सिर-दर्द है, मेरा नहीं….. मेरे पास अपना बहुत है…..”
    “लेकिन ममा…..”
    जब बेटी अपने पापा से कहती है कृपया उस परजीवी को बाहर निकाल फेंकिए तब उसके पिता कहते हैं कि”तुम मुझे परजीवी कहो उसे नहीं।मैं उसके सहारे जी रहा हूँ, वह मेरे सहारे नहीं जी रही।”
    “मगर क्यों? जीने के साधन-विहीन उच्चाकांक्षी ऐसी मूर्खा का सहारा क्यों चाहिए? जब ममा आपके साथ खड़ी हैं
    “वह मेरे साथ कहाँ खड़ी होती है? आगे ही आगे निकल भागती है| भूल जाती है हम दोनों बराबर की तनख्वाह पाते रहे हैं, बराबर के रैंक से रिटायर हुए हैं, बराबर की पेंशन पा रहे हैं और सच बताऊँ तो वह यह भी भूल जाती है हम सबसे पहले मानव जीव हैं, हमें मानव स्पर्श की, मानव प्रेम की ज़रुरत रहती है।” पारिवारिक सामंजस्य के लिए यह सब बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं।
    बेटी के जन्म के समय आया की कद्र करना भी इसी में शामिल है। जो काम माँ को करना चाहिए था वह एक आया कर रही थी।
    कुल मिलाकर परिवार के कुल जोड़ के लिए यह आवश्यक है की परिवार में पति और पत्नी दोनों में परस्पर सामंजस्य हो चाहे वह कितने ही पढ़े लिखे क्यों ना हो,कितनी ही ऊँची पोस्ट पर काम क्यों ना करते होंकहानी भाषा शैली के आधार पर परिपक्व है एक पढ़ी-लिखी फैमिली के अनुरूप बीच-बीच में अंग्रेजी में बात होती है।
    शीर्षक अर्थवत्ता लिये हुए हैं वास्तव में जीवन का कुल जोड़ क्या है? वह है पारिवारिक सामंजस्य , एक दूसरे को समझना एक दूसरों की भावनाओं की कद्र करना, फिक्र करना।
    एक बेहतरीन और सामयिक को दर्शाती कहानी के लिए दीपक जी आपका बहुत-बहुत बधाई।

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