Wednesday, October 16, 2024
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राकेश कुमार दुबे का लेख – समाज के मनोविज्ञान से संवाद : जैनेन्द्र का परख

उपन्यास आधुनिक हिंदी की नवीनतम एवं चर्चित विधा है। इसका प्रादुर्भाव औपनिवेशिक परिवेश में यथार्थपरक दृष्टिकोण को लेकर हुआ । उपन्यास एक विधा के रूप में रचनाकार को अपने समय और परिवेश के यथार्थ को क्रमिक प्रस्तुति का अवसर प्रदान करता है जो साहित्य की अन्य विधाओं में अपेक्षाकृत कम ही मिलता है । उपन्यास में प्रायः उन सामाजिक – सांस्कृतिक , राजनीतिक – आर्थिक संदर्भो की मुखर अभिव्यक्ति होती है जो जीवन से जुड़े होते हैं । उपन्यास वस्तुतः मानवीय जिजीविषा की अभिव्यक्ति है ।         
साहित्य के रूपों का विकास समाज के विकास से जुड़ा होता है , इसलिए साहित्य रूपों की संरचना का उस सामाजिक संरचना से गहरा संबंध होता है जिसमें साहित्य के रूप पैदा होता हैं । प्रत्येक साहित्य रूप का एक विचारधारात्मक आधार भी होता है जो सामाजिक विकास की विशेष अवस्था में व्याप्त विचारधारा से प्रेरित और प्रभावित होता है । प्राचीन साहित्य में महाकाव्य अपने समय और समाज के मनुष्य की स्थिति और नियति की पहचान और अभिव्यक्ति के प्रयत्न करते थे । आधुनिक काल में यह काम उपन्यास के माध्यम से होने लगा । इसीलिए उपन्यास को आधुनिक युग का महाकाव्य भी कहा जाता है । 
उपन्यास केवल एक साहित्यिक रूप नहीं है वह जीवन जगत को देखने की एक विशेष दृष्टि है और मानव जीवन तथा समाज का एक विशिष्ट बोध भी । प्रसिद्ध रूसी आलोचक मिखाइल बाख्तिन ने उपन्यास के स्वभाव की व्याख्या करते हुए लिखा है कि उसमें दृष्टियों और स्वरों की अनेकता होती है । दृष्टियों और स्वरों की अनेकता से उपन्यास की संरचना में लोकतंत्र आता है । 
मानव स्वभाव और मानव – समाज परिवर्तनशील है । इस परिवर्तनशीलता की पहचान ओर अभिव्यक्ति उपन्यास का प्रयोजन है । ब्रेश्ट ने कहा था कि ” यथार्थवाद केवल एक साहित्यिक दृष्टि और पद्धति ही नहीं है वह एक राजनीतिक दृष्टिकोण भी है ।”
यथार्थवादी उपन्यास लोगों को सामाजिक वास्तविकता और सच्चाई का ज्ञान देकर उन्हें क्रियाशील बनाता है । उपन्यासकार वर्तमान की सीमाओं के बोध के पार जाकर संभावित संसार की रचना की कोशिश करता है । इसीलिए उसे संभावनाओं का व्याख्याकार ‘ भी कहा जाता है ।
प्रारंभिक भारतीय उपन्यास के केंद्र में राष्ट्रीय भावना तथा जनचेतना थी । प्रारंभिक उपन्यास जनजीवन का आख्यान बना । प्रेमचंद को हिन्दी उपन्यास विधा का सम्राट माना जाता है । प्रेमचंद का उपन्यास साहित्य सामान्य जन के जीवन का लेखा – जोखा है । समकालीन समय से विमर्श का सशक्त माध्यम है । वर्जीनिया वुल्फ ने अपने पुस्तक ‘ ए रूम ऑफ वन्स ओन ‘ में लिखा है – ” उपन्यास का वास्तविक जीवन से संवाद होता है इसलिए इसके मूल्य भी कुछ हद तक वास्तविक जीवन के मूल्य होते है ।” 
प्रेमचंद के समकालीन उपन्यासकारों में जैनेन्द्र एक विशेष नाम है । प्रेमचंद से अलग अपनी अलग और अनूठी पहचान के साथ उपन्यास के क्षेत्र में अवतीर्ण होने वाले जैनेन्द्र समय के साथ विलक्षण संवाद करने में सफल हुए हैं । नया अंदाज , नई शैली , नई दृष्टि जैनेन्द्र के साहित्य का विशिष्ट तेवर है । परस्पर विरोधी निर्णयों व सम्मतियों के कारण वे आलोचकों की कटु आलोचना के केंद्र भी बने हैं । सामाजिकता के साथ – साथ मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से समकालीन मानवीय जीवन से संवाद करते हुए उसकी सशक्त अभिव्यक्ति जैनेन्द्र की अन्यतम विशेषता है । जैनेन्द्र ने अपने उपन्यासों में द्वद्वात्मकता का सहारा लिया है । जीवन के दो पहलुओं को परस्पर विरोध में रखकर उस विरोध के भीतर से एक समाधान निकालने की शैली उनके सभी उपन्यासों में प्रायः मिलती है । ‘ चित्रण की यही द्वंद्वात्मक स्थिति उनके उपन्यासों में नाटकीय आकर्षण पैदा करती है । जीवन के दो विरोधी सत्यों को दो पुरुष पात्रों के माध्यम से स्थापित करते हैं और फिर सशक्त नारी पात्र से उनके मध्य संतुलन एवं तालमेल बनाते हैं । इसीलिए उनके उपन्यासों में पुनरावृत्ति का दोष ‘ दिखाई देता है । उनके उपन्यासों में सामाजिक समस्याएँ प्रेम , विवाह , विधवा विवाह , बाल – विवाह , विवाहेतर संबंध इत्यादि मनोवैज्ञानिक सत्य के रूप में उपस्थिति होकर पाठक से संवाद करती हैं और उसके मन में विशेष सहानुभूति पैदा करके रचयिता के दृष्टिकोण को ग्राह्य बना देती हैं । रचनागत एकरसता के बावजूद संवेदनागत ईमानदारी और सच्चाई साधारणीकरण में सहजता की उपस्थिति करती हैं ।
जैनेन्द्र ने अपने उपन्यासों में मध्यवर्गीय पात्रों और उनकी समस्याओं का सजीव चित्रण किया है । जैनेन्द्र यद्यपि शिक्षित वर्ग के पात्रों के कलाकार माने जाते हैं । पात्रगत अधिक विविधता उनके साहित्य में यद्यपि दुर्लभ है फिर भी चयनित पात्रों के दर्द , उनकी पीड़ाओं , उनकी जरूरतों और समस्याओं को वाणी देने में वे निश्चय ही सफल हुए हैं । “रूपपरिवर्तन व नवसंघटन की कला में वे निष्णात है ।” 
तत्कालीन गाँधीवादी दर्शन उनके साहित्य में काफी मुखरता के साथ उभरा है । उनके उपन्यासों के सफल पात्र पूरी तरह से गाँधीवादी मूल्यों की प्रतिष्ठा करते हैं । प्रायः ऐसे आदर्श पात्रों को ही जैनेन्द्र जीवन – रण में सार्थक एवं विजयी घोषित करते हैं जैसे ‘ परख उपन्यास में ‘ बिहारी ‘ को।      
उनका प्रतिनायक सभी उपन्यासों में कोई क्रांतिकारी है । खतरों से भरे हुए अपने संघर्षशील जीवन के कारण वह सबकी सहानुभूति प्राप्त करने में सफल होता है । वे जिस पात्र को महत्त्व देना चाहते हैं उसे पार्श्वभूमि में रखते हैं । उनकी इस नाटकीय तकनीक से यद्यपि खूबसूरती तो पैदा होती है लेकिन वस्तुशिल्प व विषय में एक प्रकार का विरोध दिखाई देता है । इसी के कारण कहीं – कहीं अस्पष्टता भी परिलक्षित होती है ।  
जैनेन्द्र ने अपने समय की सामाजिक स्थिति को और उसकी प्रतिक्रिया को यथार्थ रूप में अंकित किया है । ऐसी स्थिति में नैतिक प्रश्न बेमानी हो जाते हैं और समाज के यथार्थ का आशय प्रमुख बन जाता है । जैनेन्द्र ने अपने पात्रों द्वारा समाज की किन्हीं ज्वलंत और आवश्यक स्थितियों और समस्याओं का चित्रण किया है उनको मनोवैज्ञानिक कुंठाओं और जरूरतों से संदर्भित करके प्रस्तुत किया है । सामाजिक समस्याओं के मनोवैज्ञानिक कारणों की तलाश जैनेन्द्र की निजी विशेषता है । यह भी कहीं न कहीं सामाजिक समस्याओं को मूल जड़ से दूर करने का सहज मानवीय प्रयास ही है । पात्रों की बौद्धिक मनोदशाओं का पहली बार किसी रचनाकार ने इतना सफल निरूपण किया हैं । नए मार्ग के नए सामयिक प्रणेता के रूप में जैनेन्द्र सदैव अविस्मरणीय रहेंगे । व्यक्ति की स्थितियों , परिवार की जीवनचर्या का कुशल व आकर्षक अंकन करने में वे अपने उपन्यासों में सिद्धहस्त रहे हैं । अपनी दृश्ययोजना में अनावश्यक की अनुपस्थिति और मात्र आवश्यक की प्रस्तुति से वे रचना में कसाव पैदा कर देते है । सवादों की मार्मिक व्यंजना जनजीवन संबंधी उनकी संवेदन एवं संवादशीलता को ही रूपायित करती है । मानवीय करुणा और सहानुभूति उनकी रचनाओं में उनकी प्रत्यक्ष संवादात्मक उपस्थिति में महसूस की जा सकती है । मध्यवर्गीय परिवारों की जीवनचर्या को जैनेन्द्र ने बड़ी सहजता से चित्रित किया है । उन्होंने अपने उपन्यासों में जो समस्याएउपन्यास उठाई हैं वे पूर्णता समाधानपरक बेशक न हों लेकिन समाज से संवाद का ईमानदार प्रयास अवश्य ही हैं । कौतूहल व जिज्ञासा को आधेत बनाए रखते हुए गाँधीवादी व समाजवादी आदर्शों के साथ समाज की विचारधाराओं को वे निरंतर प्रस्तुत करते चलते हैं । परिस्थितियों व पात्रों के परस्परविरोधी अंतर्द्वन्द्व को उभारने व मानव मनके उतार – चढ़ावों को दिखाने में वे बहुत चितेरे सिद्ध हुए हैं ।
राकेश कुमार दुबे
पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग 
ओड़िशा केंद्रीय विश्वविद्यालय
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