क्या मैं अज्ञात हूँ इस तीव्र कंपन से?
क्या मैं अज्ञात हूँ इस घृण्य मंथन से ?
किस दिशा में है तीव्र धावित यह मन?
किस दिशा से है आ रहा पीड़ित स्वन?
क्या मैं इस घात से हूँ अत्यंत व्यथित?
क्या हूँ मैं क्षताक्त अथवा हूँ रक्तरंजित?
वीभत्स मेरा दृश्य था अथवा मेरा रंग?
करुण मेरा रुदन था या मेरे मृदित अंग?
क्या मैं हूँ गुप्त गुहा का एक सुप्त संवाद?
क्या मैं हूँ..कलंकित निशा का प्रतिवाद?
क्या मैं थी शेष श्वास की शेष अनुध्वनि?
क्या मैं थी… अशांत ग्रह की शापाग्नि?
कैसे हुई.. मेरी यह काया चिराभिशप्त ?
पीड़ा के इस पर्व में… कौन है अनुतप्त?
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स्वप्नकुमारी (सॉनेट)
आकाश ने लिखा है एक पत्र.. दमकते नारंगी अक्षरों से
किंतु लज्जानत शर्वरी कह दिया है पवन की लहरों से
कि उदीची से उदित एक तारिका..भ्रमित न करे मन को
शुक्ल हंसों पर आया है पत्र जो करेगा तप्त तृष्ण तन को।
ऐ विभावारी! आज करो प्रतीक्षा.. यह आकाश है प्रेममय
मेरी सुगंध में है..तीर्ण मृदुल मृदा की गंध व प्राचीन प्रणय
करो प्रतीक्षा.. ऐ खगेश्वर! रौद्र से होगा भस्म यह शेष पत्र
प्रथम नहीं अनेक पत्रों का एक उत्तर, कि प्रेम पर्व है अत्र।
क्षुधित क्षितिज के परिहास से, हो रही मैं.. अद्य असहाय
नेत्रांबु से करूँ प्रक्षालन, इस शैल शीर्ष का मैं नित्य प्राय
श्याम रंग से है भीत मुझे, मैं उजास से भी रहूँ..भयभीत
कहो,ऐ आकाश!यह मुहूर्त कैसे करूँ संग तुम्हारे व्यतीत?
शीतल स्पर्श से हो रही उल्लसित प्रियंबदा प्रिया तुम्हारी
प्रीति वल्लरी मैं तुम्हारे प्रांगण की.. हूँ मैंचिर स्वप्नकुमारी।