Wednesday, October 23, 2024
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रजनी गुप्‍त का लेख – 21 वीं सदी के हिंदी उपन्‍यास में समकालीन जीवन की अनुगूंजें

घुघरूं की तरह बजता ही रहा हूं, कभी इस पग में, कभी उस पग में…!
जीवन का समूचा मर्म निचोड़कर रख देता है साहित्‍य। सारी कलाओं के मूल में साहित्‍य है। लोकजीवन में प्रचलित सारे गीत, संगीत, जनश्रुतियां, मिथक, परंपराएं यानी वाचिक परंपरा के निकले बीज ही आगे चलकर साहित्‍य सृजन की प्राइमरी पाठशाला में पढा़ए गए क, ख, ग का काम करते हैं। समूची कलाएं, संस्‍कृति एवं साहित्‍य यहीं से जन्‍म लेता है। स्‍मृतियां जन्‍म से लेकर मृत्‍युपर्यंत हर दिन एक नया सबक सिखातीं हैं। 
लेखक को त्रिकालदर्शी इसलिए माना जाता है कि वह विगत के अच्‍छे बुरे अनुभवों को निचोड़कर वर्तमान से खाद पानी ग्रहण करता है और वर्तमान के रसायन से तैयार कृतियों में भविष्‍य की रूपरेखा साफ तौर पर देखी जा सकती है। यदि वर्तमान की विकृतियां इतनी भदेस रूप में नजर आएं तो भावी जीवन कितना भयावह हो सकता है, लेखक इसका आईना भी दिखाता है। 
लेखन स्‍वत:स्‍फूर्त आवेग से सृजित शब्‍द संसार। खुद को अभिव्‍यक्‍त करना जैसे खुद को पाने जैसा अहसास। खुद की गांठें खोलने का अनूठा सुख जैसे खुद के बंधनों से छुटकारा मिल रहा हो। 
लिखने का कोई पूर्वनिर्धारित नियम आदि नही होता। अनुभवों, स्‍मृतियों एवं संवेदनाओं का सहमेल होता है लेखन। लिखते हुए एक नई दुनिया रचते हैं बार बार। 
तकनीक से दूर मानवीय संबंधों में ऊष्‍मा पाना, प्रेम और दर्द की मिली जुली मार्मिक अभिव्‍यक्ति का नाम ही साहित्‍य है। लेखन बाहरी से ज्‍यादा भीतरी लहरों को पकड़ता है। 
जड़ों, जमीन, आबोहवा एंव परिवेश से गहरा जुड़ाव ही लेखन को सार्थक आधार देता है। 
स्‍मृतियों की लंबी यात्रा में कभी लेखक विगत की पोटली खोलने बैठ जाएगा तो कभी वर्तमान की विसंगतियां उसे थका डालती। ऐसे में भावी जीवन के सुनहरे सपने बुनते हुए आगामी समय का खाका तैयार करना लेखन का प्रयोजन होता है। हर बार का अहसास पुर्ननवा होकर अनुभवों का नया गवाक्ष खोलता है। 
हर बार का लेखन पूर्ववर्ती से भिन्‍न होता है। हर बार एक नई चुनौती सामने आती है। नया अनुभव नई जीवन दृष्टि देता है। 
आज का कथाकार वर्तमान जीवन की जटिलताओं से जूझता हुआ आज के चुनौतीपूर्ण समय की शिनाख्‍त करना चाहता है। मनुष्‍य के टूटने बिखरने की यातनाओं के किस्‍से दर्ज़ करता लेखक मनुष्‍यता को बचाने की मुहिम छेड़ता है। 
हमेशा से यही लगता रहा, कि रचना की असल कसौटी तो वृहद पाठक समुदाय है जिनके लिए रचनाएं मुझे लिखी जातीं हैं सो इनकी तरफ से भी समीक्षाएं क्‍यों नही लिखी जाती? किसी भी कृति को पढ़कर सबसे पहले देखती हूं, मुख्‍य किरदार का जीवन संघर्ष, फिर अन्‍य किरदारों के मनोजगत की जटिलताएं, आसपास के जीवन से उठाए गए पात्र, जीवन की विशद समस्‍याओं से जूझने का माद्दा। इन सबके बीच उस किताब की रचना सामग्री में किन स्रोतों का प्रयोग किया गया है? कौन से सामाजिक, राजनैतिक या मनोवैज्ञानिक सवाल आज के जीवन में प्रासंगिक हैं? उपन्‍यास के गल्‍प या फंतासी के सरोकार कितने गहरे हैं? इतिहास में साहित्‍य और साहित्‍य में सच तलाशना आसान नहीं होता मगर मैं कल्‍पना से रची बुनी दुनिया में वास्‍तविक जीवन का आस्‍वाद तलाशने लगती हूं। हाशिए के लोगों के कथानकों तत्‍कालीन परिवेश में बिखरे जीवन के त्रासद रंगों संग हंसी खुशी से भरे किरदार टकराते हैं, जिनकी किस्‍सागोई में दर्ज फंतासी में डूबकर उससे कनेक्‍ट होने का अनूठा आनंद ही रचना को सार्वजनीन बनाता है। कथाकार का विज़न ही कृति की किस्‍सागोई में नए रंग भरता है। जिस कृति में मनुष्‍यता का राग-विराग हो, पात्रों में मासूमियत नज़र आए, जीवन के बहुविधि संघर्षो की आंच में सच्‍चाई दिखे, ऐसी रचनाएं पढ़कर पाठकों में आत्‍मसंवाद की नई राह खुलती है। ऐसे बहुतेरे उपन्‍यास इस चर्चा में शामिल किए गए हैं जिनमें अनुभवों से रचे पगे जीवन के भिन्‍न भिन्‍न स्‍वरूप, अलग-अलग लोक रंग एवं आसपास बिखरे नवरसों का आस्‍वाद लिया जा सकता है । 
कृतियों का मूल्‍यांकन करते समय कृति की आंतरिक संरचना, रचना के स्रोत, सामाजिक सवालों से टकराने एवं उनसे जूझने की पात्रों की अंदरूनी ताकत, रचना प्रक्रिया पर पड़ने वाले बाहरी या अन्‍य दवाब, कृति के केंद्रीय भाव को समग्रता प्रदान करने वाले कथ्‍य का अलहदा अंदाज, शिल्‍पगत नई गढ़न, कहन में ताज़गी, आज के समय में उस कृति की प्रासंगिकता, रचना का क्‍लासिक या सार्वजनीन होना और सबसे ज़रूरी बात, कम से कम कृति में पठनीयता का आस्‍वाद तो ज़रूर हो । 
इतिहास, समाज, संस्‍कृति, समय सभ्‍यता, युगीन जीवन और स्‍मृति के सहमेल से लिखी ऐसी रचनाएं, पन्‍नों जिनके किरदारों से संवाद करते हुए हम सभ्‍यता, संस्‍कृति या आज की धड़कनों को महसूस कर सकते हैं। इन उपन्‍यासों में नैरेशन यानी आदि, मध्‍य या अंत पढ़कर कुछ सुधी समीक्षक इन्‍हें कथावर्णन की पुरानी तकनीक का इस्‍तेमाल समझकर इन्‍हें परे धकेलने में गुरेज़ नही करते तो कुछ लोग अपने पूर्वानुमान के आधार पर इन्‍हें बने बनाए खांचे, ढांचे या कहन में पुरानेपन की बातें दोहराते हुए आधी किताब पढ़कर सिरहाने रखकर भूल जाते। कथा में फार्मूला-बद्धता यानी स्‍टीरियोटाइप की तोहमत लगाते हुए उसकी गहन संवेदना तक पहुंचे बिना ही कुछ समीक्षक इतने जजमेंटल हो जाते हैं कि कथ्‍य में विगत की आवाजें, स्‍मृतियों, लोकश्रुतियों एवं जीवन के गहरे विश्‍वसनीय पाठ तक पहुंचने की जहमत उठाए बगैर अपनी संकुचित पूर्वाग्रही सोच के दायरे में सिमट सिकुड़ जाते हैं और आख्‍यान के भीतरी स्रोतों तक नही पहुंचना चाहते या नही पहुंच पाते। 
चूंकि हर कथाकार के सोचने समझने या महसूसने के भिन्‍न अंदाज के चलते उसके कथा वर्णन के तरीके या रचने के पैटर्न या नया रचने की संभावनाएं या लिखने का ढर्रा आदि एक जैसा नहीं होता। आज के समय में हमें ऐसे पूर्वाग्रही नजरिए से भरी भूल-चूकों को पुर्नपरिभाषित करने की ज़रूरत है, तभी हम नवयथार्थ के नये झरोखों से आती खुशबू महसूस कर सकते हैं। ऐसी चुनिंदा कृतियों की अंदरूनी-बाहरी स्रोत की पड़ताल करते हुए कहन की विश्‍वसनीयता की सुदूर राह तक पहुंच सके, तो निश्चित ही कथालोचक पूरी जिम्‍मेदारी से लेखकीय विचार, संवेदना के उत्‍स, पात्रों के तनाव या भावनाओं के उतार चढ़ाव एवं समग्र रचना दृष्टि पकड़ने की दुर्गम राह तक पहुंच सकता है। कथा में विषयों की वैविध्‍यता के साथ किरदारों के चेतन अवचेतन के द्वंद्व को कलात्‍मक दक्षता से उकेरते हुए मर्म तक पहुंचना बहुत ज़रूरी है। मानव मन के दुर्गम दुर्ग के अंर्तविरोधों एवं विरोधाभासों तक पहुंचकर रचने की अनुभूतिपरकता के साथ कथा रस में अंर्तनिहित आत्‍मसजग रचनाकार की कथायुक्ति तक पहुंचने की कोशिश करना आलोचक के लिए सबसे जरूरी कौशल है। जीवन से जुड़ी सच्‍ची कलाओं के युगों तक जिंदा रहने का यही राज़ है। सचमुच, क्‍लासिक रचनाएं पढ़कर जिंदगी के इन सच्चे अफसानों का प्रभाव हमारी चेतना तक अमिट रूप से छपता जाता है। इस नाते ऐसी कृतियों से गुजरना अत्‍यावश्‍यक है जिन पर आज निरपेक्ष ढंग से विवेचना करने की जरूरत है। 
उनके नवीनतम उपन्‍यास साज कलाई का, राग जिंदगी कामें चूड़ी-श्रमिकों के दर्द को पूरी प्रामाणिकता के साथ संवेदनात्‍मक यथार्थ के चित्रों के साथ दर्ज़ किया गया है। चूड़ी-कारीगरों के संघर्ष, उनकी अदम्‍य जिजीविषा, उनके रोज़मर्रा की तकलीफों एवं अनकही यातनाओं को स्‍वर देते हुए कथाकार पुन्‍नी सिंह ने उद्योगपतियों के शोषणतंत्र को पूरी साहसिकता से बेनकाब किया है। कथ्‍य में विश्‍वसनीयता के साथ 12 से 14 घंटे कार्य करने वाले श्रमिकों को मजूदरी न देने जैसी असंख्‍य यातनाओं को केंद्र में रखकर पूरी प्रामाणिकता के साथ समाज की विविधवर्णी छवियां सृजित की हैं, जिनमें कम्‍युनिस्‍ट नेताओं के अलावा चूड़ी-कारीगरों की जीवंत मौजूदगी कथ्‍य को जीवंत स्‍पंदन देती है। मार्क्‍सवादी लाल झंडे तले मजदूरों का वजूद घिसटता-पिसता रहा जिससे  मालिकों की नाक में दम ज़रूर होता था मगर सब कुछ क्षणिक। चूंकि ग़रीब आम चूड़़ी-कारीगर ज्‍यादा दिनों तक भूखे रहकर आंदोलन नहीं चला सकते, इसलिए उन्‍हें विवश होकर काम पर लौटना पड़ता, इसके बाद फिर से उनके साथ मनमानीपूर्ण रवैया शुरू हो जाता। मज़दूरों के दर्द, उनकी अनकही यातनाओं को शब्‍द देता उपन्‍यास अनुभवों पर आधारित सशक्‍त कृति बन पड़ी है। यह सिर्फ़ सामाजिक दृश्‍य बोध का यथार्थ नहीं बल्कि संवेदनात्‍मक सच के जीते जागते टुकड़े हैं। फिरोजाबाद की रंग-बिरंगी चूड़ियां बनानेवाले मजूदरों के खून पसीने की कमाई के पीछे का दर्द और शोषण की अनकही कहानी इस कथ्‍य का उपजीव्‍य है। सचमुच, पूंजीवाद, और निजीकरण की कठोर नीतियों के चलते हमारे देश के तमाम घरेलू उद्योग धीरे-धीरे अंतिम सांसें गिनते नज़र आ रहे हैं, ऐसे में उन आमजन के साथ इंसानियत का रिश्‍ता बरता जाए, उनकी अनकही आवाज़ों को दूर तक पहुंचाया जाए, यही लेखक का अभिप्रेत था, जिसे वरिष्‍ठ कथाकार पुन्‍नी सिंह ने पूरी ताकत से दर्ज किया है।  
यह महज संयोग नहीं कि आम तौर पर चित्रा मुद्गल एवं मृदुला गर्ग जैसी वरिष्‍ठ कथाकारों की नई रचनाओं में आत्‍मकथात्‍मक संस्‍पर्श खुलकर सामने आया है जिनमें उनका जिया गया जीवन ही उभरकर आया है जिसे आत्‍मकथा का नाम न देकर आत्‍मकथ्‍य के रूप में ही दर्ज़ किया जाना समीचीन होगा। यह अनायास नहीं है कि उनके आत्‍मकथ्‍य में थोड़ा बहुत सर्जनात्‍मक रूप देकर औपन्‍यासिक ताने-बाने से बुन दिया गया है। 
वर‍िष्‍ठ कथाकार रवींद्र वर्मा अपनी विशिष्‍ट कथा प्रविधि के लिए सुविज्ञ रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं। उनकी किस्‍सागोई में विशिष्‍ट अंदाज़ में आज के समय की तात्‍कालिकता की आहटें साफ़-साफ़ सुनाई पड़ती हैं। बाबरी मस्ज़िद प्रकरण, गुजरात का गोधरा कांड, गुजरात का नर संहार, सांप्रदायिकता, भूमंडलीकरण से उपजती अपसंस्‍कृति, उपभोक्‍तावाद, नवबाज़ारवाद, मुक्‍त बाज़ार के दुष्‍परिणाम, धार्मिक कट्टरता व संगठित धार्मिकता से उपजती हिंसक आक्रामकता, दिनों-दिन सांस्‍कृतिक ह्रास का गहराता संकट और आसपास के लोगों के बीच सूखती आत्‍मीयता उनके कथ्‍य के मूल स्‍वर हैं। 
वरिष्‍ठ कथाकार मदनमोहन हमारे समय, आज का परिवेश और समाज से जुड़े गहरे सरोकारों से सीधा टकराते हैं। उनके दो उपन्‍यास हैं- जहां एक जंगल था एवं आहतनाद। जहां एक जंगल था- उपन्‍यास में मदनमोहन ने राजनैतिक ताकत, माफ़िया, पुलिस तंत्र, प्रशासन एवं न्‍यायतंत्र को बेपर्दा करते हुए राजनीति के विद्रूप का खुलासा किया है। जिसमें गांवों से लेकर कॉलेज, विश्‍वविद्यालय परिसर से लेकर, विधायकी एवं सांसदी तक का विस्‍तृत वितान रचते हुए सीधे यथार्थ से टकराने का रचनात्‍मक साहस किया है। उनके उपन्‍यासों का यथार्थ बहुरंगी है। जिसमें आज के समय की गहरी चिंताएं साफ साफ़-साफ़ देखी जा सकतीं हैं। कथाकार ने यथार्थ के विविध दृश्‍य सृजित किए हैं; जिनमें कहन की सजगता, विवेक सम्‍पन्‍नता एवं संवेदनशीलता से जीवन स्थिति एवं किरदारों की मन:स्थिति में विश्वसनीयता के रंग भर दिए हैं। कथ्‍य में यथार्थ के रंग उभारते हुए वे अपनी यादों के भंवर में भी बार-बार गोता लगाते हैं तो उनकी लेखकीय दृष्टि-सम्‍पन्‍नता में आज का मूल्‍यबोध भी साफ़ तौर पर दिखाई देता है। पूर्वांचल के गांवों की वास्‍तविक स्थिति का जायज़ा लेते, कथा में राजनैतिक समझ एवं विचारधारा का सम्‍यक विवेचन पूरी तटस्‍थता से किया गया है। 
कथानायक गोरखनंद सहाय नौकरी से रिटायर होकर गांव लौटते हैं, जहां ज़मीन-जायदाद का मालिकाना हक़ कायम करने के प्रयोजन से अतिक्रमण हटाने की कोशिश करते हैं। लेकिन उनका ऐसा करना वहां के दबंगों एवं छुटभैए स्‍थानीय नेताओं को खल जाता है। इस आख्‍यान में बदलते गांवों में जिस नए किस्‍म की बहुरूपी राजनीति ने पैर पसार लिए है, पुराने रिश्‍तों का शाश्‍वत व्‍याकरण पूरी तरह गड़बड़ा गया है एवं उसकी जगह ले ली है नए किस्‍म की अवसरवादी राजनीति ने। आज वहां पुराने समय के भरोसे की दीवारें भरभराकर गिर गईं हैं।
वरिष्‍ठ कथाकार सुमति सक्‍सेना लाल ने कई महत्‍वपूर्ण उपन्‍यास लिखे हैं। होने से, न होने तक, वे लोग के इस उपन्‍यास में व्‍यष्टि से समष्टि तक की चिंताएं व सरोकारों के साथ मध्‍यवर्गीय जीवन के बनते बिगड़ते संबंधों को नए सिरे से अपरिभाषित किस्‍म के रिश्‍ते के मकड़जाल के बारीक रेशे को पकड़ने का प्रयास किया है। आत्‍मसंलाप की आत्‍मीय शैली में बुना उपन्‍यास एक मेधावी लड़की के करियर के साथ-साथ उसके टूटते सपनों की दास्‍तां कहने लगता है। असमय ही माता-पिता के न रहने पर अपने रिश्‍तेदारों व मित्र परिवार के बीच पली-बढ़ी लड़की की दृष्टिसम्‍पन्‍नता के साथ-साथ उसके अस्त्ति‍त्‍व से जुड़े समूचे ब्‍यौरे बदलते हालातों के साथ-साथ नया आकार-प्रकार लेते रिश्‍तों के उधेड़बुन की कहानी बयां करता है ये उपन्‍यास । 
दिन जो पखेरू होते’ में विगत समय के रोचक प्रसंग एवं तत्‍कालीन समय को ही नायक बनाकर पचास एवं साठ के दशक में उत्‍तर भारतीय कस्‍बों के जनजीवन का जायज़ा लेते हुए आस-पास ही घटती घटनाओं को इतनी सूक्ष्‍मता से पिरोया है जिसमें मध्‍यवर्गीय घरों की कहानी हर घर की कहानी बनकर उभरती है। तत्‍कालीन विद्यालयों का परिवेश, देश के आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक जीवन की परिस्थितियों का सांगोपांग चित्रण तत्‍कालीन सांस्‍कृतिक जीवन के हर पक्ष को खोलकर लिखने का रचनात्‍मक साहस देखते ही बनता है। वय:संधि पर खड़े किशोर से बड़े होते बच्‍चों की मन:स्थिति को पकड़ते हुए कथाकार ने गांव, देहात व कस्‍बों में पलते, बड़े होते बच्‍चों का आख्‍यान रचा है जिसे पढ़ते हुए 1960 से 80 तक का समय याद आ जाता है।
पल्‍लीपार में विस्‍थापन के बहुस्‍तरीय दर्द की कई परतों को बहुत आहिस्‍ते से खोला गया है। हाशिए पर छूट गए अल्‍पसंख्‍यकों की अनगिनत तकलीफों से गुजरते पात्रों की बेबसी, ख़ुद को हमेशा-दूसरासमझा जाने का दंश और मुख्‍य धारा से परे कहीं किनारे पर छिटक जाने की यातना की मुड़ी-तुड़ी तहों को खोलने का लेखकीय साहस इस कथ्‍य को अविस्‍मरणीय बना देता है। 
अल्‍पसंख्‍यों में भी अतिअल्‍पसंख्‍यक यहूदियों को कभी म‍ुस्लिम समझा जाता है, तो कभी ईसाई जो वे नहीं हैं। हिंदुस्‍तान में ऐसे चुनिंदा बचे यहूदी परिवार को दूसरासमझे जाने की मुश्किल यात्रा से गुज़रती अपनी जड़ों से दूर धकियाए गए किरदार (साराह) के ज़रिए मीडिया के कई चमकदार चकाचौंध में चमचमाते चेहरों पर चढ़ी परतों को खोलते हुए अंदरूनी हकीकत दर्शाई गयी है। इस उपन्‍यास में कई ऐसे ज्‍वलंत मुद्दे हैं जो टीआरपी के खेल और अपसंस्‍कृति से उपजते खतरों या विडंबनाओं का खुलासा करते हैं। मीडिया के दिनोंदिन हो रहे अध:पतन के जीवंत दृश्‍य इतने विश्‍वसनीय बन पड़े हैं जैसे हम आंखों-देखा हाल देख रहे हों। 
साराह जैसे सशक्‍त, तेजस्‍वी, आत्‍मविश्‍वासी एवं क्रांतिकारी किरदार के जरिए, गुँथी कथा में संबंधों के रेशे-रेशे खोले गए हैं, जो किस तरह बनतेबिगड़ते या विकृत होते हुए अपनों को दर्द, दंश, पीड़ा और कडुवाहट से भर देते हैं। किस तरह अल्‍पसंख्‍यकों में भी अल्‍पसंख्‍यक यहूदी परिवार के बच्‍चों का स्‍कूली जीवन गुज़रता है जो आगे जाकर मतलबपरस्‍ती, अवसरवाद और अपसंस्‍कृति से प्रभावित मध्‍यवर्गीय जीवन जीते परिवारों की हक़ीक़त खोलता उपन्‍यास आज के सच की तस्‍वीर दिखाता है। 
कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए– अलका सरावगी का सशक्‍त उपन्‍यास है। जिसमें विस्‍थापन की कई मुड़ी तहों को निधकता से खोलते हुए बंगाल विभाजन के दौर में अलग-थलग पड़ गए, हाशिए पर रह गए किरदार की यातनाओं को कच्‍चा चिट्ठा खोला गया है। तत्‍कालीन पूर्वी-पाकिस्‍तान के बांग्‍लादेश बनने से विस्‍थापित यानी छूट गए लोगों की तकलीफें इस उपन्‍यास का मुख्‍य विषय है। कथाकार ने सामाजिक विषमता वाले समाज में हाशिए पर फिंकते गए किरदार, कुलभूषण, के जरिए भूलने वाले बटन का ऐसा रूपक रचा है जो उसके अपमान, गैर-बराबरी एवं नाइंसाफी करने वाले आत्‍मीयों की सच्‍ची कहानी को बार-बार भूलना चाहता है। मगर चाहकर भी अपने अनकहे दर्द, यातना एवं अपने बहिष्‍कार को भूल नहीं पाता। कथाकार अलका सरावगी के अधिकांश उपन्‍यासों में इतिहास की त्रासदी बोलती है तो राजनीति की चीखें भी सुनाई देती हैं, भूगोल के साथ विस्‍थापन का दर्द भी अनायास चला आता है। उनके रचे गए अविस्‍मरणीय किरदार कुलभूषण के जरिए जातिव्‍यवस्‍था एवं गैर बराबरी पर टिकी परिवार-व्‍यवस्‍था द्वारा बेदखल किए गए अन्‍याय का शिकार आम आदमी का दर्द उपन्‍यास में लगातार गूंजता रहता है। अपनी अचूक इतिहास दृष्टि एवं किस्‍सागोई के सहारे रचे अलका सरावगी के उपन्‍यासों में कहन का खास अंदाज उनकी रचनाओं में पठनीयता को निरंतर संवर्धित करता है, इसमें कोई शक नहीं। अलका सरावगी का सद्यप्रकाशित उपन्‍यास है- गांधी और सरला देवी चौधरानी- 12 अध्‍याय। इसमें महात्‍मा गांधी और सरलादेवी चौधरानी के बीच विकसित उदात्‍त किस्‍म के प्रेम के अनछुए पहलुओं पर बेबाकी से चित्र खींचे गए हैं। उपन्‍यास में स्‍वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्‍मा गांधी एवं सरलादेवी चौधरानी से जुड़े आत्‍मीय ब्‍यौरों को संवेदनशीलता से उकेरा है। 
सुपरिचित कथाकार संतोष चौबे की नवीनतम कृति- ‘सपनों की दुनिया में ब्‍लैक होल’ आज के गहरे संदर्भो को समेटते हुए वृहद सरोकारों को लेकर बुना गया सशक्‍त उपन्‍यास है। जिसमें सूचना तकनीक के जरिए बौद्धिक क्षमताओं अर्थात सृजनात्‍मकता को संवर्धित करने का नवोन्‍मेषी लेखकीय प्रयास सराहनीय है। आज के समय में सपने सबसे बड़ी ज़रूरत हैं। जिसके माध्‍यम से किरदार अपनी कल्पना के आकाश को विस्‍तीर्ण करते हुए जीने के लिए नया संकल्‍प, नयी रचनात्‍मकता एवं नया कुछ कर गुज़रने का जज्‍़बा संजोए हुए है। गांवों में जाकर कुछ नया कर गुज़रने का सपना, इस करीने से इस उपन्‍यास में गूंँथा गया है, जिससे गुज़रते हुए हम इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि सूचना-तकनीक के नए-नए विचारों को सही ढंग से, ईमानदारी, पारदर्शिता एवं मेहनत से कार्यान्वित करने का संकल्‍प सुनिश्चित हो, तो नए रचनात्‍मक विज़न के ज़रिए देश का चहुँमुखी विकास किया जा सकता है। ऐसे अनूठे छोटे-छोटे सकारात्‍मक कामों से सुदूर गांवों से लेकर कस्‍बों एवं छोटे बड़े शहरों में विकास का परचम फहराया जा सकता है। ऐसे अंधेरे कोनों में रोशनी पहुंचाई जा सकती है, जहां सालों से ऐसे क्षेत्र, अंधेरे में डूबे हुए हैं। कथाकार की निगाहें राजनीति के विद्रूप तक जातीं हैं, जहां से सरकारी योजनाओं का पैसा आता है; लेकिन रास्‍ते में ही तमाम जगह खप चुक या रिस जाता है। राजनीति का घेरा किस कदर झूठे वादों के जालों से रचा बुना जाता है, इस तरफ क़ायदे से बारीकी से उन बिंदुओं की तरफ लेखक ने तफ़सील से लिखा है, जहां आम आदमी की निगाहें नहीं जा पातीं। वहां प्रशासनिक मशीनरी का किस तरह दुरूपयोग किया जाता है, किस तरह किसी मेधावी एवं कर्मठ युवक की आंखों में पनपते सपने को ज़मीन पर साकार होते देख, उच्‍च प्रशासनिक हलकों में हलचलें मच जाती हैं और उस योजना को सीधे-सीधे हाईजैक करते हुए संबंधित व्‍यक्ति को इसका समुचित श्रेय तक नहीं दिया जाता। झूठी एवं भ्रामक साजिशों के चलते प्रेस कांफरेंस में उच्‍चाधिकारी बढ़-चढ़कर योजनाओं का प्रचार-प्रसार तो मंत्री के जरिए करवा देते हैं, मगर ऐसे छद्म वादे एवं झूठ की पोल खोलता उपन्‍यास राजनेताओं की चालाकी, कपट एवं धोखेबाजी को बेनकाब करने में कामयाब होता है। 
पूंजीवादी कूटनीति के तहत जनता का पैसा सरकार एवं बर्ल्‍ड बैंक की मिलीभगत के चलते  ऐसी चाल चली जाती है जिसमें आमजन को बेवकूफ़ बनाते हुए उद्योगपति, राजनेता एवं प्रशासनिक अधिकारी समूची धनराशि  हड़प जाते हैं। जिसके बारे में संबंधित मेधावी व कर्मठ युवा को पता ही नहीं चलने दिया जाता। कार्तिक जैसे विज़न वाले नवयुवक अपनी मेहनत, कर्मठता एवं टीमवर्क के जरिए गांवों तक विकास यात्रा का रथ ले जाने में कामयाब होते हैं लेकिन उसकी इस सृजनात्‍मकता का समुचित प्रतिफल तक उसे नहीं मिल पाता। कथाकार ने यहां राजनीति के विद्रूप को बेनकाब करते हुए सरकारी योजनाओं को ज़मीन पर उतारने की हवा-हवाई नीतियों एवं रची गयी कुटिल साजिशों को उजागर किया है। 
सूचना तकनीक में दक्ष, बौद्धिक तेजस्विता सम्‍पन्‍न कार्तिक जैसा किरदार रचकर कथाकार संतोष चौबे ने संदेश दिया है कि मेधावी, ईमानदार एवं सच्‍चे कर्मठ लोगों के लिए सकारात्‍मक दिशा में लगातार काम करने से कोई नहीं रोक सकता। चूंकि उनके सपने एवं संकल्‍पों में जान होती है, जिसके चलते ऐसे कर्मठ मेधावी किरदार अंतत: किसी न किसी नई सर्जनात्‍मकता के जरिए एक बार फिर से नायाब सपना देखकर उसे ज़मीन पर उतारेंगे ही, इसमें कोई दो राय नहीं। 
यह तथ्‍य एवं सत्‍य किसी से छिपा नहीं है कि मंत्री एवं ब्‍यूरोक्रेसी मिलकर विश्‍वबैंक के जरिए करोड़ों रूपए का घपला करते हैं एवं उस पैसे का दुरुपयोग किया जाता है। जो नवयुवक आमजन के हितार्थ कई योजनाएं तैयार करके गांवों में वीडियोग्राफी, कंप्‍यूटर प्रशिक्षण केंद्र, एवं मल्‍टीपरपज़ ढाबा जैसे नोडल केंद्र विकसित करने की योजनाएं बना रहा हो, जिसके पास गांवों में खुशहाली, तरक्‍की या विकास के लिए नए रास्‍ते खोलने की कारगर युक्ति‍यों पर अमल करने की नई राहें हों, ऐसे नवोन्‍मेषी विचार यानी बौद्धिक संपदा को चुराकर उसे अपना बनाते हुए इन्‍हीं कामों को अपना नाम देते हुए कुछ योजनाएं लाई जाती हैं, मगर दूरदर्शिता के अभाव में ऐसी योजनाएं कामयाब नहीं हो पातीं। 
गांवों की कुछ दुकानों पर मल्‍टीपरपज सेंटर खोलना हो या ग्रामीण अर्थव्‍यवस्‍था को बेहतर बनाने हेतु केंद्र में पंचायत, हाट लगवाना, इलेक्‍ट्रानिक रिपेयरिंग सेंटर खोलना, कंप्‍यूटर सेंटर के साथ अन्‍य कामों को भी एक साथ शुरू करवाने जैसी योजनाएं शुरू की जा सकती हैं। चूंकि उसके इस आइडिया का पेटेंट तो करवाया नहीं, यानी ये पब्लिक डोमेन में आ गया है, जिसे भारत सरकार विश्‍व बैंक की निधि के ज़रिए शुरू करेगा तो कंसल्‍टेंट भी वही लेगा जो विश्‍व बैंक सुझाएगा, भले ही वे गांव की परिस्थितियों को ज़रा भी न समझ पाएं- 
कथाकार रणेंद्र ने ध्‍यान खींचा था- ग्‍लोबल गांव के देवता उपन्‍यास से। 2004 में उनका एक और उपन्‍यास आया- ‘गायब होता देश’ जिसमें आदिवासी जीवन के कई भित्तिचित्र पूरी प्रामाणिकता से उकेरे गए हैं। पूंजीवाद के तेज़ी से प्रसार होने से खनिज संसाधनों में कमी आती गई जिसके चलते आदिवासी मुंडा समाज की विवशता, प्रतिरोध एवं विस्‍थापन का दर्द पूरे उपन्‍यास में नज़र आता है। आदिवासी जन-जीवन में व्‍याप्‍त कुप्रथाएं, अंधविश्‍वास, बलिप्रथा, डायन कोप, स्‍त्री पुरुष की गैरबराबरी, शोषण की चक्‍की में पिसते आदिवासी किसान, मजदूर-जीवन की विडंबनाएं साफ़-साफ़ चिन्हित की गई हैं। आदिवासी यानी मूल निवासी, किस कदर अपनी अस्मिता के लिए सालों से संघर्ष कर रहे हैं और किन-किन स्‍तरों पर उनका जीवन दिनोंदिन विखंडित होता जा रहा है, इस संबंध में उनके बारे में किया गया कुप्रचार एवं वास्‍तविक ‘जीवन की फांक’, उपन्‍यास दर्शाने में सक्षम हैं। 
उनका हाल ही में छपा उपन्‍यास- गूंगी रुलाई का कोरस’  मौसिकी-मंजिल की चार पीढ़ियों तक फैली विस्‍तृत सरोकारों को समेटे हिंदुस्‍तानी संगीत के विकास एवं गहरे अर्थो को व्‍यंजित करने वाला सशक्‍त उपन्‍यास है‌ जिसमें भारतीय संस्‍कृति के समावेशी स्‍वरूप को समेटते हुए संगीत घराने के अंत:सूत्रों को कायदे से गूंथा गया है। सांस्‍कृतिक साम्राज्‍यवाद की संकल्‍पना उपन्‍यास में इस तरीक़े से गूंथी गई है, जहां आज के दौर में विसंस्‍कृतिकरण के कोलाहल को भी सुना जा सकता है। हमारे हिंदुस्‍तान की बहुरंगी संस्‍कृति-सभ्‍यता से जुड़ी बहुतेरी आवाजें इस उपन्‍यास में सुनी जा सकतीं हैं, मसलन, जाति, धर्म, राष्‍ट्रवाद, प्रेम, मुक्ति स्‍वप्‍न, सोशल मीडिया, अखबार, इंसानियत का जज्‍बा या मनुष्‍यता को बचाने की जिद। सांस्‍कृतिक बहुलता के लिए जाने जाने वाले देश की पहचान व्‍यापक परिपार्श्‍वों को छूती है। संगीत की महान परंपरा के प्रति गहरा विमर्श रचता उपन्‍यास आज के समय के ज़रूरी सवाल पूरी गहनता से उठाता है। जिसमें सांप्रदायिकता के बदलते विरूपित होते, दुःख की सघनता से म्‍लान चेहरों की शिनाख्‍़त की जा सकती है कि मजहब के अलग अलग-अलग रंगों को समेटने से सौहार्द की संकल्‍पना कितनी ही पावन क्‍यों न हो, मगर संगीत घरानों की अंदरूनी राजनीति कम नहीं। अपने-अपने तरीकों से संस्‍कृति एवं सभ्‍यताओं को जीते लोगों के विविध सौंदर्य को देखने वाली आंखों में अब धीरे-धीरे धुंध के बादल छाते जा रहे हैं। महताबुद्दीन घराने से कथा शुरू करके, कमोल कबीर तक यानी चार पीढ़ियों की आवाजाही से सांस्‍कृतिक सेतु सृजित करने की कोशिश की गयी है। बंगाली एवं आम जनों के बीच बोली जाने वाली भाषा, खानपीन, पहनावा एवं बोली-वानी, कथ्‍य को सघन बनाती है। सूफ़ी संतों की मज़ारों पर होने वाली कव्‍वाली की परंपरा हो या वाउल गीतों के बादशाह लालन शाह फ़कीर से लेकर संगीत से जुड़ी हस्तियों के प्रसंग। कथाकार ने हर प्रसंग को पूरे विस्‍तार से बहुविध सौंदर्य से गूंथा है। सांस्‍कृतिक वर्चस्‍व बनाए रखने का शोर भी उपन्‍यास में सुनाई पड़ता है, तो पत्रकारिता एवं संगीत राजनीति से जुड़े दुर्लभ ब्‍यौरे भी खूब डूबकर शोध करने के उपरांत ही लिखे गए हैं। सभ्‍यता विमर्श के नए आयाम रचता उपन्‍यास सांस्‍कृतिक बहुलता के प्रति पाठकों में जिज्ञासु भाव भी पैदा करता है। भारत की परंपरा को बचाए-बनाए रखने की चिंता करता उपन्‍यास अपने तरीके से विघटित होती मनुष्‍यता की मौजूदा हालत के प्रति अपनी चिंता व्‍यक्‍त करता है। एक नये विषय पर काफी शोधपरक कृति में तहज़ीब, मज़हब एवं उनके बीच रचे-बसे संगीत के सरोकारों को पूरी सघनता से गूंथा गया है। जिसमें अंत तक आते-आते मोहभंग की स्थितियां भी दिखाईं गईं हैं। 
‘गूंगी रुलाई’ एक तरह से प्रतीकात्‍मक उपन्‍यास है। जिसके जरिए विसंस्कृतिकरण से जुड़े आज के सवाल पूरी ताकत से उठाए गए हैं और यही है इस उपन्‍यास का कथ्‍य जो बिल्‍कुल नए अंदाज में, नई लय एवं नई धुन के साथ एक नई दुनिया रचने कास्वप्न संधान करता है, जिसमें इंसानियत बचाने का जज्‍बा देखा जा सकता है ।  
शिवमूर्ति का हाल ही में छपा- ‘अगम बहै दरियाव’- विगत एवं आज के गांव का जीवंत यथार्थ है। 
कथाकार नवीन जोशी पिछले तीन दशकों से अखबारी लेखन के साथ-साथ सृजनात्‍मक लेखन करते रहे हैं। पहाड़ों में सैकड़ों सालों से चले आ रहे शोषण और संषर्षो की पृष्‍ठभूमि में अपने समय के कठोर यथार्थ को गहरी आत्‍मीयता से दर्ज़ करने वाले अनूठे कथाकार ‘नवीन जोशी’ पहाड़ी जीवन के शोषण, जातिवादी व्‍यवस्‍था से उपजते विषम सामाजिक हालातों और आर्थिक मोर्चे पर जूझते आम जन के प्रतिनिधि रचनाकार बनकर उभरते हैं। 
अपनी जड़ों-जमीन से गहराई से जुड़े  रत्‍नकुमार सांभरिया ने सपेरो जनजाति की त्रासदी के कई दबे-ढके मुद्दों को पूरी साफ़गोई से बयान करने में कभी नहीं चूकते। 
कथेतर- आवारा मसीहा, ( विष्‍णु प्रभाकर), कलम का सिपाही (अमृतराय), मानस का हंस एवं खंजन नयन (अमृतलाल नागर) 
नकटौरा (चित्रा मुद्गल) गुड़िया भीतर गुड़ियां (मैत्रयी पुष्‍पा), दिनांक के बिना (उषा किरण खान) चंद्रकांता, कंथा (श्‍याम बिहारी श्‍यामल), नंगातलाई का गांव (विश्‍वनाथ त्रिपाठी) 
आज के इस चकाचौंध भरे तेज रफ़्तार पूंजीवादी जीवन शैली में तड़क-भड़क वाली मिश्रित अपसंस्‍कृति के विद्रूप तले अधिकांश रचनाकार ख़ुद को सेलिब्रिटी कहलवाने की अभिलाषा पालने के लिए अकुला रहे हैं, ऐसे में उनसे यह अपेक्षा रखना ठीक नहीं है कि वे अपनी इस तथाकथित अल्‍पकालिक ख्‍याति के व्‍यामोह में न पड़कर यानी चकमक दुनिया के लोभ का संवरण करते हुए आम पाठक या आमजन की प्रतिबद्धता की दिशा में कुछ सार्थक सोच को पन्‍नों पर उतार दें। दरअसल जिंदगी के हादसे में कई बार ऐसे उतार चढ़ाव आते हैं, जहां अकेले पड़ जाने से उपजती उदासी, विरक्ति, चुप्‍पी या चीख के स्‍वर सुनाई देते हैं। कथा का जादू ही ऐसा होता है; जिसे पढ़कर बुझती आत्‍मा का दिया जल उठता है, उदासी और हताशा दूर फिंक जाती है और पाठक का अंतस कायांतरण करते हुए खिल उठता है, तो यही है हक़ीक़त ! जब तक मानव समाज या सभ्‍यताएं जिंदा रहेंगी, तब तक ये रचनाएं हमारे साथ सांस लेंगी, तभी तो युगों-युगों तक आने वाली अनगिनत पीढ़ियां हमारे पीछे छूटे समय, सभ्‍यता एवं संस्‍कृति के पगचिन्‍हों से गुज़रते हुए पाठकलेखक उत्‍प्रेरित हो सकें। 
5/259 विपुलखंड, गोमतीनगर लखनऊ 
9452295943
रजनी गुप्त
रजनी गुप्त
रजनी गुप्त हिंदी की वरिष्ठ लेखिका हैं. वाणी प्रकाशन, भारतीय ज्ञानपीठ, किताबघर, सामयिक आदि प्रतिष्ठित प्रकाशनों से आधा दर्जन से अधिक उपन्यास प्रकाशित. पांच कहानी-संग्रह भी प्रकाशित हैं. इसके अलावा आलोचनात्मक, आलेख संग्रह, डायरी आदि विधाओं में भी पुस्तकें प्रकाशित. आपकी रचनाओं पर दर्जनों विश्‍वविद्यालय में शोध कार्य सम्‍पन्‍न एवं देश भर के अन्‍य विश्‍वविद्यालयों में शोध कार्य जारी. अनेक सम्मानों से सम्मानित. संपर्क - 09452295943 एवं [email protected]
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