Wednesday, October 23, 2024
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दिलीप कुमार की संस्मरण-कथा – भागे हुए लड़के

कविवर आलोकधन्वा अपनी प्रसिद्ध कविता “भागी हुई लड़कियां” में फरमाते हैं कि
“जरूरी नहीं कि जब एक लड़की घर से भागी हो तो किसी लड़के के साथ ही भागी हो।”
ऐसे ही जरूरी नहीं कि जब एक लड़का घर से भागे तो सिर्फ़ हीरो बनने या अपने शौक पूरे करने के लिये भागे।
कभीकभी अपने इस घर से उस घर तक भी लड़के भाग कर जाते हैं ।
ये शायद 1991 की घटना है, मैं सातवीं क्लास में पढ़ता था । मेरे पापा और उनके भाइयों के बीच गांव और शहर की सम्पति का बंटवारा हो चुका था ,लेकिन परिवार में सब कुछ यथावत था। जो कुछ पहले से चलता आ रहा था वैसा ही था । यानी सिर्फ़ चूल्हे अलग जलने शुरू हो थे लेकिन फिर भी परिवार में सभी एक दूसरे के खाना खा लेने की पुष्टि कर लेने के बाद ही खाना खाते थे। परिवार नहीं बंटा था, संपत्ति ही बंटी थी लेकिन सभी लोग सभी के धनसंपदा और वस्तुओं का उपभोग करते थे और एक दूसरे का ख्याल रखते थे।
ये दिसम्बर के आखिरी महीने थे, कड़ाके की शीतलहर शुरू होने का वक्त तो आ गया था लेकिन सूर्य देव इस वर्ष कृपानिधान बने हुए थेदिन में धूप खिली रहती थी और रात को इतना ही कोहरा होता था कि जनजीवन पर कोई खास असर ना पड़े। गन्ने की पेड़ी की फसल कट चुकी थी और बोआस की पर्ची आना शुरू हो गयी  थी। पापा की आजीविका यूँ तो वकालत थी और हम लोग शहर में रहते थे, लेकिन मेरे बाबा (दादाजी) और दोनों चाचा गांव में रहते थे सो पापा गांव से खासा लगाव रखते थे। 
मेरी दादी और बड़ी ताई के स्वर्गवासी हो जाने के कारण मेरी माँ ही हमारे परिवार की सबसे बड़ी महिला थीं। सो उनको भी फसल कटान से लेकर जन्ममरण के सभी आयोजनों में गांव जाना पड़ता था। खेती अच्छी तो नहीं होती थी मगर जोत ज्यादा होने के कारण फसलों की कटान रखरखाव में समय काफी लगता था।
माँ गांव चली जातीं तो शहर के पुश्तैनी घर में हम भाई ही रहते थे, हम खुद खाना बनाते थे, और किशोर वय के तीन लड़के उस घर में रहा करते थे। और मम्मीपापा की अनुपस्थिति में पड़ोसी ही हमारे अभिभावक हुआ करते थे। वो समय दूसरा था, सभी सबसे मतलब रखा करते थे। आज के दौर की तरह नहीं था कि पड़ोसी ना तो एक दूसरे को जानते हैं और अगर जानते भी हैं तो पड़ोस के बच्चे कुछ भी गलत कर डालते थे तो लोग कंधा उचकाकर कहते हैं
 “हमसे क्या मतलब,मेरा बच्चा थोड़ी ना है ,हम क्यों बीच में बोलें।”
हमारी ममेरी बहन अनु दीदी भी उन दिनों हमारे साथ ही रहा करती थीं ,जो पढ़ती तो थीं अपने गांव में, लेकिन मम्मी को उनसे बहुत लगाव था। अनु दीदी को भी हमारे परिवार से भी बहुत लगाव था, इसलिये मम्मी अक्सर उनको अपने पास बुला लिया करती थीं। वो  दसवीं में पढ़ रही थीं
पढ़ाईलिखाई में उनकी रुचि परीक्षा तक ही थी, इसलिये भी मम्मी उनको अपने पास ही रखती थीं। मम्मी को उनसे इतना लगाव था कि उन्होंने अनु दीदी को बचपन से उन्हीं स्कूलों में पढ़वाया जहां वो रहती थीं, शहर तो शहर, गांव तो गांव
 लेकिन अनु दीदी दसवीं तक आतेआते एक स्वस्थ युवती बन चुकी थीं और शहर के कॉलेजों के रोज़रोज़ जाने के झंझटों से आजिज आकर उन्होंने अपने गांव से प्राइवेट फॉर्म भर दिया था और वो हमारे साथ ही रहती थीं।  मम्मी के घर पर ना रहने से वो चार बरस बड़ी बहन के बजाय मम्मी की तरह रौब गालिब किया करती थीं और उन दिनों अनु दीदी हमारे साथ शहर वाले घर पर ही  थीं।
मेरे दादा (बड़े भाई ) जो उम्र में मुझसे तीन बरस बड़े थे। वो मुझे अनुशासन में रखना पसंद करते थे ताकि मैं बिगड़ ना जाऊं, लेकिन इसके उलट मैं उनकी सख्ती से बहुत चिढ़ता था और हम दोनों भाइयों में इस बात को लेकर तनातनी हो जाया करती थी।
 उन्हें अनुशासन जरूरी लगता था और मुझे बंधन। उसी वर्ष गांव से मिडिल पास करके हमारे चचेरे भाई बिन्नू बलरामपुर शहर में पढ़ने आये थे और हमारे साथ ही रहते थे। बिन्नू उम्र में मुझसे दो वर्ष बड़े थे लेकिन शायद हममें बड़ेछोटे भाई का भेद ना था, अलबत्ता गहरी मित्रता थी। उसके दो कारण थे एक तो बिन्नू मेरे बड़े भाई तो थे मगर मेरे भैया की तरह अनुशासन की घुट्टी मुझे नहीं पिलाते थे, बल्कि बहुत मित्रवत रहते थे, इसलिये उनको मैं भैया भी नहीं कहता था।
दूसरे उनकी सतरंगी दुनिया और उसकी अतरंगी बातें। वो गांव से कुछ महीने पहले ही शहर आये थे उनके पास गांव की उस आजाद ज़िंदगी के तमाम दिलफ़रेब किस्से थे; जिसे मैंने सिर्फ़ कहानियों में पढ़ा था या फिल्मों में देखा था। जिनमें खेती,बाड़ी, पोखरातालाब, मेलाठेला और उनके गांव से एक मील दूर मिडिल स्कूल में पढ़ने के ढेरों रोमांचक कहानियां थीं और अब वो शहर के बॉयज इंटर कालेज में पढ़ते थे। जहां फ़िल्म,लड़ाईझगड़ा और दादा गीरी के तमाम आख्यान वो रोज़ रात को मुझे सुनाते थे, मेरे लिये ये बेहद रोमांचित करने वाली बात थी कि वो एक पीरियड एक कमरे में पढ़ते थे और दूसरा दूसरे कमरे में और एक कमरे से दूसरे कमरे तक जाते हुये वो पीरियड मिस भी कर देते थे
कोई नहीं पूछने वाला जितना मर्जी हो पढ़ो या बिल्कुल मत पढ़ो। जबकि इसके उलट हमारा स्कूल प्रार्थना के बाद मेन गेट बंद हो जाता था तो हमें अपने सारे पीरियड एक ही बेंच पर बिताने पड़ते थे, कमरे से बाहर हम पीटी क्लास या इंटरवल में ही निकल पाते थे और विशेष अनुमति लेकर शौचालय जा सकते थे। कोल्हू के बैल की तरह नीरस, उबाऊ ज़िंदगी थी।
दिसम्बर के किसी दोपहर में स्कूलकालेज से लौटकर हमने साथ खाना खाया। फिर खटमल निकालने के लिये मोहल्ले की सड़क पर, घर के बाहर डाली गयी चारपाई पर हम लूडो खेलने लगे। लूडो की चालों के खेल के दौरान ही मेरा और बिन्नू का किसी बात पर झगड़ा हो गया। दादा ट्यूशन पढ़ने गए थेबिन्नू से मेरा झगड़ा इतना बढ़ गया कि घर की बाहर की सड़क पर मारपीट शुरू हो गयी। मारपीट, कुश्ती में बदल गयी और फिर पटकमपटकाई भी होने लगी।
बिन्नू मुझसे बड़े भी थे और बलशाली भी, जल्द ही उन्होंने मुझ पर काबू कर लिया और मेरे सीने पर चढ़कर बैठ गए। मैं ज़मीन पर पड़ा हूँ, बीच सड़क पर वो मेरे सीने पर चढ़े बैठे हैं। मोहल्ले के लोग तमाशा देखने लगे। पहले कुछ लोगों ने हमें छुड़ाने का यत्न किया। लेकिन पकड़ ढीली होते ही मैं बिन्नू पर हमलावर हो जाता। जब लोग छुड़ाने में असफल हो गए तो घर के अंदर अनु दीदी को खबर दी गयी जो हम लोगों को खानापानी देने के बाद सो गयीं थीं।
हल्लागोहार बढ़ा तो फिर अनु दीदी बाहर निकल कर आईं। वो जब आयीं तब बिन्नू मेरे सीने पर चढ़े बैठे थे। अनु दीदी ने आते ही उन्हें खींचा और जोर से डपटा
“हटो बिन्नू, सड़क पर तमाशा लगा रखा है, मोहल्ले के सामने बेइज्जती करवा रहे हो, शर्म नहीं आती। इत्ते बड़े हो गए हो लेकिन अक्ल धेला भर की भी नहीं है”
ये कहकर उन्होंने बिन्नू को खींचकर मुझसे अलग किया और खड़ा किया।
पता नहीं अनु दीदी इतनी बलशाली थीं या बिन्नू ने उनकी आज्ञा मानी। लेकिन बिन्नू के अलग होते ही मैंने उनको एक खड़ी लात मारी। मोहल्ले वालों के सामने अपने से कमज़ोर और उम्र में छोटे लड़के से खड़ी लात पड़ने से बिन्नू ने ख़ुद को अपमानित महसूस किया, वैसे भी मोहल्ले में उनकी छवि दादा टाइप के लड़के की थी और लोग उन्हें बिन्नू दादा भी बुलाते थे भले ही उपहास में ही सही।
लात पड़ने से बौखलाए बिन्नू, फिर मुझ पर झपटे लेकिन इस बार मैं सतर्क था। हालांकि बिन्नू जब तक मुझ तक पहुंचते तब तक अनु दीदी ने झपट कर उन्हें पकड़ लिया। बहुत प्रयास के बावजूद बिन्नू मुझ पर वार करने में सफल नहीं हुए। 
बिन्नू को हमलावर होने के लिये कसमसाते देखकर अनु दीदी ने उनके हाथों को जकड़ लिया। बिन्नू के हाथ जकड़े जाते ही मुझे सुअवसर मिल गया और और मैंने क्रोध और वेग से बिन्नू के मुंह पर मुक्कों की बरसात कर दी। लगातार सात आठ मुक्कों से बिन्नू को बहुत चोटें आईं, अनु दीदी की मजबूत पकड़ से छूट ना पाने का मलाल और मेरे घातक मुक्कों के प्रहार से बिन्नू चीत्कार कर उठे और रोने लगे, उन्हें रोता देखकर मेरे कलेजे को ठंडक पड़ी और मैंने अपनी चोटों को भुलाकर ठट्ठा मारते हुए कहा
“अब पता चला बेटा, शेर से भिड़ने का नतीजा क्या होता है?”
अनु दीदी न बिन्नू को रोते और मुझे ठहाके ठट्ठा लगाते देख बहुत असहज हो गयीं। उन्होंने मुझे 4-5 चांटे जड़ते हुए कहा
“नालायक, सांड की लड़ रहे हो तुम दोनों और तू खुद को बड़ा शेर समझता था तो ज़मीन पर क्यों पड़ा था, वो तो मैंने बिन्नू के हाथ पकड़ लिए थे तो तूने उसे इतना मारा। बेचारे का हाथ ना पकड़ा होता मैंने, तो वो तेरी चटनी बना देता। अंदर चलो तुम दोनों ।”
अनु दीदी के चांटों से मेरा दिमाग भन्ना गया, पहले बिन्नू ने पटक दिया सड़क पर और फिर अनु दीदी ने चांटे जड़ दिए। ये दोनों काम मोहल्ले वालों के सामने हुए। लोग मुझे देखकर मुस्करा भी रहे थे। मुझे दोहरा अपमान महसूस हुआ, मुझे अपने अपमान से उबरने का कोई ज़रिया नहीं मिला तो मैंने अनु दीदी पर हाथ चला दिया। मैंने हमला तो कर दिया; लेकिन इस बार वो सतर्क थीं ऐसे किसी अप्रत्याशित हरक़त के लिये।
 उन्होंने मेरा हाथ वार सफल होने के पहले ही पकड़ लिया और अपने मेरे दोनों हाथों को मोड़कर मेरी ही पीठ पीछे ले जाकर कसकर पकड़ लिया और मुझे ना सिर्फ काबू में कर लिया बल्कि बेबस भी कर लिया।
मैं बहुत छटपटाया लेकिन अनु दीदी की मजबूत पकड़ से छूट नहीं  पाया। पहले बिन्नू ने पटका और फिर अनु दीदी ने पीटा वो भी पूरे मोहल्ले के सामने। बड़ी थीं तो क्या अनु दीदी थीं लड़की ही। एक लड़की द्वारा बीच सड़क पर मोहल्ले वालों के समक्ष पिटने से मैं आत्मग्लानि से भर उठा। एक मामा की बेटी दूसरे चाचा का लड़का, कुछ भी हो थे तो दोनों मेहमान ही। मैं अपने ही घर पर मेहमानों द्वारा पीटा जाऊं,वो भी बाहरी लोगों से! 
जकड़े रहने के दौरान ही मैंने तय किया कि इन दोनों को मैं घर में रहने नहीं दूंगा, मम्मीपापा से कहकर उन दोनों को इस घर से निकलवा दूंगा।
मम्मीपापा से अपनी बात मनवाने के लिये मैंने गांव जाने का निश्चय किया। थोड़ी देर मौन रहने के बाद अनु दीदी ने मुझे छोड़ दिया। उनकी गिरफ्त से मैं छूटा तो अनु दीदी और बिन्नू चौकन्ने हो गए कि मैं शायद फिर हमला करूँ। 
मुझे हमला तो करना था, मगर समस्या पर नहीं बल्कि उसकी जड़ पर, सो उनसे थोड़ी दूर जाने के बाद मैंने कहा
“अब मैं इस घर में वापस लौटकर तभी आऊंगा जब तुम दोनों को निकलवा दूंगा” 
ये कहकर मैंने उनकी प्रतिक्रिया तक लेना मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने भी मेरी बात को तवज्जो नहीं दी होगी; क्योंकि अगर कुछ प्रतिक्रिया करते तो मुझे सुनायी ज़रूर देता।
मोहल्ले से निकलकर पावर हाउस होते हुए मैं अपने स्कूल के पीछे दूर देहात तक चला गया, वहां कुछ बच्चे मछली मार रहे थे। स्कूल ख़त्म होने के बाद मैं अक्सर मछली का शिकार देखने जाया करता था और आज तो काफी फ़ुर्सत थी।
मैं वहां मछली का शिकार काफी देर तक देखने के मूड में थाआम तौर पर वो लोग शाम ढलने तक मछली का शिकार किया करते थे। लेकिन उन लड़कों ने अपना शिकार आधे घण्टे में ही समाप्त कर लिया और अपना जालकांटे लेकर चल पड़े। दरयाफ्त करने पर पता चला कि उनके मोहल्ले में वीडियो लगने वाला है जिसमें मिथुन की फिल्मों के दो कैसेट चलेंगे ।
वीडियो और मिथुन की फिल्मों का नाम सुनकर मेरा भी मन हुलस उठा। अव्वल तो मल्लाहों की बस्ती में वीडियो देखने जाना मेरी शान के ख़िलाफ़ के खिलाफ था, दूसरे उन लड़कों ने मुझे वीडियो देखने के लिये निमंत्रित भी तो नहीं किया था। साथ चलने को कहता तो कहीं इंकार करते हुए झिड़क देते तो?
मछली का आकर्षण समाप्त होते ही मैंने घर जाने का सोचा, मेरा गुस्सा अब शांत हो चुका था, लेकिन फिर सोचा कि किस मुंह से घर वापस जाऊंगा? इतनी डींगें हांक कर निकला था और तुरन्त वापस ?
कुछ देर घर वालों को परेशान होने दो, खोजेंगे मुझको, नहीं मिलूंगा, तब मेरी बात की वैल्यू पता लगेगी। इसलिये मैंने तय किया कि अंधेरा होने के बाद ही घर जाऊंगा।
टाइम पास करने के लिये मैं नदी के तटबन्ध पकड़कर चलने लगा और अनायास चलता ही गया। पांव में थकान महसूस होने और तटबन्ध की समाप्ति पर मैंने पाया कि मैं बहराइच जाने वाली मुख्य सड़क पर आ गया हूँ, और वहां सड़क पर लगे बोर्ड को देखा तो बलरामपुर वहां से पांच किलोमीटर की दूरी दिखा रहा था यानी कि मैं शहर से काफी दूर निकल आया था और गांव पहुंचने की आधी दूरी तय कर चुका था।
मेरा गुस्सा तो अब शांत हो चुका था। लेकिन  बिना कुछ धौंस जमवाये शहर वापस लौट आना अपनी शान के ख़िलाफ़ होता।
सो मैंने गाँव की राह ली, उन दिनों सड़कों पर वाहन बहुत कम चलते थे। कभीकभार कोई बस या सवारी वाली कमांडर जीप चला करती थी, जिसमें बाहर भी तीनचार सवारियां लटकी रहती थीं। सो पैदल मैंने गांव का रास्ता नापना शुरु किया। बमुश्किल एक किलोमीटर चला होऊंगा कि पैर दुखने लगे। मैंने हाथ दिया तो दो दूधवाले एक साथ रुके।
मैंने आत्मविश्वास से मगर नरम स्वर में पूछा
“ कहाँ तक जाओगे ग्वाल? मुझे भी छोड़ दो थोड़ी दूर बगाही गांव तक।”
“जीप पकड़कर चले जाओ”
किसी एक ने उत्तर दिया।
मैं चुप रहा। 
वो सब समझ गए कि पैसे होते तो जीप ना पकड़ता?
एक चौड़ी मूंछों वाले ग्वाल ने मुझे साइकिल पर आगे बिठाया और साइकिल हांक दी। घोपियापुर तक पहुंचतेपहुंचते उन्होंने मेरी रामकथा और घर से भागने का कारण जान लिया।
घोपियापुर में उन्होंने मुझे साइकिल से उतारा और कहा
“यहां से कोस भर उत्तर मेरा गांव है, मुझे यहीं से कटना है। तुम ठाकुर के अच्छे घर के लड़के हो, भागनाबिगड़ना ठीक नहीं, घर लौट जाओ बलरामपुर। किराया ना हो तो मैं दे दूं और जीप पर बैठा दूं”।
“नहीं मैं नहीं जाऊंगा बलरामपुर, किरायाभाड़ा की बात नहीं”
मैंने कड़े स्वर में कहा।
उसने मुझे देखा, मेरी अकड़ पर चकित हुआ और फिर अपने साथियों के साथ चला गया।
मैं फिर पैदल हो गया। लेकिन थकान से राहत थी सो फिर चल पड़ा।
थोड़ी दूर चला तो फिर पैर दुखने लगे। रुक गया, एक दो जाती हुई  मोटरसाइकिलों को हाथ दिया, मगर किसी ने नहीं रोका।
शाम ढल रही थी और मेरी चिंता भी बढ़ रही थी। सहसा मुझे कुछ ख्याल आया। मैंने जेब टटोली तो अठन्नी निकल आयी। मुझे बहुत तसल्ली हुई और मैंने इस पैसे से कुछ करने का सोचा।
मैं कुछ सोच ही रहा था कि सहसा एक कमांडर जीप आकर रुकी उसमें से लटकी हुई तीन सवारियां उतरीं। सवारियों और जीप के कण्डक्टरकमक्लीनर के बीच  थोड़ी देर किराए को लेकर चखचख हुई और उसके बाद दोनों पक्षों ने एक दूसरे को देख लेने की धमकी दी। 
सवारियों से जूझते कंडक्टर को देख मैं थोड़ा सहम गया लेकिन कंडक्टर से जी कड़ा करके मैंने पूछा
 “गिधरैया  तहसील तक जाना है कितना रुपया लोगे?”
“एक रुपये”
उसने तल्ख स्वर में जवाब दिया।
“पचास पैसे में कहाँ तक ले जाओगे”
मैंने जी कड़ा करके पूछा।
“कहीं नहीं, उसने कहा और अपनी बीड़ी जलाने लगा। बीड़ी सुलगाकर वो जीप पर लटक गया।उसने तेज़ स्वर में ड्राइवर कहा “चलो, हांको”
और मुझे देखकर बोला
 “आओ लटक लो,चकवा उतर जाना।”
उसके कहते ही मैं गति पकड़ रही जीप पर चढ़कर पीछे लटक लिया। रास्ते भर वो बाकी सवारियों से बकझक करता रहा, लेकिन हर बार उसने बीड़ी का धुँआ मेरे कान और मुँह पर उगला; क्योंकि मैं ही उसके सबसे पास लटका हुआ था।
उसकी इस बेजा हरकत पर मैं मारे क्रोध के अंगारों पर लोटता रहा मगर क्या करता उसे बर्दाश्त करना ही था क्योंकि किराए में अठन्नी कम थी।
चकवा पहुंच कर उसने सारी सवारियों को उतारा लेकिन मुझे उतरने को नहीं कहा। मैं इस बात की प्रतीक्षा ही कर रहा था कि वो कब मुझसे उतरने को कहे उसने बाकी उतर रही सवारियों से तूतू,मैंमैं की। एक दो को ये कहकर उतार दिया कि यहीं तक का किराया दिया है, आगे एक कदम नहीं ले जाऊंगा।
लेकिन उसने मुझसे उतरने को नहीं कहा तो मैं लटका ही रहा। सवारियों से लड़भिड़कर फ़िर वो चीखा
“चलो हांको।”
जीप चल पड़ी, थोड़ी दूर बाद ही गिधरैया तहसील आ गयी।
“रोको” कंडक्टर पीछे से चीखा और फिर मुझे देखकर तल्ख़ स्वर में बोला
“उतरो, अठन्नी में इकौना जाओगे क्या? चकवा ही उतरना था ना तुम्हे,यहां तक आ गए।” 
मैं अपनी मंजिल तक पहुंच चुका था,सो चुप रहना बेहतर समझा। उसे निकालकर अठन्नी दे दी।
उसने बड़बड़ाते हुए कहा
“सूटबूट इतना जेब में इकन्नी नहीं। दुबारा मिलना तो अठन्नी दे देनायहां तक का बैठकर आने का डेढ़ और लटककर आने का एक रुपया होता है समझे बाबूजी” 
ये कहते हुए फिर वो कर्कश स्वर में चीखा
 “चलो हाँको”
 औऱ उसके ऐसा कहते ही जीप चली गयी। 
पंद्रह मिनट में मैं घर पहुंच गया।
शाम ढल गयी थी, कौंरा (अलाव) और चूल्हे के धुएं से पूरा घर भरा हुआ था। 
मुझे देखते ही सब स्तब्ध। मैंने पूरा हाल कहा, कुछ नमकमिर्च लगाकर कहा।
लेकिन कोई भी मेरे इस तरह बिना बताए घर से भाग आने की हरकत से सहमत नहीं हुआ। अलबत्ता सब फिक्रमंद हुए कि, मेरे बिना बताए घर से भाग आने के कारण बलरामपुर में सब परेशान हुए होंगे।
मम्मी,पापा, दादा, बड़े चाचा आपस में बड़ी देर तक मेरे सहीगलत पर बहस करते रहे और जिसका नतीज़ा ये हुआ कि अंत में मेरी ही गलती मानी गयी और पिटाई भी हुई। पैर तो दुःख ही रहे थे, गालपीठ भी घूंसों और चांटों से दुःखने लगे। 
पापा और चाचा मेरी लम्बी पिटाई करने के मूड में थे। लेकिन मम्मी ने बचा लिया। जब उनको मेरे सफर के बारे में पता लगा, वो सब चिंतित थे कि बलरामपुर में बच्चे परेशान होंगे और मुझे ढूंढ़ रहे होंगे कि मैं कहाँ चला गया? 
मुझे भी अपनी थोड़ी सी गलती का एहसास हुआ लेकिन अब होने से भी क्या?
इन्हीं सब बातों में अंधेरा हो गया इसी बीच मुझे चाय पानी भी दी गयी। सब डरे हुए थे कि मेरे बलरामपुर में गायब हो जाने के अपराध बोध या डर के मारे वहाँ रह रहे बाकी बच्चे कोई ग़लत कदम ना उठा लें, वो भी घर से भाग जाएं या और कोई अप्रिय कदम उठा लें तो?
निर्णय हुआ कि मुझे लेकर तुरन्त बलरामपुर जाया जाये। सवारी तो मिलने से रही इतनी रात को ,गन्ने का ट्रक या ट्रॉला मिल सकता है।
तत्काल मुझे लेकर बड़े चाचा गिधरैया चल पड़े।  सर्दी की रात में जूते से लेकर, मफ़लर में लिपटे हम चाचाभतीजा, बहराइच से बलरामपुर जाने वाले ट्रकों को हाथ देते; लेकिन कोई ना रोकता था। रात के करीब साढ़े नौ बज गए, तब तक बलरामपुर की तरफ से आ रहा एक गन्ने का ट्रक रुका। ट्रक रुका लेकिन हमें उसमें दिलचस्पी ना हुई क्योंकि ये ट्रक बलरामपुर से आ रहा था और हमें बलरामपुर जाना था। लेकिन सर्दी और कोहरे की ठिठुरती रात में ट्रक से कोई दरवाज़ा खोलकर उतरा तो हमने भी अनायास उधर देखा। चाचा ने कहा “राजन।”
“हाँ” उन्होंने पुष्टि की।
ये मेरे  (दादा) बड़े  थे। जो बलरामपुर से इस जाड़ेपाले में मुझे तलाशते पहुंच गए थे। 
मेरी उम्मीद की विपरीत दादा ने मुझे तो ना तो डांटाफटकारा और ना ही झापड़ मारा।
चाचा और दादा के बीच थोड़ी देर मन्त्रणा हुई। उन दोनों ने इतनी रात को बलरामपुर जाने का विचार त्याग दिया और हम सब बगाही गांव लौट गए।
रात को हम सब खा-पीकर लेटे तो मैं सोच रहा था कि, अबकी अगर किसी ने मुझे बलरामपुर में मारा तो मैं भागकर दिल्ली जाऊंगा। तब पता लगेगा इन लोगों को। ये सब भागने के मंसूबे बनातेबनाते ना जाने कब मेरी आँख लग गयी थी।
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2 टिप्पणी

  1. पहले तो संपादक जी को धन्यवाद दूंगा कि आपने पत्रिका में अन्य विधाओं को स्थान दिया। दिलीप कुमार जी का संस्मरण ‘भागे हुए लड़के ‘ बढ़िया संस्मरण है। इसमें बीते हुए जीवन का सहजता के साथ बखान किया गया है । कहीं कोई अतिशयोक्ति नहीं है, होनी भी नहीं चाहिए। बालपन की हठधर्मी हो या अपने को महत्वपूर्ण मानना सब कुछ स्वाभाविक रूप से आ गया है। अनु दीदी और बिन्नू का किरदार काफी दमदार है। जीप और उसके कंडक्टर की कर्कश आवाज में हांको शब्द बजनदार है। मुझे ये संस्मरण बढ़िया लगा। लेखक को बहुत बहुत बधाई

  2. लखनलाल पाल जी मैंने भी डरते -डरते संकोच वश यह रचना भेजी थी । मुझे उम्मीद नहीं थी कि इतना सादा संस्मरण पत्रिका में प्रकाशित होगा । अव्वल तो संस्मरण लिखने की तो मेरी उम्र है और न ही ऐसा कुछ विशेष संस्मरण है ही मेरे पास जो चटखारेदार और सनसनीखेज हो । परन्तु संपादक महोदय ने सरलता को महत्व देते हुए प्रकाशित किया । उनका कृतज्ञ हूँ। विश्वास कीजिये लेखक इस बार तो भागने में विफल रहा मगर अगली बार फिर घर से भागेगा । देखते हैं अगली क़िस्त कब प्रकाशित होती है इस “भागो पुराण” की । आपका एवं सम्पादन मंडल का आभार

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