Sunday, October 27, 2024
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वरिष्ठ साहित्यकार नासिरा शर्मा से नीलिमा शर्मा की बातचीत

वरिष्ठ पत्रकार, संपादक, उपन्यासकार, कहानीकार, अनुवादक नासिरा शर्मा जी से पुरवाई पत्रिका की उपसंपादक नीलिमा शर्मा की बातचीत।

लेखक, पत्रकार से कुछ मायनों में अलग होता है और उसकी रचना आहिस्ता आहिस्ता पाठकों तक पहुँचती है और शताब्दियों तक ठहरती है।
~ नासिरा शर्मा ~

प्रश्न  : नासिरा शर्मा जी यह हिंदी दिवस मनाने का क्या औचित्य है? अपनी मातृभाषा के लिए एक दिन निर्धारित करना क्या सही है?
उत्तर :  हर्ज ही क्या है? लेकिन इस ग़लतफ़हमी से निकलना होगा कि हिंदी को  केवल वह लोग समृद्ध बना रहे हैं जिनकी मातृभाषा हिन्दी है। हिंदी भाषा–साहित्य में वे लोग हैं जो कई कारणों से हिंदी में लिखते हैं। वे जिनकी मातृ–भाषा उनकी स्थानीय बोली है और शिक्षा की भाषा हिंदी हो गई है जिस पर उनकी पकड़ मज़बूत हो गई और वह अपने परिवेश को  हिंदी भाषा में लिख कर हिन्दी लेखक बने या फिर उन्हें हिंदी भाषा के लेखक बहुत अच्छे लगे और वह अपनी(भारतीय भाषाओं) भाषा की जगह हिन्दी में लिखने लगे। या फिर उन्हें हिंदी भाषा अच्छी लगी। कहने का मेरा मतलब है कि हिंदी को एक तंग खाँचें में बांधना उचित नहीं है फ़िलहाल इकहरी सोच वालों ने सीमित समय के दायरे में बाँध उसे बाक़ी भारतीय भाषाओं से अलग कर देते हैं एक विशेष दिवस या पखवाड़े तक के लिए| जबकि ख़ुद हिंदी ने अपनी बहन उर्दू की तरह अपना दामन फैला सभी मातृभाषा वालों को अपने में समेट रखा है। हिंदी में पुस्तकें छप रहीं हैं और बिक रही हैं मगर उससे सम्बन्धित समस्याओं पर कोई ठोस क़दम उठाया नही जाता है।
प्रश्न :  आप विभिन्न भाषाओं की ज्ञाता हैं। आपकी मातृभाषा उर्दू रही है लेकिन आपने हिन्दी में अपना अधिकतम साहित्य रचा है। हिंदी साहित्य को आपने अनूठे विषय दिए हैं। क्या आपको लगता है कि आज विषय से ज़्यादा शिल्प और बिम्ब पर ध्यान दिया जाता है?
उत्तर : आज के नए लेखन में जो अकसर देखने को मिलता है वह यह है कि जो कहानी अपने बयान में आसमान के सारे तारे तोड़ अक्षरों में रौशनी भरती है वह अन्त में जाकर जली फुलझड़ी साबित होती है। क्योंकि कभी अन्त अटपटा सा, कभी बेहद मामूली लगता है और जब आप कहानी पढ़ लेते हैं तो महसूस होता है कथा वस्तु कितनी लड़खड़ाती सी बिना किसी तर्क के आपको किसी आशा में डाल अपने को अन्त तक पढ़वातो लेती है मगर कुछ दे नहीं पाती है|  इस लनतरानी से हिंदी भाषा में भी कोई इज़ाफ़ा नहीं हो रहा है और कहानी उखड़ी–उखड़ी ज़मीन से ऊपर तैरती रह जाती है। उसकी वाह वाही भी देखने को मिलती है।कहानी वह हैं जिसे पढ़कर उसमें आप देर तक डूबे रहें, कभी ख़ुद से सवाल करें या कभी किसी को कहें फला कहानी पढ़ लो और मेरे साथ विमर्श करो|
प्रश्न : आज कल कुछ लोग कहानी उपन्यास लिखते हुए (बिना उन जगहों पर जाए) वहाँ के माहौल पर लिखने का दावा करते हैं। क्या ये उचित है? आप इस बारे में क्या सोचती हैं ?
उत्तर : आपने ठीक कहा, आजकल लेखक ही नहीं पत्रकार भी घर बैठे चर्चित घटनाओं और सियासी बदलाव पर कुछ चित्र लगा कर रिपोर्टिंग कर देते हैं। यह उनकी मजबूरी है क्योंकि उन्हें बाहर भेजने, वहाँ रुकने में ख़र्च होने वाला धन अकसर न्यूज़ एजेंसी के पास नहीं होता है। बी बी सी, अल जज़ीरा जैसे चैनलों की तरह ख़बरों की गहराई में जाने में वह कोई दिलचस्पी नहीं रखता है। रणक्षेत्रों तक पहुँचने के लिए अपने पत्रकारों की सुरक्षा एवं जान गँवाने पर मुआवजा देने की कोई  सुविधा भी नहीं है जैसा विदेशी ख़बर माध्यमों में होता है। कम रिसोर्सेज़ हमारी मजबूरी है और इसलिए हम ज़्यादातर विदेशी न्यूज़ बुलेटिन सुनते हैं और उनकी दी लाइनों को पकड़ लेते हैं। उसपर सूचना का ख़ाका बना लेते हैं जिसमें हमारी अपनी विवेचना नहीं होती है| अब आता है सवाल लेखकों का।लेखक का संवेदनशील मन जब किसी दर्दनाक घटना से प्रभावित होता है तो वह क़लम उठा लेता है। हमदर्दी में लिखी यह रचना पाठकों तक पहुँचती है और पसंद की जाती है। लेकिन कुछ विषय ऐसे होते हैं जो आपकी हमदर्दी के साथ विवेक भी चाहते हैं। पाठक कारण और ऐतिहासिक संदर्भ जानना चाहता है तब आपकी रचना तर्क और तथ्य पर कितनी प्रमाणिकता के साथ पाठकों तक पहुँचती है या फिर आप से ज़्यादा उस विषय को जानने वाला आपकी रचना  को जब पढ़ता है तो वह आपकी कमज़ोरी को  पकड़ लेता है और रचना अपना विश्वास खो बैठती  है। लेखक,पत्रकार से कुछ मायनों में अलग होता है और उसकी रचना आहिस्ता आहिस्ता पाठकों तक पहुँचती है और शताब्दियों तक ठहरती है। यह नया शौक़ जो इधर उभरा है कि चर्चित पत्रकारिता के विषयों को उठाने का वह असल में साहित्य के लिए मुनासिब नहीं हैं। लेखकों को ऐसे विषय नहीं उठाने चाहिए जिस विषय पर न उनकी पकड़ मज़बूत है और न ही आप इंसान की अन्तर-आत्मा तक पहुँच पाते हैं। अपने विचार और संवेदना की अटकले उसमें डाल देते हैं,जो उचित नहीं हैं |
प्रश्न  :  क्या आपको लगता है कि ऐसा करके लेखक वहाँ की सभ्यता और संस्कृति के साथ न्याय कर पाता है ? 
उत्तर : जैसा मैंने पहले कहा कि इस तरह की रचनाओं की दो कसौटियाँ होती हैं| पहली, वह जो कम सूचना जानने वालों के समक्ष पेश होती हैं दूसरी वह जो ज्ञानी की नज़र से गुजरे।जो  केवल “गाइड बुक” या समाचारों से मैटर लेते हैं तो उस मे सृजन का वह पुट नहीं आ पाता है जो आना चाहिए । मैंने दूसरे देशों पर लिखा है। यह महज़ शौक़ नही एक इत्तफ़ाक़ था कि मैं दो क्रांतियों की चश्मदीद गवाह बन गई और पूरी प्रामाणिकता के साथ लिखा क्योंकि मुझे वहाँ की भाषा भी आती थी मगर अपने पसंदीदा अफ़्रीक़ी देशों पर बहुत चाहने पर भी मैं क़लम न उठा सकी क्योंकि मैं वहाँ कभी गई नहीं | यदि मैं अपने शौक़ को पूरा करने के लिए इधर उधर से सामग्री बटोर कर लिख देती तो उसमें मेरी मौलिकता कहीं नज़र नहीं आती .. क्योंकि न तो मेरी स्थानीय स्तर पर कोई पकड़ मज़बूत होती और न ही मुझे भाषा ज्ञान था  फिर एक ‘पर्दानशीन’ इश्क़ पर मैं कैसे क़लम उठा सकती थी जिसकी बारीकियाँ तो दूर सही बयान भी गहराई से न कर पाती| याद रखें आपका लेखन चाहे वो यात्रा संस्मरण या कहानी या उपन्यास हो यदि उसके अन्दर दी गई कमियों को जब सचेत पाठक पकड़ लेता है तो उस रचना का रस जाता रहता है क्योंकि उसे वो सारे वीडियो और कुछ अन्य किताबों के विवरण याद आने लगते हैं,जो आपके अनुभव व अनुभूति को पूरी ताज़गी के साथ पन्नों पर नहीं उतार पाए। यह बड़ी बारीक बातें हैं जिनको हमें समझना होगा |    
प्रश्न  : कहानी लेखन में आप विषय को कितना महत्वपूर्ण मानती हैं? क्या साधारण विषय को भी बेहतर अभिव्यक्ति से उत्तम में ढाला जा सकता है?
उत्तर : विषय महत्वपूर्ण है मगर इतना नहीं कि वह पत्रकारिकता में ढल जाएं फिर साधारण और महत्वपूर्ण विषय का निर्णय कौन लेगा, पाठक या लेखक? साहित्य इंसान के अन्दर की कैफियत का बयान होता है वह जितना प्रभावी ढंग से व्यक्त होगा विषय स्वयं महत्वपूर्ण हो उठेगा। मामूली सी घटना का असर रचनाकार किस स्तर पर महसूस करता है। उसकी मौलिक अभिव्यक्ति उस रचना को उत्कृष्ट बना देती है। पढ़ने वाले को एक नई दृष्टि और जिज्ञासा से भर देती है|
प्रश्न   : आजकल सोशल मीडिया के कारण इन्सान के हर्ष और विषाद के पल आसानी से सार्वजनिक हो जाते हैं। शब्दों का आसान ईमोजी ले चुके हैं। मृत्यु के समाचार के लाइक कर दिया जाता है। अहसास सोशल मीडिया के शोर में कहीं दब जाते हैं। आप कैसा महसूस करती हैं?
उत्तर : मुझे कुछ चीज़ें अच्छी नही लगतीं हैं जैसे अपना हर दुःख साझा करना। सोशल मीडिया पर जिसे देखने/पढ़ने वालों की न कोई पहचान होती है न कोई दिलचस्पी। बतौर मिसाल कुछ लोग मरे हुए रिश्तेदारों के ऐसे चित्र जिसमें लाशें क़फ़न में लिपटी नज़र आ रही हैं , डाल देते हैं जो मुझे उस मरे हुए इन्सान का अपमान जैसा लगता है। सोशल मीडिया सूचना का एक महत्वपूर्ण प्लेटफॉर्म है जिसका प्रयोग ज़रूरत पड़ने पर करना उचित होता है मगर जब तकनीकी आसानी आपके हाथ में हो तो उपभोक्ता अपने आप को रोक नहीं पाता है।वैसे इसका एक कारण तन्हाई भी हो सकता है। वह अपने दुःख को इस तरह बाँट कर लोगो के तसल्ली भरे शब्दों से राहत महसूस करता है।सोशल मीडिया का यह भी प्लस प्वाइंट है कि आप कुछ अहम ख़बरें एक साथ सबसे साझा कर रहे हैं। कुछ घटनाएँ ऐसी भी होती हैं जिसे देखनेवाला इन्सान दूसरे इंसान के दुःख सुख के क़रीब अपने को महसूस करता है यदि वह उसके जान पहचान का न भी हो तो भी एहसासों को समझ सकता हैं |आजकल बात और आगे बढ़ चुकी है कुछ वीडियो पर लिखा आता है या कुछ आवाज़ सुनाई पड़ती है कि जिसने इसे लाईक नहीं किया उसका बहुत बुरा होगा,मुझे यह सब बहुत ही बुरा लगता हैं |
 प्रश्न  : नासिरा जी, चाहे भारत में हो या फिर प्रवासी भारतीयों में, हिन्दी साहित्य में पुरुषों के मुक़ाबले महिला लेखक अधिक संख्यां में दिखाई दे रही हैं। इसके पीछे क्या कारण देख सकती हैं आप?
उत्तर : शिक्षा, फिर विश्वास! इसके बाद परिवार का प्रोत्साहन व स्वतंत्रता। सरकारी योजनाएं और महिला का जीवन के हर कार्यक्षेत्र में दाख़िला। जब उनके हाथ में क़लम आया तो उसने इन्हें मुखर बनाकर इस घुटन को काग़ज़ पर उतरवाया जो मौखिक परंपरा से आगे की बात थी। इस समय पुरुष व महिला लगभग बराबर से लिख रहे हैं मगर जो नाम उभर कर इस समय नज़र आ रहे हैं वह महिलाओं के अधिक हैं जैसे आज से तीस वर्ष पहले महिलाएं लिख रही थीं मगर नाम पुरुषों के अधिक उभर के सामने आ रहे थे। महिलाओं को कई तरह के प्रोत्साहन ने भी उनमें उत्साह पैदा किया है।  वह शिक्षित हैं, खुद कमाती हैं। दूसरी ओर साहित्य की दुनिया में महिला विशेषांक,स्त्री विमर्श, हिंदी दिवस, विदेश की यात्राएं और ढेरों पुरस्कारों की शुरुआत जिसने एक सकारात्मक माहौल बनाकर उनमें ऊर्जा भरी।
प्रश्न : महिलाएं आमतौर पर राजनीति जैसे विषय पर कम ही क़लम चलाती हैं। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं। आप किन विषयों को अपने दिल के क़रीब मानती हैं?
उत्तर : सबसे ज्यादा राजनीति विषय में उनकी रुचि का न होना। पकड़ का मज़बूत न होना।बेकार की झंझटो में न पड़ना, इत्यादि कारण हो सकते हैं । मुझे कोई भी मानवीय विषय जो किसी भी जानकार के उत्पीड़न, शोषण, अन्याय का कारण बना हो उस पर लिखना अच्छा लगता है। प्रकृति के बयान में मेरा मन बहुत रमता है।
प्रश्न : हिंदी में मुस्लिम समाज की लेखिकाएँ अपेक्षाकृत कम हैं। आप जब लेखन में आई तो आपका स्वागत कैसा हुआ था? आज के लेखन में आप मुस्लिम लेखिकाओं को कैसे देखती हैं और उनसे क्या अपेक्षाएं रखती हैं?
उत्तर : वह समय आज के समय से  बिल्कुल अलग था।आज भी मुस्लिम पुरूष लेखकों की अपेक्षा, बेशक लेखिकाएँ  कम हैं मगर ख़ुद पुरुष लेखक भी हिंदी साहित्य में शायद दर्जन भर भी न हों। मैंने इस तरह सोचा नहीं कभी क्योंकि मैं किसी तरह की ख़ानाबंदी के ख़िलाफ़ हूँ। न उर्दू–हिंदी का भेदभाव मैं करती हूँ। एक लेखक को पूरी आज़ादी है कि वह देश की 24 भाषाओं में से किसी भी भाषा को अपने साहित्य की अभिव्यक्ति के लिए चुन सकता है। पहले मुझे ख़ुद  से यह सवाल करना है कि जब मैं आई तो मैंने क्या महसूस किया तो कहूँगी न बेगानापन न अजनबीपन, न झिझक न भय क्योंकि हमने दोनों भाषाओं में कभी कोई फ़र्क़ नहीं समझा| मगर आपका सवाल है कि हिंदी भाषा साहित्य में मेरा स्वागत कैसा हुआ तो इसका जवाब कुछ इस तरह दे सकती हूँ कि मेरी कहानियाँ बहुत प्रकाशित हुई हैं, श्रीपत राय की पत्रिका ‘कहानी’ में धर्मवीर भारती ने धर्मयुग में, कमलेश्वर जी के सम्पादन में ‘सारिका’ में| जो उस समय के सभी बड़े सम्पादक जो लेखक भी रहे हैं उन्होंने मुझे छापा जैसे अमरकांत, मनोहर श्याम जोशी, सोमदत्त वग़ैरह पत्रकारिता में भी हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस, नवभारत, दिनमान में। यही मेरे समय में महत्वपूर्ण पत्र- पत्रिकाएँ थीं जिसमें आसानी से जगह नहीं मिलती थी।किसी लेखक को इन पत्रिकाओं में छापने का उस समय मतलब था कि उसकी लेखनी स्वीकार करने के क़ाबिल है। हिंदू मुस्लिम का मुझे कभी पक्षपात नज़र नहीं आया तो भी ईर्ष्या के चलते कुछ हुआ भी तो वह मेरे लिए महत्वहीन रहा। आज, जो मुस्लिम महिलाएं अचानक एक साथ हिन्दी में लिख रही हैं उनके लेखन को पसन्द किया जा रहा है, उन्हें पुरस्कार भी मिल रहे हैं। उनसे मेरी वही अपेक्षाएं हैं जो नई पीढ़ी के बाक़ी लेखकों से हैं कि वह अच्छा और बेहतर लिखने की कोशिश करें।

प्रश्न  : कुछ लेखकों का सोचना है कि नासिरा जी की नई रचनाओं के मुक़ाबले में पुराने सृजन के विषय और थीम अधिक गम्भीर और गहराई लिए हुए थे। वहीं कुछ अन्य लेखकों का मानना है कि नासिरा जी की रचनाओं में समय सृजन के साथ चलता है उनके विषय आज के समय के विषय हैं। क्या विषय चयन को लेकर आपकी सोच में कुछ बदलाव आया है?
उत्तर : समय बदल रहा, हालात करवट बदल रहे हैं। नई समस्याएं और कठिनाइयाँ इंसान को अनेक स्तर पर तोड़ रही हैं। उस टूटन और बिखराव का रचनाओं में आना बहुत ज़रूरी है। मेरा उपन्यास अलफा–बीटा–गामा इस बात का प्रमाण है जिस में कुत्ते के बहाने कोविड–19 और लॉकडाउन में भूख, मज़दूरों की पदयात्रा, दिल्ली फसाद, शाहीन बाग़, जानवरों के प्रति अमानवीय व्यवहार और बेज़ुबानों के ज़रिए प्रेम–कथा और विस्थापन की पीड़ा को समेटा है। अब रहा सवाल दोस्तों और लोगों का तो मैं कहूँगी कि जिसने मुझे ( मेरा लिखा)आधा पढ़ा है यह उसकी राय है जिसे मैं प्रशंसा के रूप में लूँगी और जिसने मुझे पूरा पढ़ा है उसकी राय की मैं क़दर करूँगी कि उसने मुझे मेरे पूरे लेखन को फ्रेम में रखकर देखा जिसके लिए मैं धन्यवाद कहूँगी।
प्रश्न: आज की नई पीढ़ी के लेखन से आप कितना प्रभावित हैं। उनका लेखन आपकी पीढ़ी के लेखन से कितना अलग है?
उत्तर : ‘प्रभावित’ शब्द उनके पाठकों के साथ जाता ज़्यादा उचित लगता है। इतना कुछ लिखा जा रहा है जिसे कोई आलोचक समेट नहीं पा रहा है न ही मैं पाठक के रूप में सब पढ़ पा रही हूँ। तो भी इतना कहूँगी कि उनकी लगन और साहित्य के प्रति उनका झुकाव प्रशंसा के क़ाबिल है। हम अभी एक तरह से समकालीन हैं और अपने समय को एक साथ देख रहे हैं। साहित्य का पैमाना सदा से यही रहा है कि या तो कहानी अच्छी होती है या कहानी बन नहीं पाती है। हर पीढ़ी कुछ नई ताज़गी से आती है और उसका स्वागत होता है। वह कब तक ठहरती है और क्या लेकर आती है और क्या देकर जाती है उसके लिए रुकना बहुत ज़रूरी होता है क्योंकि समय बहुत कुछ छाँट कर रख देता है। किसी आन्दोलन या विमर्श से जुड़ा लेखन कला और जीवन के मापदंड पर कितना खरा उतरता है वह भी एक अहम प्रश्न है। नई पीढ़ी में ऐसा भी लेखन हो रहा है जो उनसे पहले की पीढ़ी के लेखन के साथ रखा जा सकता है। हालफिलहाल ऐसी ढेरों कहानियाँ मेरी नज़रों से गुज़री हैं जो मुझे पसन्द आईं। बात हर लेखक की संपूर्णता में होती है कि उसका योगदान क्या है!
प्रश्न  : आपके उपन्यासों और कहानियों पर शोध भी हुए हैं । आप नई पीढ़ी के लेखकों से जुड़े रहने के लिए क्या करती हैं?
उत्तर : जिन लेखकों से रिश्ता किसी भी माध्यम से बनता है उसे संभाल कर रखती हूँ। उनकी रचनाओं पर बात करती हूँ। शोधकर्ताओं की मदद करती हूँ उनमें से बहुतों से रिश्ता अभी भी सोशल मीडिया के द्वारा जुड़ा है। मेरे दिल में उनके लिए प्यार रहता है ।
प्रश्न : प्रवासी लेखन से आपका जुड़ाव कैसा रहा? आपने उनकी कहानियों पर काम भी किया था? क्या आपको भी प्रवासी लेखन, दलित लेखन हाशिए पर नज़र आते हैं?
उत्तर : मेरा अनुभव बहुत अच्छा रहा। लेखिकाओं और लेखकों से बातचीत और मुलाकातें भी बराबर होती रहती हैं। मैं उन्हें ‘प्रवासी’ कहना पसन्द नहीं करती हूँ वह हिन्दी भाषा के लेखक हैं। यह भी सच है कि उन्हें ‘प्रवासी लेखक’ कह कर अलग पहचान दी जिस से उन्हें फ़ायदा भी हुआ। जब मैं 2008 में लंदन गई थी तब उनमें बहुतों के लेखन का शुरुआती दौर था। मगर अब उनका लेखन इन वर्षों में ख़ूब पनपा है। अच्छा लिखा जा रहा है और ख़ूब छप रहा है। मैंने ‘अभिनव इमरोज़ पत्रिका’ का विशेषांक ‘विदेशी धरती पर हिंदी की गुलदोज़ी’ के नाम से लेखकों की कहानियाँ ली थीं जिस में ग्रेटब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा वगैरह के लेखक थे। वह मैटर दरअसल मेरी ‘अदब में बाई पसली’  (बारह) पुस्तक श्रृंखला में से एक था मगर जब देर होने लगी तो पत्रिका को मैटर दे दिया। विशेषांक बहुत सुन्दर छपा था। मुझे अब न दलित और न प्रवासी लेखक हाशिए पर नज़र आते हैं। सच तो यह है कि जब जो साहित्य में दाख़िल हुआ वह पंक्ति के बाद में ही खड़ा पाया जायेगा क्योंकि उसे संघर्ष के वे सारे वर्ष पूरे करने होंगे जिस पर चल कर आगे नज़र आने वाले लेखक पहुँच चुके हैं!
प्रश्न : आपका नया उपन्यास ‘कुछ रंग थे ख्वाबों के’ पिछले बरस आया था। क्या आप आज की पीढ़ी के लिए अपनी परिपक्व क़लम से कुछ लिखना चाहेंगी?
उत्तर : हाँ, वह ईरान पर लिखा मेरा दूसरा उपन्यास है। जिस में भारत–ईरान सभ्यता के प्राचीन सम्बन्धों और वर्तमान के हालात को लेकर मैंने एक प्रेम–कथा बुनी ज़रूर है मगर उस प्रेम–कथा में वैश्विक स्तर के जवलंत प्रश्न गुथे हुए हैं। नए पीढ़ी के लड़कों को केंद्र में रखते हुए मैंने 2003 में अक्षयवट लिखा था। मुझे अभी तक लगता रहा है कि मेरी कहानियों में युवा पीढ़ी हमेशा से मौजूद है। 
प्रश्न  : अन्य भाषाओं की कहानियों का हिन्दी में अनुवाद करते समय आप कहानियों का चुनाव कैसे करती हैं?
उत्तर : जो भा गई कहानी, उसे अपनी भाषा में लिखने और पाठकों के साथ साझा करने की इच्छा दबा नहीं पाती हूँ ।  उसका अनुवाद करती हूँ |
प्रश्न  : आपने खुले मन से दूसरी भाषाओं के उपन्यास, कहानियाँ, नाटक इत्यादि अनुवाद किए परन्तु आपकी किन रचनाओं का इन भाषाओं में अनुवाद हुआ?
उत्तर : अभी तक तो किसी का भी नहीं। मैं आदान–प्रदान का कोई सिलसिला न बना सकी न मैंने इधर कोई विशेष ध्यान दिया।
 प्रश्न  : आप अनेक भाषा की ज्ञाता और अनुवादक भी हैं। क्या आपने इन देशों की कुछ ऐसी कहानियाँ पढ़ी जिनका भारतीय समुदाय से एक कनेक्शन रहा हो। क्या आप ऐसी कुछ कहानियाँ पुरवाई के पाठकों को अनुदित कर के पठन हेतु उपलब्ध करवा सकती हैं?
उत्तर : ज़रूर! इस समय फ़िलिस्तीन और इज़राइल जंग, अपनी चरम पर है। जो लोग सियासत व जंग के बारे में रुचि नहीं रखते हैं और इन्सानी पीड़ा और संवेदना को महत्व देते हैं उनके लिए मैं फ़िलिस्तीन की कहानी का अनुवाद पहले देना पसन्द करूँगी। इस न समाप्त होने वाली जंग में किस तरह बच्चे और बूढ़े मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित होते हैं और जवान युद्ध मोर्चे पर अपनी जान गवांते हैं। जिन पड़ोसी देशों पर मैंने सृजन लेखन व अनुवाद किए हैं उनका हम से व्यापारिक सांस्कृतिक गहरा रिश्ता बहुत पुराना है जो आज भी बना हुआ है। रहा सवाल इन देशों की कहानियाँ हमारी कहानियों से कितनी क़रीब हैं तो मैं कहूँगी, “एशिया महाद्वीप सोच व संवेदना में योरूप की तरह हमसे दूर नहीं है।”
प्रश्न : अभी आपकी फिलिस्तीन पर ‘फिलिस्तीन:एक कर्बला’ पुस्तक आई है। फ़िलिस्तीन एक ऐसा देश है जो कई सालों से युद्ध की विभीषिका को झेल रहा है तो क्या वहाँ साहित्य के लिए कुछ स्थान बचा है? क्या वहाँ के साहित्य में सिर्फ़ युद्ध के विषयों को शामिल किया जा सकता है?
उत्तर : ऐसा नहीं है। फ़िलिस्तीन की मशहूर कविता ‘मैं एक अरब हूँ ’ लिखने वाले महमूद दरवीश ने अपनी महबूबा की बेवफाई और उससे हुए प्रेम पर बेहद ख़ूबसूरत कविताएँ लिखी हैं। कुछ ऐसा भी साहित्य रचा गया है जिस में सारी शत्रुता और ख़ून ख़राबे के बावजूद फ़िलिस्तीन लड़के,लड़कियों में प्यार हो जाता है और उसमें धर्म और सियासत को लेकर मानसिक पीड़ा भी संवेदना के साथ घुली पढ़ने को मिलती है। किसी भी भाषा का साहित्य केवल एक भाव को लेकर कैसे अपने सृजन को व्यक्त कर सकता है। लेकिन जब कोई बड़ी घटना होती है तो उस पर रचनाकर अपनी क़लम उठाते हैं और यह तो 76 वर्ष पुराना संघर्ष है। उसके बाद भी वह आम इंसानों की तरह ज़िंदगी जीते हैं और हर तरह के इन्सानी अनुभव से गुज़रते हैं। यह समय जब उनके ख़ूनी संघर्ष  का सब से दर्दनाक समय है उस समय दुनिया भर के पाठक उनकी उन रचनाओं को पढ़ना चाहते हैं जो उनके संघर्ष उनकी जिजीविषा का बयान हो और अनुवादक भी उन्हीं रचनाएं का अनुवाद करता या छपने भेजता है जिस से जिज्ञासु पाठक जान सके उस क़ौम की मनोदिशा व हौसला कैसा है। विडियो द्वारा हमें सूचना के साथ वह सब कुछ दिखता है जो घट रहा है परन्तु उस पीड़ित व्यक्ति के अन्दर क्या चल रहा है उस दर्द को तो साहित्य ही बयान कर सकता है।
प्रश्न  : आजकल क्या लिख रही हैं?
उत्तर : आजकल मैं पढ़ ज्यादा रही हूं, लिखने के लिए अभी कुछ नया उठाया नहीं है।
प्रश्न : आपने पुरवाई पत्रिका के लिए समय निकाला आप इस पत्रिका की नियमित पाठक रही हैं। आप इस पत्रिका के लिए कुछ कहना चाहेंगी?
उत्तर  : विभिन्न देशों के बीच ‘पुरवाई’ एक सेतु का काम कर रही है जहाँ सभी तरह की हवाएं आन मिलती हैं। पत्रिका के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।
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8 टिप्पणी

  1. लाजवाब साक्षात्कार मजा आ गया पढ़ कर
    समय निकाल कर फिर से पढूंगी और कुछ समीक्षात्मक लिखने का प्रयास करूंगी। धन्यवाद पुरवाई पत्रिका का आपने इतनी बड़ी नारी शक्ति शख्सीयत से मिलवाया

  2. नासिरा शर्मा से हुई नीलिमा शर्मा की यह बातचीत महत्वपूर्ण तो है ही, काबिलेगौर यह है कि इनमे सवाल घिसे पिटे नहीं हैं,बल्कि इस बहाने नासिरा जी के लेखन और रचनात्मक व्यक्तित्व की परतें खुलती हैं. उनके विचार और भावभूमि से साक्षात्कार होता है.
    बहुत बधाई

  3. नीलिमा जी ने जैसे सुंदर ढंग से प्रश्नों को रखा, नासिरा जी ने उसी खूबसूरती से उत्तर दिए। लाजवाब साक्षात्कार। पुरवाई के पाठकों को यह पसंद आएगा, मुझे यकीन है।
    – जितेन्द्र जीतू

  4. काफी दिनों बाद कुछ अच्छा और सार्थक पढ़ा। नासिरा मैम हमारे समय की वरिष्ठ और दिग्गज कथाकार हैं। उनका लेखन पूरे गंगा-जमुनी तहजीब से लेकर ईरान, अफगान और मध्य-पूर्व तक फैला हुआ है। इस मामले में वह हिंदी की इकलौती कथाकर नज़र आती हैं, जिन्होंने एक साथ इन देशों के समाजों पर कलम चलाई है। बहरहाल, देखा जाए तो अलग होने के बाद भी ये सभी देश अपनी ही माटी-बाणी के लगते हैं।
    नीलिमा शर्मा मैम ने बहुत अच्छे सवाल किए और उनके जवाब भी बहुत दिलचस्प और बेहतर तरीके से दिए गए। एक रचनाकार के रूप में इस तरह के साक्षात्कार पढ़ना-समझना अपनी समझ को समृद्ध करने वाला अनुभव रहा।

  5. यह साक्षात्कार नासिरदा जी के पूरे व्यक्तित्व को सामने लेता है। नासिरदा जी से हमारी मुलाकात इंदौर में हुई थी।उनकी आंखों से झरती इंसानियत को आपने सवालों के आइने में उतारा है। सचमुच उनका लेखन युगीन सत्य को समयानुसार अभिव्यक्त करता। आपके प्रश्नों से जो जवाबी परिवेश उभरा वह आपकी सूचिका दृष्टि का परिणाम है। साधुवाद

  6. साहित्य और जीवन के विभिन्न पहलुओं पर नासिरा जी की राय पढ़ना वाकई रोचक रहा । सभी सवाल सामयिक और ज़रूरी हैं जिनके जवाब की रौशनी में आज के साहित्य और समाज को समझने में मदद मिलती है। लेकिन साक्षात्कार थोड़ा छोटा लगा ।

  7. नासिरा शर्मा से नीलिमा शर्मा द्वारा लिया गया यह साक्षात्कार एक दस्तावेज है। लेखिका के व्यक्तित्व और उसकी लेखन यात्रा को समझने का अवसर देता है यह साक्षात्कार । मैंने भी बहुत से साहित्यकारों के साक्षात्कार लिए हैं। इसलिए समझ सकती हूँ कि नीलिमा शर्मा जी ने इस साक्षात्कार के लिए प्रश्नों को बनाने में बहुत मेहनत की है । यह भी मानना पड़ेगा जितने अच्छे प्रश्न पूछे गए हैं नासिर जी ने भी उतने ही शानदार जवाब दिए हैं। कुल मिलाकर एक रोचक, जानकारी से युक्त संग्रहणीय साक्षात्कार है।

  8. बहुत महत्वपूर्ण साक्षात्कार. प्रभावित करते हुये सवाल और जवाब. बहुत अच्छा लगा पढ़ कर. आप दोनों को हार्दिक शुभकामनायें

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