रेखा राजवंशी की तीन ग़ज़लें
कितने अरमाँ पिघल के आते हैं
अब मिरे दोस्त भी रकीबों से
जब कोई ताज़ा चोट लगती है
आज कल रात और दिन मेरे
दिल में जब टीस उठती है कोई
मुद्दतों इंतिज़ार था जिनका
आज मैं फिर से माहताब बनूँ
शबनमी रात की ख़ुमारी में
पूछे कितने सवाल ये दुनिया
तू भी बन जाए गुल मिरा हमदम
तू सहर लाने का तो कर वादा
चलो कुछ तो हुआ, आगाज़ हुआ
क़तरा–क़तरा बिखर गई खुशबू
कुछ न कहके भी बात कह देना
चाँद तारों की फुसफुसाहट से
किसी के आने की आहट आई
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