आज एक मनुष्य-निर्मित वायरस ने पूरे विश्व को घुटनों पर ला खड़ा किया है फिर भी उम्मीद करते हैं कि हमारे डेंटिस्ट, नेत्र विशेषज्ञ, कैंसर और हार्ट सर्जन एक दिन अपने अपने काम पर लौटेंगे और अपने अपने मरीज़ों के चेहरों पर चमकदार मुस्कान वापिस ले आएंगे।
पूरे विश्व में कोरोना का कोहराम कुछ ऐसा मचा है कि बाक़ी सभी बीमारियां शर्मिन्दा शर्मिन्दा महसूस करने लगी हैं। लगता है कि जैसे उनकी औक़ात ही नहीं बची है। जब मुझे मेरे जी.पी. (जनरल प्रेक्टीशनर – जो लंदन में मेरा पर्सनल डॉक्टर है) ने मुझे ईको कार्डियोग्राम के लिये रेफ़र किया तो हस्पताल वालों ने कहा कि ईको कार्डियोग्राम करवाने आएगा और कोरोना ले कर वापिस जाएगा।
मामला लटक गया। ईको कार्डियोग्राम का मतलब है कि शर्मा जी का दिल का मामला है। मगर दिल बेचारा कोरोना के सामने डर कर एक कोने में बैठ गया। रात को मुझे बोला, “भाई अभी तो धड़क रहा हूं, कहीं हस्पताल ले गये तो मेरा धड़कना ही बन्द ना हो जाए। अगर ज़िन्दा रहना है तो चुप करके जैसा काम कर रहा हूं – करने दो। ज़्यादा चूं चपड़ की तो अभी क्वारन्टीन में भिजवा दूंगा।”
जब दिल ही डांटने लगे तो इन्सान की क्या औक़ात। बस इन्तज़ार करने लगा अपाइन्टमेण्ट की। वैसे आजकल डॉक्टर भी फ़ोन पर बात करते हैं या फिर वीडियो कॉल का सहारा ले रहे हैं। आमने सामने बैठ कर नब्ज़ देखने और स्टेथस्कोप से दिल की धड़कन सुनने और श्वास नली की आवाज़ सुनने के दिन हवा हुए। डॉक्टर और मरीज़ के रिश्ते भी दूर के रिश्ते बन चुके हैं।
इस बीच अपने मित्र डॉ. निखिल कौशिक और डॉ. अजय त्रिपाठी से बात हुई। दोनों नेत्र विशेषज्ञ हैं और सर्जन हैं। अजय फ़िलहाल युवा है। उसने अपने आपको हालात के साथ एडजस्ट कर लिया। मगर निखिल तो कंसलटेण्ट है और बहुत ही वरिष्ठ सर्जन है। उसका दुःख उसकी बातों से झलका।
“मैं एक आँखों का शल्य-चिकित्सक हूं और मेरा मुख्य काम है मरीज़ों के मोतियाबिन्द के ऑपरेशन। मुझे लगता है कि मेरे पास जो मरीज़ों की सूची है उसमें बहुत से लोगों के पास लंबा जीवन बाक़ी नहीं है, क्योंकि कुछ बहुत बूढ़े हैं और कुछ को बहुत सी अन्य बीमारियां हैं।”
“जब मेरे मरीज़ों के मोतियाबिन्द का सफल ऑपरेशन हो जाता है तो उनके जीवन में गुणात्मक बदलाव आ जाते हैं। वे पढ़ सकते हैं, टीवी देख सकते हैं और अपने नाते पोतियों के साथ खेल सकते हैं। जब वे सर्जरी के बाद अपना चेकअप करवाने आते हैं तो मुझे महसूस होता है कि मुझे मेरे काम का ईनाम मिल गया। मुझे आत्मिक संतोष मिलता है।”
सच तो यह है कि ब्रिटेन में हर सप्ताह मोतिया बिंद के क़रीब 7000 ऑपरेशन किये जाते हैं। यदि पूरे विश्व के आंकड़ों पर ध्यान दें तो यह संख्या क़रीब अढ़ाई लाख तक पहुंच जाती है।
निखिल कौशिक ने अपना अंतिम मोतियाबिन्द का ऑपरेशन 16 मार्च को किया था और 18 मार्च से यू.के. में लॉकडाऊन लागू कर दिया गया था था। सभी प्रकार की गतिविधियों (मेडिकल समेत) पर रोक लगा दी गयी थीं। और यही स्थिति वैश्विक स्तर पर भी है।
हाल ही में नेत्र विशेषज्ञों की एक ऑनलाइन कॉन्फ़्रेंस आयोजित की गयी जिस में सभी डॉक्टरों ने इस विषय पर चिंता जताई और अपने विचार प्रकट किये। संभावित ख़तरों को ध्यान में रखते हुए लगता नहीं कि मोतियाबिन्द के ऑपरेशनों को जल्दी से शुरू किया जा सकेगा।
समस्या यह भी है कि ऐसे बहुत से बुज़ुर्ग हैं जो मोतियाबिन्द के कारण ठीक से देख भी नहीं पाते और वे अपने घरों में अकेले तालाबन्द पड़े हैं। उनकी देखभाल करने वाला भी कोई नहीं है। विश्व के अन्य देश जहां सुविधाओं की कमी है, वहां तो स्थिति और भी चिंताजनक बनी हुई है। जैसै ही निखिल कौशिक और अजय त्रिपाठी जैसे नेत्र शल्य चिकित्सक काम पर वापिस आएंगे तो उनके सामने मोतियाबिन्द के केसों का अम्बार लगा होगा। आज जो लोग ख़ाली बैठने से परेशान हैं, कल वे आराम के एक एक पल को तरसेंगे।
मगर यही हालात डेण्टल सर्जन के भी हैं उनकी सर्जरी के बाहर भी ताला लगा है। आदमी दाँत के दर्द से मर जाए मगर कोरोना उसे हस्पताल की सीढ़ियां चढ़ने नहीं देगा। किसी ने एक बार कहा था कि “दान्त का दर्द बच्चा जनने के दर्द से कम नहीं होता!” मुझे दाँत के दर्द का अनुभव तो है। मगर बच्चा जनने के दर्द और दाँत के दर्द की तुलना तो कोई स्त्री ही कर सकती है। डेण्टल सर्जन भी बेकार बैठे हैं।
आज एक मनुष्य-निर्मित वायरस ने पूरे विश्व को घुटनों पर ला खड़ा किया है फिर भी उम्मीद करते हैं कि हमारे डेंटिस्ट, नेत्र विशेषज्ञ, कैंसर और हार्ट सर्जन एक दिन अपने अपने काम पर लौटेंगे और अपने अपने मरीज़ों के चेहरों पर चमकदार मुस्कान वापिस ले आएंगे।
तेजेन्द्र भाई, बहुत सही बिंदु पर उंगली रख दी है आपने। डॉक्टर्स भी बेबस हैं और मरीज तो हैं ही। यहां ऐसे बहुत से मरीज इलाज के अभाव में स्वर्ग चले गए, जिनको covid-19 नहीं था। अभी तक सब कुछ अनिश्चय में है।
वाह, कुछ आपबीती, कुछ जगबीती ; दोनों के सम्मिश्रण से सम्पादकीय “सही पकड़े हैं” के अन्दाज़ में बहुत रोचक बन पड़ा है। ऐसी घोर आपदा में से स्वास्थ्य-चिन्तन के माध्यम से हास-परिहास का पुट खोज लेना सम्पादक की लेखनी द्वारा मरहम का काम कर रहा है।
तेजेन्द्र भाई, बहुत सही बिंदु पर उंगली रख दी है आपने। डॉक्टर्स भी बेबस हैं और मरीज तो हैं ही। यहां ऐसे बहुत से मरीज इलाज के अभाव में स्वर्ग चले गए, जिनको covid-19 नहीं था। अभी तक सब कुछ अनिश्चय में है।
वाह! मान गएँ बंधु। हास्य-व्यंग्य से भरपूर बेहद मनोरंजक संपादकीय। बधाइयाँ ।
बहुत सटीक लेख
केयर होम्स में रह रहे लोगों की स्थिति और भी दयनीय है ! आशा है जल्द ही ये जंग ख़त्म होगी !
आमीन!अभूतपूर्व त्रासदी-बहुत ज़रूरी है आशा एवं धैर्य बनाये रखना।
वास्तविक चिंतन है।
वाह, कुछ आपबीती, कुछ जगबीती ; दोनों के सम्मिश्रण से सम्पादकीय “सही पकड़े हैं” के अन्दाज़ में बहुत रोचक बन पड़ा है। ऐसी घोर आपदा में से स्वास्थ्य-चिन्तन के माध्यम से हास-परिहास का पुट खोज लेना सम्पादक की लेखनी द्वारा मरहम का काम कर रहा है।