Friday, October 18, 2024
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डॉ. मीना राठौर की लघुकथा – हमसफ़र

आज  इस महंगाई के दौर में किसी  संस्था में अतिथि  के रूप में कार्य करना  घर  चलाने के लिए किसी भी रूप में उपयुक्त नहीं कहा जा सकता । लेकिन बढ़ती बेरोजगारी के साथ बड़ी तादाद में उच्च डिग्रियां प्राप्त करने के बाद भी  मनचाही नौकरी के अवसर तक  प्राप्त नहीं हो रहे थे। इस स्थिति में ‘भागते भूत की लंगोटी भली’ कहावत को चरितार्थ करते हुए मैंने उच्चतम योग्यता के साथ न्यूनतम तनख्वाह वाली नौकरी पर इस सोच के साथ काम करना जारी रखा कि कम से कम हर महीने एक निश्चित राशि अकाउंट में आ जाती है जिससे  घर खर्च के साथ सपनों को साकार करने का प्रयास भी जारी रखा जा सकता है ।
जीवन में कुछ कर गुजरने की चाह मन ही मन कुलबुलाती रहती । काश कुछ ऐसा हो की स्वयं को साबित करते हुए अपनी प्रतिभा का दोहन कर सकूं। इसी बीच बस मैं प्रतिदिन  के अप डाउन के दौरान पता चला की शहर में  एक दो  प्राइवेट कोचिंग संस्थान आने वाली परीक्षाओं को ध्यान में रखते हुए कंपटीशन की अच्छी तैयारी करवा रहे हैं ।
बस क्या था; शाम को बस से उतरते ही मैं सीधे एक संस्थान में पहुंची और उन से निवेदन किया कि  मैं नौकरी पेशा हूं, इसलिए पूरे दिन क्लास अटेंड नहीं कर सकती; लेकिन  सुबह एवं शाम दोनों समय अपनी तैयारी हेतु संस्था में आने की इच्छुक हूं। मेरी लगन और दृढ़ इच्छाशक्ति देख उन्होंने हां कर दी,बस फिर क्या था मैं उस ग्रुप की एक सदस्य के रूप में  निश्चित समय पर पहुंचने लगी। चूंकि पीएससी का नोटिफिकेशन जारी हो चुका था इसलिए सभी जी तोड़ मेहनत कर रहे थे, और मैं अपनी नौकरी के साथ अपने भविष्य को सवारने का हर संभव प्रयास कर रही थी।
ऐसी ही एक सुबह रोज की तरह नौकरी पर जाने के लिए अप डाउन हेतु मैंने बस मैं चढ़कर सीट पर अपना बैग रखा और नीचे उतर कर अपनी स्कूटी को एक निश्चित स्थान पर रखने के लिए आगे बढ़ गई ; जहां पर स्कूटी को सुरक्षित रखने के बाद मैं बस में चढ़कर अपने गंतव्य पर पहुंचती थी। लेकिन उस दिन पता नहीं दिलो-दिमाग में क्या चल रहा था कि स्कूटी को नियत स्थान पर रखकर जब मैं मुख्य सड़क तक पहुंची तो रोज की तरह  बस का कहीं अता पता नहीं था ।
थोड़े इंतजार के बाद मुझे लगने लगा कि आज बस निकल चुकी है ;और मैं उसे देख नहीं पाई। बस छूटने की घबराहट से मैं पसीना पसीना हो रही थी क्योंकि दूसरी बस अब काफी समय बाद ही  थी, और मेरा बस स्टैंड तक जाकर भी सही समय पर ड्यूटी पर  पहुंच पाना संभव नहीं था। अचानक मेरी नजर कुछ दूरी पर बाइक स्टार्ट करते हुए व्यक्ति पर जाकर रुक गई, मैंने देखा अरे यह तो वही है जिसके साथ  में प्रतिदिन दोनों समय ग्रुप में तैयारी करती हूं; बस फिर क्या था तुरंत मैंने आवाज लगाई और वह भी मेरी आवाज सुनते ही नजदीक आकर रुक गया।
मैंने सीधे सपाट शब्दों में कहा – मेरी बस छूट गई है.. क्या मुझे अपनी बाइक पर लिफ्ट देकर बस तक पहुंचा सकते हो? उसके हां कहते ही मैं  तुरंत बाइक पर  पीछे बैठ बस मिल जाने की प्रार्थना करने लगी,क्योंकि मेरा पर्स बस की सीट पर था और सारे पैसे भी उसी में थे। लेकिन काफी दूर पीछा करने के बाद भी बस का कहीं अता पता नहीं था। मैंने निराश होकर कहा ठीक है  मुझे बस स्टैंड तक छोड़ दो मैं दूसरी  बस से चली जाऊंगी।
बाइक वापस बस स्टैंड की तरफ दौड़ने लगी, लेकिन यह क्या बाइक से उतर कर मुझे खयाल आया कि पर्स तो बस की सीट पर ही छूट गया है।  वह मेरी स्थिति को भाप कर कुछ कहे, इससे पहले मैंने तुरंत एक और निवेदन कर दिया – मुझे सौ रुपये  दो कल लौटा दूंगी। उसने तुरंत अपनी जेब से सौ रुपये  निकाल मुझे दिए और वहां से वापस लौट गया। लेकिन क्या पता था लिफ्ट मांगने तक का यह सफर मुझे मेरे हमसफ़र तक पहुंचा देगा । आज हम दोनों अच्छे पदों पर नियुक्त हैं; जीवन भर एक ही गाड़ी मैं सफर करने की प्रतिबद्धता के साथ । एक सफर अपने हमसफर के लिए ।
डॉ. मीना राठौड़
डॉ. मीना राठौड़
सहायक प्राध्यापक, हिंदी. संपर्क - [email protected]
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