Sunday, October 27, 2024
होमफ़िल्म समीक्षादि कश्मीर फ़ाइल्स - फ़िल्म समीक्षा (एक साहित्यकार द्वारा)

दि कश्मीर फ़ाइल्स – फ़िल्म समीक्षा (एक साहित्यकार द्वारा)

विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्मित एव निर्देशित फ़िल्म दी कश्मीर फ़ाइल्स पर हमे लखनऊ से प्रतिष्ठित युवा उपन्यासकार बालेन्दु द्विवेदी की लिखी समीक्षा प्राप्त हुई है। बालेन्दु के दो उपन्यास ‘मदारीपुर जंक्शन’ और ‘फुरस्तगंज’ पाठकों और आलोचकों में बहुत लोकप्रिय हुए हैं।  आमतौर पर पुरवाई में सामग्री रविवार सुबह अपलोड होती है। मगर हमने एक पोस्ट के ज़रिये अपने पाठकों से आग्रह किया था कि यदि आपने फ़िल्म सिनेमा हॉल में देखी है तो उस पर अपनी समीक्षा लिख कर भेजिये। हम दि कश्मीर फ़ाइल्स पर प्राप्त होने वाली समीक्षाएं प्रतिदिन अपलोड किया करेंगे। पाठकों से निवेदन है कि पुरवाई के ईमेल [email protected] पर अपनी समीक्षा भेजें।


  • बालेन्दु द्विवेदी
कश्मीर फाइल्स सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के निरंतर नपुंसक बनने और बौद्धिक वर्ग के क्रीतदास बनते जाने का अनिवार्य दुष्परिणाम है। नपुंसकता ही ऐसी वैसी नहीं – जघन्य नपुंसकता जिसमें एक दिन में ही लगभग चार हजार लोगों का कत्लए-आम किया गया और दस लाख से अधिक अपने घरों को छोड़कर अपने ही देश में शरणार्थी बन गए।
कल ‘ कश्मीर फाइल्स’ देखी। इसे देखना एक यातना से गुजरना है। असल में यह केवल एक फिल्म नहीं है बल्कि एक मुकम्मल सच्चाई है जिस पर आज भी बहुतेरे बुद्धिजीवी कुछ कहने या चर्चा करने से बचते हैं। शायद इसलिए कि इससे उनकी बौद्धिकता पर सवालिया निशान लग जाएगा। उन्हें ‘साम्प्रदायिक’ कहकर उनका उपहास उड़ाया जाएगा। शायद ‘सेक्युलर बुद्धिजीवी’ बने रहने के लिए यह जरूरी है कि उनके द्वारा इस पर चुप्पी साधे रखी जाए।
इतिहास गवाह है कि जब जब बुद्धिजीवियों ने एक खास वर्ग के समर्थन में चुप्पी साधे रखी या सच कहने या सच सुनने के पहले अपनी जुबान बंद कर लिए या आंखों पर हथेलियां रख लीं,तब- तब इसके परिणाम भयानक ही हुए हैं। यहां मुक्तिबोध याद आते हैं:
“सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिंतक, शिल्पकार और नर्तक चुप हैं
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे,
प्रश्न-सी उथली सी पहचान
भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गए
समाचार-पत्रों के पतियों के मुख स्थूल
गढ़े जाते संवाद,
गढ़ी जाती समीक्षा,
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर शूल
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास।”
कश्मीर फाइल्स सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के निरंतर नपुंसक बनने और बौद्धिक वर्ग के क्रीतदास बनते जाने का अनिवार्य दुष्परिणाम है। नपुंसकता ही ऐसी वैसी नहीं – जघन्य नपुंसकता जिसमें एक दिन में ही लगभग चार हजार लोगों का कत्ल-ए-आम किया गया और दस लाख से अधिक अपने घरों को छोड़कर अपने ही देश में शरणार्थी बन गए।
इसके लिए सत्ता की नपुंसकता शब्द का प्रयोग भी बहुत छोटा शब्द है। असल में इसे किसी एक शब्द में परिभाषित ही नहीं किया जा सकता। जब सत्ता में बैठे हुए हुक्मरान एक खास वर्ग के वोट बैंक को ध्यान में रखकर उनके धुर तुष्टिकरण पर उतर आएं और ऐसे नाजुक क्षणों में केवल अपने वोट बैंक की चिंता करने लगें तो यह केवल कोरी नपुंसकता नहीं, कोरा हिजड़ापन नहीं;एक प्रकार से अपनी आत्मसम्मान का सर्वस्व समर्पण है जिसके कारण यह देश हजारों-हजार साल तक गुलाम बनता रहता आया है। अन्यथा ऐसा कैसे संभव होता कि अपने ही देश में,एक लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार के शासन काल में एक घोषित तिथि को पाकिस्तान-परस्त मानसिकता के लोगों द्वारा बंदूकों की नोंक पर कश्मीरी पंडितों को उनके ही घरों से मार कर भगा दिया जाय, उनकी सामूहिक हत्याएं की जाएं,उनकी बहू बेटियों के साथ बलात्कार हों और सभी मूक-दर्शक बने बैठे रहें, किसी के कान पर जूं तक न रेंगे..!!
कश्मीर फाइल्स दरअसल एक भुला दिए गए नरसंहार को दोबारा हमारे मानस पटल पर उकेरने की शिष्ट कोशिश है। शिष्ट इसलिए कि अपने नैरेशन में यह फिल्म कहीं से भी लाउड नहीं होती; कहीं से भी किसी एक पक्ष के साथ या उसके विरोध में खड़ा होने की कोशिश नहीं करती;केवल अपनी बात कहती जाती है और विगत तीन दशकों में कश्मीर में अत्याचार की गढ़ी गई ‘ नई कहानी’ को बड़ी बारीकी से बेपरदा करती है। कश्मीर का पूरा सच न जानने वाले लोग कैसे बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटीज में आजादी के नाम पर आंदोलन चलाते हैं और कश्मीरी पंडितों की गुलामी पर एक शब्द भी नहीं बोलते,यह फिल्म उनकी भी खबर लेती है। लेकिन इस शिष्ट कोशिश में भी कश्मीर फाइल्स हमारे ज़ख्मों को हरा और बहुत गहरा कर जाती है।
इसके दृश्यों को देखकर कई बार अनायास ही ‘शिंडलर्स लिस्ट’ की याद आती है। बदन सिहर उठता है और देखते समय लगता है कि जो कुछ घट रहा है वह हमारे साथ ही घट रहा है। मसलन,अपने दो छोटे बच्चों और ससुर के प्राणों की रक्षा के लिए एक स्त्री का अपने पति की हत्या के बाद उसके खून से सने चावल को होठों पर रगड़ना – एक स्त्री के लिए इससे बड़ी यातना और क्या होगी भला..!! फिर बच जाने पर दोबारा उसे अपने छोटे बेटे और ससुर सहित ढेर सारे शरणार्थियों के सामने नंगा करके आरा मशीन के नीचे डालकर उसके शरीर के दो टुकड़े कर देना – यह केवल कहानी नहीं है; हकीकत है जिसे देखने-जानने और सुनने के लिए एक धड़कता हुआ संवेदनशील हृदय चाहिए जो दूसरों के दर्द को अपना दर्द समझ सके, जो उसकी पीड़ा को उसके स्तर पर जाकर महसूस कर सके और उसके साथ या उसके पक्ष में खड़ा हो सके। दुर्भाग्य से हममें से अधिकांश इस सच्चाई से सदैव मुंह मोड़ते आए हैं क्योंकि हम बेतरह डरते हैं कि कहीं ऐसा न हो कि इसे देखकर हमारा जमीर जाग जाए, हमें हमारे निकम्मेपन का एहसास हो जाए; कहीं ऐसा न हो कि हमारे रगों में बहने वाला रक्त हमें विद्रोह करने के लिए उकसाने लगे..!! इसलिए मूढ़ बने रहने में ही भलाई है; तटस्थ बने रहना ही श्रेयस्कर है। लेकिन ऐसे तमाम तटस्थों के लिए दिनकर याद आते हैं कि:
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध।
जो सत्याग्रह के असफल होने पर आतंकवाद के जन्म लेने की कहानी की वकालत करते हैं और दुनिया के तमाम देशों से अनेक उदाहरण देते चलते हैं उन्हें यह जान लेना चाहिए कि अपने साथ लाख अन्याय होने के बावजूद कश्मीरी पंडितों ने कभी हथियार नहीं उठाए। इसी फिल्म का एक सीन है जब एक आंख का डाक्टर,अनुपम खेर से अपने चश्मे में महंगा वाला लेंस लगवाने कहता है तो अनुपम जवाब देते हैं ‘…पोते की पढ़ाई जरूरी है..!’ और यह दुहराते हुए वे कैंप से बाहर निकल जाते हैं । यह छोटा सा सीन बहुत कुछ कहता है। यह एक प्रकार से कश्मीरी पंडितों की मानसिकता का आख्यान है कि ‘ आतंक का प्रत्युत्तर केवल आतंक नहीं, शिक्षा भी है।’
आज जो ‘ कश्मीर हमारा है ‘ का नारा लगाते नहीं थकते उन्हें जान लेना चाहिए कि कश्मीर कभी बुद्धिजीवियों का सबसे प्रिय स्थान हुआ करता था। आदिकाल से ही यह भूमि शंकराचार्य से लेकर दुनिया के न जाने कितने विद्वानों के लिए यह हमेशा से आकर्षण का केंद्र रही है। आज यह कश्मीर संकट में है,कराह रही है,अपने मुक्ति का आवाहन कर रही है और प्रतीक्षा कर रही है कि फिर से कोई उसे स्वर्ग बना जाए – उसे उसका स्वर्णिम अतीत लौटा दे। कश्मीर फिर से दुनिया को ज्ञान और अध्यात्म का संदेश देना चाहती है। कश्मीर फाइल्स इस आह्वान का आगाज़ है।
बालेन्दु द्विवेदी, लखनऊ
मोबाइलः +91 96482 08888
RELATED ARTICLES

1 टिप्पणी

  1. अच्छी टिप्पणी है बालेंदु द्विवेदी की ! मैं कल शाम ही पत्नी के साथ सिनेमा हॉल में था। वे फिल्म के कई दृश्यों को देखकर इतना दहल गई थीं कि मुश्किल से ही अंत तक देख पाईं। फिल्म थोड़ी लंबी हो गई है और बीच-बीच में थोड़ी धीमी भी। सबसे अधिक बेनकाब होता है जेएनयू जिसे इस देश ने ही कथित उच्च शिक्षा के नाम पर पनपाया है। प्रांत और केंद्र सरकार की अतिनपुंसकता हैरान ही नहीं, परेशान भी करती है। क्या ही अच्छा हो कि इस फिल्म के बाद एक उच्च स्तरीय जांच समिति बने और उस समय के दोषी और ज़िम्मेदार लोगों को चुन-चुनकर सजा दिलाई जाय। आख़िर इतने‌ लोगों की जान लेने वालों को बख़्शा‌ ही क्यों जाय? फ़िल्म लगातार विश्वास खोते देशी-विदेशी मीडिया और कथित बुद्धिजीवियों‌ को और भी अविश्वसनीय बनाती है। कुल मिलाकर इस फिल्म को देखे बिना उस दौर के रक्तरंजित कश्मीर और कश्मीरी पंडितों की मर्मांतक व्यथा को नहीं समझा जा सकता !

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Most Popular

Latest