Friday, October 18, 2024
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बिमल सहगल का लेख – ऊपर की कमाई

दुनिया के अनेक देशों में समय-समय पर बड़े सरकारी ठेकों में रिश्वत के लेन-देन को लेकर आरोप–प्रतिरोप लगते ही रहते हैं। कई देशों में तो ऐसे आरोपों के फलस्वरूप सरकारें बदलती रही हैं और कई बार तो शीर्ष नेतृत्व को भी पद छोड़ना या जेल तक जाना पड़ा है। हमारे देश में भी सरकारी ख़रीदारी या बेचने के कई मामलों, जैसे बोफोर्स तोपें, 2G स्पेक्टृम, कोयला घोटाला, राफेल विमान की खरीद इत्यादि विवादों नें लगातार सुर्खियां बटोरी हैं और विपक्षी दलों नें ऐसे मामलों को खूब भुनाया है।
यह सब चर्चायें एक ख़ास तथ्य की याद दिलाती हैं कि, रिश्वत देने और स्वीकार करने की प्रथा कोई हाल ही की उत्पत्ति नहीं, बल्कि सामाजिक व्यवस्था में गहराई से अंतर्निहित है। हमारे सामाजिक आचरण में इसे लंबे समय से जीवन की एक शैली के रूप में स्वीकार किया गया है। आपने अकबर-बीरबल रोचक प्रसंग तो सुना होगा जिसमें बीरबल के समझाने पर अकबर एक भ्रष्ट चुंगी अधिकारी को ऐसी जगह स्थांतरित करने की सोचता है जहाँ वह रिश्वत न ले पाये। उसे शाही अस्तबल की देख-रेख के लिए नियुक्त किया जाता है पर जल्द ही वह वहाँ घोड़ों की लीद तौलना शुरू कर देता है; यह जाँचने-परखने केलिए कि साईस घोड़ों को उचित शाही खुराक़ खिला रहें है या नहीं। यह जांच जल्द ही रिश्वत की मांग से जुड़ जाती है। उस व्यक्ति को वहाँ से हटा नदी की लहरें गिनने जैसा नीरस काम सौंप दिया जाता है। इसमें भ्रष्टाचार की कोई गुंजाइश ही नहीं दिखती, पर यह महाशय व्यापारी नावों को नदी के बीचों-बीच रोकने लगे, ताकि उनके सरकारी काम में कोई रुकावट न आए। इसके चलते माल से लदी कोई नाव तभी किनारे लगती अगर उसका कुछ भार उनके आँगन में भी हल्का किया जाता। आप सब बख़ूबी जानते हैं कि यह कहावत भी तो चरितार्थ है, “रिश्वत लेते पकड़े गए और रिश्वत दे के छूटे”, यानी अगर कोई रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाता है, तो कोई चिंता नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वह रिश्वत देकर मुक्त भी हो सकता है।
हमारे समाज में धरात्मक स्तर पर भी काम शुरू करने के लिए दूसरों की हथेलियों को चिकना करना, जैसे कि अपनी पत्नी को भी नियमित रूप से कोई मनुहारी पोशाक, महँगे आभूषण का उपहार और बाहर घूमने जाने के सुझाव के साथ या शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व ही खरीदने के लिए, बाहर भोजन करने के प्रस्ताव के रूप रिश्वत देनी पड़ती है; इसी तरह किसी विद्रोही कनिष्ठ कर्मचारी से काम लेने के लिए, उसे भी इसी तरह ख़ुश रखना होगा।
घूस हमारी आधिकारिकता का हिस्सा है और इसे पारंपरिक रूप से ऊपर की कमाई या टॉप-अप आय कहा जाता है। मेरे पिता जी आज-कल की खुल्लम-खुल्ला लूट पर दुःख जताते हुये, अक्सर अपने और अपने लाला जी ( पिता ) के इस दिलचस्प विषय के संस्मरण ले बैठते थे कि, उन दिनों कैसे ऊपर की कमाई को किसी स्टेटस सिम्बल की तरह देखा जाता था। क्योंकि सिर्फ ऊँची कुर्सियों पर बैठे सरकारी अधिकारी ही आमतौर पर इस सेवा के हक़दार होते थे।
उन दिनों सरकारी नौकरी को सुरक्षित जीवन यापन की गारंटी माना जाता था; चाहे लड़का चपरासी ही क्यों न हो। शादी की बातचीत के दौरान नौकरी की सुरक्षा के अलावा अक्सर दुल्हन पक्ष के मन में यह सवाल आता कि क्या लड़के के पास कोई उपर की कमाई का जुगाड़ भी है? जब 1944 में मेरे पिता की सगाई हुई थी तो मेरा ननिहाल इस बात से संतुष्ट था कि, लड़का पटवारी यानि भू-राजस्व अधिकारी है। उन दिनों पटवारियों की ऊपरी कमाई अच्छी–खासी हुआ करती थी। पटवारी को फसल की उपज के लिए एक फसल या कोई अन्य श्रद्धा का भुगतान करने की प्रथा थी, जो कि चालीस के दशक के मध्य में, एक खेत में प्रति फसल पांच रुपये था जो एक बड़ी राशि हुआ करती थी।
खेत से डाली या फलों और सब्जियों की टोकरियाँ नज़राना या उपहार के रूप में कार्यकारी अभियंता और अन्य राजस्व अधिकारियों को भेजी जाती थीं। चूँकि वरिष्ठ अधिकारी सीधे पहुंच में नहीं थे, इसलिए उनके लिए सूट का कपड़ा आदि उपहार उनकी पत्नियों को एहसान मांगने वालों द्वारा दिए जाते थे। हालाँकि, मेरे पिता को यह भ्रष्टाचार भरी टेढ़ी नौकरी पसंद नहीं आई और उन्होंने जल्द ही दूसरी सरकारी नौकरी लेने के लिए इस्तीफा दे दिया। ऊपर की कमाई का उन दिनों कितना महत्व था, इस बात से पता लगता है कि जब यह ख़बर उनके होने वाले ससुराल में पहुंची, तो मेरे नाना ने आह भरी और जोर से विलाप किया कि उनकी बेटी तो भूख से मर जाएगी।

हालांकि हमारे वक़्त में भी सरकारी नौकरी के बेहतर होने की धारणा प्रचलित थी। मैंने भी ऐसी टेढ़ी नौकरी को जल्द ही छोड़ने का फैसला लिया; जब 1979 के शुरू में, सीमा शुल्क व केन्द्रीय उत्पाद शुल्क अधिकारी के पद पर नियुक्त हो, लंबी ट्रेनिंग के बाद, मैं मुंबई (उन दिनों बोम्बे) की, पश्चिमी अंधेरी डिवीज़न में कार्यभार लेने पहुंचा। जहां मैं अपने कार्यक्षेत्र की समस्याओं और चुनौतियों के बारे में जानने को उत्सुक था। मेरे अधीक्षक नें मुझे मेरे अधीन कारखानों की फेहरिस्त पकड़ा सिर्फ़ यह बताया कि “कौन कितना देता है”। उस रेट लिस्ट का मुद्रा विस्तार जान के आप हँसेंगे कि वह 30 रुपये से शुरू हो 75 रुपये तक ही सिमट जाती थी, चाहे ये उन दिनों की महंगाई अनुसार इतने कम भी नहीं रहे होंगे। बेशक ये सारी शाही राशि, उन कारखानों के लेखे-जोखे में विशेष प्रबंध तक ही सीमित रह गयी।

इस प्रसंग से संबन्धित एक और विशेष घटना का यहाँ उल्लेख भी पाठकों के लिए दिलचस्प होगा। मेरे ही डिवीज़न के असिस्टेंट कलेक्टर उन दिनों रिटाइर हो रहे थे। उनके पास केन्द्रीय उत्पाद शुल्क की चोरी व बकाया संबन्धित मामलों के निवारण का अधिकार भी था। जब वह सेवा के अपने अंतिम माह में सभी मामलों को रिश्वत ले कर फटा-फट सुलझाने लगे तो रिटायरमेंट के दो दिन पहले ही विभाग ने उन्हें रंगे हाथ पकड़ लिया और निलंबित कर दिया। साफ़ है कि ऊपर की कमाई में भी इतना ऊंचा हाथ मारने वाला कभी-कभी अपनी हक़ की कमाई से भी वंचित हो जाता है।
वापिस उस पुराने दौर में लौटें तो पिता अपने और लाला जी के अदालत की नौकरी के 80-90 साल पुराने किस्सों के बारे में बताते थे कि, अदालतों में उन दिनों जब कोई वादी अपने मामले का आवेदन दाखिल करता तो उसे रीडर द्वारा बिना देखे-पढ़े जमीन पर फेंक दिया जाता था। ये देख कर जब आवेदक निराश हो जाता, चपरासी उसे एक तरफ ले जाता और सलाह देता कि आवेदन पर कुछ भार डाले ताकि उसकी अर्ज़ी सरकारी फाइलों में ठीक से लंगर डाल सके। दस रूपए के बड़े से नोट का वजन उन दिनों के हिसाब से काफी होता था। जिसमें बंटाई के अनुपात से चार रुपये रीडर के हिस्से के, तीन अहलमद के लिए, दो नायब कोर्ट के लिए और एक चपरासी के लिए जाता था ।
आज के ट्रैफिक हवलदार जो महंगी घड़ियाँ पहनते हैं, हाई-एंड स्मार्ट फ़ोन रखते हैं, सीमित वेतन के बावजूद घर में महंगी गाड़ी रखते हैं, शहर के मार्गों पर अपनी बसें चलाते हैं, अधिकतर वाणिज्यिक वाहकों से पूर्ण सार्वजनिक दृश्य में जबरन वसूली के लिए जाने जाते हैं। इस खुल्लम-खुल्ला लूट के विपरीत, इन सभी सड़क-संचालन की प्रथाओं का उन दिनों भी प्रचलन था; पर उनके काम करने के तरीकों को बड़े गुप्त रूप से लागू किया जाता था और उनकी मांगे भी तर्कसंगत रहती थीं।
दिल्ली के कश्मीरी गेट इलाके में वसूली चार आने प्रति ट्रक की दर से तय थी। ऐसी ऊपर की कमाई को सड़क किनारे बैठे एक जूता पॉलिश करने वाले लड़के के माध्यम से वसूला जाता था। जैसे ही वह शुल्क स्वीकार करता वह अपने गुप्त तरीके से क्रॉसिंग पर आगे बैठे ट्रैफिक कांस्टेबल को ट्रक के लिए गेट-पास देने का संकेत दे देता।
इस प्रकार ऊपर की कमाई वह है जो अपने आप, आपके पास आती है और यह रिश्वत से कुछ अलग है जिस केलिए सौदे-बाजी करने की आवश्यकता नहीं होती है। जैसा कि ब्याज से एक साहूकार को आय मूल राशि की तुलना में अधिक प्रिय है। जिन लोगों को ऊपर की कमाई का विशेषाधिकार प्राप्त है, उनके लिए यह मासिक वेतन से कहीं अधिक प्रतिष्ठित और प्रिय है और कार्यालय में उनके लिए यही एक मुख्य प्रेरक अभियान है।
उत्तर-पूर्व के एक पिछड़े राज्य के एक नवनिर्वाचित युवा विधायक ने, जिसे मैं ग्रैंड तुर्क में कॉमनवेल्थ पार्लियामेंट्री एसोसिएशन की बैठक के दौरान मिला था, विश्वास के साथ मुझे बताया कि उसके निर्वाचन क्षेत्र में दिए गए किसी भी पी डब्ल्यू डी अनुबंध के लिए 15% कटौती स्वचालित रूप से उसे भेजी जा रही है; और इसी तरह अन्य लोगों के भी ऐसे पारंपरिक फिक्स्ड शेयर रहते हैं। ऐसी खुली स्वीकारोक्ति, मेरे लिए कोई आश्चर्य था तो सिर्फ़ इतना कि, यह कैसे कच्चे राजनीतिज्ञ हैं जो हमारी कुटिल राजनीतिक प्रणाली की इस विडम्बना को खुले रूप से स्वीकार रहे हैं?
सर्व-विदित है कि हर जगह वरिष्ठ पुलिस अधिकारी अपने प्रभार के तहत पुलिस लाइन में ‘हफ्ता’ संग्रह से स्वचालित रूप से अपना हिस्सा प्राप्त करते हैं, जिस तरह से होटलों में युक्तियों को जमा किया जाता है और सभी पात्र कर्मचारियों के बीच वितरित किया जाता है। नगर निगम के कर्मचारियों के पास दुकानदारों और विक्रेताओं से हफ़्ता-वसूली भी ऊपर की कमाई है, जिन्हें बदले में फुटपाथ और सरकारी भूमि पर अतिक्रमण करने की अनुमति रहती है। निजी स्कूल चलाने वाले बे-हिसाब कैपिटेशन फीस के जरिए ऊपर की मोटी कमाई करते हैं। सरकारी कार्यालयों में ओवरटाइम भत्ता और अन्य कार्यालयों की यात्रा के लिए परिवहन शुल्क ऐसे भत्ते हैं जो क्लर्कों, निजी सहायकों और मंत्रियों और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों से जुड़े चपरासी बिना ओवरटाइम बैठे या बिना सीट से हिले ही दिनचर्या स्वरूप हासिल कर लेते हैं।
कुछ साल पहले जब मुझे दिल्ली के समीप एक विकास प्राधिकरण से खरीदी गये भूखंड को पंजीकृत करना था, तो कार्यालय लिपिक स्वेच्छा से मेरे साथ प्रक्रिया पूरी करवाने केलिए चल पड़ा। उसने मुझसे दस अलग-अलग जगहों पर कार्यालय सहायकों को भुगतान करवाया, जो कि बिना किसी सवाल के भूखंड के साइज़ और स्थान अनुरूप प्रथागत निश्चित राशि वसूल करने के बाद कागज़ों पर अपना अनुमोदन देने में महारथ प्राप्त थे। मुझ जैसे यजमानों से दक्षिणा पाना इन सरकारी पंडितों का अविवाद्य अधिकार बनता है; ताकि इस नामकरण प्रक्रिया में कहीं कोई अवरोध न आ जाए। कहना जरूरी नहीं कि इस सारी दान-प्रक्रिया में उन परोपकारी सज्जन का सुविधा शुल्क शामिल नहीं था और प्रत्यक्ष रूप से वह सेवा शुल्क मेरे अंदाज़ से कहीं अधिक ही निकला।
कोई आश्चर्य नहीं, कुछ साल पहले समाचार पत्रों में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में नौकरियों के लिए आवेदकों द्वारा वित्त राज्यमंत्री से मुलाक़ात के दौरान उन्हें बेबाक़ बताया कि, उनकी प्राथमिकता किन्हीं प्रतिष्ठित बैंकों के बजाय ग्रामीण क्षेत्रों में संचालित बैंकों, विशेषतया महिला बैंक, के लिए होगी, क्योंकि वहाँ काम कम और उपर की कमाई ज़्यादा रहती है। अब ऐसे मामलों में झिझक-शर्म भी कैसी? क्योंकि रिश्वत या घूस का भी समाज में अपना एक विशेष स्थान है और इसे शब्दों की संभ्रांत बिरादरी में शुक्राना, नज़राना, उपहार, न्योछावर, बख्शीश, कमिशन और सुविधा शुल्क या फ़ैसिलिटेशन-फी जैसे इज्ज़तदार नामों से ही जाना जाता है; जिन्हें पाने वाला अपने फले-फूले फाइनेंशियल स्टेटस के अनुसार, सामाजिक रुतबे में भी कहीं ऊपर उठ जाता है।
बिमल सहगल
बिमल सहगल
नवंबर 1954 में दिल्ली में जन्मे बिमल सहगल, आई एफ एस (सेवानिवृत्त) ने दिल्ली विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। अंग्रेजी साहित्य में ऑनर्स के साथ स्नातक होने के बाद, वह विदेश मंत्रालय में मुख्यालय और विदेशों में स्तिथ विभिन्न भारतीय राजदूतवासों में एक राजनयिक के रूप में सेवा करने के लिए शामिल हो गए। ओमान में भारत के उप राजदूत के रूप में सेवानिवृत्त होने के बाद, उन्होंने जुलाई, 2021 तक विदेश मंत्रालय को परामर्श सेवाएं प्रदान करना जारी रखा। कॉलेज के दिनों से ही लेखन के प्रति रुझान होने से, उन्होंने 1973-74 में छात्र संवाददाता के रूप में दिल्ली प्रेस ग्रुप ऑफ पब्लिकेशन्स में शामिल होकर ‘मुक्ता’ नामक पत्रिका में 'विश्वविद्यालयों के प्रांगण से' कॉलम के लिए रिपोर्टिंग की। अखबारों और पत्रिकाओं के साथ लगभग 50 वर्षों के जुड़ाव के साथ, उन्होंने भारत और विदेशों में प्रमुख प्रकाशन गृहों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और भारत व विदेशों में उनकी सैकड़ों रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। अंत में, 2014-17 के दौरान ओमान ऑब्जर्वर अखबार के लिए एक साप्ताहिक कॉलम लिखा। संपर्क - [email protected]
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2 टिप्पणी

  1. आपका लेख पढ़ा विमल जी। आपने भ्रष्टाचार की परतें ही उधेड़ के रख दीं। रिश्वतखोरी का सिलसिलेवार पर्दाफाश किया। यह तो आजकल इतनी आम हो गई है कि लोगों को इस संबंध में बोलने में शर्म भी नहीं आती। लेने वाला तो खैर मोटी चमड़ी का बेशर्म रहता है पर देने वाले को भी लगता है कि दे लेकर काम जल्दी करवा लिया जाए।
    कुछ जो ईमानदार होते हैं उन्हें अपनी ईमानदारी का ही खामियाजा भुगतना पड़ता है।
    काफी पहले यहाँ एक एस पी थे ।उन्होंने अपने हाथ में गुदवा रखा था पन्नालाल चमार। बेहद ईमानदार और क्या मजाल कि किसी से डर जाएँ। चाहे फिर वह कितना ही बड़ा अधिकारी या नेता ही क्यों ना हो। बहुत ही सच्चा लेख लिखा आपने ।आज की वास्तविकता से साक्षात्कार करवाया।
    बेहतरीन लिखने के लिए बधाइयाँआपको।

  2. नीलिमा जी, आपके प्रोत्साहन के लिए साधुवाद! सदियों से रिश्वत हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग रही है, यह मर्ज भी है, इलाज भी. लेने, देने वाले दोनों ही खुश.

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