Sunday, September 8, 2024
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दीपक शर्मा का लेख – जासूसी उपन्यास दोबारा क्यों नहीं पढ़े जाते?

मृत्यु एक ऐसा रहस्य है जिसे कोई तत्त्वज्ञान, कोई पुराणविद्या, कोई मिथकशास्त्र, कोई विज्ञान पूर्ण रूप से समझ नहीं पाया।
शायद इसी कारण यह चिरकाल से रूचि का विषय रहा है।
                  अपराधलेखन की महारानी मानी जाने वाली पी.डी. जेम्ज़ (1920-2014) स्वीकार करती थीं कि मृत्यु में उनकी रूचि बहुत छोटी उम्र ही से रही थी और जब उन्होंने बचपन में हम्पटीडम्पटी वाला नर्सरी गीत सुना:
हम्पटीडम्पटी सैट औन अवौल,
एन्ड हैड ग्रेट फौल।
औल किन्गज़’ हौर्सिस एन्ड
औल किन्गज़ मेन
कुडन्ट पुट हम्पटी टुगेदर अगेन।’
(हम्पटीडम्पटी एक दीवार पर बैठा था और दीवार से नीचे गिर गया।
और राजा के घोड़े और राजा के दरबारी सभी उसे वापिस लाने में असफल रहे) तो तत्क्षण उन के दिमाग में प्रश्न कौंधा था:  
हम्पटीडम्पटी गिरा था ? या उसे गिराया गया था ?
                 जासूसी उपन्यासों की सब से बड़ी विशेषता श्रेष्ठता यही है कि मृत्यु वहां हत्या के रूप में आती है और मृत्यु का बोध सरक कर हत्यारे की पहचान में आन निहित होता है।
                 अच्छेबुरे के प्रथागत विवेक के साथ शुरू हुआ निर्णायक रूप से हत्यारे को दंड दिलाने पर खत्म हुआ प्रत्येक जासूसी उपन्यास एक ओर जहां पाठक की न्यायपरायणता को संतुष्ट करता है, वहीं दूसरी ओर हत्या की गुत्थी को नीर्तिसंगत निष्कर्ष के साथ परिणाम तक पहुंचा कर उसकी जिज्ञासा को भी शान्त करता है।
               युक्तियुक्त तर्कअनुमिति के संग।             
               विचारणा के साथ।
जासूसी लेखक रेमण्ड शैण्डलर के अनुसार जासूसी उपन्यास एक दुखान्त को सुखान्त में बदल देने वाली कृति है।    
                यह एक सीमा तक सच भी है। लगभग प्रत्येक जासूूसी उपन्यास में पहले जिस हत्या का हम सामना करते हैं बाद में उसी के साथ हो लेने के अपराध से स्वयं को मुक्त भी कर लेते हैं। मृत्यु की उपस्थिति से दूर जा कर।
                कुछ पक्षधर तो यह भी मानते हैं कि जासूसी कथासाहित्य हमारे अवचेतन मन के अपराधभाव सम्भाव्य खटकों के भय को छितरा देने में हमारे काम आता है।
               तीन संघटक लिए प्रत्येक जासूसी उपन्यास एक हत्या, उसकी छानबीन उसका समाधान पाठक के सामने रखता है और प्रत्येक पृष्ठ पर एक ही प्रश्नहत्यारा कौन?छोड़ता चला जाता है और उसका उत्तर अंतिम पृष्ठ पर जा कर ही देता है।
                  सच पूछें तो पूरा किस्सा ही पाठक को ध्यान में रख कर गढ़ा जाता है।
                 उसे रिझानेबहलाने के लिए।
                 बहकानेखिझाने के लिए।
                 आशंका उल्लास के बीच डूबनेउतराने के लिए।
धीमी गति से चल रही नीरस घटनाविहीन उस की दिनचर्य्या से उसे बाहर निकाल कर उसे कागज़ीहायस्पीड, थ्रिल राइडदेने के लिए।
                 आज़मानेजताने के लिए कि यदि वह लेखक के साथ हत्यारे को चिह्मित करने की होड़ में बंधने का प्रयास करते हुए अंत पर पहुंचने से पहले ही उस तक पहुंच भी जाता है तो भी हत्या का उत्प्रेरक परिवाहक तो वह लेखक स्वयं ही रहेगा।   क्यों कि वह जानता है पाठक मृत्यु जैसे रहस्य में गहरी रूचि रखता है और उपन्यास में रखी गयी मृत्यु तो हुई भी अस्वाभविक थी, अनैतिक थी, आकस्मिक थी, संदिग्ध थी तो ऐसे में जिज्ञासु पाठक उस के महाजाल में कैसे खिंचा चला आएगा।
                  लोकप्रिय जासूसी लेखक मिक्की स्पीलैन कहते भी हैं, किसी भी जासूसी पुस्तक के पहले पृष्ठ तथा उस पुुस्तक के अंतिम पृष्ठ उस लेखक की अगली लिखी जाने वाली पुस्तक को बिकवाते हैं।
                  कथावस्तु सब की सर्वसामान्य है। 
                 पूर्वानुमानित है। 
                 सुखबोध देने वाली है।
                 सभी में प्रश्न भी एकल।
                 उत्तर भी एकल। 
                 जासूस भी एकल।
                 हत्यारा भी एकल।
                   हां, मगर पात्र ज़रूर एक से अधिक हैं। ताकि हर दूसरे तीसरे पृष्ठ पर संदेह की सुई अपनी जगह बदलती रहे और हत्यारे की पहचान टलती चली जाए। और पाठक की उत्सुकता बढ़ती रहे। 
                 कहना होगा सरलस्वभावी पाठक सनसनीखेज़ इस घात में फिर जासूस के साथ हो लेता है क्योंकि वह भी जासूस की भांति हत्या के घटनाक्रम से बाहर ही रहा था तथा अब उसे भी हत्या के अनुक्रम उद्भावन का पता लगाने हेतु जासूस के साथ साथ समकालिक अपने समय के पार विगत पूर्व व्यापी पृष्ठभाग को बझाना है, पकड़ना है।
                  समय से आगे भी बढ़ना है और पीछे भी जाना है।
                 अचरज नहीं जो सार्वजनिक पुस्तकालयों में जासूसी उपन्यासों की मांग सवार्धिक रहा करती है। फुटपाथों से लेकर बड़े बाज़ारों, रेलवे प्लेटफार्म से ले कर पुस्तक मेलों तक इन की पहुंच बिक्री उच्चतम सीमा छू लेती है।
                 यह अकारण नहीं।
                 इन उपन्यासों में तो कोई भावप्रधान घटना ही रहती है और ही कोई दर्शन अथवा चिन्तन।  भाषा भी इनकी प्रचलित सपाट रहा करती है। घुमावदार अथवा तहदार नहीं। सारगर्मित नहीं।इन्हें पढ़ने के बाद पाठक को लगता है प्रश्न अपने उत्तर रखते हैं, दुष्ट पकड़े जाते हैं और दंडित होते हैं। कानून व्यवस्था का भंग अल्पकालिक है। अन्ततः सुव्यवस्था का प्रभावक्षेत्र ही फलताफूलता है।
                यहां यह जोड़ना अत्यावश्यक है कि हत्या की यह उपस्थिति जासूसी किस्सों को लोकप्रियता ही दिलाती है, उन्हें गंभीर साहित्य की श्रेणी में स्थान नहीं।
चेखव का कहना था कि लेखक का काम प्रश्न पूछना है, उस का उत्तर देना नहीं। और गंभीर साहित्य में केवल वही प्रश्न नहीं पूछे जाते जिन के उत्तर हमारे पास रहते हैं। वही समस्याएँ नहीं उठायी जातीं जिन के हल हम दे सकें।
              समाधानातीत समस्याओं तथा अनिश्चित भविष्य से जूझ रहे पात्र गंभीर साहित्य प्रेमियों को अधिक भाते हैं क्योंकि वह पुस्तकों के पास केवल समय काटने नहीं जाते। 
वहां मनोरंजन ढूंढने नहीं जाते। वहां जीवन को अधिक गहराई से समझने के लिए जाते हैंभाषा का रस लेने जाते हैं।
मनुष्यतरहो कर लौटने के लिए जाते हैं। उन्हें दो बार, तीन बार, चार बार पढ़ने के लिए खरीदते हैं  यही कारण है जो जासूसी उपन्यास दोबारा कम ही पढ़े जाते हैं।
दीपक शर्मा
दीपक शर्मा
हिंसाभास, दुर्ग-भेद, रण-मार्ग, आपद-धर्म, रथ-क्षोभ, तल-घर, परख-काल, उत्तर-जीवी, घोड़ा एक पैर, बवंडर, दूसरे दौर में, लचीले फीते, आतिशी शीशा, चाबुक सवार, अनचीता, ऊँची बोली, बाँकी, स्पर्श रेखाएँ आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित. संपर्क - [email protected]
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3 टिप्पणी

  1. आज इस विषय को पटल पर देखकर आश्चर्य हुआ। उम्मीद नहीं थी कभी इस तरह का विषय भी किसी पटल पर नज़रों के सामने आ सकता है ,पर अच्छा लगा दीपक जी! हालांकि अब इस मामले में हमारी सोच थोड़ी सी अलग है। आपको पढ़कर एकाएक ऐसा लगा जैसे किसी आत्मा को कब्र में सोते हुए से जगा दिया गया हो। और वह आत्मा हमारी ही हो।
    एक वक्त था कि हमें जासूसी किताबों के प्रति इतनी दीवानगी थी कि बता नहीं सकते। पाँचवी में हमने जासूसी नॉवेल पढ़ना शुरू किया था। और जहाँ तक हमें याद है कि हमारी डॉक्टर बुआजी के यहाँ से हम लेकर आया करते थे। भले ही हम छोटे थे लेकिन हम दोनों में अच्छी दोस्ती थी पढ़ने के मामले में।
    वेद प्रकाश ,इब्नेसफी, गुलशन नंदा, एक समय तक इनको बहुत पढ़ा। पाँचवी क्लास में इतनी समझ नहीं थी। तभी -तभी हमने उपन्यास पढ़ने शुरू किए थे। घर में तो सामाजिक व ऐतिहासिक उपन्यास ही ज्यादा आते थे। घर में मंटो और अमृता प्रीतम की कोई किताब कभी नहीं आई। वनस्थली की लाइब्रेरी में भी यह दोनों हमें कभी नहीं दिखाई दिए।
    तब हमें ऐसा लगता था कि जासूसी उपन्यास में जो कहानी रहती है वह सत्य घटना पर आधारित रहती है। हमारे यहाँ तब कभी-कभी पिताजी मनोहर कहानियाँ ले आते थे । पर पिताजी उसे पढ़ने के लिए मना करते थे।
    बाई और पिताजी की बात को हम लोगों ने हमेशा ईमानदारी से आदेश की तरह माना।
    जासूसी उपन्यास हमने कब और कैसे पढ़ना शुरू किया यह याद नहीं। पर शायद बुआ जी से ही हमने सीखा होगा ऐसा याद आता है। फूपाजी पढ़ते थे।
    इब्नेसफी के उपन्यास के दो मुख्य पात्र थे- कर्नल विनोद और कैप्टन हमीद। और हमें लगता था कि सच में यह दोनों जीवित पात्र हैं। कर्नल विनोद तो हमारे हीरो बन गए थे। दीवानगी की हद तक हमें उनसे प्यार हो गया था। उनसे एक बार मिलने की तीव्र इच्छा थी।
    सिर्फ दो महीने में ही ये किताबें पढ़ी जाती रहीं छठी, सातवीं तक यह नशा रहा। धीरे-धीरे समझ बढ़ी और पता चला यह सिर्फ उपन्यास के ही पात्र हैं। तो हम धराशाई हो गए। शायद बुआजी के यहाँ से लाकर पढ़ते थे। पता नहीं बाई ने समझाया या बुआजी ने समझाया कि उपन्यासों में सब सच नहीं होता है।
    उसके बाद जासूसी उपन्यास पढ़ना बंद कर दिया। कर्नल विनोद का नशा जरा देर से उतरा हमें नहीं लगता कि वह प्यार नाजायज रहा होगा। एक पाठक और लेखक के बीच में जो रहता है वैसा ही रहा होगा या जिस तरह हम लोग अपने प्रिय हीरो हीरोइन या अपने प्रिय लेखक से मिलकर महसूस करते हैं उस तरह की स्थिति रही होगी।
    हमारे स्कूल की लाइब्रेरी बहुत समृद्ध थी। पढ़ने के लिए वहाँ पर्याप्त अच्छी किताबें थीं, बड़े-बड़े रचनाकारों की देश- विदेश की।
    इस तरह जासूसी उपन्यासों से हमारी दोस्ती खत्म हो गई।
    आज आपको पढ़कर जासूसी उपन्यास ही नहीं, उपन्यासकार और उसके पात्र भी याद आ गए।
    मृत्यु के बारे में गरुड़ पुराण में बहुत विस्तार से दिया है।
    यह एकमात्र पुराण है जो किसी की मृत्यु के बाद रसोई होने की पूर्व 10 दिन के अंदर ही पढ़ा जाता है। हवन के साथ इसकी पूर्णाहुति होती है। वैसे इसे नहीं पढ़ते हैं ऐसा लोग कहते हैं। हालांकि अभी-अभी हमने जब इसे सुना तो हम एक ही दिन सुन पाए पर इसको खरीद कर पढ़ने की इच्छा तीव्र हो गई है।

    जासूसी उपन्यास पढ़ने वालों की सोच चाहे जो भी रहती हो। पर तब भी यह बात तो दिमाग में रहती थी कि किस तरह, से किन-किन तरीकों से अपने को बचाते हुए अपराधी अपराध करता है और वह विश्वस्त रहता है कि वह नहीं पकड़ा जाएगा। पर जासूस लोग अपनी बुद्धिमत्ता और चालकी से उन्हें पकड़ ही लेते थे। तब पुलिस से ज्यादा कर्नल विनोद और हमीद पर विश्वास था। जासूसों के प्रति एक अच्छी सोच थी कि वे समाज से अपराधियों को पकड़ने में मदद करते हैं।
    आपको पढ़कर बहुत अच्छा लगा दीपक जी!आप बहुत अच्छा लिखती हैं। पर टिप्पणी पर प्रतिक्रिया कम करती हैं। दो शब्द ही लिख दिया कीजिए।
    आपका लेखन के लिये और प्रस्तुति के लिए तेजेन्द्र जी का बहुत-बहुत शुक्रिया।

  2. समाधानातीत समस्याओं तथा अनिश्चित भविष्य से जूझ रहे पात्र गंभीर साहित्य प्रेमियों को अधिक भाते हैं क्योंकि वह पुस्तकों के पास केवल समय काटने नहीं जाते।
    वहां मनोरंजन ढूंढने नहीं जाते। वहां जीवन को अधिक गहराई से समझने के लिए जाते हैं।भाषा का रस लेने जाते हैं।
    ‘मनुष्यतर’ हो कर लौटने के लिए जाते हैं। उन्हें दो बार, तीन बार, चार बार पढ़ने के लिए खरीदते हैं । यही कारण है जो जासूसी उपन्यास दोबारा कम ही पढ़े जाते हैं।
    कितनी गूढ़ बातें बताई दीदी आपने।
    आपकी हर कथा मनुष्यतर बनाने की ही तो प्रयास करती है।मुझे गर्व है आप पर,आपकी लेखनी पर।

  3. नीलिमा जी एवं निवेदिता जी, आपो दोनों ने आदरणीय दीपक शर्मा जी के लेख पर बेहतरीन टिप्पणियां लिखी हैं। मैं दीपक जी से संपर्क करके कहूंगा कि इन टिप्पणियों को अवश्य पढ़ें। यह लेख तो महत्वपूर्ण है ही, आपकी टिप्पणियां इस लेख को समझने की कुंजी हैं।

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