Sunday, September 8, 2024
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डॉ. अमित कुमार गुप्ता का लेख – श्री अरविंद के जीवन, दर्शन, भाषा, कर्म, कर्मफल तथा कला की प्रासंगिकता

श्री अरविन्द असाधारण रूप से गम्भीर व्यक्ति थे। अपने विद्यार्थी- जीवन में बड़े अध्ययनशील रहे। जब वे २१ वर्ष की अवस्था में शिक्षा समाप्त करके इंग्लैंड से लौटे, तब वे ग्रीक और लेटिन के विद्वान् थे, अंग्रेजी साहित्य के अधिकृत पंडित तथा जर्मन, फ्रेंच और इटालियन साहित्यों के अच्छे जानकार। प्रवास के कुछ एक अन्तिम वर्षों में वस्तुतः वे अपनी पढ़ाई के विषयों की उपेक्षा करके भी यूरोपीय सभ्यता, संस्कृति और विकास को समझने के लिए अन्य विषयों को स्वतन्त्र रूप में पढ़ते रहे। भारत में लौटने के बाद उन्हें भारतीय संस्कृति के मर्म को जानने की प्रबल इच्छा हुई और इसके लिए उन्होंने संस्कृत सीखी और संस्कृत-साहित्य पढ़ा। उन्होंने अनुभव किया कि भारतीय जीवन का आधारभूत सत्य तथा उच्च- तम ध्येय आध्यात्मिक रहा है। संयोगवश उन्हें एक योगी में आध्यात्मिक तत्व की विशेषता तथा उसकी विलक्षण शक्ति देखने का अवसर भी मिला। उन्हें विश्वास हो गया कि आत्म-तत्व ही सत्ता का आलोकिक तत्व  है, बस्तुओं और घटनाओं का आधार है, और इसे जानने, इसे अनुभव करने, इम पर अधिकार प्राप्त करने की उनकी श्रद्धा उत्तरोत्तर प्रबल होती गई। 
वे शुरू से ही गंभीर, चिंतन मनन शील थे, सार तत्व के जिज्ञासु थे। कर्म-सिद्धांत वास्तव में मानव-जीवन के क्षेत्र में कार्य-कारण के नियम को लागू करता है और यह दिखला देता है कि यदि भौतिक प्रकृति में नियम है तो मानव-जीवन भी उच्छृंखल नहीं, यहां भी नियम काम करता है । परन्तु मानव जीवन में भी यह प्रकृति के क्षेत्र में ही-शरीर, प्राण और मन के व्यवहार में लागू है; अंतरात्मा इनसे उच्चतर अस्तित्व है और वह स्वतन्त्र कर्मों को कर सकती है। साधारणतया हम कर्म-सिद्धांत को संपूर्ण मानवीय व्यक्तित्व पर लागू कर देते हैं। परन्तु यह भूल है। अन्तरात्मा अनुमंता है, यह अपनी अनुमति देकर अथवा उसे रोककर पुराने कर्मों के प्रभाव से व्यक्तित्व को मुक्त कर सकती है तथा नये कर्मों को सृष्ट कर सकती है। श्रीअरविन्द कहते हैं कि सामान्य जीवन साधारणतया मानव के पूर्वकर्मों और उनके संस्कारों से प्रचालित होता है, परन्तु जब वह योगमार्ग में आ जाता है और आत्मानुभव से प्रेरणा प्राप्त करने लगता है तब कर्मों के संस्कार उसके व्यवहार को निर्धारित करने में सफल नहीं हो सकते। तब वह कर्म के चक्कर से बाहर निकल जाता है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र भी, जो कि पूर्वकर्मों के बल पर ही भावी को बतलाता है, यह स्वीकार करता है कि भावी को  बदला भी जा सकता है।
कर्म आधारित पुनर्जन्म का प्रश्न लोक-लोकान्तरों के प्रश्न से भी सम्बद्ध है। क्या यह पृथ्वी ही एकमात्र लोक है अथवा इसके अतिरिक्त कोई और लोक भी है, जहां मानव अपने विकासक्रम में जाकर निवास करता है? प्राचीन धर्मों में स्वर्ग और नरक तथा अन्य लोकों का जिक्र आता है, परन्तु आधुनिक बौद्धिक युग ने उनका खंडन कर उन्हें काल्पनिक बता दिया है। परन्तु सत्ता के जिन स्तरों की हम पहले चर्चा कर चुके हैं, वे यदि सत्य हैं, तब जैसे यह पृथ्वी मुख्य रूप में जड़ तत्व  का लोक है, इसी प्रकार प्राण, मन आदि स्तरों के भी अपने-अपने लोक होने चाहिए । इसके अतिरिक्त जब व्यक्ति अपने बहिर्मुख और स्थूल भाव से तटस्थ होकर व्यक्तित्व और सत्ता के सूक्ष्मतर तथ्यों को जानने का यत्न करता है तो वह प्राण, मन, अंतरात्मा आदि के अपने-अपने स्वतन्त्र लोकों और उनमें बसनेवाले जीवों का अनुभव प्राप्त करता है । ये लोक परस्पर-सम्बद्ध हैं और इसलिए इन सबका प्रभाव यहां पृथ्वी पर अनुभव किया जा सकता है। मृत आत्माओं के लोक की चर्चा आज पश्चिमी विज्ञान भी करता है। पुराने स्वर्ग और नरक प्राणलोक के विभिन्न क्षेत्र ही प्रतीत होते हैं, जहां या तो अपार इन्द्रिय-सुख हैं या असह्य शारीरिक यातनाएं।  
कर्म में दर्शन: – 
”कर्म के अन्दर सभी प्रकार के कार्य सम्मिलित हैं, कर्म है वह कार्य, जो किसी निश्चित उद्देश्य की ओर प्रयुक्त होता है। और विधिवत् तथा नियमित रूप से किया जाता है।” 1 
”कर्म के बिना पुनर्जन्म अर्थहीन है, और कर्म यदि अंतरात्मा के अविच्छिन्न अनुभव के सिलसिले के लिए उपकरण न हो तो कर्म के लिए न तो अनिवार्य उत्पत्ति का कोई उत्साह रह जाता है, न नैतिक तथा युक्तिसंगत आधार ही।”2 
कर्म केवल कर्म के लिए नहीं है, बल्कि वह निम्नतर व्यक्तित्व और उसकी प्रतिक्रियाओं से छुटकारा पाने तथा भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण साधित करने के लिए साधना का एक क्षेत्र है।- ”स्वयं कर्म का जहां तक प्रश्न है, वह माताजी द्वारा निश्चित या स्वीकृत व्यवस्था के अनुसार ही किया जाना चाहिए । तुम्हें यह सर्वदा याद रखना चाहिए कि वह माताजी का कार्य है, तुम्हारा व्यक्तिगत कार्य नहीं है।” 3 
कर्म दो प्रकार का हो सकता है- ”एक वह कर्म जो साधना के लिए प्रयोग का क्षेत्र है, जिसमें समस्त सत्ता और उसके कर्म क्रम से अधिकाधिक सामंजस्य को प्राप्त हों और दिव्य वनें, और दूसरा वह कर्म जो भगवान की सिद्ध अभिव्यक्ति है। पर इस पिछले कर्म का समय तो तभी आ सकता है जब भगवत्- साक्षात्कार पूर्णतया पार्थिव चैतन्य में आ जाए, तब तक जो भी कर्म होगा, वह प्रयत्न और प्रयोग का ही क्षेत्र होगा ।” 4 
कर्म में दर्शन का अनुभव करते हुए श्री अरविंद ने कहा है – ” कर्म भी योग का अंग है और यह प्राण तथा उसकी क्रियाओं के अन्दर भागवत उपस्थिति, ज्योति और शक्ति को उतार लाने का सबसे उत्तम सुयोग प्रदान करता है; यह आत्मसमर्पण क्षेत्र और सुअवसर को भी बढ़ाता है। ” 5 
कर्म से श्री अरविंद का  अभिप्राय वह कर्म नहीं है  जो अहंता और अज्ञानता से, अहंता की तुष्टि के लिए और राजसी कामना के आवेश में किया जाता है। अहंकार रजस और काम अज्ञान की मुहरछाप है, इससे विमुक्त होने की इच्छा के विना कर्मयोग हो ही नहीं सकता ।
कर्म से मेरा अभिप्राय वह कर्म है जो भगवान के लिए किया जाए, भगवान से अधिकाधिक युक्त होकर किया जाए-एक- मात्र भगवान के लिए किया जाए, और किसी चीज के लिए नहीं । अवश्य ही आरम्भ में यह सहज नहीं है जैसे गंभीर ध्यान और ज्योतिर्मय ज्ञान या सच्चा प्रेम और भक्ति भी आरम्भ में सहज नहीं हैं। परन्तु ध्यान, ज्ञान, प्रेम, भक्ति की तरह कर्म भी यथाथत् सद्भाव और सदवृत्ति तथा यथार्थ संकल्प के साथ आरम्भ होना चाहिए, तब वाकी सब अपने आप होगा ।
कर्म ही शरीर धारण करता है , कर्म ही सतत परिवर्तनशील मनोवृत्ति और भौतिक शरीरों की सृष्टि करता है जो, हम मान सकते हैं, विचारों और संवेदनों के उस परिवर्तनशील सम्मिश्रण का परिणाम है, जिसे हम ‘हम’ कहते हैं।
काम को छोड़ना कोई समाधान नहीं है- सच पूछो तो कर्म के द्वारा ही मनुष्य यौगिक आदर्श के विरोधी, अहंभाव के अनु- भवों और गतिविधियों को पहचान सकता है और धीरे-धी उनसे मुक्त हो सकता है।
कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिसके परिणामस्वरूप चित्त में विरोध भावना प्रबल हो जाए ।
”जो काम मनुष्य करता है उनमें न तो कोई ऊंचा है, न कोई नीचा, सभी कर्म एक जैसे है बशर्ते कि वे माताजी को अर्पित हों और उनके लिए तथा उनकी शक्ति के द्वारा किए गए हों।” 6 
निस्संदेह बड़ेपन और छोटेपन की भावना आध्यात्मिक सत्य के लिए एकदम विजातीय है। आध्यात्मिक दृष्टि से न तो कोई चीज बड़ी है और न छोटी। ऐसी भावनाएं साहित्यिक लोगों की भावनाओं की जैसी हैं जो यह समझते हैं कि ” कविता लिखना एक उच्च कार्य है और जूता बनाना या भोजन पकाना छोटा और नीच कार्य । परन्तु सब कुछ परमात्मा की दृष्टि में एक जैसा है-और वास्तव में केवल उस आंतरिक भावना का ही  मूल्य है जिसके साथ कार्य किया जाता है। यही बात किसी  विशेष कर्म के विषय में भी लागू होती है, सच पूछा जाए तो कोई भी चीज बड़ी या छोटी नहीं है।” 7 
”मनुष्य के प्रत्येक कार्य और उक्ति का उद्देश्य और कारण पूर्णतया समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि किस अवस्था में वह कार्य किया गया था या वह उक्ति व्यक्त हुई थी।”8 
वर्तमान कर्म का स्वरूप अपरिमेय महत्व  रखता है क्योंकि यह हमारे निकट भविष्य ही को नहीं बल्कि दूर भविष्य को भी निर्धारित करता है ।
कर्मफल – 
अभी हम जो कार्य करते है उनका अधिक महत्व होता है । हमारे द्वारा वर्तमान समय में किया गया कार्य हमारा भविष्य बनाता है । हमें अतीत के कार्यों को , प्रसंगों को , घटनाओं को लेकर ज्यादा चिंतित नहीं होना चाहिए । वर्तमान कार्य के दर्शन को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना चाहिए। इस बात को श्री अरविंद ने इस तरह चित्रित किया है – ” यह विचार कि हमारे वर्तमान दुःख और कष्ट हमारे अपने अतीत कर्म के ही फल हैं, भारतीय मन को एक ऐसी शांति, सहिष्णुता और नीति प्रदान करता है, जिन्हें समझना या सहन करना चंचल पश्चिमी बुद्धि को कठिन प्रतीत होता है।” 9
मत्यु के बाद अंतरात्मा अपने सूक्ष्म शरीर-सहित, जो कि शरीर; प्राण और मन के सूक्ष्म  तत्वों  का बना होता है, कुछ समय के लिए अंतरात्मा के लोक में विश्राम करती है। यहां वह विगत जीवन के अनुभवों को पचाती और नये व्यक्तित्व की रूपरेखा निर्धारित करती है। इस बीच में वह विशेष आकर्षण के कारण प्राणलोक में भी जा सकती है । कम-से-कम मृत्यु के बाद उसे प्राणलोक में से गुजरना जरूर होता है; और यदि उसकी प्राणिक तृष्णाएं प्रबल है तो वह समय उसके लिए काफी भय और संकट का होता है। पुनर्जन्म  के विस्तारपूर्ण वर्णन के लिए इन लोकों का विवरण काफी विशद होना चाहिए । परन्तु हमने यहां इस विषय का उल्लेख मात्र ही किया है। 
कला – 
अपनी प्राचीन कला का सही मूल्य आंकने के लिए हमें विदेशी दृष्टिकोण की समस्त दासता से अपने आपको मुक्त करना होगा और हमें अपनी भास्कर कला एवं चित्रकला को उसके अपने गंभीर उद्देश्य एवं उसके मूलभाव की महानता के प्रकाश में देखना होगा। जब हम उस पर इस प्रकार दृष्टि डालेंगे तब हम यह देख पाएंगे कि प्राचीन और मध्ययुगीन भारत की मूर्तिकला कलात्मक उपलब्धि के अति उच्चतम स्तरों पर स्थान पाने का दावा करती है।
 प्रत्येक ढंग की कला के अपने आदर्श, अपनी परम्पराएं और स्वीकृत प्रथाएं होती हैं; क्योंकि सर्जनशील आत्मा के विचार और रूप अनेक होते हैं, यद्यपि अंतिम आधार एक ही होता है।
 विभिन्न कलाओं  में वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला वे तीन महान् कलाएं हैं जो आंख के द्वारा आत्मा को आकर्षित करती हैं, और इस-लिए ये वे चीजें भी हैं जिनमें ‘गोचर’ और ‘अगोचर’ अपने ऊपर अधिकतम बल देते हुए भी एक-दूसरे की अत्यधिक आव- श्यकता अनुभव करते हुए परस्पर संयुक्त होते हैं।
कवि :- 
कवि से आशा की जाती है कि वह अपनी कला के विषय में पूर्णतया सचेत हो, इसके आवश्यक नियमों तथा स्थिर एवं निश्चित मानदंड और प्रणाली से उतनी ही बारीकी के साथ परिचित हो जितनी बारीकी के साथ चित्रकार और मूर्तिकार होता है और अपनी आलोचक बुद्धि एवं ज्ञान के द्वारा अपनी प्रतिभा की उड़ान को नियंत्रित करे ।
कष्ट- 
यदि हममें अखंड सत् पुरुष की ज्योतिर्मयी चेतना एवं दिव्य शक्ति संपूर्ण रूप से विद्यमान हो तो कष्ट और वेदना का हममें अस्तित्व नहीं रह जाएगा ।  विपदा और कष्ट को प्रायः पाप के दंड की अपेक्षा पुण्य का पुरस्कार माना जा सकता है, क्योंकि अपने प्रस्फुटन के लिए संघर्ष करने वाले अंतरात्मा का वह सबसे बड़ा सहायक और शोधक सिद्ध होता है।  
कर्म को गतिशील रखनेवाली चालिका शक्ति है ।  कामनाएं भी बाहर से आती हैं, अवचेतन प्राण में प्रवेश करती और फिर ऊपरी तल पर आ जाती हैं। जब वे ऊपरी तल पर प्रकट होती हैं और मन उनके विषय में सज्ञान होता है केवल तभी हम कामना के विषय में सचेतन होते हैं। वह हमारी अपनी चीज इसलिए प्रतीत होती है कि हम उसे इस प्रकार प्राण से मन में उठती हुई अनुभव करते हैं और यह नहीं जानते कि वह बाहर से आई है। जो चीज प्राण की, हमारी सत्ता की होती है, जो चीज उसे उत्तरदायी बनाती है वह स्वयं कामना नहीं होती, बल्कि वह है उन लहरों या सुझावों की धारा को प्रत्युत्तर देने की आदत जो उस (प्राण या सत्ता) में वैश्व प्रकृति से आती है।
कामना एक मनोवैज्ञानिक क्रिया है, और यह अपने को ‘सच्ची आवश्यकता’ के साथ तथा अन्य ऐसी वस्तुओं के साथ जोड सकती है, जो वस्तुतः सच्ची आवश्यकताएं न हों । व्यक्ति को उसकी अभीप्सा तथा अनुभूति के प्रति इन्हें वास्तविक तथा अपरिहार्य बना देते हैं। 
ऋषि उस व्यक्ति को कहते हैं जो उच्चतर आध्यात्मिक अनुभव और ज्ञान से सम्पन्न होता था और जो चाहे किसी भी वर्ग में क्यों न उत्पन्न हुआ हो पर अपने आध्यात्मिक व्यक्तित्व के बल पर सभी लोगों पर प्रभुत्व रखता था। राजा भी उसका सम्मान करता था, उससे परामर्श करता था। कभी-कभी वह राजा का धर्मगुरु भी होता था और सामाजिक विकास की तत्कालीन तरल अवस्था में केवल वही नये आधारभूत विचारों को विकसित करने तथा लोगों की सामाजिक धार्मिक धारणाओं और प्रथाओं में सीधे और तुरन्त परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भाग लेने की सामर्थ्य रखता था ।
एकता :- 
श्री अरविंद को एकता में भी दर्शन का अनुभव होता है । समाज में धर्म ,जाती या संप्रदाय के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए । सबको मिल जुलकर रहने का पूरा प्रयास करना चाहिए । यदि विभिन्नता जीवन की शक्ति और विपुलता के लिए आवश्यक है तो एकता भी उसकी व्यवस्था, क्रमबद्धता औन सुस्थिरता के लिए जरूरी है ! एकता तो हमें उत्पन्न करनी पर एकरूपता उत्पन्न करना उतना आवश्यक नहीं ।
समस्वरता या एकता अपने समय में आ सकती है, पर व एक ऐसी मूलगत एकता होनी चाहिए, जिसमें विविधतापू विकास के लिए पूरी स्वाधीनता हो, वह एक का दूसरे के द्वा भक्षण या फिर एक असंगत एवं बेसुरा मिश्रण नहीं  होना चाहिए।
कर्म, कला तथा कामना में श्री अरविंद ने दर्शन को ढूंढने का प्रयास किया है। जो बहुत ही प्रशंसनीय है।
संदर्भ – सूची :- 
  1. श्री अरविंद के पत्र. दूसरा भाग .p.174 
2.पुनर्जन्म और क्रम विकास.p.102 
  1. श्री माताजी के विषय में. श्री अरविंद.p.181 
  2. श्री अरविंद के पत्र, दूसरा भाग.p.29 
  3. श्री माताजी के विषय में.p.169 
  4. वही.p.168 
  5. श्री अरविंद के पत्र दूसरा भाग.p.176 
  6. बंगला रचनाएं, श्री अरविंद.p.85 
9.भारतीय संस्कृति के आधार, श्री अरविंद.97 
डॉ. अमित कुमार गुप्ता
वैदिक विज्ञान केंद्र
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी।
संपर्क : dearam।tkumargupta@gma।l.com 


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2 टिप्पणी

  1. अरविंद को पढ़ना बहुत रोचक लगा। यह लेख बौद्धिक स्तर पर काफी समृद्ध करने वाला लगा। हमने अरविंद को इतनी गहराई से नहीं पढ़ा था जबकि बचपन से इनकी एक फोटो हमारे घर में लगी हुई देखते रहे थे।
    21 वर्ष की उम्र में ग्रीक और लेटिन के विद्वान् होना ,साथ ही अंग्रेजी साहित्य के अधिकृत पंडित तथा जर्मन, फ्रेंच और इटालियन साहित्यों के अच्छे जानकार उनकी विद्वत्ता को दर्शाता है। इतनी कम उम्र में इतनी भाषाओं का ज्ञान आसान नहीं है।फिर भारत में लौटने के बाद उन्हें भारतीय संस्कृति के मर्म को जानने की प्रबल इच्छा हुई और इसके लिए उन्होंने संस्कृत सीखी और संस्कृत-साहित्य पढ़ा।
    यहां यह कहा जा सकता है की जिज्ञासा का कोई अंत नहीं होता। बशर्ते कोई सीखने वाला हो ,जानने की चाहत रखने वाला हो
    कर्म में दर्शन की विस्तृत व्याख्या की है अमित जी ने।यह सब कुछ पढ़ना बहुत अधिक रोमांचक लगा।

    “कर्म ही शरीर धारण करता है , कर्म ही सतत परिवर्तनशील मनोवृत्ति और भौतिक शरीरों की सृष्टि करता है जो, हम मान सकते हैं, विचारों और संवेदनों के उस परिवर्तनशील सम्मिश्रण का परिणाम है, जिसे हम ‘हम’ कहते हैं।”
    बहुत ही सुंदर बात कही।
    क्रमबद्धता के साथ फिर कर्म फल, फिर कला,फिर

    कवि!

    कवि से आशा की जाती है कि वह अपनी कला के विषय में पूर्णतया सचेत हो, इसके आवश्यक नियमों तथा स्थिर एवं निश्चित मानदंड और प्रणाली से उतनी ही बारीकी के साथ परिचित हो जितनी बारीकी के साथ चित्रकार और मूर्तिकार होता है और अपनी आलोचक बुद्धि एवं ज्ञान के द्वारा अपनी प्रतिभा की उड़ान को नियंत्रित करे ।
    कष्ट को को भी अरविंद ने साधना के क्षेत्र में सहायक माना है
    ऋषि कौन है?
    ऋषि उस व्यक्ति को कहते हैं जो उच्चतर आध्यात्मिक अनुभव और ज्ञान से सम्पन्न होता था और जो चाहे किसी भी वर्ग में क्यों न उत्पन्न हुआ हो पर अपने आध्यात्मिक व्यक्तित्व के बल पर सभी लोगों पर प्रभुत्व रखता था। राजा भी उसका सम्मान करता था, उससे परामर्श करता था।

    एकता :-
    श्री अरविंद को एकता में भी दर्शन का अनुभव होता है । समाज में धर्म ,जाती या संप्रदाय के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए । सबको मिल जुलकर रहने का पूरा प्रयास करना चाहिए । यदि विभिन्नता जीवन की शक्ति और विपुलता के लिए आवश्यक है तो एकता भी उसकी व्यवस्था, क्रमबद्धता औन सुस्थिरता के लिए जरूरी है ! एकता तो हमें उत्पन्न करनी पर एकरूपता उत्पन्न करना उतना आवश्यक नहीं ।
    कर्म, कला तथा कामना में श्री अरविंद ने दर्शन को ढूंढने का प्रयास किया है। जो बहुत ही प्रशंसनीय है।

    सब कुछ पढ़ना बेहद रोमांचक रहा। आध्यात्म का इतना गहन अध्ययन अंतर्मन को पवित्र कर देता है। बहुत-बहुत शुक्रिया आपका अमित जी! इस लेख के लिए! इस लेख के माध्यम से अरविंद के विचारों से परिचित हुए। सारी सृष्टि और सारी सृष्टि की क्रिया प्रणाली के पीछे जो कुछ भी है वह बेहद महत्वपूर्ण है ,जिसे समझने के लिए अत्यधिक साधना की जरूरत है, अध्ययन की जरूरत है ,समझने की जरूरत है, ज्ञान के इस अतुलनीय भंडार से रूबरू करवाने के लिए आपको सादर प्रणाम।

  2. हाल ही में,एनबीटी द्वारा प्रकाशित श्री अरविंदो फॉर द यंग जोकि तरूणों और युवाओं के लिए लिखी गई है।उसमें प्रस्तुत सरल सामग्री की झलक भी देखने को मिली।
    विकिपीडिया पर भी बोधगम्य सामग्री। कुछ कुछ दोबारा पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ।
    मुझे यह पुस्तक अनुवाद हेतु प्राप्त हुई ,ईश्वरीय कृपा से एनबीटी के संपादन विभाग के सौजन्य से प्राप्त हुई।इसीलिए मुझे यह लेख पढ़ना सुखकर लगा।
    श्री अरविंदो का गद्य और पद्य जितना कठिन है क्योंकि उन्नीसवीं सदी की अंग्रेजी भाषा में व्याकरण का सटीक ज्ञान बेहद आवश्यक था।
    यहां पर लिखने की मंशा यही है कि इस विभूति पर और भी सहज सरल सरस सामग्री आनी चाहिए।
    आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी और संपादन स्कंध और लेखक का आभार।

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