Sunday, September 8, 2024
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डॉ. गरिमा संजय दुबे का लेख – क्या राजेश खन्ना अपने किरदारों की तरह ही निश्छल थे ?

राजेश खन्ना, काका, बाबू मुशाय, भारतीय सिने-इतिहास का ऐसा जगमगाता नक्षत्र जिसकी चमक के आगे सबकी चमक धुँधली है, जिसके लिए स्टार शब्द छोटा पड़े और सुपर स्टार शब्द खोजा जाए। एक ऐसा सितारा जिसकी चमक एक मानक बन जाए और जब कभी बात हो किसी की तो तुलना उससे की जाए।
यूं सिने आकाश की चादर पर सितारों की कमी नहीं, सबकी चमक अपने में अनूठी, किंतु जतिन खन्ना नाम के इस इंसान ने तो जैसे सब सीमाएं तोड़ दी थीं। प्रसिद्धि की भी और पराभव  की भी।
कोई सितारा इतना चमका भी नहीं और ऐसा खोया भी नहीं। प्रेम का देवता,  संवेदनाओं का साज, भद्रता का पर्याय राजेश खन्ना। भारतीय मध्यमवर्ग का अपना सा चेहरा, सज्जन, सुकोमल, सरल, संवेदनशील । बेहतरीन फिल्में जो आज भी ताज़ी हैं।
यह वह दौर था जब भारत अपनी सज्जनता की खोल में झटपटा रहा था, विश्व करवट ले रहा था, कड़वे यथार्थ मुँह बाएं खड़े थे। बैचेन सा अपनी जड़ों से जुड़ा लेकिन आधुनिकता को चाहने वाला, आदर्शों और कड़वे यथार्थ के द्वंद के समय राजेश खन्ना हुए, राजेश खन्ना उस दौर में हुए जब एक संक्रमण काल चल रहा था।
मेरा निजी मत है कि भारतीय संस्कृति सभ्यता के विकास क्रम में, हर काल संक्रमण काल ही रहा है, इतनी जटिल, इतनी विविध कि संस्कृति हर बार दो विपरीत ध्रुवों के बीच रस्साकशी करती ही रही है, इसलिए समय की सबसे जटिल समस्याओं से सामना होता रहा है हमारा।
खैर, नेहरू युग के अंत और नए आधुनिक कलेवर के समय कुछ अभी भी थे;  जिन्होंने सार्थक सिनेमा को जिंदा रखा था, राजेश खन्ना उसी सार्थक सिनेमा की अंतिम कड़ी थे।
उसके बाद उन्हें नहीं होना था और वे नहीं हुए। बीच बीच में उनकी उपस्थिति गुजरे जमाने की भद्रता को याद दिलाती रही।
आज़ादी के बाद के भारत की उम्मीदों के टूटने का दौर प्रारम्भ हो चुका था, एक मोहभंग की अवस्था थी, उसे सरलता, सहजता, सौम्यता,  शालीनता और रोमांस से कब तक बहलाया जा सकता था। युगीन आक्रोश के लिए कुछ और की दरकार थी।
कभी-कभी दो युगों के मिलन के मुहाने पर चमत्कार घटित होते हैं, राजेश खन्ना ऐसे ही दो विपरीत स्वभाव के समय के मुहाने पर खड़े थे जहां उन्हें उतना ही होना था जितना वे हुए, किंतु जितना अभिव्यक्त हुए क्या कमाल हुए। मुहाने पर खड़ा व्यक्ति या चिन्ह दोनों तरफ़ से दिखाई देता है, और दोनों को दिशा देता है, वहीं से तय होता है, pre and post का भेद। कह सकते हैं सिनेमा का इतिहास जब लिखा जाएगा तब कहा जाएगा प्री राजेश खन्ना एरा एंड पोस्ट राजेश खन्ना एरा, वे बीच में हैं।
बीतते आदर्शों और युवा संघर्षों को उनके जैसे चरित्र शायद अभिव्यक्त नहीं कर पाते। उनके चेहरे का साधारणपन, जिस पर क्रोध कभी स्वाभाविक  लगा ही नहीं, वहां तो प्रेम पसरा रहता था, या  विरह, या पीड़ा या निर्वेद, एक  स्वीकार्य, बहुत घना विरोध नहीं।
वे विद्रोही नायक नहीं हो सकते थे। कहां से लाते वे भींची हुई मुट्ठियां और तनी हुई नसे, सुकोमल स्वर में कहां से आती गर्जना, उनके स्वर में तो कोमल थपकियां थीं, जो क्लांत, थकित देह और मन को सुला देती, विश्रांति देती, किंतु युग की आवश्यकता तो झकझोर कर थप्पड़ मार कर जगाने की थी, जो उनसे हो नहीं सकता था, होता भी तो नमक हराम के नायक की तरह आत्म उत्सर्ग की राह लेता।
किंतु बदलता युग आत्म-उत्सर्ग के आदर्श से अजीज़ आ चुका था, वह न्याय चाहता था, अपने लिए अपनी तरह से, इसलिए राजेश को जाना ही था। वे इस तरह कायांतर नहीं कर सकते थे।
यह कायांतर तो अनुपमा, सत्यकाम, चुपके-चुपके, बंदिनी, अनपढ़ के धर्मेंद्र ही कर पाए, जो कोमलकांत, धीरोदात्त नायक से शोले के वीरू में तब्दील हो गए, वे अपने श्रेष्ठ से नीचे आए थे, धर्मेंद्र सोने से लोहा हो गए।
एक कायान्तर विनोद खन्ना ने भी किया था, तनिक विपरीत, विनोद खन्ना, जिन्होंने अपने चेहरे की कठोरता के पीछे छुपी कोमलता को पहचाना और तब्दील हो गए चांदनी, लेकिन, मेरे अपने, इनकार , इम्तिहान, के नायक के रूप में, वे लोहे से सोना हुए।
राजेश खन्ना को मंजूर नहीं होगा यह, सोने से लोहा होना, लोहे से सोने का घालमेल। वे बिना मिलावट स्वर्ण ही रहना चाहते होंगें, सोने में मिलावट किए बिना गहने नहीं बनते, इसलिए खन्ना युग किसी ठोस आकार में परिवर्तित नहीं होना था, नहीं हुआ। वही रहा, स्पेसिफिकली राजेश, दी ओनली राजेश खन्ना। वे जो थे वैसे ही रहना चाहते थे। यदि आपमें कुछ श्रेष्ठ है तो उसे केवल जमाने के लिए क्यों बदला जाए, बाज़ार के हिसाब से बिकने वाले राजेश नहीं थे, “जो मैं हूं उसकी कीमत लगा सको तो लगाओ, अपनी पसंद ऊंची करो, न कर सको तो अपनी पसंद की चीज़ दूसरी दुकान पर ढूंढों बाबा”, कहना हर कोई अफोर्ड नहीं कर सकता । मुझे लगता है राजेश बहुत साहसी थे, ठंडा साहस, कोई प्रतिक्रिया नहीं, कभी कभी ऐसे शीत साहस को लोग असहाय, मजबूर, निराश, कुंठित होना मान लेते हैं, असफल मान लेते हैं, अव्यावहारिक मान लेते हैं।
हां कुछ लोग, कुछ प्रतिभाएं दुनियावी अर्थों  में व्यावहारिक होती भी नहीं । उनका अव्यावहारिक होना ही उनका अहंकार मान लिया जाता है।
क्योंकि दुनिया के हिसाब से साहस का अर्थ तो शोर और विध्वंस होता है, ऊर्जा का तेज प्रवाह होता है, वे यह मान ही नहीं पाते कि कोई अपनी असीम ऊर्जा और प्रतिभा के साथ भी इतना सहज हो सकता है। क्योंकि यदि वे सहज नहीं होते तो इतने लंबे युगवेपरिवर्तन को अपनी आंखों से देखते हुए कभी तो फूटते, समय के परिवर्तन को सहजता से स्वीकार किया, वे कई मायनों में मिसफिट थे, बाद की दुनिया के लिए, और यह दुविधा तो हर प्रतिभावान व्यक्ति की सहलज होती है कि वह बहुधा हर कहीं अपने को मिसफिट पाता है। 
ज़माने के हिसाब से बिकने वाला सामान तो राजेश खन्ना नहीं ही थे, उन्होंने बाद में भी अपनी तरह के किरदार ही चुने।
नुकसान उठा कर भी जो अपनी प्रतिबद्धता न बदले वह राजेश खन्ना थे।
उन्होंने फिल्में नहीं लीं, काम उनके पास ढेरों था, फिल्मों ने उन्हें नहीं, उन्होंने फिल्मों को छोड़ा था।
उस बीच के समय में, बहुत थोड़े समय में, राजेश खन्ना युग का सृजन हुआ, अपने समय के बेहतरीन गायक, संगीत निदेशक, फिल्म निदेशक, नायिका उनके हिस्से आए।
जैसे नियति का लिखा कुछ घटित करने को श्रेष्ठ प्रतिभाओं का संयोजन प्रकृति ने ख़ुद-ब-ख़ुद निर्मित किया हो। राजेश खन्ना अकेले याद नहीं आते, उनके साथ वह पूरा दौर याद आता है।
एक पूरे समय को, या समय के एक छोटे से हिस्से को अपने नाम कर लेने का सौभाग्य कितनों को मिलता है। 
मुझे वे अपने निभाए किरदारों की तरह ही मासूम लगते हैं, क्योंकि ऐसा भोलापन, सरलता  केवल अभिनय से तो साधा नहीं जा सकता, वह कहीं भीतर भी होता है जो चेहरे को रौशन कर देता है। 
हाँ लोग कहते हैं वे वैसे थे नहीं जैसे परदे पर दिखाई देते थे, वे परदे पर अपने स्वाभाविक रुप में थे, अभिनय नहीं कर रहे होते थे, या जीवन में अस्वाभाविक थे और वहां अभिनय कर रहे होते थे। कौन जानें ? बहुत भावुक मनुष्य अपने आसपास कई बार काँटे उगा लेता है जानबूझ कर, इस डर से कहीं उसकी भावुकता का लोग लाभ न उठाने लगें। 
कुछ लोगों में अपनी नकारात्मक छवि गढ़ने का रोग होता है, केवल इसलिए कि कहीं दुनिया उन्हें वैसा भोलाभाला न समझ ले, वे तेज़ व्यावहारिक दिखने के लिए कुछ आदतों की खोल ओढ़ लेते हैं।
शायद यही उनका भी तरीक़ा था, अपने को लोगों से दूर रखने का।
लोग कहते हैं उनके अहंकार, गलत निर्णयों ने उनसे सुपर स्टार का पद छीन लिया, गलत निर्णय क्या, क्या परिभाषा गलत निर्णयों की…?
क्या जंजीर और दीवार में आप राजेश खन्ना को देख पाते, या शराबी और लावारिस में?
धोती कुर्ता पहना अमर प्रेम,  आनंद, सफर, बावर्ची, कटी पतंग, दाग , आराधना, आखिर  क्यों इनका नायक भला लगता आपको किसी और रूप में, टाइप्ड होना उनके लिए सही शब्द नहीं, कुछ लोग उन्हें औसत अभिनेता भी कहते हैं।
हो सकता है उनका दौर कुछ और लंबा चलता तो वो और कई भूमिकाओं में नज़र आते लेकिन वे खुद ही सहज नहीं थे बाद की भूमिकाओं के लिए और उन्होंने इसे स्वीकार किया। मुझे लगता है उन्होंने समय को छोड़ा था, समय ने उन्हें नहीं, वे चाहते तो बने रहते किंतु उनके निभाए किरदारों का असर कहें या  उनका स्वभाव कि, वे अपना काम करके वहां से चले जाने वालों में से थे । ठीक बावर्ची के नायक की तरह।
बाद में कोई उनके वक्तव्य आए हों या अमिताभ बच्चन के लिए कभी उन्होंने कुछ कहा हो, किसी तरह की बयानबाजी की हो ऐसा याद नहीं पड़ता।
यदि समय ने उन्हें छोड़ा होता तो वे कुंठित हो तमाम उठापटक करते, किंतु उन्होंने समय को छोड़ दिया था और शान्ति से अपना जीवन जीते रहे, जीवन जीने की उनकी शैली पर क्यों बोला जाए। वह उनका निजी क्षेत्र है, हमारे अधिकार में तो इतना भर है कि एक कलाकार की कला की बात की जाए जिसने मुस्कुराने, गुनगुनाने, आँख भिगोने के अवसर हमें दिए। 
जिसके लिए जो बना होता है, उसे वह मिलता है, राजेश जिसके लिए बने थे वह उन्हें मिला, राजेश खन्ना का समय कभी कहीं गया ही नहीं, वे उनके समय में थे और अपनी पूरी दमक के साथ थे। समय बदला राजेश नहीं बदले, हर समय की अलग प्रवृत्ति होती है, हर काल अपनी प्रवृत्तियों के प्रतिनिधित्व के लिए नायक चुनता है।
राजेश खन्ना को जिन प्रवृत्तियों के प्रतिनिधित्व के लिए समय ने चुना था उसमें वे सो टका, चौबीस कैरेट खरे उतरे हैं।निजी प्रवृत्तियों से इतर कलाकार को उसकी अभिव्यक्ति की श्रेष्ठता के लिए तो याद किया ही जाना चाहिए, आख़िर हममें से कौन है जो बुराइयों से परे है ।
डॉ. गरिमा संजय दुबे
डॉ. गरिमा संजय दुबे
सहायक प्राध्यापक , अंग्रेजी साहित्य , बचपन से पठन पाठन , लेखन में रूचि , गत 8 वर्षों से लेखन में सक्रीय , कई कहानियाँ , व्यंग्य , कवितायें व लघुकथा , समसामयिक लेख , समीक्षा नईदुनिया, जागरण , पत्रिका , हरिभूमि , दैनिक भास्कर , फेमिना , अहा ज़िन्दगी, आदि पात्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। संपर्क - [email protected]
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2 टिप्पणी

  1. राजेश खन्ना के बारे में पढ़कर अच्छा लगा गरिमा जी! हमें याद है वह समय! लड़कियों में राजेश खन्ना के प्रति इस कदर दीवानगी थी लड़कियों ने उनके नाम हाथों पर गुदवा लिये थे। अगर हम भूल नहीं रहे हैं तो यह भी याद है कि किसी ने छुरी से हाथ पर नाम गोदा था। खून से उसे पत्र लिखे थे।
    यह दीवानगी की हद थी। इसमें कोई दो मत नहीं कि पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना ही थे।वे अपने जैसे एक ही थे। उनके बाद आज तक ऐसा कोई नहीं जिसके लिए ऐसी दीवानगी देखी गई हो।
    आपने सही कहा कि, *ऐसा भोलापन, सरलता, केवल अभिनय से तो साधा नहीं जा सकता, वह कहीं भीतर भी होता है जो चेहरे को रौशन कर देता है।*
    आपका यह कहना भी सही लगा कि *वे वैसे थे नहीं जैसे परदे पर दिखाई देते थे, वे परदे पर अपने स्वाभाविक रुप में थे, अभिनय नहीं कर रहे होते थे, या जीवन में अस्वाभाविक थे और वहाँ अभिनय कर रहे होते थे। कौन जानें ? बहुत भावुक मनुष्य अपने आसपास कई बार काँटे उगा लेता है जानबूझ कर,इस डर से कि कहीं उसकी भावुकता का लोग लाभ न उठाने लगें।*
    हम बहुत ज्यादा पिक्चर नहीं देखते थे। हमने राजेश खन्ना की पहली फिल्म आनन्द देखी थी।बंदा वहीं प्रभावित कर गया था।राजेश खन्ना का अभिनय बेहद जिंदादिल व लाजवाब था। अमिताभ बच्चन ने भी जितना भी अभिनय किया कमाल का किया इसमें एक छोटी सी प्रस्तुति में जॉनी वॉकर ने भी प्रभावित किया।
    इस फिल्म का हर गाना लाजवाब रहा और आज भी उतना ही ताजा लगता है यह एक पूरी तरह से बेहतरीन फ़िल्म थी, एक बेहतर संदेश देती थी कि हम मौत के कितने भी करीब क्यों ना हों लेकिन हमें खुश रहना चाहिये। सकारात्मक सोचना चाहिये। राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन दोनों की ही रिलीज हुई यह पहली फिल्म थी।
    वैसे अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म सात हिंदुस्तानी और राजेश खन्ना की पहली फिल्म आखिरी खत थी।
    आखिरी खत फिल्म भी देखी। 18 माह के बच्चे ने बड़ा ही सुंदर अभिनय किया। बेचारा चलता ही रहा पूरी पिक्चर में। न जाने कितने किलोमीटर चला होगा।माँ तो मर चुकी थी।उस समय बच्चों की किडनैपिंग नहीं होती होगी थी कि नहीं वरना बच्चा ऐसा घूमे और सुरक्षित रहे? वह भी तीन दिनों तक?
    पूरी पिक्चर में उस बच्चे ने मुश्किल से दो या तीन शब्द ही कहे। बड़ी ही मार्मिक पिक्चर थी। अंत में पिता के पास पहुँच गया। राजेश खन्ना की जितनी भी पिक्चर हमने देखी हो 6-7 कोई भी पिक्चर ऐसी नहीं रही जो हमने बिना रोए देखी हो।वैसे उस वक्त रोना हम कमजोरी की निशानी मानते थे। पर किसी भी पिक्चर का दुख भरा सीन बिना रोए नहीं देख पाते थे। हमें याद है शशि कपूर की पिक्चर “मुक्ति”,हीरोइन का नाम याद नहीं आ रहा है , चेहरा याद है। शायद विद्या सिन्हा थी पर पता नहीं पक्का।शायद रजनीगंधा में भी वही थी।वह पूरी पिक्चर हमने रोते-रोते देखी थी। शायद हॉल में सभी महिलाओं की यही स्थिति थी।
    राजेश खन्ना की कुछ पिक्चरें और भी देखीं सभी अच्छी थी शर्मिला टैगोर के साथ इनकी जोड़ी काफी जमी।
    और भी कुछ पिक्चरें हमने देखीं हैं लेकिन सभी एक से बढ़कर एक रहीं।
    एक लंबे समय के बाद पहले सुपरस्टार को आपने याद किया और हम सबको भी याद भी करवाया गरिमा जी! बहुत-बहुत शुक्रिया आपका।

  2. प्रिय गरिमा जी ! आपने राजेश खन्ना के कलाकार व्यक्तित्व का बहुत उत्तम विश्लेषण किया है। लग रहा है, जैसे हमारे मन में दबी अनुभूतियों को आपने साक्षात् रूपायित कर दिया है। बहुत बेबाक़ी से व ईमानदारी से आपने राजेश खन्ना को मिले हुए युग को चित्रित कर दिया है। हम भी अपनी हमजोलियों के साथ उस ज़माने में पूरे मन से डूब कर राजेश खन्ना की फ़िल्म्स को देखते थे, रोकर मन हल्का करके ख़ुश हो जाया करते थे, राजेश खन्ना के किरदार हमारे किशोर भावुक हृदय को न जाने किस दुनिया में ले जाया करते थे। वह समय आँखों के सामने जीवन्त होकर तैर रहा है।
    हमें तत्कालीन शानदार युग की सैर कराने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई व साधुवाद ।

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