Tuesday, September 17, 2024
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डॉ गरिमा संजय दुबे का लेख – सांस्कृतिक अस्मिता और दलगत राजनीति

भारतीय उपमहाद्वीप पिछले दिनों जिन घटनाक्रमों से गुजरा है और जिसके प्रभाव भारत पर भी पड़ने के  अंदेशे या  कुछ लोगों द्वारा उम्मीद की जा रही है उसके परिप्रेक्ष्य में कुछ बात।
भारतीय उपमहाद्वीप, सांस्कृतिक रूप से एक इकाई रहा, स्वतंत्रता के पहले भी । राष्ट्रों की सीमाएं होती होंगी, संस्कृति की कोई सीमा नहीं होती । इसलिए विभिन्न जनपदों में बटे हुए भारत को एक सांस्कृतिक इकाई और आर्यावर्त  कहा जाता रहा है ।
यह तब तक एक थे जब तक आताताईयों का आक्रमण नहीं हुआ था, सांस्कृतिक बदलाव  या आर्यावर्त  की प्राचीन संस्कृति का पतन बड़े रूप में इस्लाम के आगमन के बाद ही हुआ यह एक ऐतिहासिक तथ्य है जिसके प्रमाण उपलब्ध हैं, विध्वंसक विस्तारवाद ही इस्लाम की पहचान बन गई है  । अपनी उत्पत्ति से लेकर वर्तमान समय तक में कोई विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं देता, कुछ ही थे जो सूफ़ी और मुकम्मल ईमान वाले जो इबादत, गीत, संगीत, कला के क्षेत्र में कुछ नाम कर गए । वे भी वे जिनपर भारतीय संस्कृति ने गहरा प्रभाव डाला और वो कट्टर मौलवियों की नज़र में काफ़िर ही रहे, क्योंकि इस्लाम तो हर तरह के  गीत, संगीत, कला को हराम ही मानता रहा है । फतवे जारी होते रहे हैं, हो रहें हैं । इस सच को किस तथ्य से नकारेंगें आप ।
खैर… 
इससे पूर्व होने वाले यवनों के आक्रमण को चंद्रगुप्त मौर्य और, सिकंदर के आक्रमण को राजा पुरु और खुद स्वयं की सेना के नैराश्य और दुर्बलता ने निष्प्रभावी किया । किंतु इन आक्रमणों के बाद भी भारत की सांस्कृतिक चेतना का प्रभाव कम नहीं हुआ था । शुंग, हुण, कुषाण और जितने भी आक्रमण हुए वे भारतीय संस्कृति में रच बस गए वस्तुत: वे विध्वंसक नहीं थे विस्तारवादी थे, विस्तार तो चाहते थे किंतु किसी संस्कृति को समाप्त करना नहीं, शायद यही कारण रहा कि किसी और विस्तारवादी शासक ने भारत की सांस्कृतिक अस्मिता पर वैसी चोट नहीं पहुंचाई जो बाद के काल में इस्लाम ने भारत को दी है । “इस्लाम ने भारत को संस्कृति सिखाई” से उलट यह तथ्य अधिक प्रामाणिक जान पड़ता है कि इस्लाम भारतीय संस्कृति का स्पर्श पाकर बहुत समृद्ध हुआ । 
भारत की सांस्कृतिक चेतना को अपने ही भीतर से चुनौती संभवत: पहली बार बुद्ध से तो नहीं, बौद्धों से अवश्य मिली । बुद्ध तो स्वयं ही सनातन के विचारों को एक भिन्न तरीके से विस्तार दे रहे थे । सनातन से बैर उनके अनुयायियों के द्वारा उत्पन्न किया हुआ था । जैसा हर सिद्धांत के साथ होता है, प्रणेता ने किया किसी और कारण से था और उसके अनुयायियों ने उसकी भिन्न तरीके से व्याख्या की । जो भी सिद्धांत या धर्म अहिंसा का उल्लेख करता है वह सनातन के ही मूल विचार का प्रतिबिंब है यह माना जाना चाहिए । किंतु जहां शैव और शाक्त में मतभेद हों, वहां सनातन और बौद्ध में मतभेद नहीं होंगें यह सोचना भी मूर्खता होगी । इसलिए विचार को, धर्म को उसके अनुयायी  ही विकृत करते हैं । 
बहुदेव वाद का सौंदर्य ही है हर विचार का स्वीकार्य, उनके मध्य भेद का स्वीकार्य, आदर्श रूप में तो यही है, किंतु हर आदर्श व्यवहार में भी उतना ही प्रभावी हो जितना आदर्श रूप में दिखाई देता है यह आवश्यक नहीं, क्योंकि आदर्श को व्यवहार में लाने वाला मनुष्य है और मनुष्य निजी स्वार्थों,भिन्न भिन्न बुद्धि से संचालित होने वाला मन मस्तिष्क लेकर जन्म लेता है, अपनी अपनी तरह से की गई व्याख्याओं ने, अपने मन को कहने की करने की स्वतंत्रता ने मूल स्वरूप को बिगाड़ा है और अनेक भ्रम की स्थिति उत्पन्न की है । बौद्ध धर्म को प्रथम चुनौती आदि शंकराचार्य ने दी और अद्वैत की स्थापना की ।
सांस्कृतिक रूप से फैला हुआ सनातन आज के अफगानिस्तान से लेकर इंडोनेशिया तक फैला था, सिकुड़ते हुए, अपनी सांस्कृतिक पहचान खोते हुए आज की दुर्भाग्य पूर्ण स्थिति में पहुंच चुका है ।
इतनी लंबी भूमिका बांधने का कारण अब स्पष्ट करती चलूं कि इन दिनों सनातन पर, हिंदुत्व पर या सनातन सांस्कृतिक अस्मिता, जिसका आधार हिंदू धर्म है की बात कहने को किसी दल विशेष से जोड़े जाने की प्रवृत्ति जन्म ले चुकी है । यह प्रवृत्ति स्वतंत्रता के बाद से ही है किंतु अब सोशल मीडिया के जमाने में अधिक मुखर है ।
मुझे कहने दीजिए कि भारत की सांस्कृतिक अस्मिता पर, उसके संरक्षण पर बात करना न तो सांप्रदायिक होना है, न संघी होना है, न भाजपाई होना है । संघ और भाजपा सनातन के स्वर अवश्य हैं, स्वयं सनातन नहीं हैं ।
उनके पहले भी सनातन था, उनके बाद भी सनातन रहेगा । हाल तो इन दिनों यह है कि जिन्हें सांस्कृतिक चेतना अस्मिता का कोई ज्ञान नहीं है वे लोग हिंदुत्व, हिन्दू, सनातन के संरक्षण की बात करने वालों को कोसने लगते हैं । 
इनका बस नहीं चलता नहीं तो यह, आचार्य शंकराचार्य, चाणक्य, चंद्रगुप्त मौर्य, विक्रमादित्य, समुद्रगुप्त, विजयनगर साम्राज्य, चोल, पांड्या, चालुक्य, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, बाजीराव पेशवा, झांसी की रानी सबको संघी, भाजपाई कह दें ।
जिन्होंने सांस्कृतिक अस्मिता की बात  करने वाले निर्मल वर्मा, अज्ञेय, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी को न छोड़ा हो अपमानित करने में वे क्या भारत की सांस्कृतिक अस्मिता पर बात करने लायक हैं भी ।
फेसबुक ट्रॉलर्स में तब्दील हो चुके लोगों को जब कोई प्रतिक्रिया में कुछ प्रतिवाद करता है तो वे उसे अपमानित कर सुख का अनुभव करते हैं, सांस्कृतिक बोध से विपन्न ये लोग जिन्हें न इतिहास का पता है, न संस्कृति के विविध आयामों का अपना ही विनाश करने में प्रसन्न है ।
बात हिंदुत्व या भाजपा की नहीं है, बात भारतीय संस्कृति की है, जो इन दोनों से कहीं पहले से है और इन दोनों के न रहने पर भी होगी, किंतु जिस तरह से इस्लाम के विध्वंसक स्वरूप ने भारत की सांस्कृतिक चेतना पर जी चोट की है और उसे इस देश की घृणित राजनीति ने भुनाया है उससे लगता है भारत की सांस्कृतिक पहचान पर बड़ा संकट है ।
विश्व भर में विस्तार पा रही भारतीय परंपरा धर्म जीवन शैली, खुद अपने ही उद्गम स्थल पर दूषित हो रही है । जैसे नदी का उद्गम सिकुड़ रहा हो और पाट बढ़ रहा हो । कैसी विडंबना है कि अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के संरक्षण की चिंता करता कोई मनुष्य आपको किसी दल का प्रवक्ता लगता है, मैं हैरानी से देखती हूं कि क्या कोई दल भारत की सांस्कृतिक अस्मिता का पर्याय हो सकता है ।
संस्कृतियां दलों के माध्यम से जीवित नहीं रहतीं, वह जीवित रहती हैं आम मनुष्य की आस्था और विश्वास में । यह सच है कि हर युग में जनमानस को उस भूख उस प्यास को स्वर देने वाला कोई न कोई नायक होता है, वर्तमान समय में निश्चित ही भाजपा वह स्वर है जो खुलकर भारतीय संस्कृति के विस्तार और उसके संरक्षण पर काम करती दिखाई देती है, किंतु वह इस संस्कृति के संरक्षण की लंबी शृंखला का हिस्सा मात्र है, स्वयं संस्कृति नहीं, संस्कृति तो उसे मानने वालों से जीवन पाती है, और इसमें कोई संकोच नहीं कि स्वयं भारतीयों में अपनी संस्कृति का बोध विकृत हुआ है, विकृत होने के अनेक कारण है, केवल वामपंथ नहीं, हमारी अपनी हीन भावना और तथ्यपरक तार्किक तरीके से अपने तर्क को स्थापित न कर पाने प्रवृत्ति, कुछ आलस्य, कुछ स्वार्थ, कुछ क्या फर्क पड़ता है की मानसिकता ।
इस संसार में किसी सभ्यता, संस्कृति, धर्म ने अपनी सांस्कृतिक चेतना का हाथ नहीं छोड़ा, ईसाइयों ने न अपना खान पान बदला, न रहन सहन, न धार्मिक रीति रिवाज, इस्लाम में बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं, आधुनिकता का, तर्क का कोई स्थान नहीं, इसलिए उसकी बात करने का कोई अर्थ नहीं । किंतु आप सनातन, भारतीय, वैदिक हिंदू  जरा से आधुनिक क्या हुए आपको अपनी संस्कृति लज्जित करने लगी, उस पर बात करना आपको चुभने लगा, आपने अपनी भाषा, भूषा, भोजन, भजन सब बदल डाले। अपने आपको जातियों में विभाजित कर लिया ।
मुगलों के आक्रमण के समय कुछ ने अपना धर्म बदला वे असल मुसलमान से ज्यादा कट्टर  हैं आज, किंतु जिन्होंने तब भी अपनी संस्कृति नहीं छोड़ी वे आज किस आधुनिकता के चलते अपने संस्कार छोड़ चले हैं । कहां है वह प्रखरता वह तेजस्विता जो संस्कृति की बात कहे, उसकी अच्छाइयों को विश्व में प्रचारित करे । शांति के प्रेमी हैं हम की आड़ में आपकी चुप्पी बुराई के फैलने का कारण बन रही है । 
अच्छाई सच्चाई का शोर इतना हो कि बुराई की आवाज़ ही न निकल सके क्या ऐसा कोई प्रयास सामान्य जन मानस द्वारा किया जा रहा है ।
याद रखिए जब तक आपकी मांग नहीं होगी तब तक कोई भी दल, कोई भी सरकार आपकी सांस्कृतिक चेतना के संरक्षण के लिए कुछ नहीं करेगी । सबकुछ सरकार नहीं करेगी, कुछ मांग आपको भी करनी होगी, बहुसंख्यक की मांग, बार बार जब दस्तक देगी सत्ता के, देश के कर्णधारों के कानों पर तब वह सुनी जाएगी 
किंतु उसके पहले अपने स्वयं के जीवन में अपनी संस्कृति, भारत भारतीयता की प्रखर पहचान की प्यास तो जगानी होगी, अन्यथा भारतीय संस्कृति को “है” से “थी” होने में अब अधिक समय नहीं लगेगा। आपके अपने लोग आपको “है” से “था” में बदल देंगें ।
पहले अपने सांस्कृतिक बोध को तो दुरुस्त करें, कोई  जाति हो, कोई क्षेत्रएक पहचान, भारत, भारतीयता उसकी परंपरा और संस्कृति को अपने घर में जीवित रखिए ।  छद्म आधुनिकता में उसे छोड़िए मत, पकड़ के रखिए, याद रखिए पहचान का संकट मानवता का सबसे बड़ा संकट है, आप माने न माने आप अपनी जड़ों से पहचाने जाते हैं, अपनी जड़ मजबूत रखिए, उसे चैतन्य रखिए ।
श्रेष्ठ सिद्धांतों पर लज्जित होना छोड़िए बल्कि उसे मुखर होकर स्थापित कीजिए, चाहे जितनी आलोचना हो, इसके लिए चाहे कुछ नुकसान भी उठाने पड़े, कोई मंच, कोई पुरस्कार, कोई व्यक्ति आपको वह गौरव प्रदान नहीं कर सकता जो सांस्कृतिक मूल्य बोध आपके भीतर जगाते हैं ।
फिर सरकार से पुरजोर तरीके से, शांतिपूर्ण किंतु प्रखर तरीके से अपनी मांग रखें तो बात सुनी जाएगी अन्यथा अपने ही देश में शरणार्थी हो जायेंगें किसी दिन ।
भारत भारतीयता संस्कृति और सनातन से भाजपा और संघ हो सकते हैं
भाजपा और संघ से भारत भारतीयता संस्कृति और सनातन नहीं ।
इसलिए भारतीय संस्कृति, सनातन वैदिक हिंदू परंपरा की बात करने वालों को भाजपाई या संघी कहकर आप अपनी धूर्तता और मूर्खता दोनों का परिचय देते हैं । क्या आप इनसे अलग अपने को समझते हैं ? भारतीयता के अतिरिक्त आपकी पहचान क्या है और यदि भारतीय पहचान है तो उसे कैसे परिभाषित करते हैं आप मैं जानना चाहती हूं, भारतीयता की आपकी परिभाषा, और उस परिभाषा में जब  “सब” आते हैं तो हिंदू उन “सब” में शामिल क्यों नहीं है
धर्म निरपेक्षता में “सबकी” बात होती है तो आपकी धर्मनिरपेक्षता हिंदू के साथ पक्षपाती कैसे हो जाती है
जो स्वयं अपनी पहचान से लज्जित हो, जिसे अपना नाम छुपाना आधुनिकता लगती हो
उनसे सांस्कृतिक मूल्यबोध की अपेक्षा, इस्लाम में सुधार की अपेक्षा जितनी ही असंभव है ।
समय है अब सीमाओं को भूल कर संस्कृति रक्षण की बात हो।
डॉ. गरिमा संजय दुबे
डॉ. गरिमा संजय दुबे
सहायक प्राध्यापक , अंग्रेजी साहित्य , बचपन से पठन पाठन , लेखन में रूचि , गत 8 वर्षों से लेखन में सक्रीय , कई कहानियाँ , व्यंग्य , कवितायें व लघुकथा , समसामयिक लेख , समीक्षा नईदुनिया, जागरण , पत्रिका , हरिभूमि , दैनिक भास्कर , फेमिना , अहा ज़िन्दगी, आदि पात्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। संपर्क - [email protected]
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1 टिप्पणी

  1. अच्छा लिखा गरिमा जी और महत्वपूर्ण भी है।एक पल के लिए पढ़ते हुए अपने स्कूल के दिन याद आ गए और हिस्ट्री का पीरियड।
    कुछ बातें जो महत्वपूर्ण लगीं और जिससे हम भी सहमत हैं-
    जो भी सिद्धांत या धर्म अहिंसा का उल्लेख करता है वह सनातन के ही मूल विचार का प्रतिबिंब है यह माना जाना चाहिए। दरअसल धर्मी और संप्रदाय नहीं होता धर्म का अर्थ मूल रूप से तो कर्तव्य से ही लिया गया है। कृष्ण ने उन्हें कर्तव्य ही माना है। कर्तव्य से अर्थ है करने योग्य जो जिस समय श्रेष्ठ हमारी करने योग्य है वही कर्तव्य है इसीलिए हम कह सकते हैं की धर्म बदलता रहता है क्योंकि कर्तव्य भी स्थिति समय और परिस्थितियों पर निर्भर करते हैं अगर इस दृष्टि से देखा जाए तो धर्म परिवर्तनशील है।
    वैसे तो धर्म को कई संदर्भ में लिया जाता है लेकिन मूल रूप से वह कर्तव्य ही है और हम भी उसे कर्तव्य ही मानते हैं। उस कर्तव्य के अंतर्गत हमारी सभ्यता और संस्कृति दोनों ही समाहित है। जब किसी विचार विशेष की बात होती है मत विशेष की बात होती है जैसा कि आपने कहा बुद्ध या फिर किसी को भी लिया जा सकता है- महावीर स्वामी ,पैगंबर मोहम्मद साहब ,ईसा मसीह, राम और कृष्ण भी हो सकते हैं।इनके विचारों को, धर्म को उसके अनुयायी ही विकृत करते हैं।
    दरअसल जो बात एक के मुंह से निकलती है दसवें नंबर या उससे आगे पहुंचते -पहुंचते उसका स्वरूप ही बदल जाता है। हमारे ख्याल से सिर्फ बदलने की बात नहीं है; बदलते-बदलते फिर अंत में उसका वास्तविक स्वरूप स्वयं ही बिगड़ जाता है इसीलिए यह स्वीकार करने में आपत्ति नहीं कि विचार या धर्म को उसके अनुयायी ही बिगाड़ते हैं।
    निश्चित रूप से आदर्श व्यवहार में उपयोग न किए जाने पर व्यर्थ ही है। सभ्यता और संस्कृति के बारे में आपने जो कहा वह बहुत ही अच्छा लगा। और बहुत सही भी है सांप्रदायिकता की दृष्टि से देखें तो किसी ने भी अपने धर्म की सभ्यता और संस्कृति को नहीं छोड़ा किंतु भारतीय लोग ही ऐसे रहे जिन्होंने बाहरी आकर्षण से सम्मोहित होते हुए अपने धर्म, सभ्यता और संस्कृति को भुला दिया जबकि भिन्नता की दृष्टि में हमारी संस्कृति में कितने ही विकल्प हैं अगर परिवर्तन की अपेक्षा भी होती तो यहां भी कुछ कम ऐसा नहीं था जिसको न अपनाया जा सकता हो।
    सांस्कृतिक रूप से फैला हुआ सनातन जो अफगानिस्तान से लेकर इंडोनेशिया तक फैला था, अपनी सांस्कृतिक पहचान खोते हुए सिकुड़ रहा है, यह दुर्भाग्य पूर्ण हैं ।
    आपने बिल्कुल सही कहा कि पहले अपने स्वयं के जीवन में अपनी संस्कृति, भारत भारतीयता की प्रखर पहचान की प्यास तो जगानी होगी, अन्यथा यह अपनी पहचान खो देगी।
    बहुत ही अच्छा लेख है गरिमा जी आपका! बहुत महत्वपूर्ण बात आपने-अपने लेख में लिखी है। दो-तीन बार पढ़ा। तीन-चार बार में पूरा लिख पाए।
    प्रस्तुति के लिए तेजेंद्र जी का शुक्रिया।
    पुरवाई का बहुत-बहुत आभार।

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