Sunday, September 8, 2024
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डॉ रत्नेश सिन्हा की कलम से : आम आदमी की चेतना का वाहक – नफ़ीस आफ़रीदी

डॉ. नफ़ीस आफ़रीदी ने कहानी, उपन्यास, नाटक, बाल उपन्यास, टेलीनाटक के अलावा विश्व कथा साहित्य, प्रेमचंद रचनावली, रवीन्द्र ग्रंथावली जैसी पचहत्तर पुस्तकों का संपादन कर अपनी साहित्यिक यात्रा जारी रखी। इनकी कहानियाँ मासिक, पाक्षिक एवं दैनिक पत्रिकाओं में छपती रहीं और बाद में इन कहानियों को ‘अग्निकुंड’, ‘अपनी-अपनी सीमाएँ’, ‘धूप का दरिया’, ‘विशिष्ट कहानियाँ’, दूसरी दुनिया’, मिट्टी का माधो’ और ‘बाबू का दरिया’ नामों के संग्रहों में संग्रहित कर प्रकाशित किया गया। 
हिन्दी साहित्य के प्रखर समालोचक और गुमनाम तथा भुला दिए गए रचनाकारों को हिन्दी पाठकों से परिचय कराने को प्रतिबद्ध अनुसन्धित्सु डॉ. फिरोज़ ख़ान ने अपने ऐसे अभियान को जारी रखते हुए इन्हीं कहानियों को एक जगह इकट्ठा कर प्रकाशित किया है जो स्तुत्य और उत्साहवर्धक कार्य है।     
इस संग्रह में सन १९६५ से २००५ तक की विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा उपरोक्त  लिखित कथा-संग्रहों में संग्रहित नफ़ीस आफ़रीदी की चौहत्तर कहानियों  का संकलन किया गया है। नफ़ीस  आफरीदी ऐसे कहानीकार हैं, जिन्होंने अपने समय की नब्ज़ को पहचानकर अपनी रचनात्मक जिम्मेदारी निभाते हुए, हिन्दी कथा-साहित्य की श्रीवृद्धि की, किन्तु हिन्दी कथालोचना में इस कथाकार को जगह न देकर; हिन्दी कथालोचकों की उदासीनता और आलोचना-कर्तव्य के प्रति उनकी अवहेलना साफ़ ज़ाहिर होती है। इससे यह तो पता चलता ही है कि, कथालोचना के लिए जो प्रयत्न होने चाहिए थे, वे हुए नहीं। आलोचकों ने उन्हीं कथाकारों को लेकर अपनी जिम्मेवारी पूरी कर ली; जिनका नाम उस समय के साहित्यिक मठाधीशों के बीच चर्चित हुआ करते थे। हिन्दी कथा-साहित्य की यह विडंबना ही कही जाएगी कि मधुमती,सारिका,साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, दिनमान जैसी; अपने समय की नामचीन साहित्यिक-पत्रिकाओं में छपने के बावज़ूद नफ़ीस  आफरीदी जैसे कथाकार गुमनामी की दुनिया में धकेल दिए गए। हिन्दी कहानी का प्रबुद्ध पाठक नफ़ीस  आफरीदी जैसे कथाकार की कथन-भंगिमा और समाज के प्रति उसके रचनात्मक दायित्व के मूल्य से अवगत न हो सका। इसे स्वस्थ आलोचना के तिरस्कार के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता।    
नफ़ीस  आफरीदी ने, मेरठ विश्वविद्यालय से ‘मुस्लिम लेखकों के हिन्दी कथा-साहित्य में सामाजिक दृष्टि’ विषय पर अपना शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत किया; जो ऐसे विषय का पहला व्यापक दृष्टिकोण वाला शोध-प्रबन्ध साबित हुआ। इस शोध-प्रबन्ध को भी हिन्दी पाठकों के लिए सुगम बनाने और मुस्लिम लेखकों के हिन्दी साहित्य के प्रति विस्तृत योगदान से परिचित कराने के उद्देश्य से डॉ. फिरोज़ ख़ान ने पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है, जो एक गुरुतर और अत्यावश्यक कार्य है। इस शोध-प्रबन्ध के प्रकाशन से किसी भी पाठक एवं अनुसंधित्सु को विषय से सम्बन्धित सामग्रियाँ एक जगह आसानी से प्राप्य हैं। जिनका उपयोग कर वे अपना शोध पूरा कर सकें और पाठक अपना ज्ञानवर्धन कर सकें। इसी से पता चलता है कि अपनी साहित्यिक जिम्मेवारी के प्रति डॉ. फिरोज़ ख़ान  धुन के पक्के हैं और उनकी इस धुन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है, पुस्तकों का तय समय में प्रकाशित हो जाना।
नफ़ीस  आफ़रीदी ने अपने जीवन-काल के दौरान की बदलती हुई विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक और आधुनिकताजन्य स्थितियों-परिस्थितियों का अपनी रचनात्मक सूझ-बूझ से उसकी यथार्थता में पैठकर चिन्तन किया है और तब उसे कलमबद्ध किया है। इनकी शैली सीधी, सरल, बेबाक और लयबद्ध है। इस संग्रह की सभी कहानियाँ अपनी संप्रेषणीयता में मुक़म्मल कही जा सकती हैं। इन्होंने जीवन-प्रवाह को पकड़ा है और उसे लिपिबद्ध कर फिर उसी प्रवाह के हवाले कर दिया है; अर्थात इनकी कहानियाँ किसी फंतासी या आरोपित विचारधारा का समर्थन न करके, जीवन को उसके अनुसार ही चलते रहने की गवाही देती हैं। यही कारण है कि इनकी कहानियाँ किसी भी ‘वाद’ या समकालीन बद्धमूल विचारधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। बल्कि इनकी ये कहानियाँ मानव-जीवन के उतार-चढ़ाव, उसके घात-प्रतिघात, उसके स्वाभाविक लय की गत्यात्मकता को परिलक्षित करती चलती हैं। शायद यही कारण है कि, हिन्दी समालोचना में किसी ख़ास विचारधारा की प्रतिबद्धता से जुड़ी कहानियों का विश्लेषण तो हुआ, लेकिन जीवन की रोज़मर्रा की स्वाभाविक गति को स्वतन्त्र-लेखन का लक्ष्य बनानेवाले नफ़ीस  आफ़रीदी जैसे कई कथाकारों को नजरअंदाज कर दिया गया। डॉ. फिरोज़ ने ही अपनी साहित्यिक पत्रिका, ‘वाङ्गमय’ का एक अंक नफ़ीस  आफ़रीदी को समर्पित कर, कई समीक्षात्मक लेख इसमें प्रकाशित कर, अपना साहित्यिक दायित्व निभाया है। किन्तु, मुख्य-धारा की समालोचना में ऐसे कथाकारों की अनदेखी होना निश्चय ही किसी भी भाषा के साहित्य को एक ख़ास चश्मे से देखने के कारण, उसे दरिद्र बना देना है। 
नफ़ीस  आफ़रीदी की सारी कहानियों को एक जगह इकट्ठा करने का डॉ फिरोज का उद्देश्य ही पाठकों को समग्र रूप से एक पुस्तक में ही उनकी कहानियों को पढ़ने और उसपर विचार करने के लिए सुलभ करना है। उनकी यह सोच है कि एक ही पुस्तक में संग्रहित कहानियाँ मिलने से किसी भी शोधार्थी अथवा समालोचना की इच्छा रखनेवाले साहित्य-प्रेमियों के लिए यह लाभदायक होगा। इससे कथाकार के कथा-वैविध्य को आसानी से आत्मसात किया जा सकता है और समय-दर-समय की परिवर्तित परिस्थितियों के कारण कथानकों में जो अपेक्षित घटित होता चलता है,उसके सूत्र भी आसानी पकड़े जा सकें। नफ़ीस  आफरीदी की कहानियों में स्त्री-शोषण की महागाथा है तो एक पिता की दर्दभरी दास्तान है। किसी सैनिक की दुखभरी पारिवारिक कहानी है तो बेरोजगार युवकों के टूटे स्वप्न हैं। एबार्सन करनेवाली नर्स और उसके बेरोजगार पति की पीड़ा है तो किसी विधवा माँ की करतूत और उसके बेटे की लाचारी की अद्भुत गाथा है। कहीं भीड़ इकट्ठा करने की नेताओं की धूर्त चालाकी है तो कहीं गलतफहमी में हिन्दू-मुस्लिम झगड़े की संभावना है। कहीं किसी लुटी हुई औरत की करुण कहानी है तो कहीं अबला नारी की अधूरी कथा। मतलब यह कि मानव-जीवन की विविधताएँ इनकी कहानियों की संप्रेषणीयता का मूल केन्द्रबिन्दु है।
नफ़ीस  आफ़रीदी ने जब हिन्दी कथा-साहित्य की अपनी यात्रा आरम्भ की, तब हमारे देश की राजनीतिक स्थिति; पहले भारत-पाक युद्ध को झेलने के साथ ही सत्ता द्वारा स्वार्थ के खेल से सराबोर थी। देश में आए दिन हिन्दू-मुस्लिम के सामाजिक सम्बन्धों के बीच आग सुलगाई जाती थी और सत्ता के ठेकेदार उसमें अपने निहित स्वार्थ की रोटियाँ सेंकते रहते थे। पूँजीपतियों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था और डिग्री लिए बेरोजगार युवकों का हुजूम सड़कों पर धुल फाँकते फिर रहा था। कृत्रिम पूँजीवादी संस्कृति के चाक-चिक्य से देश में आधुनिकता के नाम पर एक संवेदनहीन मानव-समाज निर्मित हो रहा था। इस संवेदनहीन समाज की आँच, मध्य और निम्न मध्यवर्ग को भी अपने आगोश में जकड़ने लगी थी। फलतः मानव के आपसी रिश्ते तिरोहित होने लगे थे। महिलाओं के शोषण का तरीक़ा आधुनिक तरह का हो गया था। भारतीय समाज के स्त्री-पुरुष अपने अस्तित्व को लेकर व्यामोह की स्थिति में थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के भारतीयों के सपने कुचले जा रहे थे। अपना राज होने पर भी समाज की आशाओं पर पानी फिर रहा था। ऐसी ही स्थिति को बुद्धिजीवियों ने ‘मोहभंग’ कहा और साहित्य में इसका व्यापक असर देखने को मिला। हिन्दी कथा-साहित्य ने भी ‘नई कहानी’ के आदर्शों की केंचुल उतार दी थी और इसी का परिणाम था कि, कई दिशाहीन कथा-आन्दोलनों की बाढ़-सी आ गयी और हिन्दी कथा-साहित्य दलबंदी का शिकार होकर कुछ मठाधीशों के चंगुल में फँस कर छटपटाने लगा। 
इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस दौरान की रचित कहानियाँ अपने सम्प्रेषण में सफल भी हुईं और इन कहानियों से हिन्दी कथा-साहित्य समृद्ध भी हुआ। फिर भी इन दलबंदियों से हिन्दी कथा-साहित्य को जल्दी ही उबार लिया गया और हिन्दी कहानी पुनः अपने दायित्व-निर्वाह में जुट गई। ऐसी स्थिति में भी बहुत-से ऐसे कथाकार थे जो, इस ऊहापोह के दलदल में न फँसकर अपने रचनात्मक दायित्व का निर्वाह एकतान होकर कर रहे थे। मेरे विचार में नफ़ीस  आफ़रीदी ऐसे ही कथाकार थे, जो मानव-समाज की पीड़ा को, उसके सपनों को, उसकी जिजीविषा को समझकर अपनी रचनात्मक यात्रा की ओर अग्रसर थे। 
नफ़ीस  आफ़रीदी की पहली कहानी ‘आवाजें’ सन् १९६५ में ‘ज्ञानोदय’ पत्रिका में प्रकाशित हुई। इनकी इस कहानी को पढ़कर तत्कालीन किसी बद्ध-विचारधारा का आभास नहीं होता है, बल्कि मानव-जीवन प्रवाह की स्वाभाविक गति का गहराई से अहसास होता है। कहानी के तीन पात्र नरेन, मीना और निम्मो, मानवी संवेदना के अंतरतम को भेद देनेवाले हैं। कहानी के घटना-क्रम से पता चलता है कि नरेन वस्तुतः निम्मो को चाहता था और उसी को जीवन साथी बनाने का निश्चय किया था और उसने ऐसा किया भी। किन्तु निम्मों ने अपनी अनाथ मौसेरी बहन मीना के परवरिश की जिम्मेवारी उठाई और नरेन ने इस स्थिति का बेजा फ़ायदा उठाकर उसे अपनी हवस का शिकार बनाया। इसके बाद उसने निम्मो से विवाह किया। किन्तु मीना द्वारा सच्चाई  बताने पर निम्मो बिखर ही गई और इन दोनों के जीवन से दूर चली गई। यहाँ कथाकार ने एक तरफ़ पुरुष के गैर जिम्मेदारी पूर्ण रवैये को चित्रित किया है तो दूसरी ओर निम्मो की जिम्मेदारी को महसूस कराया है। जिस पारिवारिक जिम्मेदारी के निर्वाह के लिए उसने अपनी अनाथ बहन को अपने साथ रखा, उसका निर्वाह उसने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की बलि देकर किया। यहाँ लेखक ने ऐसी विषम परिस्थितियों में भी सामाजिक-पारिवारिक सम्बन्धों को मानवीय मूल्यों की कसौटी पर परखने का मजबूत सन्देश दिया है। 
‘मातम’ कहानी में कथाकार ने एक निर्धन मुस्लिम परिवार की दुरवस्था का कारुणिक चित्रण किया है। मुख्य पात्र चच्चाजी के दोनों बेटे नालायक साबित होते हैं और इसी दौरान उनकी जीवनसंगिनी भी उनका साथ छोड़ जाती है। वे बिल्कुल ही टूट जाते हैं। उनका भतीजा अनवर और उसकी पत्नी शमा उन्हें सहारा देते हैं, उनका ख़्याल रखते हैं, किन्तु औलाद की उपेक्षा का दंश उनका पीछा नहीं छोड़ता और बावज़ूद इसके वे जीवन से भागना पसंद नहीं करते। मुहर्रम के त्योहार के लिए तैयार होना, फातेहा पढ़ना और अल्लाह से इनसान के दुख-दर्द बाँटने, सब में भाईचारा होने एवं मुल्क और क़ौम की हालतों में सुधार की कामना करना; मानव जाति और समाज के प्रति उनकी पीड़ा को तो दर्शाता ही है, साथ ही मानवीय मूल्यों के प्रति उनकी सजगता भी रेखांकित कर जाता है। 
कथाकार ने प्रतिबद्ध विचारधारा और अविश्वसनीय स्वप्न की अपेक्षा इनसान की सरल जीवन-शैली को प्रतिरूपित करके कटु यथार्थ को; वर्ग-संघर्ष और उसके विद्रोह से बिल्कुल ही भिन्न दिखाया है। इनकी कथावस्तु जीवन के सहज प्रवाह से उठाकर, उसे फिर से उसी प्रवाह में छोड़ देने की गवाही देती है। क्योंकि जीवन तो चलता रहता है, उसमें किसी तरह की जादूगरी की कल्पना नहीं की जा सकती।   
‘जुलूस’ कहानी में राजनेताओं द्वारा भीड़ इकट्ठी कर उसे जुलूस की शक्ल देने और इसके माध्यम से अपना निहित स्वार्थ साधने की कथा कही गई है। आम-जनता को उसके अधिकार दिलाने के नाम पर दंगे-फ़साद कराना और जन-भावनाओं को उकसाकर उसे बीच मँझधार में उनकी नियति पर छोड़कर निकल जाने की नेताओं की चालाकी और उनकी संवेदनशून्यता को उजागर करने वाली यह कहानी यथार्थ को मूर्त करती चलती है। इसी जुलूस में मानसिक संतुलन खो बैठे एक बेरोज़गार और लाचार युवक की पीड़ा को, एक मुख्य घटना का रूप देकर कथाकार ने यह साबित करने की कोशिश की है कि, कैसे-कैसे आम जनता का शोषण किया जाता है। उसे सब्ज़बाग दिखाए जाते हैं और अंततः उन्हें अपने ही हाल पर घुटने-पिसने के लिए छोड़ दिया जाता है। आम आदमी की पीड़ा की प्रतिनिधि कहानी के रूप में इसे पंक्तिबद्ध किया जाना चाहिए। 
इसी तरह ‘फ़साद’ कहानी में एक पण्डित की बेटी का एक मुस्लिम लड़के के साथ भाग जाने की अफ़वाह फैलाकर, समाज किस तरह फ़साद करने पर आमादा हो जाता है, इसे बड़े ही दिलचस्प घटना-क्रम से रूपायित किया गया है। दोनों संप्रदायों में तनातनी हो जाती है और दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। इसी घटना-क्रम के बीच मुस्लिम युवक आता है और बताता है कि ससुर द्वारा प्रताड़ित पण्डित-कन्या को वह उसके पति के पास छोड़कर आया है। दरअसल उस लड़की का पति बेरोज़गार होने के कारण, अपने पिता के विरुद्ध नहीं जा सकता था। इसलिए वह अपनी पत्नी को चाहकर भी अपने साथ रख नहीं पाता है। किन्तु जब उसकी नौकरी लग जाती है, तब वह इसी मुस्लिम लड़के की सहायता लेकर वह अपनी पत्नी को अपनाकर अपनी नौकरीवाली जगह ले जाता है। वह अपने पिता को छोड़कर पत्नी को अपना लेता है और इसमें उसका मुस्लिम साथी उसकी मदद करता है। यह कहानी हमें बताती है कि समाज का आपसी लगाव और भाईचारा अभी भी अपनी जगह सुरक्षित है। चन्द नकारात्मक तत्वों के कारण इसमें दरार पड़ती है और ग़लतफ़हमी ही फ़साद को जन्म देती है। 
कथाकार ने यहाँ भी आरोपित विचारधारा का सहारा न लेकर ईमानदारी से जीवन के सातत्य को अपनी रचना का विषय बनाया है।
जैसा कि कहा जा चुका है कि नफ़ीस  आफ़रीदी की कुल पचहत्तर कहानियों का संग्रह इस पुस्तक में किया गया है। सारी कहानियों का विश्लेषण तो संभव नहीं है; किन्तु उपर्युक्त कुछ कहानियों का उल्लेख कर मैं पाठकों को आश्वस्त करना चाहता हूँ कि, कथाकार की सारी कहानियाँ रोचक तो हैं ही, साथ ही हरेक कहानी के अपने-अपने तनाव हैं; जो पाठकों के मन-मस्तिष्क को उद्वेलित तथा प्रश्नाकुल करती चलती हैं। कथन-भंगिमा के व्यंजनात्मक होने के कारण तथा कथा के अन्त की संकेतात्मकता हरेक कहानी को एक नया आयाम देती चलती है। 
कथाकार आफ़रीदी की ऐसी सारी कहानियाँ आपको एक अलग ही संसार की सैर कराएँगी। मुझे विश्वास है कि, इस संग्रह के प्रकाशित होने पर सुहृद पाठक इसे हाथों-हाथ अपनाएँगे और संपादक की भगीरथ सधना सार्थक होगी। मुझे यह भी आशा है कि पुस्तक के प्रकाशित होने पर कुछ प्रबुद्ध समालोचकों का भी ध्यान नफ़ीस की इन कहानियों पर अवश्य जाएगा और इनका वास्तविक मूल्यांकन होगा तथा साहित्यिक दायित्व की पूर्ति होगी।
अस्तु !
डॉ. रत्नेश सिन्हा
PGT
DPS,Nigahi, Singrauli (MP)486884

 

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7 टिप्पणी

  1. अत्यंत महत्वपूर्ण और सारगर्भित लेख। पढ़ कर क ई नयी जानकारियां मिलीं।

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