Tuesday, September 17, 2024
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प्रो. रुचिरा ढिंगरा का लेख – सामाजिक एवं राष्ट्रीय संदर्भों में छायावादी काव्य

साहित्य अपने समय विशेष की राजनीतिक, सामाजिक ,धार्मिक और आर्थिक परिस्थितियों के परिणाम स्वरुप सृजित होता है। वह  मानव जीवन के विविध पक्षों को सत्यता और कल्पना के मणिकांचन योग से इस प्रकार उद्घाटित करता है कि प्रत्येक पाठक को वह अपना जीवन सत्य लगने लगता है। परिस्थितियों के साथ साहित्य में भी बदलाव देखा गया। इसी प्रकार राष्ट्र किसे कहते हैं? इस संदर्भ में भी परिभाषाओं में परिवर्तन आया।  गोविंद राम शर्मा का अभिमत है कि  राष्ट्र के व्यक्तियों के एक साथ मिलकर रहने और सामूहिक रूप से अपने देश की उन्नति के विषय में सोचने की इच्छा ही राष्ट्रीय भावना कहलाती है।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्थ  में देश की जनता में स्वाधीनता अथवा राष्ट्रीयता की भावना अधिक विकसित होने लगी। प्रथम विश्व युद्ध (1914 – 1918 ) के उपरांत राष्ट्रीयअंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में तीव्रता से परिवर्तन आया। भारत में भी  जनांदोलन का आरंभ हुआ। सन्  1916 में गांधी जी के प्रभाव स्वरूप यह आंदोलन शिक्षितों , मजदूरों  और किसानों के मध्य फैल गया और दासता से मुक्ति की इच्छा बलवती होने लगी।  सभी मानने लगे कि जिस समाज में रूढ़ियोंसड़ी गली मान्यताओं और परंपराओं का प्राचुर्य होगा वह समाज राष्ट्र को भी पतनोन्मुख करेगा।

आधुनिक काल में स्वाधीनता संग्राम ने संपूर्ण हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय चेतना का विकास किया।  स्वतंत्रता प्राप्ति तक कविताओं के माध्यम से कवियों ने जनमानस में राष्ट्रीय चेतना को प्रज्ज्वलित किया। छायावाद भी इसका अपवाद नहीं है। छायावाद 1918 – 1936 के विषय में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का अभिमत है किवह कविता छायावादी है जिसमें मानवतावाद, शास्त्रीय कठिनाइयों के प्रति अनास्थासांस्कृतिक चेतना आध्यात्मिक व्याकुलता की अभिव्यक्ति है।” (1)
छायावादी कविता में राष्ट्रीय जागरण और स्वतंत्रता प्रेम की अविरल धारा प्रवाहित होती दिखाई देती है। इस समयावधि में कई महत्वपूर्ण घटनाएं हुई यथा जलियांवाला बाग हत्याकांडमहात्मा गांधी द्वारा प्रारंभ किया गया असहयोग आंदोलन , लाजपत राय द्वारा साइमन कमीशन का बहिष्कार इत्यादि  इन सभी घटनाओं ने इस समय के कवियों को प्रेरित किया।  छायावाद के प्रमुख चार स्तंभोंप्रसाद ,पंत ,निराला और महादेवी के साथसाथ छायावादी अन्य कवियों ने भी स्वतंत्रता को व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखा। इन्होंने समस्त दीनदुखियोंपीड़ितों के संत्रास को अपनी कविताओं में वाणी देने का प्रयास किया।

छायावादी कवियों ने अपनी रचनाओं में राष्ट्रीय जागरण की बात की है। वर दे वीणा वादिनि वर दे (निराला),
जागो फिर एक बार (प्रसाद ),
अरुण यह मधुमय देश हमारा (प्रसाद, चन्द्रगुप्त नाटक
आदि रचनाएं इसी बात का प्रमाण हैं।  माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, बालकृष्ण शर्मा नवीन, श्यामनारायण पाण्डे, केदारनाथ मिश्र इत्यादि ने भी राष्ट्रीय बोध से ओतप्रोत रचनाएं लिखी। इस दृष्टि से माखनलाल चतुर्वेदी की कविता पुष्प की अभिलाषा महत्वपूर्ण है। युगयुगान्तर तक जनमानस इससे देशभक्ति की प्रेरणा ग्रहण करेंगें।
चाह नहीं मैं सुरबाला के
      गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमीमाला में
      बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव
      पर हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर
      चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
      उस पथ पर देना तुम फेंक,
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
      जिस पथ जावें वीर अनेक”(2)

मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविताओं में अतीत का चित्रण कर भारत को  सर्वशक्तिमान बताया है। देश विदेश से लोग यहां आकर ज्ञान विज्ञान की शिक्षा  प्राप्त करते हैं। भारत देवलोक के समान सुन्दर है, अतः इसके गौरव की रक्षा करना प्रत्येक भारतीय का प्रथम कर्तव्य है।

देखो विश्व में हमारा कोई उपमान नहीं था
नर देव थे हमऔर भारत देव लोक समान था। (3)

गुप्त जी ने  अपनी रचनाओं में रामकृष्ण की वीरता का अनुपम गौरवगान किया है; जिससे भारतीय नौजवानों में वीरता के भाव जागृत हो सकें और वे अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा और सम्मान को वापस ला सकें। जयद्रथवध (खंडकाव्य) में उन्होंने महाभारत कालीन वीर योद्धाओं की वीरता  को लिपिबद्ध करते हुए सबको उन जैसा बनने की प्रेरणा दी है।

‘‘अभिमन्यु षोडश वर्ष का फिर क्यों लड़े रिपु से नहीं ,
क्या आर्यवीर विपक्षवैभव देखकर डरते कहीं ?
सुनकर गजों का घोष उसको समझ निज अपयशकथा
उन पर झपटता सिंह शिशु भी रोष कर जब सर्वथा। ’’(4)
          सियारामशरण गुप्त ने अपने  काव्यग्रंथमौर्य विजय ’  में  चन्द्रगुप्त की कथा को आधार बनाकर भारतीय नौजवानों में वीरता का संचार किया है।  उन्होंने बताया कि हमारे वीरों के उज्जवल चरित्रों के सामने कोई भी शत्रु टिक नहीं सकता था। अतः नवयुवकों को इनके सदृश बनना चाहिए और निर्द्वंद्व भाव से देशप्रेम के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए।
‘‘ धीरवीर ये भारतीय होते हैं कैसे ,
किसी देश के मनुज देखे इनके जैसे
क्या ही उज्ज्वलगेय चरित इनके होते हैं
ग्रीकों का भी गर्वकार्य इनके खोते हैं। (5)
अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के परिणाम स्वरुप भारत के स्वर्णिम अतीत को स्मरण करते हुए इन कवियों ने व्यैक्तिक स्वतंत्रता के साथ ही हर प्रकार की दासता से मुक्ति की बात की है महात्मा गांधी के नेतृत्व में अहिंसा, प्रेम ,सत्याग्रह , नैतिकता इत्यादि मानवीय मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठित करने तथा जनमानस में राष्ट्रीय चेतना का संचार करने के लिए रचनाकारों ने इन्हीं विषयों को अपनी कविताओं का आधार बनाया।  प्रसाद की कविताओं के अतिरिक्त उनके नाटकों तथा कथा साहित्य में भी उनके पात्र राष्ट्रीय भावना , समाज सेवा, त्याग जैसी उत्कृष्ट भावनाओं से परिपूरित हैं प्रसाद नेकामायनीमहाकाव्य में सृष्टि कोचितिस्वरूप स्वीकार करते हुए उसे सुंदर माना है श्रद्धा मनु को संसार में प्रवृत्ति का मार्ग दिखाते हुए कहती हैं
कर रही लीलामय  आनंद
माहाचिति  सजग हुई सी व्यक्त
विश्व का उन्मीलन अभिराम
इसी में सब होते अनुरक्त।“(6)
इसी प्रकारपेशोला की प्रतिध्वनितथाशेर सिंह का शस्त्र समर्पणकविताओं में भी अतीत के गौरवशाली इतिहास के साथ पुनरुत्थान की भावना को लिपिबद्ध किया गया है।
          यह वह समय था जब जनता में निराशा का वातावरण छाया हुआ था इन कवियों ने युवकों को अपने देश के लिए जीनेमरने की प्रेरणा देते हुए नकारात्मक भावनाओं का खंडन किया और उन में मानवीय मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास किया। निराला नेदिल्लीकविता में भीम, अर्जुन, भीष्म पितामह जैसे वीरों भारतीय गौरव को स्मरण करते हुए वर्तमान परिस्थितियों की ओर नवयुवकों का ध्यान आकर्षित किया है जिससे वे पुनः उस गौरव को प्राप्त करने हेतु कटिबद्ध हों सकें। वे लिखते हैं
क्या यह वही देश है
भीमार्जुन आदि का कीर्ति क्षेत्र
चिर कुमार भीष्म का पताका ब्रह्मचर्य दीप्त
उड़ती है आज भी जहां के वायुमंडल में
उज्जवल अधीर और चिरनवीन।“(7)
                       महाप्राण निराला नेछत्रपति शिवाजी का पत्र‘, ‘ जागो फिर एक बारसदृश अपनी प्रसिद्ध रचनाओं में इतिहास की घटनाओं के आधार पर राष्ट्र का आवाह्न करते हुए नवयुवकों से गुलामी की जंजीरों को तोड़ अपने लिए सुनहरे भविष्य का निर्माण करने के लिए कहा है।
जागो फिर एक बार
पशु नहीं वीर तुम समर शूर क्रूर नहीं
कालचक्र में हो दबेआज तुम राज कुंवर ,समर सरताज।“(8)
तुलसीदासखंडकाव्य में उन्होंने तुलसीदास का अवलंब लेकर पराधीनता से संघर्ष कर स्वतंत्रता प्राप्ति की बात की है।

राष्ट्र प्रेम से युक्त कवि ने भारत माता के उस सुंदर  स्वरूप की अराधना की है जिसके पैरों में कमल सदृश लंका शोभायमान है और  जिसके चरण रज को सागर की लहरें निरंतर धोती रहती हैं। इस सजीव चित्रण द्वारा उन्होंने भारत माता को परतंत्रता की बेड़ियों  से मुक्त कराने का आह्वान किया है।
भारती  जय विजय करें
कनक शस्य कमल धरे
लंका पदतल शतदल
गर्जितोर्मि सागर जल
धोता शुचि चरण युगल
स्तव  कर बहु अर्थ भरे।“(9)
              देशवासी स्वतंत्र तो होना चाहते थे किन्तु आलस्य और अकर्मण्यता के कारण आज़ादी की लड़ाई में सम्मिलित नहीं होना चाहते थे। ऐसे में उनके अंदर देशभक्ति राष्ट्र प्रेम उत्पन्न  करना अतिआवश्यक था। महादेवी वर्मा ने निद्रा में निमग्न भारतीयों को जगाते हुए उन्हें समझाया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग में अनगिनत संघर्ष आएंगे किन्तु युवकों को उनसे घबराना नहीं चाहिए अपितु अपने पर विश्वास रखते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।
चिर सजग आंखें उनींदी
आज कैसा व्यस्त बाना
जाग तुझको दूर जाना।“(10)
             सुभद्रा कुमारी चौहान ने गांधी जी से प्रभावित होकर राष्ट्रीय कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू कर दिया था। उनकीझांसी की रानीतथावीरों का कैसा हो बसंतकविताएं नवयुवकों के मानस में वीरता की ज्वाला प्रज्वलित करने में सफल रहीं ।उन्होंने भारतीय नवयुवकों को स्वतंत्रता संग्राम में बलिदान देने हेतु प्रेरित किया। सुभद्रा कुमारी चौहान ने स्वतंत्रता आंदोलन में भी बढ़चढ़कर भाग लिया उन्होंने  महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी के लिए प्रेरित किया और उन्हें  स्वदेशी वस्तुओं को ग्रहण करनेसंकीर्णता से ऊपर उठने, व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर मानवता और देश हित के लिए बलिदान देने की सम्मति दी। उनकी कविताओं में देश प्रेम की भावना मूल रूप से सुनाई देती है।
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।“(11) 
             जलियांवाला बाग हत्याकांड ने सुभद्रा कुमारी के कोमल मन पर गहरा प्रभाव अंकित किया उन्होंने अपनी कविताजलियांवाला बाग में बसंतमें उन वीरों को श्रद्धांजलि देते हुए बसंत से आग्रह किया है कि वे धीरे से कुछ कलियां लाकर उन कोमल बच्चों पर आकर बिखेर दे जिनकी निर्मम हत्या की गई थी। इस कविता के माध्यम से सुभद्रा जी ने देशवासियों को  उन वीरों के बलिदानों का बदला लेने के लिए भी प्रेरित किया है।

                छायावादी कवियों ने  स्वतंत्रता को व्यापक सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखा है यही कारण है कि समस्त दीन दुखियों पीड़ितों का संत्रास उनकी कविताओं में उमड़कर गया है। निराला की भिक्षुक , तोड़ती पत्थरकुकुरमुत्ता इसी भाव को अभिव्यक्त करती रचनाएं हैं , जहां गरीब व्यक्ति दो वक्त के भोजन की व्यवस्था में दरदर  ठोकरें खाता है वहीं अमीर व्यक्ति अट्टालिकाओं में सुख वैभव पूर्ण जीवन यापन करता है। इस सामाजिक विषमता के प्रति क्षुब्ध होकर निराला कहते हैं
रुद्र कोष है क्षुब्ध तोष
अंगना अंग से लिपटे भी
आतंक अंक पर कांप रहे हैं
धनी , वज्र गर्जन से बदल।
त्रस्त  नयन मुख ढांप रहे हैं
जीर्ण बहु है शीर्ण  शरीर
तुझे बुलाता कृषक अधीर
हे,   विप्लव के वीर।“(12)
निराला सामाजिक विषमता को सभी दुखों का मूल कारण मानते हैं। भिक्षुक को जूठी पत्तल चाटते देख कवि का हृदय रो उठता है।
चाट रहे जूठी पत्तल वे कभी सड़क पर खड़े हुए
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए।“(13)
छायावादी कवियों ने पुरानी बंधी बंधाई लीक पर  ना चलकर  उन परंपराओं को अपनाने की बात कही है जो वर्तमान परिदृश्य में सबके जीवनादर्श बन सकें इस संदर्भ में उन्होंने सर्वप्रथम मानवता की बात करते हुएनर ही नारायणको स्वीकार किया और दीन दुखियों की निस्वार्थ सेवा करने  की सम्मति  दी इनका मानना था कि  जब तक एक भी व्यक्ति दीन दुःखी पीड़ित है समाज विकसित नहीं हो सकता। इन कवियों ने अतीत के गौरवशाली इतिहास से प्रेरणा अवश्य ग्रहण की है किंतु वहां वापस लौटकर भविष्य को ही गौरव युक्त बनाने की इच्छा व्यक्त की है।
            इन कवियों ने बंधनों से मुक्ति की बात करते हुए स्वच्छंद होकर आंतरिक मनोभावों को अभिव्यक्त करना चाहा ।इस समय का रचना कार सामाजिक  बंधनों से मुक्त होकर स्वच्छंद रूप से भावाभिव्यक्ति करना चाहता था। वह  स्वतंत्रता की भावना को जनजन तक पहुंचाना चाहता था। यही आत्म प्रसार की भावना छायावादी काव्य में भिन्नभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हुई है निराला ने अपनी कवितापंचवटी प्रसंगमें प्रेम और मुक्ति की भावना के विस्तार की बात करते हुए उसे समस्त सृष्टि में व्याप्त करने की आकांक्षा व्यक्त की उन्होंने लिखा
छोटे से घर की लघु सीमा में
बंधें हैं क्षुद्र भाव
यह सच है प्रिये
प्रेम का पयोनिधि तो उमड़ता है
सदा ही नि: सीम भू पर।” (14)
सुमित्रानंदन पंत जी का भी मानना है कि समय के काल प्रवाह के साथ ही प्राचीन आदर्श अपना सौंदर्य खो देते हैं अतः  रुढ़ियों से मुक्त होकर देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत हमें नए आदर्शों का अन्वेषण करना ही होगा पंत जी मानते थे कि सामाजिक चेतना में परिवर्तन लाकर तथा पुरातन  परंपराओं के नष्ट होने पर ही प्रगति संभव है
युगांत इस दृष्टि से महत्वपूर्ण रचना है।
गा कोकिल बरसा पावक कण
नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन“(15)
सारांशत: छायावादी कवियों की मुक्ति की यह इच्छा व्यक्ति, सामाजिक और राजनीतिक तीनों स्तरों पर विद्यमान थी इन कवियों  ने राजनीति को विषय बनाकर बहुत कम रचनाओं का सृजन किया तथापि स्वतंत्रता और राष्ट्र प्रेम की अनेक रचनाएं इस कालखंड में दृष्टिगत होती हैं।
संदर्भ
1.disahityakaithas.com
2.https://kaavyaalaya.org/pushp_kee_abhilaashaa
3.मैथिलीशरण गुप्त, भारतभारती
4.मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथवध
5.सियारामशरण गुप्त,, मौर्यविजय
6.प्रसाद , कामायनी
7.निराला ,दिल्ली
8.निराला ,जागो फिर एक बार
9.निराला ,भारत भारती
10.महादेवी वर्मा ,चिर सजग आंखें उनींदी
11 सुभद्रा कुमारी चौहान ,झांसी की रानी, पृष्ठ 33
12.  निराला ,बादल राग
13 निराला ,भिक्षुक
14 निराला , ‘पंचवटी प्रसंग
15. सुमित्रानंदन पंत, युगांत 


डॉ. रुचिरा ढींगरा
डॉ. रुचिरा ढींगरा
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, शिवाजी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली। दूरभाष.9911146968 ई.मेल-- [email protected]
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1 टिप्पणी

  1. बहुत अच्छा लेख है रुचिरा जी आपका! हमने बिल्कुल पूरा का पूरा पढ़ा।छायावादी चार स्तंभों के दर्शन करके मन प्रसन्न हो गया। जितने भी उदाहरण आपने उद्धृत किए सब एक से बढ़कर एक हैं।कुछ पढ़े हुए हैं कुछ बिना पढ़े हैं ,लेकिन उस समय की रचनाएं इतनी अधिक श्रेष्ठ होती थीं व समयानुकूल थीं जिनको पढ़कर आज भी मन आप्लावित हो जाता है। आपका यह लेख बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण है। काफी मेहनत की है आपने इस पर। काश आज का भारत इन चीजों को समझ पाए। जिन नेता लोग इन चीजों को पढ़ ही नहीं पाए हैं वह क्या शासन को संभालेंगे, फिर चाहे वह कोई भी हो।
    बेहद बेहद शुक्रिया आपका इस लेख के लिए।

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