Tuesday, October 22, 2024
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डॉ सुनीता का लेख – एक बड़े कद का कथाकार शैलेश मटियानी

शैलेश मटियानी हिंदी कहानी के बड़े स्तंभों में से एक हैं। जीवन के अलंघ्य प्रदेशों और कोनों-अंतरों में जाकर जिन बीहड़ अनुभवों की कहानियाँ उन्होंने लिखी हैं, वहाँ जाने का साहस तक हिंदी के दूसरे कहानीकार नहीं कर पाते। फिर भी मटियानी जी को हिंदी कहानी में जो सम्मान मिलना चाहिए था, वह अगर नहीं मिला, तो हम सभी के लिए यह लज्जास्पद है।
मटियानी जी के बारे में एक बात दो-टूक शब्दों में कही जा सकती है कि वे शुरू से लेकर अंत तक स्वतंत्र पथ के राहीरहे हैं। उन्होंने उस बिरादरी में शामिल होने से इनकार किया जो प्रगतिवादया जनवादका बिल्ला चिपकाए घूमती है, दिखावटी तौर पर ऊँची-ऊँची बातें करती है, लेकिन लगातार घटिया और फार्मूलाबद्ध कहानियाँ लिखती रही है। मटियानी उनसे इसलिए अलग हैं कि वे बड़ी-बड़ी किताबी बातें करने के बजाय अपने अनुभवों पर ज्यादा भरोसा करते हैं और उन्होंने एक से एक बेहतरीन कहानियाँ लिखी हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि बगैर जनवाद या प्रगतिवाद का बिल्ला लगाए, उन्होंने गरीब, शोषित और वंचित वर्गों की पीड़ा की ऐसी दिल दहला देने वाली कहानियाँ लिखी हैं, कि उनमें भारतीय समाज का अंदरूनी दर्द फूटा पड़ रहा है। ये वे कहानियाँ हैं, जिनमें आप भारतीय समाज का पूरा एक्सरे देख सकते हैं।
हिंदी के साहित्यकारों और मठाधीशों द्वारा मटियानी जी की उपेक्षा का प्रमुख कारण यही है कि वे लगातार चुनौती देते हैं कि अगर तुम्हारे मन में गरीबों, शोषितों के लिए प्रेम है, तो उनके निकट जाओ, प्रामाणिक अनुभव बटोरो और मुझ जैसी कहानी लिखकर दिखाओ। इसके जवाब में वे जो साहित्यकार कम, साहित्य के नेताया मठाधीश ज्यादा हैं, उन्होंने मटियानी जी पर कीचड़ उछालने की मुहिम शुरू कर दी कि शैलेश मटियानी झगड़ालूहैं। यह साफ तौर से उनकी साहित्यिक हत्याकी शर्मनाक कोशिश भी। विषम पारिवारिक परिस्थितियों के साथ-साथ इन दबावों ने भी निराला की तरह उन्हें पागपलन की हद तक पहुँचा दिया हो, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
कुछ अरसा पहले मटियानी जी की चुनिंदा कहानियों के बृहत् संग्रह शैलेश मटियानी की इक्यावन कहानियाँको पढ़ा तो एक बार फिर मैंने महसूस किया कि मटियानी जी कितने बड़े कद के लेखक हैं। उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे दिल में उतर जाती हैं और एक बार पढ़ने के बाद कभी भूलती नहीं हैं। इसलिए उन्हें पढ़ने का सुख वर्णनातीत है। मटियानी जी के दुख-दर्द की गाथा मैं जानती थी। एक लेखक के रूप में उनकी अनगिनत तकलीफें मन को उद्विग्न करती थीं। ऐसे में मटियानी जी की एक के बाद एक, इक्यावन चुनी हुई कहानियों को पढ़ना मेरे लिए कितना राहत देने वाला, बल्कि रोमांचक अनुभव था, बता पाना मुश्किल है। मुझे लगा, यह बृहत् संकलन उनके सही-सही मूल्यांकन की जमीन भी तैयार करता है। इसलिए कि मटियानी जी की तकरीबन सभी प्रमुख और चर्चित कहानियाँ इस संग्रह में आ गई हैं।
एक बात और। आज के निरंतर पनीले पड़ते संबंधों के दौर में, जबकि असली जीवन-रस बहुत कम रह गया है, इन कहानियों को पढ़ना एक गहरी सांद्र भावना या सघन अनुभूतियों से जुड़ने जैसा है। ये कहानियाँ हमें मुग्ध करती हैं और पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं। हालत यह होती है कि कुछ देर तक समय में रहते हुए भी हम केवल तात्कालिकता के पार, कहीं और, किसी दूसरे देश-काल में ठहर जाते हैं। इसलिए मटियानी जी की एक कहानी पढ़ लेने के बाद दूसरी कहानी आप तुरंत शुरू नहीं कर सकते। बीच में एक अंतराल का होना लाजिमी है, ताकि आप एक के प्रभाव से मुक्त होकर दूसरी कहानी पढ़ने के लिए मन बना सकें। मैं इसे भी इन कहानियों की असाधारण शक्ति ही मानूँगी, और मटियानी क्यों औरों से इस कदर अलग हैं, इससे यह भी पता चलता है।
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एक कथाकार के रूप में मटियानी जी का सबसे प्रिय क्षेत्र है, पारिवारिकता या दांपत्य संबंध। वे पूरी तरह एक पारिवारिक व्यक्ति हैं और उन तमाम शहराती सभ्य लोगों से अलग हैं जो एक बोहेमियन किस्म के अहं से जीवन भर लिथड़े रहना चाहते हैं। आप कह सकते हैं, यह मटियानी जी की सोच और संवेदना का केंद्र है और उनकी कहानी की भीतरी शक्ति और रस-स्रोत भी यही है। यहाँ तक कि वे गाँव की भोली-भाली अनपढ़ जनता के हालात का चित्रण करते हैं या शोषितों, वंचितों के दुस्सह दुख की कथा लिखते हैं—और तो और भिखारियों की नरक सरीखी जिंदगी पर लिखते हैं, तो भी उनके इस रस-स्रोत को टोहना नहीं भूलते।
दांपत्य संबंधों पर मटियानी जी की कई इतनी अच्छी कहानियाँ हैं कि उनका नाम गिनाना तक मुश्किल लग रहा है। फिर भी शरण्य की ओर’, ‘सावित्री’, ‘कुतिया के फूल’, ‘छाक’, ‘सुहागिन’, ‘अर्धांगिनी’, ‘हरीतिमा’, ‘असमर्थ’, ‘उत्तरापथआदि का विशेष रूप से नाम लेना चाहूँगी। इनमें शरण्य की ओरएक रिक्शा चालक बसंता और उसकी पत्नी रामकली की बड़ी मर्मस्पर्शी कहानी है। रामकली अपने पहले पति बसंता को छोड़, पहले किसी पहलवान के घर जा बैठती है। वहाँ से मन ऊबने पर एक ठेकेदार के यहाँ रहने लगती है। इस बीच बसंता उसे कभी-कभार मिल जाता है, जिसके मन में कहीं न कहीं उसके वापस लौट आने की उम्मीद बाकी है। और अखिर जब पैसे के अहंकार में डूबा ठेकेदार उसे स्वयं की भोग्या होने के अलावा अपने दोस्तों की भी भोग्या बनने को मजबूर करता है, तो रामकली रणचंडी का रूप धारण कर लेती है और रातोंरात अपनी चंचल प्रकृति से ऊबकर, फिर से अपने पति बसंता के यहाँ शरण लेती है। ऐसे में बसंता के आनंदतिरेक का तो क्या कहना! दांपत्य संबंधों की इतनी बारीकियाँ हैं इस कहानी में कि उन्हें केवल मटियानी ही लिख सकते थे। 
ऐसी ही एक और दमदार कहानी है सावित्री। एक कोठे वाली स्त्री का पुरुष के प्रति दृष्टिकोण यही होता है कि अपनी आकर्षक भाव-भंगिमाएँ और नाज-नखरे दिखाकर उससे जितना खसोट सको, खसोट लो। लेकिन ऐसी ही कोठे वाली स्त्री सावित्री को एक विधुर ठाकुर बलराम जब पत्नी का दर्जा देता है, तो वह किसी बच्चे की तरह फूट-फूटकर रो पड़ती है। मानो यह अकल्पनीय सुख वहन कर पाना उसे मुश्किल लग रहा हो। और फिर जाने कब, अनंत गहराई में दबा उसका स्त्रीत्व उभरकर आता है। फिर यही सावित्री बड़ी जिम्मेदार गिरहस्तिन बनकर, बलराम ठाकुर की उजाड़ पड़ी गृहस्थी को तिनका-तिनका जोड़कर फिर से बसाने की कोशिश में जुट जाती है। 
यह दांपत्य का सचमुच एक नया और अलक्षित पाठ है, जिसकी मिसाल कम ही देखने को मिलती है।
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कई अर्थों में मटियानी जी की कहानियाँ भारतीयता की पहचान या हिंदुस्तानी कहानी की जड़ों की खोज करती कहानियाँ लगती हैं। तमाम बदलावों और झंझावातों के बावजूद भारतीयता का सार-तत्व पारिवारिकता है, मटियानी जी ने यह पहचान लिया था। लिहाजा स्त्री-पुरुष के सहज आकर्षण और फिर पति-पत्नी के रूप में उनकी एकनिष्ठता का जैसा चित्रण इन कहानियों में है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। इन कहानियों में कहीं पुरुष भटका हुआ है तो स्त्री उसे प्यार की कशिश या दो मीठे बालों से राह पर ले आती है और यदि स्त्री भटकी हुई है, तो पुरुष उसके अपने नीड़ में वापस लौट आने की अनंत प्रतीक्षा ही नहीं करता, वरन् उसकी दृढ़ आस्था है कि वह एक न एक दिन लौटेगी जरूर, और उसका नीड़ फिर से चहचहाने लगेगा। यह बात जितनी पुख्ता ढंग से इन कहानियों में आई है, वैसी कहीं देखने को नहीं मिलती।
और प्रेम…! प्रेम तो यहाँ पवित्र सदानीरा की तरह है, कभी मरता नहीं, सूखता नहीं। मंद भले हो जाए या कुछ काल के लिए ओट भले हो जाए, पर अनुकूल अवसर आते ही किसी नन्हे अंकुर की तरह फूट निकलता है और उसकी हरीतिमा और सुगंध दिग-दिगंत तक फैल जाती है। यहाँ तक कि वह सिर्फ उसे ही शीतल नहीं करता जिसके हृदय में वह है, बल्कि अपने आसपास के संसार और अपने संपर्क में आने वाले हर प्राणी को भी अपने में समो लेता है। यह प्रेम अतींद्रिय प्रेम नहीं है, बल्कि इसी दुनिया का, हमारे ही संसार का प्रेम है जो हम सभी में मौजूद है। बस, हम उसे ढूँढ़ नहीं पाते। उसका प्रत्यक्षीकरण नहीं कर पाते, वरना कस्तूरी मृग की तरह वह हमारे भीतर हर समय मौजूद है। यह शुद्ध भारतीय संस्कृति का रूप है, जिसे मटियानी जी प्रगाढ़ दांपत्य संबंधों के रूप में चित्रित करते हैं।
कहते हैं, प्रौढ़ावस्था तक आते-आते प्रेम छीज जाता है, पर मटियानी जी की कहानी कुतिया के फूलप्रौढ़ दांपत्य प्रेम की बड़ी अद्भुत कहानी है। पचहत्तर वर्ष की वय में भी एक वृद्ध पुरुष और एक वृद्ध स्त्री अपने बेटे-बहुओं के चले जाने पर नितांत अकेले छूट जाते हैं। यानी दांपत्य का सफर जो दो से शुरू हुआ था, अंत में दो पर ही खत्म होता है। वे दोनों घर में अकेले हैं, पत्नी का मन दुख से भरा है। सर्दियों के दिन हैं। ऐसे में वृद्ध पति अपनी पत्नी के लिहाफ में आ जाता है और दो शरीर बिल्कुल चिडिय़ों की प्रफुल्ल हो जाते हैं। 
यहाँ स्पर्श वासनापूर्ति के लिए नहीं, वरन् एक-दूसरे को महसूस करने के लिए है। एक अवस्था आने तक हम अपने ही साथी का स्पर्श तक भूल जाते हैं। बीच में बेटे-बहू, नाती-पोते, रिश्तेदार, जाने कितने झंझट-झमेले और दुनियादारी आ जाती है कि याद तक नहीं रखते कि एक-दूसरे के स्पर्श से कैसे स्पंदित होते थे। और इस अवस्था में तो शरीर को बिल्कुल मिट्टी ही मान लेते हैं। लेकिन नहीं, मृत्यु तक शरीर मिट्टी नहीं होता, उसमें संवेदनाएँ रहती हैं। बस टटोलनी पड़ती हैं। कुतिया के फूलके कथानायक शास्त्री जी के शब्दों में, “श्रृंगार ही प्रेम नहीं, विषाद भी है…और उत्तरार्द्ध में इस रहस्य को समझ लेना जरूरी है कि वास्तव का संबंध अब होना है।सचमुच प्रौढ़ दांपत्य प्रेम की बड़ी ही अद्भुत कहानी है यह।
मटियानी जी की छाकभी अपूर्व कहानी है जिसमें ऐसे ही दिव्य प्रेम का चित्रण है। दिव्य माने अलौकिक नहीं, बल्कि इसी धरती का—अपने श्रेष्ठतम रूप में। उमा अपने पति किशन मास्टर के पहले प्रेम को जानती है। किशन मास्टर ने यह छिपाया नहीं है। साठ साल की अवस्था में भी किशन मास्टर गीता मास्टरनी को भूल नहीं पाए हैं, हालाँकि उमा से भी वे इतना प्रेम करते हैं कि वह उनकी साथिन बन गई है—उनके अतीत की भी। अपने आपरेशन के समय गीता मास्टरनी द्वारा की गई सेवा और उसकी निश्छलता से वह इतनी अभिभूत है कि उसे इसमें कुछ भी गलत या पाप जैसा नहीं लगता कि उसका पति अब भी उस स्त्री के प्रति बड़ा कोमल भाव रखता है। 
गीता मास्टरनी की मृत्यु का समाचार मिलने पर किशन मास्टर उमा को बताए बगैर एक समय का छाक छोड़ना चाहते हैं, गीता मास्टरनी के प्रति श्रद्धा या सम्मान की भावना से। पर उमा तो उनकी एक-एक मुद्रा का अर्थ जानती है। वह भी एक समय का छाक त्याग देती है। जैसे कि वह सिर्फ किशन मास्टर ही नहीं, उन दोनों का अभिन्न अंग थी। पूरी कहानी में प्रेम की मद्धिम-मद्धिम आँच बराबर महसूस की जा सकती है।
अर्धांगिनी’, ‘असमर्थ’, ‘माता’, ‘सुहागिनी’, ‘लो, तुम भी खा लो’, ‘हरीतिमा’, ‘भस्मासुर’, ‘चुनाव’, ‘उत्तरापथ’, ‘मिसेज ग्रीनवुडआदि कहानियाँ भी इसी ढंग की कहानियाँ हैं जिनमें बड़ा ही सरल, सीधा लेकिन शहदीला प्रेम बहता है। इनमें सुहागिनीपहाड़ी अंचल की एक बिल्कुल भिन्न तरह की कहानी है। घोर दरिद्रता के कारण पहाड़ का गरीब आदमी अपनी बहन पद्मावती का विवाह नहीं कर पाता तो ऐसे में मृत्युशैया पर लेटे भाई की इच्छापूर्ति के लिए पैंतालीस वर्षीया पद्मावती का विवाह मंगल घट से कर दिया जाता है। यह कैसी क्रूर और अंदर तक बेध जाने वाली प्रथा है कि एक जीवित स्त्री जिसमें संवेदनाओं के अपार सागर का आलोड़न-विलोड़न चल रहा है, उसे एक कलश को पति मानने को बाध्य किया जाए। इस त्रासदी को क्या ठीक-ठीक शब्दों में कहा और समझा जा सकता है
बहरहाल, जीवन के निचाट सूने रास्ते पर चलते-चलते जब वह उसी घट को सचमुच का पति मान लेती है (इसे क्या मानसिक विचलन कहेंगे!) तो जरा देखें कि उसे कैसे व्यंग्य-बाणों से बींधा जाता है, जितनी सेवा-टहल ललीज्यू इस ताँबे के खसम की करती हैं, उतनी तो मैं हाड़-मांस के स्वामी की भी नहीं कर सकती…! आखिर कहीं पद्मावती ललीज्यू के ही कुंभ से तो नहीं जनमेगा फिर से कोई अगस्त्य मुनि?” 
कहानी का अंत स्तब्ध कर देने वाला है। एक पति-वंचिता स्त्री के दुख को मटियानी जी ने कितनी गहराई से समझा है, सोचकर हैरानी होती है।
चुनावभी एक मार्मिक कहानी है, पर यहाँ विडंबना कुछ अलग तरह की है। दुख शांत, लेकिन बहुत गहरा। किसी गहरे आत्मत्याग जैसा। कहानी में चुपचाप अपने प्रिय को किसी दूसरे का होते देखना और स्वयं जीवन से भी किनारा कर लेने की मार्मिक अभिव्यक्ति कँपा देती है। चुनावमें कमला शिल्पकारनी से बेपनाह प्रेम करने वाले पंडित कृष्णानंद का जीवन और मौत दोनों ही एक अजब त्रासदी का हिस्सा लगते हैं।
इस त्रासदी का एक अलग शेड हरीतिमामें है। हरीतिमाएक महिला आश्रम की वार्डन मिस उपाध्याय की एक अव्यक्त सी उदासी में लिपटी कहानी है। मिस उपाध्याय जो स्वयं अपने प्रेम को नहीं पा सकीं, वे जब अपने आश्रम की एक संवासिनी राधिका पातर को अपने प्रतीक्षातुर प्रथम पति के साथ जाने के लिए खिड़की से कूदते हुए देखती हैं तो वे बिल्कुल चुपचाप देखती रह जाती हैं। सच तो यह है कि वे इसमें एक अव्यक्त किस्म की तृप्ति भी महसूस करती हैं कि जो वे खुद नहीं पा सकीं, वह दूसरे को तो प्राप्त करने की निमित्त बन जाएँ।
मटियानी जी की एक और सादा, लेकिन भावुक सी कहानी है असमर्थ, जिसे पढ़ना प्रेम की गहरी तल्लीनता से भर जाने की मानिंद है। यह दूसरी माँ के निरीह से बेटे बहादुर सिंह, जो एक हाथ से लूला है, की कथा है। उसके सौतेले भाई उसे निरा बुद्धू समझकर कोल्हू के बैल की तरह काम लेते हैं और उनके मन में उसे संपत्ति में से रत्ती भर भी देने की मंशा नहीं है। यहाँ तक कि उसका विवाह होने पर वे उसे पत्नी पार्वती से मिलने तक नहीं देते और धीरे-धीरे पार्वती भी उसे निरा लल्लू समझने लगती है। परिणाम यह होता है कि पार्वती के मन का तार गाँव के ही एक समर्थ व्यक्ति शिवचरण से जुड़ जाता है, जिसके साथ वह भागने की तैयारी में है। ऐसे में न जाने कब यह असमर्थअपने भीतर अब तक संचित, पर अलक्षित सामर्थ्य को इकट्ठा करता है तथा धनुष की सी टंकार भरते हुएपत्नी की कमर पकड़कर उसे लौटा लाता है। 
यह मटियानी जी के अपने खास अंदाज की विलक्षण कहानी है। निस्संदेह यादगार कहानी भी, जिसे लिखना हर किसी के बूते की बात नहीं है। 
उत्तरापथभी ऐसी ही एक अलग सी कहानी है। रिटायर होने के बाद एक बड़े अधिकारी पांडे जी अपने पुरखों के गाँव की यात्रा पर जाते हैं। इस यात्रा में पत्नी की स्मृति और घर की यादें कैसे अनुपस्थिति को उपस्थितों में बदल देती हैं, इसकी बड़ी मार्मिक अभिव्यक्ति है। प्रेम एक अव्यक्त खुशबू की तरह कहानी के शब्द-शब्द में व्याप्त है और जैसे-जैसे हम कहानी को पढ़ते हुए आगे बढ़ते हैं, वह हमारे दिल में उतरता जाता है। इसीलिए उत्तरापथ एक ऐसी कहानी है, जिसे पढ़ते हुए मन में सुवास सी भर जाती है। पाठक एक उदात्त भावभूमि पर जा पहुँचता है। यह एक विरल कहानी है, जिसे शैलेश मटियानी जैसा कोई सधा हुआ कथाकार ही लिख सकता था।

लेकिन दांपत्य संबंधों को लेकर मटियानी जी की सबसे अच्छी कहानी है अर्धांगिनी, जिसका शुमार केवल मटियानी जी की ही नहीं, बल्कि हिंदी की सबसे अच्छी कहानियों में होता है। अर्धांगिनीका कथ्य सिर्फ इतना है कि सेना का एक सूबेदार छुट्टियाँ मिलने पर घर लौटकर आता है और फिर छुट्टियाँ काटकर वापस जा रहा है। इस बीच उनके अंदर जो कुछ चलता है, वह इस कहानी में बड़े ही सजीव रूप में उतर आया है। खासकर अपने तैनाती क्षेत्र से चलने से लेकर घर पहुँचने तक की उसकी जो आकुलता है, उसका इतनी खूबसूरती से चित्रण किया है मटियानी जी ने कि देखते ही बनता है। रास्ते भर किसी भी औरत के दिखाई पड़ने पर उसमें उसे जित देखूँ तित लालकी तरह सूबेदारनी की ही छवि दिखाई देती है। और घर आने पर तो छुट्टियाँ कैसे पंख लगाकर उड़ गई, आनंद के क्षणों को जीते हुए उसे पता ही नहीं चलता। फिर वापस जाते हुए जब वह सूबेदारनी से भी साथ चलने के लिए कहता है तो उसका उत्तर है, किस बार नहीं चली हैं। जब छाया न रहे, तब समझो साथ नहीं है।” 
और फिर सूबेदार के बस में बैठते ही स्मृतियाँ पक्षियों की तरह उदित हो जाती हैं भीतर। कौन क्षण कैसा बीता सूबेदारनी के साथ, जंगल की हवा की तरह बजने लगता है भीतर। पूरी कहानी में मानो भीतरी नदी की यात्रा है। दांपत्य संबंधों की ऐसी तरलता की कहानियाँ हिंदी में बहुत कम हैं। और उनमें भी ज्यादातर कहानियाँ शैलेश मटियानी के ही खाते में दर्ज हैं। 
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मटियानी जी की कहानियों की एक छोटी सी धारा राजनीतिक कहानियों की भी है। हालाँकि एक कथाकार के रूप में मटियानी जी का ज्यादा ध्यान राजनीति की ओर नहीं जाता तथा बहुत ज्यादा राजनीतिक कहानियाँ उन्होंने नहीं लिखीं। फिर भी इस धारा की कुछ अच्छी कहानियाँ इस संग्रह में शामिल हैं। नेता जी की चुटिया’, ‘भेड़ें और गड़रिए’, ‘जुलूस’, ‘हत्यारेआदि राजनीति से प्रेरित कहानियाँ हैं। नेता जी की चुटियामें एक हिंदू नेता चुनाव में जीतने का कोई अचूक नुस्खा ढूँढ़ता है। वह यह कि किसी मुसलमान हज्जाम के पास जाओ और बाद में आरोप लगा दो कि इसने मेरे धर्म की प्रतीक चुटिया काट दी। बस, इसी बात का ऐसा बतंगड़ बनता है कि सांप्रदायिकता भड़क उठती है। दोनों तरफ से विष-वमन होता है, पर अंत में माफीनामे माँगे जाते हैं और चुनाव की हवा जो दूसरे के पक्ष में थी, वह अब हिंदू नेता ठाकुर साहब के पक्ष में मुड़ जाती है। 
आज के राजनीतिक अवसरवादी माहौल पर कटु व्यंग्य है यह कहानी। साथ ही, उन लोगों को जवाब भी है जो मटियानी जी को एक खास तरह की हिंदुत्वादी विचारधारा से जुड़ा मानते हैं। जबकि सच्चाई तो यह है कि वे अपनी कहानियों में इनसान और इनसानियत के एक बड़े पैरोकार के रूप में उभरते हैं, और सब तरह के भेदभाव से परे, एक व्यापक धरातल पर मानवीय संवेदना की तलाश करते नजर आते हैं।
इसी तरह हत्यारेमें जो लोग दलितों के पक्ष में मंच से बढ़-चढ़कर भाषण देते हैं, वही बाद में उन दलितों के हत्यारे साबित होते हैं। यह एक कटु यथार्थ है। जुलूसकहानी में इस यथार्थ की एक दूसरी तस्वीर है। बड़े-बड़े रईस लोग तथा कुछ छोटे-मोटे लोग भी जुआ खेलते हुए पुलिस द्वारा धर लिए जाते हैं। पर रइसों को तो रातोंरात छोड़ दिया जाता है और साधारण लोगों का सिर गंजा कराके, भूखा-प्यासा रखकर उनका जुलूस निकाला जाता है। यह भी आज के राजनीतिक माहौल पर एक कठोर टिप्पणी है, जिसमें एक सक्षम और शक्तिशाली व्यक्ति को हर तरह का भ्रष्टाचार और घोटाला करने की छूट है। भेड़ें और गड़रिएमें जनता भेड़ का शाश्वत प्रतीक है और गड़रिए सदा से उन्हें मूँड़ते आए हैं। इसे लेकर बहुत अच्छी तरह कहानी का ताना-बाना रचा गया है। कहानी अच्छी है, लेकिन बहुत फैल गई है, जिससे उसका प्रभाव थोड़ा कम हो जाता है। 
सतजुगियामें दलित चेतना की अभिव्यक्ति है। पुरानी पीढ़ी कितनी निष्ठा से धर्मभीरु बनकर गुलामी करती थी, पर नई पीढ़ी कैसे विद्रोही तेवर लिए हुए है, इसकी बड़ी जोरदार अभिव्यक्ति इस कहानी में है। कहानी में पुरानी और नई पीढ़ी का एकदम सही प्रतिनिधित्व करने वाले पात्र हैं, हरराम और परराम। ये इन दो पीढ़ियों के प्रतीक बनकर सामने आते हैं, और आज के यथार्थ को हूबहू हमारी आँखों के आगे ले आते हैं। कहानी के अंत में हरराम का मरना जैसे एक लंबी गुलामी की परंपरा का अंत होना है। और यह संदेश भी, कि आगे का जमाना आजाद पीढ़ी का है। आश्चर्य है, मटियानी जी की दलित चेतना की इतनी अच्छी कहानी को लोग भूल कैसे गए?

समाज के कमजोर तबके से जुड़ी मटियानी जी की इसी तरह की एक और चर्चित कहानी है, अहिंसा। इसे राजनीतिक कहानी तो नहीं कहा जा सकता, पर इसमें एक गरीब आदमी के भीतर इकट्ठा होता आक्रोश एक बड़ी सामाजिक उथल-पुथल की सूचना जरूर देता है। गाँव से आया एक गरीब खाट बुनने वाला जगसर अपनी बीमार पत्नी बिंदा को बड़ी मुश्किलों से हस्पताल में दाखिल करा पाता है। फिर डॉक्टरों की हृदयहीनता।
इसी बीच मृत्यु की ओर बढ़ती पत्नी के प्रति किसी कंजूस की धन के प्रति बढ़ती लिप्सा की तरह बढ़ता प्रेम और उसे किसी भी तरह बचा लेना की उत्कट इच्छा। पर पत्नी के नहीं बचने पर वही गाँव का व्यक्ति एकदम ठंडेपन के साथ उसी डॉक्टर के घर जाता है, जिसने पूरे रूपए न होने के कारण उसकी पत्नी का ऑपरेशन नहीं किया था और जिसके कारण उसकी मौत हो गई।
कहानी के आगे बढ़ने के साथ-साथ जैसे हम भी अव्यक्त रूप से उसके साथ-साथ आगे बढ़ते हैं और डॉक्टर के सिर पर मारने के लिए उसके बसूले लिए आगे बढ़े हुए हाथ में अपनी भी शक्ति समाहित कर देते हैं। बड़ी ही सधी हुई दमदार कहानी है अहिंसा, और इसे मटियानी जैसा कोई बड़ा कथाकार ही लिख सकता था। पूरे हिंदी कथा-साहित्य में ऐसी कहानियाँ दुर्लभ हैं।
मटियानी जी की एक और मार्मिक कहानी है, मैमूद। उनकी यादगार कहानी, जिसकी बहुत चर्चा भी होती है। एक बूढ़ी मुस्लिम स्त्री जद्दन एक बकरा पालती है, जिसे वह बड़े प्यार से मैमूद कहकर पुकारती है। मैमूद को वह बिल्कुल अपने बेटे की तरह स्नेह देती है और दिन भर उसी की सेवा-टहल और प्यार-दुलार में लगती रहती है। बेटे के ससुराल वाले, यानी मेहमान घर आने वाले हैं, तो साफ है कि दावत तो होगी, और बकरे के मीट के बिना दावत कैसी! बेटों के लिए तो वह अन्य बकरों जैसा ही है, जिसका वजन ही उनके लिए मायने रखता है कि कितने किलो मांस इसमें से निकलेगा और बढ़िया दावत हो जाएगी। ऐसे में माँ के बार-बार इनकार करने पर भी आखिर वही होता है, जो नहीं होना चाहिए था। 
भीतर ही भीतर जद्दन भी जानती है कि बकरा काटे बिना उसका पति और बेटे मानेंगे नहीं। तो वह उसे कैसे देखेगी अपनी आँखों के सामने कटते हुए? इसी द्वंद्व को बड़े यथार्थपरक ढंग से कहानी में उभारा गया है। कहानी में जद्दन के साथ पाठक भी खुद को कहीं न कहीं यह दुआ करता पाता है कि किसी तरह मैमूद बच जाए। हालाँकि वह भीतर से अच्छी तरह जानता है कि इस दुआ को फलना नहीं है। 
मटियानी जी कैसे एक कुशल तैराक की तरह अपने पात्रों के मन की गहराई थाह लेते हैं, देखकर आश्चर्य होता है और आह्लाद भी! कहानी पढ़ते हुए उनके साथ हम भी मन के ऐसे बीहड़ क्षेत्रों का प्रत्यक्षीकरण कर लेते हैं, जिनकी कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे।
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मटियानी जी की थोड़े अलग धरातल की एक और बड़ी अद्भुत कहानी है, माता। यह उनकी कथायात्रा के आखिरी चरण में लिखी गई सबसे अच्छी और भावपूर्ण कहानियों में से एक है, जिसे सही मायनों में एक बड़ी कहानी कहा जा सकता है। ऐसी कहानी, जो पढ़ने के बाद देर तक स्मृति में रह जाती है। यों कहानी का कथ्य बहुत संक्षिप्त है। किशोरावस्था में ही एक लड़की अपने गाँव में आई जोगिनियों की टोली के भजन-कीर्तन से प्रभावित होकर खुद भी उनके साथ लग लेती है और जोगिनी बन जाती है। दस वर्ष तक जोगिन का जीवन जीते हुए कई बार उसके मन में शंका होती है कि उसने ठीक किया, या शायद नहीं? लोगों के लिए अब वह पूजने योग्य माताहै, पर उसके भीतर तो एक स्त्री का आकुल इच्छा-संसार अभी जीवित है। 
एक बार ऐसे ही घूमते-घामते जब वह अपने गाँव मिहलगाँव के पास पहुँचती है तो उसके भीतर उस धरती की गंध से जुड़ी स्मृतियों का अंधड़ चलने लगता है। उसका चित्त खूँटा तुड़ाकर भागने वाले पशु की तरह जोर-जबरदस्ती करने लगता है। स्मृतियाँ इस कदर भल-भल करते हुए दृश्य पर दृश्य उपस्थित करती हैं कि उन दृश्यों की गूँज से उसे लगता है, अपने कान बंद कर ले, नहीं तो इस अंधड़ में वह खड़ी नहीं रह पाएगी। उसकी इस भावाकुलता का इतना सटीक चित्रण इस कहानी में है कि इसे पढ़ते हुए हम किसी और दुनिया में जा पहुँचते हैं।
कहानी के अंत में यही बेटी विवाहिता के रूप में जब अपने पिता से मिलती है तो वह दृश्य पाठक को भी अभिभूत किए बना नहीं रहता। चित्त-वृत्तियों का ऐसा दर्पण इस कहानी में है कि यह कहानी कहीं न कहीं हमें अलौकिक लगती है, जो पाठक से भी एक खास मानसिक धरातल की माँग करती है।
मटियानी जी की चुनिंदा इक्यावन कहानियों के इस बृहत् संग्रह की कुछ और नायाब कहानियाँ हैं—इब्बू मलंग’, ‘रहमतुल्ला’, ‘पोस्टमैन’, ‘प्यास’, ‘दो दुखों का एक सुख’, तथा चील। इन कहानियों में ज्यादातर निम्न वर्ग के पात्रों की पीड़ा है जो मनुष्य से एक नहीं, कई दर्जा नीचे रह रहे हें। इनमें इब्बू मलंगका रंग सबसे अलग है, और मटियानी जी की कहानियों की कोई छोटी से छोटी सूची भी बनाई जाए, तो भी इब्बू मलंगको तो उसमें लेना ही होगा। निम्न वर्ग के पात्रों को लेकर लिखी गई हिंदी कथा-संसार की सबसे अच्छी और विलक्षण कहानियों में इसका शुमार होता है।
यों इब्बू मलंग एक दीन-हीन, लावारिस आदमी है। कुछ गुंडे और तस्कर किस्म के लोग उसे पीर घोषित करके उसकी पूजा शुरू कर देते हैं। एक पहुँचे हुए सिद्ध पीर के रूप में उसका प्रचार करके वे भोली-भाली जनता से खूब चाँदी काटते हैं। पीर बने उस व्यक्ति को वे मूर्ति में तब्दील कर देते हैं, जिस पर लोगों की श्रद्धा भी बढ़ती जाती है। पर एक दिन यही मूर्ति कैसे सारे बंधन तोड़कर हाड़-मांस के एक संवेदनशील इनसान के रूप में जीवंत हो जाती है, इसका बड़ा अद्भुत चित्रण है इस कहानी में। 
इसी तरह रहमतुल्लाएक स्वस्थ, किंतु लावारिस बच्चे की मार्मिक कथा है। कैसे वह दर-दर की ठोकरें खाता है और तरस खाकर एक फकीर उसे बेटे की तरह पालता है, कहानी में इसका बड़ा प्रभावशाली चित्रण है। पर उस फकीर की मृत्यु हो जाने पर वह फिर से लुढ़कन्ना लोटा बनकर लोगों की ठोकरें खाने लगता है। उस पर विडंबना यह कि धर्म के ठेकेदार उसकी मजबूरी न समझकर, अपना-अपना क्रूर खेल खेलने में लगे हैं। कहानी का अंत रहमतुल्ला की बेचारगी की बड़ी करुण तस्वीर हमारी आँखों के आगे उभार देता है। 
प्यासकहानी में जेबकतरे शंकरिया की पीड़ा भी थरथरा देने वाली है। सच तो यह है कि शंकरिया मटियानी जी के न भूलने वाले यादगार पात्रों में से एक है। चीलकिसी हद तक मटियानी जी की आत्मकथात्मक कहानी है। इसमें घोर कारुणिक तथा भयावह भूख की स्थितियाँ हैं। सिर्फ जीवित रह पाने के लिए भी कहीं कुछ हासिल नहीं होता तो अंत में मौत ही शरण देती है। यह जीवन के नंगे यथार्थ का चित्रण करती कहानी है। ऐसे ही दो दुखों का एक सुख कहानी सूरदास, मिरदुला कानी और करमिया के जिस गहरे दैहिक प्रेम से होकर उदात्तता तक जाती है, वह सचमुच विरल है। ऐसी कहानियाँ हिंदी में उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं।
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एक कथाकार के रूप में मटियानी जी की उस्तादी उनके चरित्र-चित्रण में खासकर देखने को मिलती है। शायद इसीलिए यह मटियानी जी की ही सामर्थ्य है कि अपनी कहानियों में जितने अद्भुत, जीवंत और आम लोगों की तरह चलते-फिरते, हँसते-रोते साँस लेते पात्र उन्होंने उपस्थित किए हैं, वैसे पात्र हिंदी के कथा परिदृश्य में शायद बहुत ज्यादा दिखाई न पड़ें। वृत्तिकहानी में सुरजो बाई का चरित्र वे इस कदर ऊपर उठा देते हैं कि उसके प्रति श्रद्धा उमड़ती है। हालाँकि वह वेश्याओं की बाई है, पर कहानी में उसका चरित्र बड़ा उदात्त है। इसी तरह बसंता, लछिमा, शांति अहीरन, सूरदास, कुंती, बहादुर सिंह, जद्दन, सुमिता, मिरदुला कानी, भागुल, जगेसर, पारबती, सूबेदारनी, पद्मावती, अंबा आदि बड़े उदात्त और सशक्त चरित्र हैं जिनका जोड़ मिलना मुश्किल है। यों भी मटियानी की कहानियों में टाइप्ड पात्र या गढ़े-गढ़ाए चरित्र आपको ढूँढ़े से भी नहीं मिलते। उनकी खूबी है कि वे अपने स्पर्श से मामूली पात्रों को भी विलक्षण बना देते हैं।
मटियानी जी की एक और खासियत है, उनकी भाषा। उनके पास एक ऐसी समर्थ भाषा है, जो कहीं अटकती नहीं। किसी भी भाव का चित्रण करने में भाषा बहती सी चली जाती है। ऐसा कहीं नहीं लगता कि जो वे कहना चाहते हैं, कह नहीं पाए। बल्कि अकसर वे हमारे समक्ष बहुत थोड़े शब्दों में पूरा दृश्य उपस्थित कर देते हैं। उदाहरण के लिए एक कहानी में चुपचाप, अडोल आँसू बहाती स्त्री का चित्र उन्होंने यों खींचा है, रस्सी पर लटके भीगे कंबल की तरह अडोल, टप-टप बूँदें टपकती।इसी तरह माताकहानी में उन्होंने मन के भीतर का चित्रण यों किया है, “जैसे किसी पुरातन मंदिर में, तैसे ही आदमी के भीतर भी गर्भगृह बना होता है। वहाँ अंधकार पारावार की भाँति है। कोई नहीं बता सकता कि कुल कितना होगा। बस, कभी जब अचानक ही झिलमिल सी होती है, तब लगता है दृश्य पर दृश्य प्रकट होते जा रहे।” 
इसी तरह बरसों बाद पिता से बेटी के मिलने पर, उसे लगा, पिता का हृत्कंप उस तक किसी भूकंप की भाँति पहुँच रहा है। उनका रोना अपने को सिर से पाँवों तक जल-प्लावन में करना प्रतीत हुआ, जैसे कोई पर्वत दरक गया और उसका सारा संचित जल फूट पड़ा हो।मटियानी जी कहानियों में ऐसे अनेक बिंब जगह-जगह बिखरे पड़े हैं, जिनकी चमक पाठकों को मग्ध करती है, और देर तक उनके मन में बनी रहती है।
शैलेश मटियानी की इक्यावन कहानियाँनिश्चित रूप से उनकी चुनिंदा कहानियों का एक अच्छा और प्रतिनिधि संग्रह है, जिसमें उनके समर्थ कथाकार के तमाम रंग और मुद्राएँ हैं। और सबसे खास बात तो यह है कि इसमें एक से एक बढ़िया कहानियाँ हैं। आज की फटफटिया कहानियों के दौर में इन कहानियों को पढ़ना एक सुखद आश्चर्य की तरह है। 
सचमुच ये कहानियाँ बहुत धीमे-धीमे पकाकर बड़े धैर्य और इत्मीनान के साथ लिखी गई हैं। मटियानी जी का कहानी लिखने का ढंग ही यही है, जिससे वे कहीं गहरे पुकारती जान पड़ती हैं। इस पुकार को अनसुना करना कठिन है। इसीलिए मटियानी जी की हर कहानी दिल में गहरे धँसती है। इन कहानियों को पढ़कर गर्व भी महसूस होता है कि इतने कद का कहानीकार हमारे बीच था, और शर्म से सिर भी झुकता है कि मटियानी जी को जितना सम्मान मिलना चाहिए था, उसका शतांश भी हम नहीं दे पाए। कितनी बड़ी उपेक्षा और षड्यंत्र का शिकार हुए हैं वे। 
काश, मटियानी जी के जाने के बाद ही सही, उनके विलक्षण कथा-साहित्य के मूल्यांकन की ईमानदार कोशिश हमने की होती। मटियानी जी ने अपने मर्मांतक दुख-तकलीफों और घोर जीवन-संघर्षों से हासिल किए गए अनुभवों को अपनी कहानियों में पिरो दिया। इसलिए हिंदी में शैलेश मटियानी जैसा संवेदनशील कथाकार कोई और नहीं है। शायद हो भी नहीं सकता। 
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डा. सुनीता
सुप्रसिद्ध लेखिका तथा बच्चों की जानी-मानी कथाकार।
जन्म : 29 जनवरी 1954 को हरियाणा के सालवन गाँव में।
शिक्षा : एम.ए. (हिंदी), पी-एच.डी.। शोध का विषय—‘हिंदी कविता की वर्तमान गतिविधि : 1960 से 75 तक। कुछ वर्षों तक हरियाणा और पंजाब के कॉलेजों में अध्यापन। सर्व शिक्षा अभियान और सामाजिक कार्यों में गहरी रुचि।
लेखन और कृतियाँ : बचपन में नानी के गाँव में बरसों तक रहीं डा. सुनीता को छोटे बच्चों और किशोरों के लिए सहज-सरस कहानियाँ लिखने में बहुत सुख मिलता है। बचपन में गाँव में गुजारे गए समय पर लिखी गई कहानियाँ नानी के गाँव मेंकई पत्र-पत्रिकाओं में छपने के बाद, अब पुस्तक रूप में प्रकाशित हो चुकी हैं। 
बच्चों के लिए लिखी गई अन्य चर्चित पुस्तकें हैं— साकरा गाँव की रामलीला, रंग-बिरंगी कहानियाँ, रिया और दादी, करुणा का बस्ता, दादी की मुसकान, मेरी प्रतिनिधि बाल कहानियाँ, बच्चों की भावपूर्ण पारिवारिक कहानियाँ, मानिक रायतंग की बाँसुरी, पूर्वोत्तर राज्यों की भावपूर्ण लोककथाएँ, फूलों वाला घर, नानी-नानी कहो कहानी, कहानियाँ नानी की, दादी माँ की मीठी-मीठी कहानियाँ, बुढ़िया की पोती (बाल कहानियाँ), एक थी भगती (बाल उपन्यास)। 
खेल-खेल में बच्चों से बातें करते हुए लिखे गए सीधे-सरल भावनात्मक लेख खेल-खेल में बातेंशीर्षक से प्रकाशित। इसके अलावा देश-विदेश के महान युगनायकों पर लिखी जीवनीपरक पुस्तक धुन के पक्के’’ खासी चर्चित हुई है। 
प्रतिष्ठित बाल पत्रिका बाल भारतीमें भारत के अलग-अलग राज्यों की सांस्कृतिक विरासत, लोक परंपराओं और पर्यटन पर केंद्रित रंग-रंगीला देश हमारास्तंभ लिखा, जिसे बच्चों ने बहुत पसंद किया। बाल भारती पत्रिका में कहानियाँ सात बहनों से स्तंभ भी लंबे समय तक निरंतर प्रकाशित हुआ।
अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में गंभीर आलोचनात्मक लेख और बच्चों के लिए लिखी गई कहानियाँ, लेख वगैरह छपे हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए देवेंद्र सत्यार्थी की चुनिंदा कहानियों का अनुवाद। यूनेस्को के सर्व शिक्षा अभियान के तहत भी कुछ पुस्तकों का हिंदी अनुवाद किया है। श्री श्री रविशंकर की नए संदर्भों में ज्योतिष विज्ञान पर लिखी गई एक महत्वपूर्ण पुस्तक का मूल अंग्रेजी से अनुवाद।
545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,
मो. 09910862380,
ईमेल – [email protected]
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