Wednesday, October 16, 2024
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डॉ. सुशील शर्मा का लेख – अच्छा साहित्य क्या है… कैसे करें श्रेष्ठ साहित्य का सृजन ?

पाठक तो क्या, अधिकांश रचनाकार भी साहित्य सृजन की बारीकियों से अनभिज्ञ हैं। 80-90 प्रतिशत लेखक व पाठक केवल भावपक्ष या तत्व पक्ष को ही प्रधानता देते हैं। काव्य विधा की कई शाखाएं जैसे सोरठा, कुंडलियां, सवैयां दोहा आदि लुप्त होते जा रहे हैं। किसी भी साहित्य को कालजयी बनाने में दो बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं- पहला समय की पहचान और उस काल की संवेदनाओं को आवाज देना और दूसरा समकालीन विश्व साहित्य से पूर्ण परिचय और उसके स्तर पर साहित्य रचना।

साहित्य के बिना राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति निर्जीव है। साहित्यकार का कर्म ही है कि वह ऐसे साहित्य का सृजन करे, जो राष्ट्रीय एकता, मानवीय समानता, विश्व-बंधुत्व और सद्भाव के साथ हाशिये के आदमी के जीवन को ऊपर उठाने में उसकी मदद करे। साहित्य का आधार ही जीवन है।
साहित्यकार समाज और अपने युग को साथ लिए बिना रचना कर ही नहीं सकता है, क्योंकि सच्चे साहित्यकार की दृष्टि में साहित्य ही अपने समाज की अस्मिता की पहचान होता है। साहित्य जब एक समाज के लिए उपयोगी है तभी तक ग्राह्य है। साहित्य की उपादेयता में ही साहित्य की प्रासंगिकता है। साहित्यकार के अंतस में युगचेतना होती है और यही चेतना साहित्य सृजन का आधार बनती है। श्रेष्ठ साहित्य भावनात्मक स्तर पर व्यक्ति और समाज को संस्कारित करता है उसका युग चेतना से साक्षात्कार कराता है।
अब प्रश्न उठता है कि श्रेष्ठ साहित्य क्या है? साहित्यिक विधाओं का उद्देश्य क्या है? क्या आत्मसंतुष्टि अथवा सुखानुभूति या प्रेरणा या संदेश या जागृति? संवेदना ही एक ऐसी चीज है, जो साहित्य और समाज को जोड़ती है। संवेदनहीन साहित्य समाज को कभी प्रभावित नहीं कर सकता और वह मात्र मनोरंजन कर सकता है। सिर्फ मनोरंजन द्वारा ही साहित्य को जीवित रखना संभव नहीं है।
अगर साहित्य के पूरे इतिहास को सामने रखकर देखा जाए तो सहज ही पता चल जाएगा कि महान साहित्य उसी को माना गया है जिसमें अनुभूति की तीव्रता और भावना का प्राबल्य रहा है। श्रेष्ठ साहित्य एक सार्थक, स्वतंत्र एवं संभावनाशील विधाओं से जीवन के यथार्थ अंश, खंड, प्रश्न, क्षण, केंद्रबिंदु, विचार या अनुभूति को गहनता के साथ व्यंजित करता है।
श्रेष्ठ साहित्य को मापने का न कोई पैमाना है, न ही कोई मापदंड, क्योंकि साहित्य इतना विराट और इतना सूक्ष्म है कि उसको विश्लेषित करने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं है। साहित्य का कार्य चुनौती देना या लेना नहीं है। साहित्य ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ रचा जाता है। इस सर्व में निस्संदेह आत्म भी समाहित होता है। कोई भी रचना किसी प्रकार की निर्धारित औपचारिकताओं के अधीन नहीं होती।
रचनाकार जब जीवन की सूक्ष्म, गहन अनुभूति एवं विचारों को शिल्पगत निर्धारित तत्वों की सीमा में आबद्ध होकर सही इजहार दे पाने में दिक्कत महसूसते हैं तो वे शिल्पगत पुराने सांचों को तोड़ फेंकते हैं। श्रेष्ठ साहित्यिक रचना के कुछ मूलभूत संस्कार हैं, जो आम रचनाकार द्वारा पालित किए जाते हैं तो वह उच्च श्रेणी की रचना बन सकती हैं।
किसी भी साहित्य विधा को श्रेष्ठ कलाकृति के रूप में प्रस्तुत करने के लिए जिन कौशलों की जरूरत होती है उनमें कथानक, शिल्प, वैचारिक पक्ष, शैली, संवेदनीयता और उसका कला पक्ष प्रमुख हैं।
1. रचना कौशल – रचना में मूल वस्तु उसकी वैचारिक अंतरवस्तु होती है जिसे प्रभावशाली बनाने के लिए हम जिस प्रविधि का उपयोग करते हैं, वही रचना कौशल है। कालजयी वही रचनाएं हो सकीं जिनमें सहज संप्रेषण था। लेखन एक कला है, जो आते-आते आती है। इसे सहजता से स्वीकारने में संकोच क्यों हो। काव्य सृजन उससे भी कठिन है। आयोजनों के लिए रचा गया काव्य सामान्यतया रचनाकार का श्रेष्ठ कृतित्व नहीं होता है।
2. कथानक – कथावस्तु में एकतानता, सूक्ष्मता, तीव्रता, गहनता, केंद्रीयता, एकतंतुता और सांकेतिकता आदि होने से रचना की प्रभावशीलता अधिक बढ़ जाती है इसलिए रचना के तत्वों में तीक्ष्णता, तीव्रता और गहनता लाकर वह प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है। चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी ‘उसने कहा था’ को मोटे तौर पर देखें तो 3 विशेषताएं हैं, जो ‘उसने कहा था’ को कालजयी और अमर बनाने में अपनी-अपनी तरह से योगदान देती हैं। इसका शीर्षक, फलक और चरित्रों का गठन।
3. कथावस्तु – कथावस्तु का विन्यास एवं घटनाओं का संयोजन भी बड़ा महत्व रखता है, क्योंकि कथावस्तु का विन्यास, घटनाओं के क्रम नियोजन की प्रस्तुति जब रचना में सशक्त होती है, तब वह पाठक को अपनी तरफ खींचती है। हर लेखक अपनी क्षमता के अनुसार कथा विन्यास का उपयोग अपनी रचनाओं में करता है। समय, सत्य और जीवन सत्य के किसी खंड, अंश, कण, कोण, प्रश्न, विचार, स्थिति, प्रसंग को लेकर चलने वाली रचना में कथानक की एक सुगठित, सुग्रथित, सुसंबद्ध एवं संश्लिष्ट योजना रहती है और उसी के अनुरूप पात्रों, संवादों, भाषा आदि का निर्माण अत्यंत सावधानी से करना पड़ता है।
4. सुस्पष्ट विचार श्रृंखला – साहित्य में विचारधारा एक विचारदृष्टि के रूप में रहती है और कभी-कभी सृजन के स्तर पर वह भावबोध को निर्धारित भी करती है। ‘मुक्तिबोध’ ने साहित्य में विचारधारा के उपयोग के लिए ‘कामायनी’ का मूल्यांकन करते हुए कहा था-
‘काव्य रचना जितनी उत्कृष्ट होती है, उसकी प्रभाव क्षमता भी उतनी ही अधिक होती है इसलिए उस काव्य कृति में व्यक्त विचारधारा की प्रभाव शक्ति को ध्यान में रखते हुए उसका मूल्यांकन अवश्य किया जाना चाहिए, लेकिन विचारधारा के मूल्यांकन को काव्यगुण के मूल्यांकन से अलग रखना चाहिए।’
5. कथोपकथन – किसी भी रचना में कथोपकथन का बहुत महत्व है। यह प्रभावोत्पादक, जानकारीपूर्ण, सहज संप्रेषणीय, सोद्देश्य और सांकेतिक होना आवश्यक है। रचनाकार का आशय या अभिप्राय प्राय: संवादों के जरिए सहजता और सरलता से संप्रेषित हो जाता है। संवाद, रचना का छोटा स्वाभाविक और अत्यंत प्रभविष्णु अंश होता है और उसका एक-एक शब्द सार्थक, सोद्देश्य और महत्वपूर्ण होता है। संवादों के सहारे लघुकथा के अन्य तत्व मुखरित होते हैं।
उपरोक्त सभी बातें रचना के शिल्प से संबंधित हैं कुछ और विशिष्ट बातें, जो साहित्य को कालजयी बनाती हैं, वे निम्नानुसार हैं-
1. साहित्यकार को इस प्रकार के पात्रों का चयन करना चाहिए, जो सहानुभूति और समझ के साथ विभिन्न सामाजिक वर्गों की एक विस्तृत श्रृंखला को समाहित कर अलग-अलग परिस्थितियों को दृढ़तापूर्वक वर्णित करने में सक्षम हों और परिस्थितियों पर ‘एकल-बिंदु’ परिप्रेक्ष्य तक सीमित न हों। आरके नारायण की रचनाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय ‘मालगुड़ी’ की पृष्ठभूमि से जुड़ी रचनाएं हैं। ‘मालगुड़ी’ ब्रिटिश शासनकाल का एक काल्पनिक नगर है। इसमें स्वामी, उसके दोस्त सहित तमाम चरित्र हैं। इसके सारे पात्र खांटी भारतीय चरित्र हैं और सबकी अपनी विशिष्टताएं हैं।
2. किसी भी कालजयी रचना के पात्र मनोवैज्ञानिक गहराई और प्रेरणा की स्पष्टता के साथ दिखाई देते हैं। ये पात्र सत्य, परिवर्तन, विकास या जागरूकता को प्रक्षेपित करते हुए दिखाई देते हैं, साथ ही उस अनुभव को सम्प्रेषित करते हैं, जो समाज में इस तरह के बदलाव का कारण बनने के लिए उपयुक्त हैं।
3. जिस काल में रचना का निर्माण हो, उस काल की युगभावना और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समाहित कर गहन कल्पनाशीलता के साथ प्रस्तुति साहित्य को श्रेष्ठता प्रदान करती है। ‘तीसरी कसम’ कहानी को अगर शास्त्रीय कथानक के ढांचे के अंतर्गत विश्लेषित किया जाए तो हम पाएंगे कि इसमें आदि, मध्य और अंत के निश्चित ढांचे वाला कथानक ढूंढ पाना मुश्किल है। इसमें जीवन का एक लघु प्रसंग, उसी प्रसंग से उलझे जुड़े अन्य प्रसंग, मिथक, गीत-संगीत, मूड, सुगंध आदि सब सम्मिलित रूप में मिलकर ही कथानक बन गए हैं।
4. हमें अपनी मानवता और समाज के प्रति हमारे संबंध और हमारे ब्रह्मांड के प्रति हमारे दायित्व का बोध होना चाहिए। प्रेमचंद की ज्यादातर रचनाएं उनकी ही गरीबी और दैन्यता की कहानी कहती हैं। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझता था। उन्होंने सरल, सहज और आम बोलचाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया।
5. साहित्यकार की कृति आने वाली पीढ़ी या समकालीन लेखकों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करती हो या साहित्यकार उसका अनुसरण करने के लिए मानसिक रूप से बाध्य हों तो समझिए आप श्रेष्ठ साहित्य का सृजन कर रहे हैं।
6. अगर आपका साहित्य मनोवैज्ञानिक, आर्थिक और सामाजिक जटिलता, शैक्षिक आंदोलनों, दबे-कुचले शोषित वर्ग को परिभाषित करता है या उस पर बुद्धिजीवियों को सार्थक बहस के लिए प्रेरित करता है तो आप श्रेष्ठ साहित्य का सृजन कर कर रहे हैं।
7. आपकी लेखन की शैली एक विशिष्ट भाषाशैली, तरीके, शब्दों के विन्यास या विधा तक सीमित नहीं होनी चाहिए।
8. आपके लेखन में औपचारिक अखंडता होनी चाहिए, साहित्यकार को अपनी रचना पर पूर्ण नियंत्रण करना चाहिए तथा ऐसा कोई भी शब्द या प्रसंग रचना में न हो, जो उस रचना की कथावस्तु से संबंधित न हो। रचना अपना उद्देश्य चरम के साथ प्राप्त करे, यही श्रेष्ठ रचना का लक्षण होता है।
अंतरजाल के विशाल क्षेत्र में पनपते अनेक साहित्य समूहों, ई-पत्रिकाओं के लिए विशुद्ध साहित्यिक सामग्री पर निर्भरता असंभव है।
पाठक तो क्या, अधिकांश रचनाकार भी साहित्य सृजन की बारीकियों से अनभिज्ञ हैं। 80-90 प्रतिशत लेखक व पाठक केवल भावपक्ष या तत्व पक्ष को ही प्रधानता देते हैं। काव्य विधा की कई शाखाएं जैसे सोरठा, कुंडलियां, सवैयां दोहा आदि लुप्त होते जा रहे हैं। किसी भी साहित्य को कालजयी बनाने में दो बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं- पहला समय की पहचान और उस काल की संवेदनाओं को आवाज देना और दूसरा समकालीन विश्व साहित्य से पूर्ण परिचय और उसके स्तर पर साहित्य रचना।
भाषा, साहित्य, व्याकरण, शब्द ज्ञान, रचना कौशल, शिल्प आदि गंभीर अध्ययन और मनन का विषय हैं जिसके लिए पर्याप्त समय, साधन, साधना, गहरी रुचि और समर्पण चाहिए। इनमें से कितना कुछ आज उपलब्ध है? ऐसी पृष्ठभूमि में यह अपेक्षा करना कि हर दृष्टि से शुद्ध साहित्य ही परोसा जाए, केवल दिवास्वप्न समान है।

डॉ. सुशील शर्मा
ई-मेल : [email protected]
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9 टिप्पणी

  1. सबसे पहले तो पुरवाई पत्रिका पटल का आभार, जिन्होंने डॉक्टर सुशील शर्मा साहब से इतना सहज सरल रोचक सारगर्भित और मार्गदर्शन प्रदान करता आलेख लिखवाया।और फिर आदरणीय का तहे दिल से शुक्रिया।
    यह आलेख निश्चित रूप से साहित्य की विद्यार्थीयों,नव लेखकों और साहित्य में लेखन की ओर प्रवृत्ति रखने वाले पाठकों के लिए एक दिशा निर्देशक साबित होगा।
    यह भी कटु सत्य है कि कविता और साहित्य की कलात्मकता का काफी ह्रास होता जा रहा है। सोरठा कुंडलियां इत्यादि आज की पीढ़ी के साथ साथ नव लेखक और पाठक जानता ही नहीं।यह भी एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जब आप कठिन राह पर चलते हैं और उसके साथ-साथ आसान रहा उपलब्ध हो तो यह भी आजकल की प्रवृत्ति है की आसान रहा चुनी जाए।नतीजा कविता में कलात्मक अब बीते जमाने की बात होती जा रही है और यही बात यही हाल गद्य में भी कमोबेश देखने को मिलता है।
    ऐसे में इस प्रकार का आलेख निश्चित रूप से एक वासंतिक बयार से कम नहीं है। उन्हें डॉक्टर सुशील शर्मा साहब को बहुत-बहुत बधाई और पुरवाई पत्रिका को आभार।

  2. आदरणीय डॉ. सुशील शर्मा जी का ये आलेख साहित्य से संबद्ध लेखकों के लिए वो सरल , सहज एवं सारगर्भित प्रकाश स्तंभ है, जो उन्हें साहित्य सृजन की सही राह पर आगे ले जाने की राह प्रशस्त करेगा।
    पुरवाई पत्रिका के माध्यम से ऐसे उपयोगी आलेखों को प्रकाशित करने के लिए आदरणीय तेजेंद्र शर्मा सर को बहुत बहुत साधुवाद ।।
    सादर
    डॉ.शिप्रा सक्सेना, जर्मनी

  3. डॉ सुशील शर्मा ने साहित्य सृजन के लिए
    अनिवार्य तत्वो का उल्लेख किया है।हिंदी साहित्य के युवा वर्ग के रचनाकारों के लिए उनके विचार लाभदायक हैं ।
    पुरवाई पत्रिका को साधुवाद इस उल्लेखनीय
    लेख हेतु ।
    Dr Prabha mishra

  4. आदरणीय सादर प्रणाम बहुत सुंदर शोधपूर्ण साहित्य की सार्थकता के महत्वपूर्ण बिंदुओं की विस्तृत चर्चा करता महत्वपूर्ण लेख । पुरवाई की संपादक टीम को बहुत बहुत साधुवाद इतना महत्वपूर्ण लेख हम तक पहुँचाने के लिए व आदरणीय डॉ सुशील शर्मा जी को भी बहुत बहुत शुभकामनाएँ व बधाई

  5. आदरणीय सुशील जी!
    आपका यह लेख महत्वपूर्ण है।‌छंद लुप्त हो रहे हैं ऐसा तो हम नहीं मानते, लेकिन हाँ कम लोगों की रुचि इस ओर है और यह भी सही है कि जो सर्जन अपने समय के अनुरूप रहते हुए उसकी संवेदनाओं तक पहुँचकर,समझकर, पहचान कर रचा जाता है वह रचना कालजयी हो न हो पर साहित्य के ढेर पर अपनी पहचान स्थापित करती है। वर्तमान में यह भी जरूरी है कि रचनाकार विश्व स्तर की साहित्यिक जानकारी भी रखे। आपने सही कहा- निश्चित रूप से साहित्य के सृजन का उद्देश्य ऐसा होना चाहिए जो राष्ट्रीय एकता, मानवीय समानता, विश्व-बंधुत्व और सद्भाव के साथ हाशिये के आदमी के जीवन को ऊपर उठाने में उसकी मदद करे।
    साहित्य को लेकर आपने जो बिंदु यहाँ पर रखे हैं, उन्हें पढ़ते हुए हम कथानक और कथावस्तु पर अटक गये।
    हमने दोनों के बीच अंतर समझने की बहुत कोशिश की क्योंकि हम अभी तक यही जानते रहे कि दोनों ही समार्थक या समानार्थक हैं। दोनों का एक ही अर्थ है ,अगर आपको हैडिंग देना होगा तो आप कथावस्तु या कथानक ही लिखेंगे। यहाँ आपने दोनों को ही अलग-अलग परिभाषित किया है। हमने दो-तीन प्रबुद्ध भाषाविद् जनों से इस संशय के बारे में जानने की कोशिश की। कमलेश जी ने बताया कि कुछ लोग कथानक में कथावस्तु को कुछ विस्तार से लिखा मानते हैं, लेकिन यह आश्वस्ति भर है। यह दोनों सम अर्थी शब्द हैं।
    साहित्य में अनेक विधाएँ हैं,लेकिन हर विधा की अपनी विशेषताएँ और अपने गुण हैं। उन विशेषताओं के अनुरूप अगर रचना लिखी जाती है तो वह एक सार्थक रचना होती है
    कथावस्तु या कथानक की हर विधा में जरूरत नहीं होती संबोधन से ही समझ में आ रहा है कथा की वस्तु या कथा का विषय। इसे चार भागों में बाँट सकते हैं – आरंभ, आरोह, चरम स्थिति, और अवरोह कहानी, उपन्यास, एकांकी और नाटक का प्रथम विशेष गुण हैं कथावस्तु या कथानक। संवाद या कथोपकथन भी इन्हीं चारों विधाओं में विशेष महत्व रखते हैं। 1-कथावस्तु या कथानक इसके चार अंग होते हैं-आरंभ, आरोह, चरम स्थिति, और अवरोह। 2-पात्र और चरित्र चित्रण। 3-संवाद या कथोपकथन 4-देश- काल और वातावरण 5-भाषा और शैली या भाव- पक्ष, कला- पक्ष
    6-उद्देश्य या प्रेरणा तत्व 7-शीर्षक।
    कथेतर विधाएँ यथा-जीवनी, संस्मरण, आत्मकथा ,या यात्रा वर्नण;क्योंकि अपनी स्वयं की बात होती है, संवाद स्वयं से जुड़े होते हैं इसलिए इसमें इस विषय पर उतनी गहरी चिंता की जरूरत नहीं होती।
    आपके निम्न कथन पर हमें आपत्ति है कि,*” प्रेमचंद की ज्यादातर रचनाएँ उनकी ही गरीबी और दैन्यता की कहानी कहती हैं।*
    साहित्य समाज का दर्पण होता है। हर काल की अपनी भिन्न-भिन्न राजनैतिक, सामाजिक सांस्कृतिक, स्थितियाँ रहती हैं। और विकास की गति के साथ-साथ समय में परिवर्तन होता चलता है। हर रचनाकार अपने काल को ,अपने समय की इन्हीं स्थितियों- परिस्थितियों को परिभाषित करता है। मुंशी प्रेमचंद जी ने अपने को नहीं रचा, उन्होंने भी अपने समय को ही रचा। दलितों पर होने वाले अन्याय को कहानी के माध्यम से लिखकर तत्कालीन सामाजिक स्थितियों, कुरीतियों, दोषों , दलितों के प्रति अन्याय और अत्याचार को अपनी कहानी का विषय बनाकर उजागर किया। उनकी कहानियों में प्रेरणा तत्व भी रहे ।
    इस बात से हमें जरा भी इनकार नहीं कि किसी भी रचना में थोड़ा न थोड़ा रचना कर भी रहता है पर शायद एक झलक की तरह। जहाँ तक बात रचना कौशल की है तो हम आपसे सहमत हैं कि हर रचना अपनी उत्कृष्टता को रचनाकार के लेखन कौशल के माध्यम से ही प्राप्त करती है।
    विधाओं की या काव्य की विशेषताएँ या तत्वों के आधार पर अपनी भाषा- शैली, भाव- पक्ष ,कला -पक्ष, संवेदनाओं की गहराई, मर्मस्पर्शिता ,अभिव्यक्ति की तीव्रता, प्रभावशीलता और हिंदी भाषा शब्द-कोश की आपकी स्वयं की समृद्धता ही किसी भी रचनाकार को श्रेष्ठतम स्तर तक पहुँचाने में समर्थ होती हैं।

    पुनश्च -हमारा कोई भी अस्वीकार आपको कमतर साबित करने की कोशिश नहीं है,सिर्फ विमर्श और जानकारी के अनुरूप हमने अपनी बात रखी है! हो सकता है कि उसमें से कुछ आपकी सोच के विपरीत हों और हम गलत हों तब भी आप अपनी बात कह सकते हैं यह एक स्वस्थ विमर्श का आमंत्रण ही समझिएगा।सादर ।
    एक बेहतर गुणवत्ता से भरे लेख के लिये सुशील जी को बहुत-बहुत बधाइयाँ। प्रस्तुति के लिए नीलिमा जी का शुक्रिया एवं पुरवाई का आभार ।

  6. सम्पूर्णतः.. एकमत हूँ सर … साहित्य की श्रेष्ठता प्रत्येक कालखंड में उत्पन्न विचारधारा एवं सामाजिक व्यवस्था तथा वातावरण के आधार पर निर्भर करती है…। सुंदर एवं सराहनीय उपस्थापना हेतु हार्दिक बधाई

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