Sunday, September 8, 2024
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नीलिमा करैया का लेख – गुरु कुम्हार शिष् कुंभ है!

गुरु का जीवन में बहुत महत्व है। सिर्फ़ किताबी ज्ञान काम नहीं आता। असली गुरु वही होते हैं जो जीवन, जीना सिखाते हैं। सर्व प्रथम गुरु की श्रेणी में माँ आती है; जिसकी सोच और समझ गर्भ में ही रक्त के साथ संचरित होती है।
फिर पिता; जो आत्मा स्वरूप होता है जिसकी चेतना प्राण को चैतन्य करती है।
फिर गुरु! गुरु माँ की सोच व समझ, जो संस्कार में परिलक्षित होती है, उसे और पिता से प्राप्त चैतन्य आत्मा को सँवारने का काम करते हैं, कुम्हार की तरह।
गुरु कुम्हार शिष् कुंभ है,
गढ़-गढ़ काढ़े खोट।
अंतर हाथ संहार दे,
बाहर मारे चोट।।
जब स्कूल में नाम लिखवाया तो पिताजी ने कहा- “याद रखना बेबी! कभी कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए, और हाँ! जिस साल फ़ेल हुईं, उसी साल पढ़ाई बंद।”
यह बात तब से दिमाग़ में रही। तय किया कि पढ़ाई ही नहीं जीवन के किसी भी मामले में फ़ेल नहीं होना है। शिकायत का मौका किसी को नहीं देना है और किसी काम के लिये न नहीं कहना है। 
यह 1966 की बात है। 10वीं में थे तब। हम लोगों को रजिस्टर के नाम के अनुरूप अल्फाबैटिकली क्रमशः रोज़, जिसका नम्बर होता, उसे बोर्ड पर कोटेशन लिखना रहता था। एक बार जब हमारा नम्बर था, हम लिख रहे थे, तभी प्रिंसिपल सर आ गए, आदरणीय विद्याधर तिवारी सर!और कहने लगे कि, “नीलिमा! ये सिर्फ़ लिखने के लिये ही नहीं, जीवन में उतारने के लिये भी होता है यह ध्यान रहे।”
हालांकि यह तो स्वभाव में ही था; जो भी अच्छा पढ़ें उसे जीवन में उतारने के लिये बराबर प्रयासरत रहते भी थे, पर और दृढ़ हुए। प्रशस्त-प्रसून के प्रति लगभग हम सभी छात्राएँ काफ़ी जागरूक थे। सभी रोज पढ़ते व नोट भी करते थे काॅपी में। अपनी हर काॅपी के प्रथम पृष्ठ पर नाम की औपचारिकता के बाद बीच में अच्छा सा शिक्षाप्रद सुविचार ज़रूर लिखा रहता। यह लगभग सभी लड़कियों की आदत थी। एक जो हमारे दिमाग में तब से रचा बसा है वह है *‘सुंदर वही है जिसके गुण सुन्दर हैं’* यह कभी भी नहीं भूले। जो भी लिखा रहता, उसे पढ़ते और विचार करते कि, ‘यह गुण अपने में है या नहीं’, और उसे अपने जीवन में उतारने की भरपूर कोशिश करते। हर दिन का सुविचार डायरी में नोट करते थे। यह लगभग सभी की आदत थी।
एक बार एक वाक़या हो गया। हमें हँसी बहुत आती थी। जरा कुछ ऊट-पटाँग देखा, सुना नहीं कि बस हँसी छूट जाती। हाॅस्टल में तो ठहाके लगाते पर स्कूल में स्वयं को संयमित करना कभी-कभी मुश्किल होता था। एक बार प्रार्थना में खड़े हुए, जब अचानक बोर्ड पर नजर गई। वहाँ सुविचार लिखा था- ‘हास्य एक टाॅनिक है।’
अब हम बड़ी मुश्किल से मुँह दबाकर हँसी को मुस्कान में बदलने की कोशिश में रहे। लेकिन हमारे प्रिंसिपल सर की सतर्क व तीक्ष्ण दृष्टि से बच न पाए। प्रार्थना के बाद आदेश हुआ, ‘नीलिमा! ऑफिस में आओ।’
आशंका निर्मूल कैसे होती! जाना तो ज़रूरी था। प्रश्न हुआ।
‘माॅनीटर हो और प्रार्थना में हँस रही थीं?’
हमने मुस्कुराते हुए रिक्वेस्ट की, ‘सर! माफ़ कीजिएगा, पर पहले आप बोर्ड पर आज का सुविचार पढ़िये। जवाब वहीं मिलेगा। ‘सर ने बाकायदा बाहर निकलकर बोर्ड पर लिखा सुविचार पढ़ा और उनके चेहरे पर भी मुस्कुराहट तैर गई।
फिर हमने कहा, ‘सर! टाॅनिक ले रहे थे, पर गलत जगह और गलत समय पर ले लिया!’
हाथ जोड़कर विनम्रता से माफी माँगी और भविष्य में दुबारा यह ग़लती न करने की शपथ ली।
एक बात और! उन्होंने  11वीं में फ़ेअरवेल के बाद ऑटोग्राफ बुक में लिखा-
*अप्प दीपो भव!’*
हमारे वाइस प्रिंसिपल जगदीश प्रसाद गोविल सर ने भी लंबा कोटेशन लिखा था-
*एक व्यक्ति, जिसने बी ए किया। उसने गर्व से संसार से कहा, “ऐ संसार!देख!! मैं बी ए हूँ।” संसार ने उसे ख़ामोशी से जवाब दिया -“बैठ जाओ और बाकी के अल्फाबैट सीखो।”*
वाकई!! ज्ञान अनन्त है। बस यही सब बातें गिट्टी, रेत, सीमेंट की तरह आत्मा में घुलकर हमारी ज़िंदगी का मज़बूत भवन तैयार करती रहीं।
एक और शख्सियत सबसे ज्यादा जेहन में रही और जिनकी सीख आगे जीवन में भी काम आई वो थे वनस्थली के बी.एड. काॅलेज के प्रिंसिपल- श्री इकबाल बहादुर जी वर्मा सर!
वहाँ इतवार की नहीं मंगलवार की छुट्टी होती थी, क्योंकि संस्थापक हीरालाल जी शास्त्री, जिन्हें हम लोग आपाजी कहते थे, उनकी इकलौती बेटी शांता की मृत्यु मंगलवार के दिन हुई थी। उनकी ही तीव्र इच्छा थी कि ग़रीब लड़कियों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाए। तब हम लोगों की भी फ़ीस नहीं लगती थी। उन्होंने उस समय अपने हाथों से ईंटें बनाकर एक कमरा भी तैयार किया था। जिसमें ग़रीब परिवार की लड़कियों को पढ़ाती थीं। एक बार ईंट बनाते हुए ही लू लगने की वजह से 14-15 वर्ष की अल्पायु में ही उनकी मृत्यु हो गई।
वहाँ की एक विशेषता है; वहाँ जितने भी हॉस्टल हैं  सबके नाम शांता से  ही हैं- शांता भवन,शांता निवास, शांता निलय, शांता यतन, शांताबाई शिक्षा कुटीर, शांता कुंज। इतने हमारे समय थे। शांता विश्वनीडम की नींव रखी गई थी, विदेश से आने वाली लड़कियों के लिये।
मंगलवार की छुट्टी का यही कारण था। हर सोमवार को अंतिम दो पीरियड में बाल-सभा होती। उसमें प्रायः किसी विशेष विषय पर या सामयिक विषयों पर चर्चा होती। महीने में एक बार अक्सर काॅलेज से कोई प्रोफेसर आकर किसी विषय पर बोलते थे।
एक बार बी एड काॅलेज के प्रिंसिपल, इकबाल बहादुर जी वर्मा सर, आए और उन्होंने संयम की महत्ता बताई। जीवन के हर क्षेत्र में संयम कितना जरूरी है। क्रोध पर,वाणी पर, सभी पर। हम लोगों को यह बहुत महत्वपूर्ण लगा। फिर उन्होंने लगभग हर ज़रूरी बातों के दोषों को समझाया। उनके लाभ बताए और संयम के तरीके भी। हम और ग्रुप की 4-5 लड़कियों ने बराबर कोशिश की; जब क्रोध आता मौन रख लेते एक घंटे में ही गुस्सा शांत और हम लोगों ने क्रोध पर विजय पायी। कोई कितना भी गुस्सा करे, बुरा कहे हम लोग शांत रहते।
हम लोगों को एक छुट्टी के दिन नाश्ते में कोई अच्छी चीज़ मिलती और एक मंगल (त्यौहारों को छोड़कर) भोजन पक्का। 4-5 महीने हम लोगों ने (ग्रुप की 4-5 लड़कियों ने) उस अच्छे भोजन और नाश्ते का त्याग किया। यह सब शादी के बाद बहुत काम आया। संयुक्त परिवार में जब शेष भोजन में अक्सर घर की स्त्रियों के लिये, सब्जी भी न बचती तो कोल्हू के बैल की तरह 4 बजे सुबह से उठकर निरंतर काम में जुता यह भूखा शरीर कभी-कभी एक डेढ़ बजे दोपहर को, पानी में नमक मिर्च डालकर, अचार से या तेल में नमक मिर्च, प्याज डालकर, उससे भी रोटी खाकर संतुष्टि महसूस करता, वह भी खुशी-खुशी। क्योंकि हम अकेले तो न थे ऐसे। ऐसे-ऐसे रहे वे शिल्पकार जिन्होंने हर पल कुम्हार की भाँति अंदर से हाथ का सहारा देकर जीवन को सुंदरतम रूप दिया।
जीवन में हर पल, हर स्थिति हमें कुछ न कुछ सिखाती है। बशर्ते आपमें सही समझने का विवेक हो। संसार में सबको सब कुछ नहीं मिलता। जो है, जितना है, जैसा हैउसी में हमें संतुष्ट रहना चाहिये। फिर बाई हमेशा समझाती थीं कि, “जब भी तुम्हें कुछ कमतर महसूस हो तो अपने से नीचे के लोगों को देखो, उनके पास उतना भी नहीं जितना तुम्हारे पास है। जब भी आगे बढ़ने की बात हो तो ऊपर देखना जो ऊपर के पायदान पर हैं। vअगर एक रास्ता बंद हो तो क्या? अनेक रास्ते खुले मिलेंगे। कोई काम छोटा या बड़ा नहीं होता। मेहनत से किया हर काम अच्छा है ।”
आज भी लगता है कि यह निरंतरता बनी रहे। 
हमने कई महत्वपूर्ण चीजें- बख्शी जी, शुक्ल युग तक के निबंधकारों  और आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मनोवैज्ञानिक निबंधों से सीखीं। जो कुछ भी अपन पढ़ते हैं, सीखने के लिए अगर उसमें कुछ नहीं है तो सिर्फ़ मनोरंजन के लिए ही पढ़ा जाना कहलाता है ; पर फिर भी हर पाठ्य कोई ना कोई संदेश देता ही है।
 
जो भी कुछ पढ़ा जाता है; वह सिर्फ़ पढ़ने के लिए नहीं होता है। उसका कोई ना कोई उद्देश्य ज़रूर होता है।   बस! जिंदगी को  जीने और व्यक्तित्व को इसी तरह निखारने के प्रयास निरंतर है आज तलक। यही तो है जिंदगी…
आज भी ज़िन्दग़ी-
हँसते चलो,
गाते चलो,
यूँ ही मुसकाते चलो,
दुनिया की झोली में हँसकर 
मोती ढलकाते चलो।
की तर्ज़ पर हैं। गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हमारे सभी गुरुजनों को प्रणाम। जिनके प्रयत्नों से हम इंसान बन सके। फिर हमारे उन गुरु को भी प्रणाम जिन्होंने हमारी अंतर्रात्मा में अपने इष्ट के प्रति आस्था और विश्वास जगाकर अंतर्मन को पवित्र और जाग्रत किया।

नीलिमा करैया
संपर्क – [email protected]
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5 टिप्पणी

  1. बहुत ही सुंदर संस्मरण, काश आज भी स्कूल में ऐसे शिक्षक हो ,गुरुजन हों ,साथ ही ऐसे गुणग्राही शिष्य /छात्र।

  2. नीलिमा जी, आपका संस्मरण अनुकरणीय है। वनस्थली की शिक्षा प्रणाली से अच्छी तरह परिचित हूँ। वास्तव में संस्कृति और संस्कारों की शिक्षा का केन्द्र वहीं है। फिर गुरु तो महान होंगे ही। आपकी लेखनी और आपकी पुरवाई में भूमिका सब कह देती है।
    आपका बहुत बहुत साधुवाद ऐसे आलेख के लिए।

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