Wednesday, October 16, 2024
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प्रो. सरोज कुमारी की कलम से – सांप : संघर्ष में लिपटी एक प्रेम कथा

उत्तर आधुनिकतावादी युग विमर्शों का युग है। दलित, आदिवासी, स्त्री, किन्नर, विकलांग के अलावा घुमंतू जनजातियों की अस्मिताओं से टकराकर विमर्शों का दौर अधिक पुष्ट हुआ है। आजादी के 75 वर्ष बीत जाने के बाद स्वतंत्र भारत का प्रजातांत्रिक संविधान  इन कोटियों के समाज को मुख्य धारा से नहीं जोड़ सका। हाशिए का समाज और हाशिए पर ठेल दिया गया। इसका कोई एक निश्चित कारण नहीं बताया जा सकता अथवा इसका जिम्मेदार केवल सरकार, राजनीति, धर्म अथवा भारत की सांस्कृतिक व्यवस्था को नहीं ठहराया जा सकता। हमारे देश की  कुटिल वर्ण व्यवस्था और उसके ढांचे के आधार पर समाज के पोर-पोर में व्याप्त दूषित मानसिकता और सामाजिक अव्यवस्था के निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति को और नीचे धकेलने का कार्य करती रही है। पीढ़ी दर पीढ़ी मनुष्य इन्हीं सामाजिक कुंठाओं से ग्रसित होता रहा और यही कुंठायें अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करता रहा है। आजादी का अमृत महोत्सव इस हाशिए के समाज को अपनी अस्मिता की तलाश का, अपने अधिकारों के प्रयोग और समाज में उनकी उचित जगह दिलवाने में असफल रहा। उनके जीवन की  विषवेल इस अमृत काल में भी क्षीण नहीं हुई। बहिष्कृत, विमुक्त घुमंतू, अछूत समाज आज भी स्वतंत्रता के अमृत का स्वाद चखने से वंचित है l
हिंदी साहित्य में अस्मिता मूलक विमर्शों की शुरुआत मराठी साहित्य के बाद हुई। सहानुभूति और संवेदना का संचित कोष साहित्य, अपनी परंपरागत नैतिक सोच के वशीभूत अस्मिता मूलक विमर्श पर समय से चिंतन नहीं कर पाया।
अस्मिता मूलक विमर्शों में मराठी में लिखी गई आत्मकथाएं, घुमंतू जनजातियों के विकृत चेहरों को सबसे पहले सामने लाती हैं; जिन्होंने इन जनजातियों की सामाजिक विद्रूपता पर बड़ी बेबाकी से सवाल खड़े किए हैं। 
1980 में लक्ष्मण माने की आत्मकथा “पराया” घुमंतू जनजातियों के संघर्ष का सच्चा दस्तावेज प्रस्तुत करती है। इस आत्मकथा में कैकाड़ी समाज का नायक दाहक बड़े संघर्ष और सामाजिक भेदभाव के दंश को झेलता है। वह  समाज के बारे में व्याप्त असमानता की दीवार को  गिराता है। बरसों से अंधकार, अज्ञानता  तथा छुआछूत की बुरी प्रवृत्ति को झेल रहा कैकाड़ी समाज घुमंतू जनजातीय जीवन व्यतीत करने वाला समाज है। इसी समाज की अवहेलना  और उसकी जातीय स्थिति को “पराया”  में लक्ष्मण माने ने अभिव्यक्ति दी है। इसी क्रम में 1989 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लक्ष्मण गायकवाड द्वारा लिखित उनका आत्मकथात्मक उपन्यास ‘उलच्या’ भी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण रचना है। लक्ष्मण गायकवाड हमारे समय के सुधी लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने घुमंतू जनजातियों के सुधार हेतु बहुत से सामाजिक आंदोलन में भागीदारी की हैl अपने उपन्यास की भूमिका में वह लिखते हैं कि- “जिस तरह जिस समाज में मैं जन्मा उसे वहां की वर्ण व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था दोनों ने नकारा है। सैकड़ो नहीं हजारों वर्षों से…. अंग्रेज सरकार ने तो गुनहगार का ठप्पा हमारे समाज पर लगा दिया और सब ने हमारी ओर गुनहगार के रूप में देखा और आज भी इस रूप में देख रहे हैं ।(भूमिका से)
मराठी में इसके बाद क्रमिक रूप से महत्वपूर्ण आत्मकथाएं लिखी गईं आत्माराम राठौर कृत ‘टांडा’, भीमराव जाधव कृत ‘कटोरी तारेच्या’ ,; राउडी राठौर टांडेल, रामचंद्र नलावडे कृत ‘दगडडफोद्या चोरटा’ आदि। मराठी भाषा में 35 के लगभग आत्मकथाएं (दलित) लिखी गई इनके अनुवाद जब जनता के सामने आए तो  समाज में इस वंचित समुदाय के प्रति संवेदना और इन समुदायों में जागरूकता फैली।
हिंदी में  विमुक्त जनजातियों की दृष्टि से  “कब तक पुकारूं” पहला उपन्यास मिलता है, जो राजस्थान के नटों की उपजाति करनट की व्यथा की गाथा है। महाराणा प्रताप को अपना वंशज मानने वाले  गाड़िए/ लोहार जनजाति की समस्याओं को केंद्रित कर “धरती मेरा घर” उपन्यास प्रकाशित हुआ। उदय शंकर भट्ट ने 1955 में “सागर लहरें और मनुष्य” लिखा। मणि मधुकर द्वारा लिखित उपन्यास “पिंजरे में पन्ना” राजस्थान की गाड़िए लोहार जनजाति पर आधारित है। स्त्री लेखन की कड़ी में मैत्रयी पुष्पा का उपन्यास “अल्मा कबूतरी” बुंदेलखंड की खानाबदोश जनजाति कबूतरा के संघर्ष को उजागर करता है। इसी क्रम में एक बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास “ रेत” आता है जिसे हमारे समय के सशक्त लेखक भगवान दास मोरवाल ने कंजर यानी  कानन अथवा जंगल-जंगल घूमने वाली जनजाति के दुःख-दर्द को उकेरा है। 
हिंदी में घुमंतू जनजातियों पर बड़ी संख्या में लेखन हुआ। हाल ही में सपेरों की जिंदगी के पन्ने-पन्ने को रेखांकित करने वाला 417 पृष्ठों  का एक बड़ा उपन्यास सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। इसके लेखक रत्न  कुमार सांभरिया जी हैं। यह उपन्यास 35 खंडों में विभाजित हैl सपेरा जनजाति के लोग भारत के लगभग सभी हिस्सों में मिलते हैं। उनके नाम के पीछे नाथ सरनेम लगा होता है। इस जाति की अनेक उपजातियां भी पाई जाती हैं। सर पर बड़ी सी पगड़ी, देह पर भगवा कुर्ता, गोल अहमद, कानों में मोटे कुंडल, पैरों में नुकीली  जूतियां और गले में  रंग-बिरंगी मनकों की माला और ताबीज़, कंधे में बांस की डलिया में बंद सांपों का लंबा सा झोला और हाथ में बीन, सपेरा जनजाति की पुरानी वेशभूषा है। ‘सांप’ उपन्यास इसी सपेरा जनजाति के जीवन-संघर्ष, समाज, संस्कृति, भाषा और उनकी मान्यताओं को बहुत ही गहराई से विश्लेषित करने वाला उपन्यास है। सांप उपन्यास पर अब तक कई आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। इन आलेखों में उपन्यास के एक पक्ष को लेकर ही लिखा गया है जैसा कि उपन्यास के बाहरी कथा विन्यास को देखकर लगता है कि यह उपन्यास सपेरा जनजाति के जीवन संघर्ष और उनके अधिकारों की भाषा बोलता हुआ उपन्यास है। किंतु सच्चाई इसके विपरीत है। सपेरा जनजाति के जीवन संघर्ष की आड़ में रत्न  कुमार सांभरिया ने उपन्यास के दूसरे खंड से लेकर 35वें खंड तक, एक   प्रेम कहानी  है जिसमें अनिर्वाचीन  प्रेम कथा को सूत्र में पिरोया गया है  जिसे पूर्व में लिखे गए   इस तरह के उपन्यासों को पढ़ने वाले पाठक उसी चश्मे से देख कर इसके एक पक्ष की व्याख्या करके इति श्री कर देते हैं। उपन्यास का पन्ना-पन्ना लखी नाथ और मिलन देवी की प्रेम कहानी से रंगा हुआ है। इसे देखने, पढ़ने और समझने की ज़रूरत है। इस आलेख में, पूर्व में  इस उपन्यास पर लिखे गए आलेखों को देखते हुए सपेरा जनजाति के जीवन संघर्ष की गाथा को थोड़ा विराम देते हुए लखीनाथ और मिलन देवी यानी विमुक्त जनजातीय पुरुष और अभिजात सवर्ण समाज की स्त्री मिलन देवी की अद्भुत प्रेम कथा को विस्तार देना आवश्यक है।
सांप उपन्यास की कथावस्तु का ताना-बाना कोई एक या दो वर्ष में नहीं बुना गया है। लेखक ने सपेरा समुदाय में घूम-घूम कर इसकी सच्ची घटनाओं और चरित्र को यथार्थ की धरती पर लाकर संजोया है। ठीक वैसे ही जैसे एक-एक कच्चा, पक्का, काला, नीला, पीला धागा मिलाकर कोई रेशम का कालीन तैयार कर देता है। उपन्यास का पूरा कथा विन्यास 10 वर्षों के घटनाक्रम  से आच्छादित है । एक ओर सपेरा समुदाय है तो दूसरी ओर  सवर्ण समुदाय। सपेरा समुदाय का प्रतिनिधित्व एक पुरुष यानी लखीनाथ सपेरा तथा सवर्ण समुदाय का प्रतिनिधित्व एक स्त्री यानि मिलन देवी कर रही है । मुख्य: दो ही पात्र  प्रमुख हैं। बाकी गौड़ पात्रों की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। जिसमें सेठ मुकुंददास जो मिलन देवी के पति हैं और रमती बाई जो लखीनाथ की पत्नी है। सेठ सुकुंददास  और उनकी पत्नी सूरत देवी, सेठ मुकुंद दास के बड़े भाई और भाभी हैं l कुल मिलाकर इन्हीं पात्रों के चारों ओर पूरा उपन्यास घूमता है।
उपन्यास की शुरुआत ब्राह्मणवादी सवर्ण  मानसिकता पर किए गए करारे  व्यंग्य के साथ होती है। जब उपन्यास के मुख्य महत्वपूर्ण किरदार सेठ मुकुंद दास के मकान की नींव खोदते वक्त मजदूर की कुदाल से कोबरा नाग की पूंछ कट जाती है। सेठ जी अपनी धर्म पत्नी मिलन देवी के साथ अपने पूरे राजसी ठाठ वाट में अपने मकान की नींव खुदवाने का श्री गणेश करते हैं। लेखक के शब्दों में ब्राह्मण प्रज्ञा से, क्षत्रिय बल से, वैश्य  धन से ऊंचे हैं, शूद्र  मेहनतकश होकर भी नीचे हैं। विवाह, शादी, लग्न, मुहूर्त, जन्म जैसे मांगलिक अवसरों पर ब्राह्मण भाल पर त्रिपुंड तिलक लगाकर, क्षत्रिय अहम  दिखाकर और वैश्य वस्त्र आभूषणों से अपनी शोहरत दर्शाया करते हैं। (1)
चांदी के नाग-नागिन हाथ में पकड़े हुए पंडित जी कोबरा नाग को देखकर भाग खड़े होते हैं। लेखक ने विभिन्न आडंबरों से पर्दा उठाते हुए इस घटना का बेहद मनोरंजक चित्रण किया है। यथा – “उनके एक हाथ में पोथी  पतरा, दूसरे हाथ में चांदी के नाग-नागिन का जोड़ा थाl  सात पीढ़ियों के अनिष्ट को दूर करने का उनका दावा था l पंडित जी नींव के निकट जा खड़े हुए थे, नींव के बिल में घुसे बैठे जिंदा नाग की  लपलपाती  जीभ देखकर भय से ऐसे घबराए कि चांदी के नाग-नागिन की डिबिया थामें उनके हाथ बुरी तरह धुजने लगे ।”(2)
उपन्यास में बंजारा, नट, मदारी  और सपेरा जनजातियों के समाज और संस्कृति का गहरा विश्लेषण मिलता हैl सेठ मुकुंद दास के द्वारा सपेरे को बुलाने जाने की घटना   का बड़ा प्रकरण इस उपन्यास में मिलता हैl इस प्रकरण के माध्यम से लेखक ने घुमंतू समुदाय जिसका नामकरण बंजारा की धड़ी किया है;  इस बंजारा की धड़ी के माध्यम से अनेक घुमंतू जनजातियों के जीवन – संघर्ष, रहन-सहन, आस्था, विश्वास, धर्म-ईमान आदतें, आचार-विचार, पहनावा, खान-पान यानी की संपूर्ण सभ्यता और संस्कृति की विस्तृत विवेचना की है, यथा “सामने किसी किसान का खेत था। ऊंचाई पर उसके डोले पर झुग्गी, झोपड़ियां, डेरों के बरसात में भीगे हुए  फटे पुराने कंबल, खेस,  गुदड़ियां, लुंगियां, लुंगड़ियां, तहमद, कमीज़, धोती पजामा, लहंगे और सलवार चढ़ती धूप में सूख रहे थे। सेठ मुकुंद दास ने सांस छोड़ी। पानी पड़ा था। रात-दिन भर खटते निशंक सोए पड़े  होंगे। झोपड़ियों की दीवार पर चार-चार इंच  की टूटे और कूड़े करकट के अवशेष चिपके हैं। झोपड़ियों में पानी भर गया है। गूदड – गाबा, कपड़े – लत्ते बर्तन भाड़े भीग गए।(3)  सेठ मुकुंद दास सपेरे की बस्ती के बारे में सोचते हैं और कहते हैं कि “यह लोग धरती पर सोते हैंl निरा जंगल है बिच्छू-गोरे, कीड़े – मकोड़े कीट ,पतंगे, मक्खी, मच्छर हैं। भीत के साए में जूझते बदनसीबों की बेकसी।”(4)
वास्तविकता यही है कि इन जनजातियों की न जाने कितनी पीढ़ियां इसी अभाव की जिंदगी को जीकर खत्म हो गईं। उनके जीवन का सूर्य कभी उदय नहीं हुआ। इनका संघर्ष काली अंधेरी रात्रि  की तरह, और कलुषित होता जा रहा है। सांभरिया जी लिखते हैं कि  पल, दिन, हफ्ते, महीने, साल, सदियां, दरिद्रता की दरिया में रहते बीत गए। भूख, गुरवत और तंग हाली, यातना शिविर जैसे दर समाज के अपराधी कुदरत के कैदी हैं ( 5)
देश के योजना आयोग, सरकारों, जिला पंचायत, किसी ने भी इनके भयाभय जीवन के बदलाव की बात कभी नहीं सोचीl  यह उपन्यास इस दृष्टि से सरकारी व्यवस्थाओं के समक्ष  पुख्ता सवाल खड़ा करता हैl लेखक का सेठ मुकुंद दास के द्वारा लखीनाथ सपेरे के डेरे तक जाने के क्रम में बंजारा की घड़ी के बहाने मदारी, सपेरे, बंजारा, जनजातियों के संपूर्ण  जीवन-चित्र बहुत ही कुशलता से अंकित किए हैंl पाठकों को इस कृति के माध्यम से इन जनजातीय समुदायों की संस्कृति के विषय में गहन जानकारी उपलब्ध होती हैl  इस कारण लेखक की कलात्मक अभिव्यक्ति अधिक मुखरित हुई है।
उपन्यास का कथानक,  सपेरा समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और जनजातीय संस्कृति को पूर्ण रूप से उद्घाटित करने में सफल हुआ हैl सपेरा लखीनाथ का परिचय सेठ मुकुंद दास और मिलन देवी से सांप पकड़ने की घटना के साथ होता है, लखीनाथ का मिलन देवी से यह प्रथम परिचय हैl लखीनाथ बेहद स्वाभिमानी व्यक्तित्व का लगता है और आगे की घटनाओं से यह तथ्य स्पष्ट भी हो जाता हैl  मिलन का लखीनाथ के प्रति आकर्षण लखीनाथ के आकर्षक व्यक्तित्व का परिणाम हो सकता है किंतु उसकी खुद्दारी और स्वाभिमान इसकी वजह हैl लेखक ने इस तथ्य को बहुत ही विस्तार से उजागर किया हैl सांप पकड़ने के बदले मिलन देवी ने सपेरे लखीनाथ को चांदी का ₹1 दिया थाl लखीनाथ के पास जब दोबारा मिलन देवी के सिर में से सांप निकलवाने के लिए सेठ मुकुंद दास पहुंचते हैं तो वह यह समझता है कि सेठ मुकुंददास वह चांदी का सिक्का वापस लेने आए हैं और वह चांदी का सिक्का सेठ जी की ओर बढ़ाते हुए कहता है – “लो  सेठ जी थारो चांदी को  रूपयो इसी मारो आया हो ना थम। ले जाओ। म्हारे न पचे, इसो इनाम-इकराम। दिन खंटा, गट्टी पिसो, खांवा।”( 6) 
लखी नाथ बेहद स्वाभिमानी और परिवार के लिए पूर्णतः समर्पित, साहसी तथा नाग विद्या का जानकार हैl लेखक ने मिलन देवी और लखीनाथ के प्रेम प्रसंग के बहाने सपेरे की अपनी जाति, व्यवसाय, परिवार, समुदाय के प्रति कर्तव्य परायण भावना को रेखांकित किया हैl लखीनाथ ने अपनी सूझबूझ, साहस और हिम्मत से अपने प्राणों की बाजी लगाकर जब सेठ मुकुंद दास के मकान की नींव में घुसे हुए नाग को पकड़ लिया, उसकी इस अद्भुत कला पर सेठ जी सहित सभी गांव वाले आश्चर्यचकित रह गएl मिलन देवी के हृदय में लखीनाथ के प्रति प्रेम और आसक्ति का अंकुर इसी घटना के साथ फूटता हैl लेखक ने इस चित्र को बहुत ही खूबसूरती से उपन्यास के भीतर सजाया हैl इस पर विचार होना चाहिए यथा – 
“ मिलन देवी नींव के किनारे खड़ी हुई थींl उसने नाग लिए नीलकंठ के चित्र देखे थेl मूर्तियां देखी थीl सपेरों के बदन पर विषैला नाग का लिपटा देखकर  वह सदमा गईl गुलाबी लिपस्टिक लगे उसके ललमई होठ न खुल पा रहे थे, ना बंद हो पा रहे थेl अर्ध खुली आंखें फटी जाती थीं , मिलन देवी सपेरे के इस साहसपूर्ण कार्य को देखकर अपना दिल हार बैठीl तब शायद लखीनाथ के मन में कोई ऐसा भाव ना था,  किंतु प्रेम का अंकुर कब, कहां पर  किस स्थिति में फूट जाए, यह कौन जाने? यह तो प्रेम करने वाला ही जानता हैl प्रेम की नियति पूर्व निर्धारित होती हैl समय निर्धारित नहीं होतीl जीवन में कहीं भी कोई भी कब किसकी नजरों में बस जाए यह कौन जानता है?” 
मिलन  को घुमंतुओं के जीवन संघर्ष और उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाली एक कर्मठ महिला के रूप में  प्रस्तुत  किया है। किंतु इसके केंद्र में प्रेम ही हैl मिलन अपने प्रेम के वशीभूत, सपेरा समुदाय के जीवन की कायाकल्प करने का प्रण लेती हैl यह प्रेम एकतरफा नहीं  है। जब लखी नाथ ने नींव में से नाग पकड़ने के बाद बाहर आकर पहली बार मिलन देवी को देखा तो उसके अप्रतिम रूप यौवन को देखकर वह नजरें ना हटा सकाl ऐसा नहीं है कि बंजारा की धड़ी में जहां वह रहता है वहां सुंदर रूप-यौवन वाली स्त्रियां नहीं थीं, किंतु प्रेम की परिणति  और नियति पूर्व निर्धारित होती है जिसका उदाहरण लेखक ने लखीनाथ के हृदय में मिलन देवी के रूप और सौंदर्य के प्रति आकर्षण से पूर्ण रचनात्मकता के साथ स्पष्ट किया है। “लखीनाथ ने मिलन देवी की ओर एक नज़र निहार, ललाट पर लटकी स्वर्ण बिंदिया से लेकर पैरों की उंगलियों में पहने बिछुए तक सोने से लकदक सोने की गोटा किनारी  से कड़ी  साड़ी से सजी-धजी मानो  देवी की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा से सजाया हो या सोने की खान हो….. ऐसी खूबसूरत स्त्री लखीनाथ अपनी 22 वर्ष की उम्र में पहली दफा देख रहा थाl कुदरत के हाथों फुर्सत से गढ़ी, नपी, तुली, सुती काया, सारस सी गर्दन, गदराया  जोबनl वह अपने बचपन में दादी, नानी, मां से परियों और रानियों की सुंदरता के बखान सुना करता था”।(8)
सपेरे के मन में मिलन देवी के इस सुंदर रूप को देखकर प्रेमासक्ति  पैदा हो गई l  लखीनाथ भी 22 वरस का हष्टपुष्ट युवा थाl उसके गेरुआ वस्त्र मिट्टी में सने हुए थेl गड्ढे से बाहर निकाल कर लखीनाथ ने जैसे ही अपना चेहरा धोया उसका सुंदर मुख, बादलों के बीच चौदहवीं के चांद की तरह दिखाई दियाl मिलन उसके रूप पर मोहित हो गई थीl सेठ जी के द्वारा ₹100 का नोट उसे इनाम में दिया जा चुका था किंतु मिलन ने पंडित जी को दिए जाने वाले, पांच चांदी के सिक्कों में से लखीनाथ के प्रति प्रेमासक्त  होने के कारण एक सिक्का निकाल कर लखीनाथ को दिया और इस तरह से पहली बार  उन दोनों का आपस में   प्रेमालाप हुआ l यथा  – “मिलन प्यार से कहती है सपेरा तेरा इनाम।” (9)। सेठ जी मिलन के इस कृत्य पर दांत भींच कर रह गएl लेखक  इस तथ्य को स्पष्ट किए बिना आगे नहीं बढ़ा कि  मिलन देवी और सेठ मुकुंददास निःसंतान दंपति हैं और अपनी पत्नी पर उनका ज्यादा वश नहीं था। इस कारण भी सेठ मुकंद दास मिलन पर कड़ा रुख नहीं अपना पाते थे। इस कारण मिलन और भी लखीनाथ के करीब आती चली गईl  उपन्यास में घटित आगे की घटनाओं में लेखक ने इस प्रेम रसायन का  बहुमुखी विस्तार  मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से  उद्घाटित किया है।
मिलन देवी का लखीनाथ  के प्रति अतिरिक्त झुकाव सेठ जी  और मिलन की जेठानी सूरत देवी खूब समझ रहे थे। 
लेखक के ऐसे प्रसंगों के उद्घाटन से  उपन्यास में अनायास ही रोचकता का पुट आ गया है जिससे कि पाठक इस उपन्यास को पढ़ते वक्त तनिक भी विश्राम की स्थिति में नहीं आ पाता और इस प्रेम रसायन की अद्भुत कथा में डूबता चला जाता है l लेखक की संवाद लेखन की प्रतिभा भी खूब उजागर हुई है। छोटे-छोटे संवादों में चित्रात्मक भाषा-शैली का प्रयोग करके लखीनाथ और मिलन के प्रेम प्रसंग को  अधिक हृदयग्राही बना दिया है l इस उपन्यास को पढ़ते वक्त जब ऐसे प्रसंग पाठक की नज़रों से गुजरते हैं तो वह सपेरा जनजाति के जीवन संघर्ष और उनकी परेशानियों को थोड़ी देर के लिए पीछे छोड़, मिलन तथा लखीनाथ की प्रेम पूर्ण भाव-भंगिमाओं  में अपने प्रेम को खोजने लगता हैl यही साधारणीकरण की अवस्था होती हैl जिसे बहुत पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किसी  कृति की महत्ता  और उपादेयता  को सिद्ध करने के लिए आवश्यक बताया था।
लेखक ने इस रोचक प्रेम  प्रसंग को इस प्रकार से अभिव्यक्त किया है – “मिलन देवी ने सिक्के को उंगलियों की चुटकी में  पकड़े लखीनाथ की ओर हाथ  बढाया, लखीनाथ ने गर्दन हिला कर कहा ना ना  सेठाणी जी  मेहंतानो पाल्यौ सेठ जी से। खूब घणो दियो उनने। गरीब की मिन्नत बरकत करे।(10) मिलन देवी ने अपनी सुरमई आंखें गोल कीं, एक आंख में अनुनय  और  दूसरी में आग्रह ऐसे द्विभाषी नेत्रों के सम्मुख भला कौन पुरुष नतमस्तक नहीं होगा।(11)  लखीनाथ की आसक्ति मिलन के प्रति साफ़ दिखाई दे रही थी।  मिलन देवी लखीनाथ  को देखकर क्या  सोच रही थी l लेखक  ने इस  तथ्य  को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है “लखी नाथ का गेरुआ कुर्ता मिट्टी में सना थाl  बालों की लटें अस्त-व्यस्तl माथे पर बिखरी पड़ी थीl मिलन को ऐसा लग रहा था कि यह सपेरा, भांड-भगत जाति का नहीं जोगी जाति का हैl  मैं अभी साड़ी की पल्लू से इसकी रेत झाड़ दूंl उंगलियों से कंघी करके  सवार दूंl किंतु संकोच के मारे उसकी आंखें नीची हो गईं”(12)
मिलन देवी की जेठानी सूरत देवी मिलन और लखीनाथ के इस प्रेम प्रकरण को खूब समझ रही थी और  मुंह ही मुंह में वह बुदबुदाते हुए बोली कि “देखना  सपेरे से अपना अंश वंश चलाएगी”।
मिलन देवी ने अपनी जेठानी सूरत देवी के मुंह से निकली हुई यह बात सुन ली और उसको अपने साड़ी के पल्लू में गांठ बांधकर रख लिया।  लेखक के द्वारा उपन्यास के चौथे भाग में प्रयोग किया गया यह वाक्य, उपन्यास का केंद्रीय वाक्य बन गया और यही वाक्य उपन्यास  की कथा विन्यास की कसावट का उदाहरण  हैl  सूरत देवी के मुख से अनायास  ही निकला  यह वाक्य लखीनाथ और मिलन के प्रेमप्रसंग के कारण पूरे उपन्यास के केंद्र में आ गयाl  उपन्यास के अंतिम भाग तक इस वाक्य का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है और  उपन्यास के अंत में इस वाक्य की परिणिति होती है,  जब लखीनाथ अपना बेटा मिलन देवी की गोद में डाल देता है और मिलन देवी उस बच्चे को अपने आंचल के फूल की तरह अपना कर सपेरे के सरनेम नाथ और सपेरे की वेशभूषा जिसका चिन्ह कानों के कुंडल है, उसके साथ ही अपनाती है और यहीं पर मिलन और लखी नाथ के प्रेम की पूर्ण पराकाष्ठा तथा परिणति होती हैl इस उपन्यास में समानांतर कई कथाएं चलती हैंl एक कथा घुमंतुओं की बदहवास जीवन-शैली से पर्दा उठाती है तो दूसरी कथा सवर्ण वर्ग का घुमंतुओं के  प्रति हीन व्यवहार उजागर करती हैl तीसरी कथा मिलन देवी और लखीनाथ के प्रेम रसायन की है।
यह कथा  प्रसंग अपने आप में अनोखा है क्योंकि यहां एक सवर्ण समाज की पढ़ी-लिखी सामाजिक कार्यकर्ता,  वंचित- विमुक्त और घुमंतु समुदाय के अनपढ़ व्यक्ति के साथ प्रेम में लिप्त ही नहीं होती बल्कि आजीवन अपने प्रेम के वशीभूत  उस पुरुष का ही नहीं  बल्कि उसकी संपूर्ण जातीय समुदाय की कायाकल्प करने का प्रण लेकर अपना जीवन लगा देती हैl 
ऐसी प्रेम कथाएं घुमंतू जनजातीय समाज पर लिखे गए उपन्यासों में  पूर्व में भी देखी गई है। किंतु त्याग और बलिदान की ऐसी कथा जिसे रत्न कुमार सांभरिया ने मिलन देवी और लखीनाथ के माध्यम से प्रस्तुत किया है, अद्भुत हैl पाठकों को गहराई से इसे समझना चाहिएl इस उपन्यास के केंद्र में जातीय, जनजातीय संघर्ष, वंचित समाज की दुर्दशा से परे  इन दोनों का प्रेम प्रसंग उपन्यास की केंद्रीय कथावस्तु बन गया हैl मिलन देवी और लखीनाथ की यह प्रेम कथा आगे चलकर त्याग और संघर्ष की  परिणति को प्राप्त होती हैl दोनों प्रेमी अपनी अपनी सीमाओं में रहकर एक दूसरे के प्रति अपने जीवन को समर्पित कर देते हैंl मिलन देवी घुमंतु समुदाय का कायाकल्प करती है तो लखीनाथ मिलन देवी के अनिवर्चनीय प्रेम की खातिर अपने पुत्र को मिलन देवी की वर्षों से सूनी पड़ी गोद  में डाल देता है।
मिलन देवी और लखीनाथ का प्रेम प्रसंग उपन्यास के दूसरे खंड से ही पल्लवित होता दिखाई देता हैl मकान की नींव में सांप घुसने की घटना के बाद लखी नाथ, सांप को पकड़ कर ले जाता है किंतु मिलन देवी लखीनाथ के प्रति आसक्त हो जाती है और अस्वस्थ रहने लगती है और अपने सिर में सांप घुस जाने का नाटक रचती है। उसके पति मुकुंद दास और परिवार के अन्य सदस्य मिलन देवी की इस हालत को देखकर एलोपैथिक/अंग्रेजी इलाज करवाते हैं। जिसमें डॉक्टर साध भी मिलन देवी के यौवन पर मोहित हो जाते हैं और मिलन देवी से लखीनाथ के बारे में सवाल जवाब करते हैं और मिलन देवी की मानसिक अवस्था को समझ जाते हैंl सर में सांप घुस जाने की जो रचना है, वह मिलन देवी ने जानबूझकर की थी; इसका खुलासा मिलन देवी ने आगे लखीनाथ के सम्मुख किया हैl सेठ मुकुंद दास, लखीनाथ को लेने उसके डेरे  पर जाते हैं और जब लखीनाथ, मिलन देवी के बंगले में प्रवेश करता है सेठ मुकुंद दास उसे मिलन देवी के कमरे में ले जाकर बैठा देते हैं। मिलन देवी सेठ मुकुंद दास, अपने जेठ और जेठानी को बाहर जाने का इशारा करती है और एकांत में लखीनाथ से वार्तालाप करती है। मिलन देवी और लखीनाथ का यह  एकांत वार्तालाप परिवार के लोगों को बिल्कुल भी नहीं सुहाता,  किंतु लेखक ने पूर्व में ही बताया है कि निसंतान होने के कारण सेठ मुकुंद दास अपनी पत्नी के प्रति विशेष दया और सहानुभूति का भाव रखते हैं और उसकी हर एक बात को सहज ही मान लेते हैंl मिलन देवी और लखीनाथ इस प्रसंग में दूसरी बार मिल रहे हैंl आपस में वार्तालाप करते हैंl मिलन देवी, सर में सांप घुसे होने की बात जब लखीनाथ को बताती है तो लखीनाथ भरोसा नहीं करता है। क्योंकि यह एक आश्चर्यचकित कर देने वाली बात है, फिर भी लखीनाथ अपनी पिटारी में से सटक  ( बिना जहर वाला पतला सफेद सांप) निकालकर मिलन देवी के गले में डाल देता है और सटक को पकड़ने के बहाने घर से बाहर भाग  जाता हैl  इस घटना से लखीनाथ पूरी तरह आश्वस्त हो जाता है कि मिलन देवी के हृदय में उसके प्रति अपार  प्रेम का भाव है और ऐसे ही छोटी-छोटी घटनाओं के माध्यम से मिलन देवी और लखीनाथ बार-बार मिलते हैंl  मिलन देवी अपने पति मुकुंद दास से जब उनकी संघर्ष पूर्ण  जीवन की कहानियां सुनती है तो उसका हृदय द्रवित हो जाता है और वह लखीनाथ के डेरे में जाने की इच्छा जाहिर करती हैl यहीं से लखीनाथ और मिलन देवी की प्रेम कथा आगे बढ़ती चली जाती है;  जिसे लेखक ने विभिन्न घटनाओं के माध्यम बहुत ही संवेदनात्मक भाव व्यंजना के साथ अभिव्यक्ति दी है।
घुमंतु समुदायों में ऐसे प्रेम प्रसंग तमाम जगह देखने को मिलते हैं। किंतु घुमंतु समुदाय के किसी व्यक्ति का अपने कबीले समुदाय के प्रति समर्पण भाव और लोक लाज की भावना, प्रेम को परवान चढ़ने नहीं देतीl वह अपनी जाति बिरादरी के मान-सम्मान के लिए अपने सभी मनोभावनाओं की तिलांजलि हंसते-हंसते दे देते हैं। लखीनाथ की प्रेमकथा भी इसी दकियानूसी  समाज में उलझ कर रह गई थी। लखीनाथ का विवाह किसी नवयुवती  से नहीं हुआ थाl अपितु उसके बड़े भाई की मृत्यु हो जाने के बाद उसके समुदाय की परंपरा और रूढ़ियों के अनुसार, विधवा स्त्री को बहुत दिनों तक विधवा नहीं रहने दिया जाता और उसे  समुदाय के किसी अन्य व्यक्ति के नाम की चूड़ियां पहना दी जाती हैंl ऐसा ही लखीनाथ ने कियाl अपने भाई की मृत्यु हो जाने के बाद लखीनाथ के नाम की चूड़ियां लखीनाथ की भाभी, रमती बाई, को पहना दी गईं और वह लखीनाथ की पत्नी कहलाई। लखीनाथ इस वैवाहिक स्थिति का उद्घाटन लेखक ने लखीनाथ और मिलन देवी के एक दूसरे के प्रति  प्रेम  के अंकुर को अधिक पुष्ट होने के कारण किया है।
उपन्यासकार ने इन दोनों को प्रमुख पात्रों का दर्जा दिया है और पाठक की दृष्टि से भी लखीनाथ तथा मिलन देवी पूरे उपन्यास में मुख्य भूमिका में हैंl दोनों युवा हैंl खूबसूरत हैं, किंतु उनका वैवाहिक जीवन असंतुष्टि पूर्ण हैl यह भी कारण है कि दोनों एक दूसरे के आकर्षण में उलझ गए। मिलन देवी और उसके पति सेठ मुकुंद दास का दांपत्य जीवन सहज नहीं था निसंतान थेl  इस कारण सेठ मुकुंद दास मिलनदेवी को कोई जटिल बात नहीं कह पाए थेl इस तरह का संकेत लेखक ने इस उपन्यास में कई स्थानों पर दिया है यथा “निःसंतान पत्नी पर पति का ज्यादा वश  नहीं रहता ”
तो एक अन्य प्रकरण में लेखक ने स्पष्ट किया है,  मिलन और उनके पति मुकुंद दास के आपसी संबंध, लखीनाथ की ओर प्रणय निवेदन का कारण है, यथा – “भार्या धर्म के लिहाज से अक्षम पुरुष में इतना माद्दा नहीं होता जितना वीर्यवान पुरुष में हुआ करता है”(13)
 इस प्रेम प्रसंग से उपन्यास अधिक रोचक बन पड़ा हैl पूर्व में जो भी  इस उपन्यास पर आलोचकों ने लिखा है वह निरा  पारंपरिक लेखन हैl  जिसमें घुमंतू जनजातियों के जीवन संघर्ष को मुख्य बिंदु के रूप में विश्लेषित किया है और लखीनाथ के प्रेम रसायन की ओर  शायद उनका ध्यान नहीं गयाl  जब उपन्यास का प्रकरण मुख्य बिंदु के रूप में अन्य प्रकरणों के समान ही समांतर चलता है, इसकी चर्चा उपन्यास के संबंध में बात करते हुए होनी चाहिए। 
रत्न कुमार सांभरिया का दृष्टिकोण पूर्णतः स्पष्ट है उन्होंने जितनी शिद्दत  से उपन्यास की शुरुआत में यानी उपन्यास के दूसरे खंड में लखीनाथ के डेरे  पर सेठ मुकुंद दास के पहुंचने के क्रम में  घुमंतू जातियों के जीवन शैली,रहन-सहन, बोलचाल, विश्वास, मान्यताओं का अद्भुत चित्रण किया हैl उसी तरह दूसरे खंड में उन्होंने बंजारा, सपेरे, मदारी जैसी कई जनजातियों के रहन-सहन का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया हैl एकबारगी ऐसा लगता है कि लेखक ने उन डेरो के बीच में बैठकर ही इस खंड को लिखा हैl पूर्ण रूप से आंखों देखा चित्रण हैl  भाषिक धरातल पर पूर्ण स्वाभाविकता बरती गई है जो किसी भी रचना को यथार्थ के धरातल पर लाकर सीधे पाठक के हृदय से जोड़ती हैl भिन्न जनजातियों की भाषा का ऐसा अद्भुत प्रयोग उपन्यास में किया गया है जिससे पाठकों की रुचि उपन्यास में और अधिक प्रबल हो जाती है और उपन्यास अधिक जीवंत दिखाई देता है।
 लखीनाथ और मिलन की प्रेम कथा की अनेक छोटी-छोटी  कहानियां इस उपन्यास में बिखरी  पड़ी हैं उपन्यास का  16 वा खंड में मिलन देवी और लखीनाथ के प्रेम प्रसंग की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है l मिलन देवी समाज सेबिका है l वह लखीनाथ के साथ समस्त जनजातीय समुदायों के उद्धार  करने का वीणा उठाती है  l इस क्रम में बहुत सी घटनाएं घटित होती हैं lलखी नाथ को पुलिस के द्वारा गोली लग जाने पर उसकी पूरी देखभाल करती है l  अस्पताल में भर्ती करवाती है l लखीनाथ और मदारीन  को झूठे केस से बरी करवाती हैl जब लखीनाथ अस्पताल में भर्ती होता है तो उसके ऑपरेशन के बाद रात में ही अपने पति मुकुंद दास से उसे देखने जाने की जिद करती है  l मिलन की इस प्रेम पिपासा को लेखक ने अपने शब्दों में इस प्रकार से अभिव्यक्त किया है यथा -” बावजूद इसके मिलन का जी बैठ जाता था l सपेरे की हालत के ख्याल से वह विकल और बेचैन थी उस रात अपने पति के साथ हवेली में थी किंतु मिलन का मन मयूर लखीनाथ के साथ अस्पताल में विचरण कर रहा था”(14)  इस उपन्यास के केंद्र में जनजातीय संघर्ष से कहीं अधिक लखी नाथ और मिलन की यह प्रेम कथा है जिसे लेखक ने पूरे मनोयोग से घटना दर घटने स्पष्ट किया है।
मिलन का लखीनाथ के प्रति शारीरिक आकर्षण बहुत गहरा है l  एक बार नहीं वह पूरे उपन्यास में दो बार लखीनाथ से प्रणय निवेदन करके उससे शारीरिक संबंध स्थापित करना चाहती है l लेकिन दोनों बार लखीनाथ की अपनी सामुदायिक मान्यताएं, व्यवस्थाएं और उसकी पत्नी का लखीनाथ के प्रति प्रगाढ़ स्नेह  उसे मिलन के साथ ऐसा करने से रोक देता है l लेखक ने मिलन की  पहल को स्पष्ट करते हुए लिखा है -” मेह के बादल देख उर्वर धरती   का हिया हुलकता है l लखीनाथ को साथ लिए उसमें उमंगे उमड़ी थी किंतु लखीनाथ उसे आगे बढ़ने से रोक देता है उसके  हृदय में मिलने के लिए प्रेम की अतः लहरें उमड़ रही थी किंतु लोक लाज और मिलन के प्रति सम्मान का भाव उसे आगे बढ़ने नहीं देता।
उसने  निरीह  सा चेहरा बनाकर मिलन  से कहा  “ ना सेठानी जी न थारो वादो अबार अधूरो है। कच्चो फल या तो खट्टो रहवै या कड़वो “ लखीनाथ के प्रति प्रेम और मिलन का यह अनुग्रह अधूरा रह गया l पूरे उपन्यास में लखीनाथ और मिलन देवी का यह प्रेम रसायन अलग-अलग रूपों में लेखक ने अलग-अलग घटनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया है l उपन्यास में कई कथाएं समांतर चल रही हैंl  एक  सवर्ण वर्ग की कथा है जिसके केंद्र में मिलन है और दूसरे जनजाति समुदाय की कथा जिसके केंद्र में लखीनाथ है l लेखक ने कथाओं को बिखरने नहीं दिया एक के भीतर दूसरी कथा ऐसे  गूंथ दी है जैसे मानो वे दो कथाएं ना होकर एक ही है l  रत्नकुमार सांभरिया जी की उत्कृष्ट रचनाधर्मिता उनके इस बहुआयामी कथा विन्यास से सिद्ध होती है।
उपन्यास के चौथे खंड में मिलन की जेठानी जब मिलन और लखी नाथ के प्रथम परिचय के समय उनके एक दूसरे के प्रति प्रेम निवेदन की विभिन्न भाव भंगिमाहों को भांप लेती है और मिलन के द्वारा लखीनाथ को चांदी का रुपया दिए जाने की घटना से आहत हो जाती है। मिलन देवी की जेठानी सूरत देवी कहती है  “ देखना  – सपेरे से अंश वंश चलाएगी” लेखक ने इसी कथा सूत्र को 417 पृष्ठ के विस्तृत विन्यास के उपन्यास  में। अंत में जोड़ा है l जो उनके लेखक के प्रतिभा को और मजबूत करता है l कथाएं समरसता पूर्वक आगे बढ़ती रहती हैं और पाठक इन कथाओं में इतना ध्यान मग्न हो जाता है कि उसे इस उपन्यास का कलेवर बड़ा होकर भी बड़ा नहीं महसूस होता।
उपन्यास में मिलन और लखी नाथ के प्रेम की पराकाष्ठा तब होती है जब लखी नाथ निसंतान मिलन देवी के बारंबार प्रणय निवेदन को ठुकराता रहता है और अंत में अपनी संतान मिलन देवी को दे देता है l मिलन के प्रेम की पराकाष्ठा तभी हो जाती है जब एक समाज सेविका की  शहरी वेशभूषा को छोड़कर वह बंजारन की तरह बाजूबंद आभूषण और वस्त्र धारण कर लेती है जैसे कि  मिलन ने लखी नाथ को ही नहीं उसकी संस्कृति को भी अपना लिया l वह केवल वस्त्र ही धारण नहीं करती अपितु वहां की भाषा भी सीखती है और आचार व्यवहार भी अपना लेती है l.मिलन देवी ऐसा बाहरी दिखावे के लिए नहीं करती  l लेखक ने मिलन देवी के माध्यम से सवर्ण  समाज की कुटिल मानसिकता और जनजातीय समाज के प्रति उनकी हीन दृष्टि को विराम देते हुए मिलन देवी के माध्यम से जनजातीय समुदाय के प्रति बदलती हुई सोच को शब्दबद्घ किया है।
लखीनाथ अपने कलेजे के टुकड़े को मिलन देवी को देकर अपने प्रेम की पवित्रता को बचाए रखते हुए मिलन देवी की झोली में डालकर अपने प्रेम केवल समर्पण का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है l उपन्यास का यह अंश बेहद कारुणिक है l प्रेम का ऐसा सुंदर वर्णन जनजातीय समुदायों पर लिखे गए उपन्यासों में पूर्व में कहीं दिखाई नहीं देता लेखक पुरुष इतना संवेदनशील हो सकता है यह उपन्यास के इस अंश के स्पष्ट दिखाई देता है-” रमती मैं भी वचन बद्ध  हूं lवंश भले हमारा चले l अंश सपेरा का रहेगा  l कानों में स्वर्ण के कुंडल पहनेगा और नाम कल्याण नाथ सेठ  होगा।(15) उपन्यास का यह दृश्य बेहद संवेदनशील और वेदना से भरा हुआ है  l  इस त्याग और समर्पण  की घटना ने उपन्यास की  प्रेमकथा को और  उद्दात्त बना दिया है l बच्चे को गोद दिए जाने की घटना के माध्यम से लेखक यह स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा है कि मिलन और लखीनाथ अपनी सीमाओं के कारण एक नहीं हो पाए  l किंतु बच्चे का दान देकर लखीनाथ  ने हमेशा के लिए अपना अंश मिलन के वंश में मिला दिया और लखीनाथ के पुत्र के माध्यम से हमेशा के लिए मिलन के पास चला गया l यही पूरे उपन्यास का केंद्रीय भाव है l जैसा कि उपन्यास के दूसरे भाग में कहा गया है कि “ देखना –  सपेरे से अपना अंश वंश चलाएगी” l वास्तव में लखीनाथ का अंश मिलन का वंश चलाएगाl लेखक की काल्पनिक दृष्टि बहुत ही सशक्त है और यथार्थ एवं कल्पना का अद्भुत संगम इस उपन्यास के केंदीय भाव लखीनाथ और मिलनदेवी के प्रेम को सशक्त अभिव्यक्ति देने में पूर्ण रूप से सफल हुआ  है l
प्रोफेसर सरोज कुमारी
हिन्दी विभाग, विवेकानंद कालेज,
दिल्ली विश्वविद्यालय 
संदर्भ : 
  1. उलच्या,लक्ष्मण गायकवाड़ , भूमिका से
  2. सांप उपन्यास पृष्ठ संख्या 13- 14
  3. वही, पृष्ठ संख्या 29
4. वही, पृष्ठ संख्या 29
  1. वही ,पृष्ठ संख्या  29
  2. वही, पृष्ठ संख्या 75
  3. वही, पृष्ठ संख्या 47
  4. वही, पृष्ठ संख्या 49
  5. वही, पृष्ठ संख्या49
10.वही, पृष्ठ संख्या49
11 .वही, पृष्ठ संख्या 49
  1. वही, पृष्ठ संख्या 49
  2. वही, पृष्ठ संख्या 49
14.वही, पृष्ठ संख्या। 182
15.वही, पृष्ठ संख्या  412


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2 टिप्पणी

  1. महत्वपूर्ण है आपकी यह समीक्षा। लक्ष्मण गायकवाड का घुमंतू जनजातियों के सुधार हेतु बहुत से सामाजिक तय आंदोलन में भागीदारी करना पढ़कर अच्छा लगा। किसी का तो ध्यान गयाl
    उपन्यास की भूमिका में उन्होंने जो लिखा कि- “जिस तरह, जिस समाज में मैं जन्मा उसे वहाँ की वर्ण व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था दोनों ने नकारा है। सैकड़ो नहीं हजारों वर्षों से…. अंग्रेज सरकार ने तो गुनहगार का ठप्पा हमारे समाज पर लगा दिया और सब ने हमारी ओर गुनहगार के रूप में देखा और आज भी इस रूप में देख रहे हैं।” यह पूरी तरह सत्य है।
    रत्न कुमार सांभरिया जी का सपेरों की जिंदगी को बारीकी से रेखांकित करने वाले उपन्यास के बारे में आपने जो कुछ भी लिखा , सब पढ़ा। यह तो बिल्कुल सही है की सपेरा जनजाति के लोग भारत के लगभग सभी हिस्सों में मिलते हैं। यह कथा प्रसंग वास्तव में अपने आप में अनोखा है।सवर्ण समाज की पढ़ी-लिखी सामाजिक कार्यकर्ता, वंचित- विमुक्त और घुमंतु समुदाय के अनपढ़ व्यक्ति के साथ प्रेम में लिप्त ही नहीं होती बल्कि आजीवन अपने प्रेम के वशीभूत उस पुरुष का ही नहीं बल्कि उसकी संपूर्ण जातीय समुदाय की कायाकल्प करने का प्रण लेकर अपना जीवन लगा देती हैl
    इस उपन्यास के केंद्र में जातीय, जनजातीय संघर्ष, वंचित समाज की दुर्दशा इत्यादि के बारे में तो है किंतु मुख्य रूप से से इन दोनों का प्रेम प्रसंग उपन्यास की केंद्रीय कथावस्तु हैl मिलन देवी और लखीनाथ की यह प्रेम कथा त्याग और संघर्ष की परिणति को प्राप्त होती हैl दोनों प्रेमी अपनी अपनी सीमाओं में रहकर एक दूसरे के प्रति अपने जीवन को समर्पित कर देते हैंl मिलन देवी घुमंतु समुदाय का कायाकल्प करती है तो लखीनाथ मिलन देवी के अनिवर्चनीय प्रेम की खातिर अपने पुत्र को मिलन देवी की वर्षों से सूनी पड़ी गोद में डाल देता है।
    एक अधूरे प्रेम के लिए इतना बड़ा त्याग रोमांचित करता है। आपकी समीक्षा को पढ़कर उपन्यास पढ़ने का मन होगा। इस बेहतरीन समीक्षा के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ सरोज जी।

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