Tuesday, September 17, 2024
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शिवकांत का लेख – जात न गिनिये समाज की

धर्म के आधार पर यूरोप में यहूदी और गैर ईसाई तथा पश्चिम और मध्य एशिया में यहूदी और गैर मुस्लिम उतने ही या भारतीय दलितों से भी बुरे हाशिये पर रहे हैं। यहाँ यहूदियों की बस्तियों को गेटो कहा जाता था जो आजकल शहरों में समुदाय विशेष की बस्तियों के लिए प्रचलित है।
यदि इतिहास में हुए अन्याय का बदला लेने के लिए भारत जैसी गिनती और आरक्षण लागू किया जाए तो अमरीका और यूरोप में तो लगभग सारे अवसर कालों, आदिवासियों, यहूदियों और पूर्व दासों के लिए आरक्षित करने होंगे और उसपर भी न्याय नहीं हो पाएगा!
पर बुनियादी सवाल यही है कि क्या इतिहास के अन्याय का न्याय उसी तरह का अन्याय दोहरा कर किया जा सकता है? अमरीका और यूरोप के समाजशास्त्रियों ने इस पर खूब सोचा और इस नतीजे पर पहुँचे कि ऐसा करना न केवल उद्देश्यघाती होगा वरन समानता के उस सार्वभौम मौलिक अधिकार का हनन भी होगा जो संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार चार्टर में है।
इसके बावजूद भारत के संविधान निर्माताओं ने यूरोप, अमरीका और जापान जैसे एफ़र्मेटिव एक्शन या सकारात्मक सहायता की जगह आरक्षण की व्यवस्था आज़माने का फ़ैसला किया।
जिस तरह की अलग इलैक्टरेट और अलग नागरिक संहिता संबंधी मनोवृत्तियाँ संविधान सभा में काम कर रही थी उस परिवेश में उन्हें शायद यही ठीक लगा होगा। परंतु हमारे संविधान निर्माताओं ने आरक्षण की परिकल्पना सामाजिक न्याय के स्थायी उपाय के रूप में कतई नहीं की थी। स्वाधीन भारत की चार पीढ़ियाँ गुज़र जाने के बाद भी आरक्षण का लाभ उचित वंचितों तक न पहुँच पाना सिद्ध करता है कि यह व्यवस्था ही उद्देश्यघाती है।
एक समानतामूलक उदार आधुनिक लोकतंत्र में सामाजिक न्याय का आधार उसी वर्गीकरण को नहीं बनाया जा सकता जिसके कारण वंचित वर्ग तैयार हुआ है। जिस व्यवस्था ने लोगों को वंचित बनाया उसी व्यवस्था को पैमाना बना कर उन्हें कभी बराबरी पर नहीं लाया जा सकता। शायद इसीलिए आंबेडकर ने आरक्षण को अस्थायी उपाय माना था। जाति की जगह यदि आर्थिक और शैक्षणिक दशा को आधार बनाया गया होता तो आज यह बहस ही न हो रही होती। शैक्षणिक और आर्थिक दृष्टि से सबसे कमज़ोर लोगों को जात-पात का भेदभाव किए बिना सर्वोत्तम शिक्षा और पर्याप्त आर्थिक सहायता दी गई होती तो समाज में उनका पिछड़ापन चार पीढ़ियों के बाद अपने-आप दूर हो जाता।
जाति को न्याय का आधार बना कर सरकार ने जाति को समाप्त करने की जगह शाश्वत बना दिया है। अब वह सामाजिक अन्याय की जगह राजनीतिक सत्ता की सीढ़ी बन चुकी है। लगता है स्वाधीन भारत की सरकारों ने कुर्सी के नंगे लालच में भारतीय समाज का मनु से कहीं अधिक और दूरगामी नुकसान किया है।
जो देश मेरे ज़हन में हैं वहाँ सभी वर्गों को स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य के यथासंभव उत्तम अवसर दिए जाते हैं। उसके बाद उच्च शिक्षा, प्रशिक्षण और रोज़गार के अवसरों में समान योग्यता होने पर अतीत में वंचित रहे या समाज के हाशिए पर रहे वर्गों को प्राथमिकता दी जाती है। इससे योग्यता और उत्पादकता का स्तर भी बना रहता है और सामाजिक न्याय भी हो जाता है। भारत में जातियों या उनके समूह को आरक्षण देते समय चब भुला दिया जाता है कि समाज में ऊँच-नीच और शोषक-शोषित का भाव हर जाति और उपजाति में समाया है। इसलिए जाति विशेष को आरक्षण देकर हम उसके वंचितों के बजाय उसके सबसे शक्तिशाली अभिजात वर्ग को आगे बढ़ा रहे हैं।
इस समस्या का दूसरा मानवीय पहलू यह है कि अक्सर आरक्षण पाने वाली वंचित जातियों के समर्थ वर्ग के लोग दूसरे आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर पिछले वर्गों की तुलना में अक्सर बेहतर स्थिति में होते हैं। उनकी पूरी तरह उपेक्षा करते हुए राज्य के सीमित संसाधनों को उनपर न्यौछावर करना मानवता के किसी मानक पर खरा नहीं उतरता। आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था उनके सार्वभौम मानवाधिकारों का हनन ही नहीं सामाजिक अन्याय भी है।
मुझे भय है कि समाज और देश को बाँटने वाली जात-पात जैसी व्यवस्था को आधुनिक युग में सामाजिक न्याय की राजनीति का मोहरा बनाकर लोग राष्ट्रभावना के उस गोंद को तोड़ना चाहते हैं जिसे गाँधी जी और पटेल ने बड़े जतन के साथ लगाया था। आज आप जाति गिन रहे हैं। कल जितनी आबादी उतना हक़ के नारे के सहारे अफ़सरों, वैज्ञानिकों, डॉक्टरों, जजों, सैनिकों, पायलटों और सांसदों के नारे लगाए जाएँगे। यही आगे चलकर बाल्कलाइजेशन या बिखराव की प्रक्रिया शुरू होकर अलग इलैक्टरेट और राज्यों के नारों में बदलेंगे और पाँच सौ रजवाड़ों के विलय से ने देश के पाँच सौ टुकड़े होने में देर न लगेगी।
बात वहीं नहीं ठहरेगी। एक-एक राज्य के भीतर फिर वही जात की बात उठेगी और हकपरस्ती के नारे बुलंद होंगे। यह ऐसी दीमक है जो पाँच हज़ार साल पुराने देश की भावना को खोखला कर ध्वस्त कर सकती है। यह चीनी दीमक है या अमरीका की कहना मुश्किल है पर इसकी आत्मा उसी पार्टी की आत्मा का विरूपण है जिसने पूरे देश में घूम-घूमकर देशभावना जगाई थी और सैंकड़ों रजवाड़ों को एकसूत्र में बाँधा था। यह महाभारत जैसे जातीय गृहयुद्ध का आग़ाज़ है। अब यह शतुर्मुर्गी नज़रिया है या गिद्ध विहंगावलोकन आपकी समझ पर है। इतना स्पष्ट है कि मैं ग़लत हो सकता हूँ पर राजनीतिक प्रश्रय और नारों में नहीं फँसता।

 

शिवकांत (लंदन)
मोबाइल – +44 7305 177949
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1 टिप्पणी

  1. आदरणीय शिवकांत जी ! यह लेख बेहद महत्वपूर्ण है।आपके इस लेख से हम पूरी तरह सहमत हैं। इस बात पर हमारा भी रोष है। हम भी हमेशा यह बात कहते रहते हैं कि आरक्षण का आधार आर्थिक व शैक्षणिक होना चाहिए।जातिगत तो बिल्कुल भी नहीं। उनके लिए शैक्षणिक उपलब्धता अधिक महत्व रखती है। जो आर्थिक रूप से कमजोर है फिर वह चाहे किसी भी जाति के हों, नौकरी में आरक्षण देने के बजाय उसको अपने योग्यता साबित करने का अवसर देने के आप मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था करवा दीजिए ,कोचिंग की व्यवस्था करवा दीजिए ।लेकिन नौकरी मैं आरक्षण किसी भी तरह से उचित नहीं।
    नौकरी में आरक्षण, आरक्षण का सबसे कमजोर और दुखदाई पक्ष है। कोई मेहनत करके भी आगे नहीं बढ़ पाता और कोई कम मेहनत करके भी अच्छी नौकरी प्राप्त कर लेता है।
    हमें याद है कुछ वर्षों पूर्व भोपाल में एक डीआईजी थे। अभी भी होंगे एमपी में कहीं ना कहीं यह हो सकता है रिटायर हो गए हों। उन्होंने अपने हाथ में गुदवा रखा था *”पन्नालाल चमार”*
    काम के प्रति बेहद ईमानदार और बेहद सख्त भी थे। और किसी से भी डरते तो बिल्कुल नहीं थे चाहे कोई कितना ही बड़ा अधिकारी या मंत्री क्यों न हो। एक छोटा आदमी भी अपनी समस्या उनके पास लेकर जाने में घबराता नहीं था।
    लेकिन उनके बच्चों को भी भविष्य में आरक्षण की कोई जरूरत नहीं थी।
    पर नेताओं ने अपने स्वार्थ के लिए सारे नियम अपने हक में किए हैं।
    बहुत-बहुत बधाई आपको इस लेख के लिए।
    प्रस्तुति के लिए तेजेन्द्र जी का शुक्रिया। पुरवाई का आभार।

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