Friday, October 18, 2024
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श्रीकांत सक्सेना का लेख – जानिये अपनी दिल्ली को…!

इंडिया गेट निर्विवाद रूप से हमारे देश का महत्वपूर्ण सैन्य स्मारक है। 
दुनिया के प्राय: सभी देशों में अपने शहीद सैनिकों को सम्मान देने के लिए स्मृति स्थल बनाए गए हैं। जो लोग इंडिया गेट गए हैं उनमें बहुत से लोग होंगे जिन्होंने  इंडिया गेट की दीवारों पर खुदे हुए नामों को पढ़ा होगा। ये नाम ग़ौर से देखने पर ही नज़र आते हैं। लेकिन एक बार देखने के बाद आप उत्सुकतावश इन नामों को पढ़ते जाते हैं। 
यहाँ हज़ारों नाम लिखे हैं कुछ अंग्रेजों के नाम भी और बहुत से देसी नाम जैसे कल्लू खां, लड्डन सिंह, रामौतार या नत्थू खां वगैरह। ये उन सैनिकों के नाम हैं जो पहले विश्वयुद्ध में या फिर तीसरे अफ़ग़ान युद्ध में तत्कालीन ब्रिटिश आर्मी के सैनिकों के रूप में लड़ते हुए फ़्रांस और अन्य देशों में भारत से बहुत दूर लड़ते हुए शहीद हुए थे। इनमें सैनिक, सेना के कुली, नाई, रसोइये आदि सभी शामिल हैं। 
युद्ध के दौरान सेना के सभी कर्मी सैनिक के रूप में दुश्मन से दो-दो हाथ करते हैं। इंडिया गेट दिल्ली का प्रसिद्ध टूरिस्ट आकर्षण भी है। 1911 में जब देश की राजधानी कलकत्ता से हटाकर दिल्ली लाने का फ़ैसला हुआ तो इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के बेटे कनॉट ने इसकी नींव रखी। कहा जाता है इसका डिज़ाइन पेरिस में बने ऐसे ही युद्ध स्मारक से प्रेरित होकर तैयार किया गया था। 
इंडिया गेट के चारों ओर दूर-दूर तक फैला घास का हरा मैदान और बोट क्लब है। दिन भर यहाँ सैलानियों का जमघट लगा रहता है और शाम होते ही यह स्मारक केसरिया,सफ़ेद और हरी रोशनी में नहा जाता है। हज़ारों स्थानीय लोग भी इसके दूर-दूर तक फैले हरे मैदान पर तनावमुक्त लम्हों की तलाश में आते हैं। बच्चों के लिए तो यह स्थान एक मेले की तरह ही है। गुब्बारे वालों से लेकर आइसक्रीम वाले और न जाने कितनी तरह के खिलौने वाले भी यहाँ घूमने आए लोगों को खुश करके अपनी ज़िंदगी चलाते हैं। 
इंडिया गेट के एकदम सामने ऊँची पहाड़ी पर अंग्रेजों द्वारा निर्मित भारत की सत्ता और संप्रभुता का सबसे बड़ा प्रतीक राष्ट्रपति भवन है। जो पहले वायसराय हाउस कहलाता था। वायसराय यानी ब्रिटिश सत्ता का सबसे बड़ा अधिकारी। हिंदुस्तानी उसे लाट साहब कहते थे। वैसे लाट साहब अब भी मानते हैं लेकिन मन ही मन में। सत्ता और शासितों के बीच आज भी उतनी ही दूरी है। बल्कि शायद और भी ज़्यादा बढ़ गई है। 
लाट साहब की ताक़त का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि आम ज़ुबान पर जब भी ताक़त की बात होती तो लोग एक-दूसरे को इसी ओहदे से तानाकशी करते हैं – तू क्या लाट साब है… वो क्या लाट साब है, बड़ा लाट साब बना फिरता है वगैरह-वगैरह। या फिर लाट साहब है तो सब कुछ मुमकिन है। 

राष्ट्रपति सर्वोच्च सेनाधिपति भी हैं, सो सांकेतिक रूप से यह स्मारक अपने सर्वोच्च सेनाधिपति को सम्मान देता हुआ भी दिखता है। 1911 में जब भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लाई गई तो अंग्रेजों ने इस नई राजधानी को दुनिया की बेहतरीन स्थापत्य के उदाहरण के रूप में दिखाने का फ़ैसला किया। वैसे भी भारत को ब्रिटिश साम्राज्य का स्वर्ण मुकुट कहा जाता था। राष्ट्रपति भवन (उस समय का वायसराय हाउस) के दोनों बाजुओं में नार्थ ब्लॉक व साउथ ब्लॉक हैं । भारत के सबसे बड़े बाबू लोग यहीं बैठकर सरकारी कारोबार चलाते हैं। उनके दिमागों में शैतान के दिमाग़ से भी बड़ी-बड़ी खुराफातें चलती रहती हैं। 
पास में ही गोलघर यानि पुराना संसद भवन हैं – ये ही विशाल राजनीतिक चौपडखाना हुआ करता था। अंग्रेज़ आसानी से अपनी पहचानों को नहीं छोड़ते। उनकी अपनी संसद की बिल्डिंग तो बहुत पुरानी है जनवरी 1801 में बनी थी। उन्हें इस बिल्डिंग से इतना लगाव है कि आज भी नई बिल्डिंग नहीं बनवा रहे। अब हमारी सरकार ने इस बिल्डिंग से कहीं बड़ी और खूबसूरत बिल्डिंग बना दी है। इसे बनाने में बीस हजार करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हो गए। देश की कुल आबादी 140 करोड़ बताई जाती है। मतलब इस एक बिल्डिंग के बदले ही हिंदुस्तान का हर शख्स करोड़पति बन सकता था। 
लेकिन अब सरकार हमेशा बड़ा और ज्यादा बड़ा सोचती है। सो बड़ी बिल्डिंग सोची और बनवा दी। हाल ही में एक सरकारी सेठ के बेटे की शादी में कहा जाता है कि दस हज़ार करोड़ रुपए खर्च कर दिए गए। अगर अस्सी रुपए रोज़ कमाने वाले आम हिन्दुस्तानी की ही सोचते रहते तो कुछ न कर पाते। हमारे यहां तो इत्ते ऊंचे-ऊंचे पुतले बनाए गए हैं जिनकी लागत हजारों करोड़ रुपयों में आई थी। इन पुतलों को देखो तो आम हिन्दुस्तानी के सिर की टोपी गिर जाए। वैसे अब हिंदुस्तानियों ने टोपी पहनना ही छोड़ दिया है। न रहेगी टोपी न गिरने का कोई डर। 
इंडिया गेट के चारों ओर षट्कोणीय डिज़ाइन पर उस समय अंग्रेजों की सामर्थ्य के समक्ष विनत हुए उनके पहरेदारों की तरह स्थानीय शासकों के भवन हैं – जोधपुर हाउस, जयपुर हाउस, आंध्र भवन व बड़ौदा हाउस आदि हैं। बाकी रजवाड़ों को भी आसपास में ही जगह दी गईं हैं मंडी हाउस, कपूरथला हाउस आदि-आदि। वैसे पंजाब भवन, हरियाणा भवन और हिमाचल भवन भी पास में ही हैं। षट्कोण से अनेक प्रमुख सड़कें निकलती हैं – शेरशाह रोड, शाहजहाँ रोड, ज़ाकिर हुसैन रोड (पुरानी वेस्ली रोड), पंडारा रोड, अकबर रोड, अशोक रोड (कुछ समय पहले तक औरंगज़ेब रोड भी) एक विशाल साम्राज्य के गौरव का प्रदर्शन करते हुए इतिहास की कितनी ही यादें  चारों ओर बिखरी हुई हैं।
इंडिया गेट पर एक ख़ूबसूरत छतरी या चंदोवा है। पहले यहाँ इंग्लैंड के सम्राट जार्ज पंचम की एक विशाल प्रतिमा लगी थी। 1911 में जब राजधानी दिल्ली बनी तो जार्ज पंचम ही सम्राट थे। सो उनकी एक बेहतरीन प्रतिमा लगाई गई। जार्ज पंचम स्वयं इस बेजोड़ राजधानी को देखने इंग्लैंड से भारत आए। वे राजा थे – किंग, सो उनके मार्ग में स्थान-स्थान पर पड़ाव डालकर उनको सम्मानित किया गया ‘किंग्सवे’ में जहाँ उन्होंने कैंप किया वह स्थान किंग्सवे कैंप के रूप में आज भी मशहूर है। जिस रास्ते से किंग जार्ज आए उसे किंग्सवे कहा जाता था अब इसे जनपथ कहा जाता है। जनपथ और राजपथ स्वाभाविक रूप एक-दूसरे को समकोण पर काटते हैं। 
सम्राट जार्ज के आगमन पर देसी राजाओं में होड़ लग गई थी कि उन्हें भी सम्राट के दर्शन करने दिए जाएँ और उनके फ़ोटो सम्राट के चरणों में बैठे हुए खींचे जाएं । देश के सबसे प्रसिद्ध कवि को यह ज़िम्मेदारी दी गई कि वे सम्राट के स्वागत में कोई बेहतरीन गीत लिखें। कवि ने गीत रच दिया। कवि को नोबेल पुरस्कार दे दिया गया। यह सब देखकर उस दौर के एक दूसरे बड़े शायर बिदक गए और ज़िद पर अड़ गए कि उन्हें भी नोबेल पुरस्कार दिया जाए उन्होंने भी ख़ूबसूरत तराना लिख दिया । तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें नोबेल पुरस्कार नहीं दिलाया जा सका । सो उन्हें नाइट की पदवी देकर शांत किया गया। अब उनके नाम के आगे ‘सर’ लिखा जाने लगा।
आज़ादी के बाद भारत की संप्रभु सरकार ने किसी को भी रुष्ट न करने वाली नीति का सहारा लिया। संविधान सभा को संविधान बनाते वक़्त यह स्पष्ट निर्देश दिया गया कि ऐसा कोई प्रावधान नहीं होना चाहिए जिसपर सर्वसम्मति न हो (बहुमत के आधार पर भी कोई प्रावधान नहीं होना चाहिए)। हालाँकि यह असंभव प्राय: काम था कि शेर और बकरी दोनों को आश्वस्त करने वाला संविधान बनाया जा सके। लेकिन किसी तरह से यह चुनौती भी स्वीकार करके संविधान बन ही गया। इस सबसे पहले एक और गीत ने पूरे हिंदुस्तान में तहलका मचा रखा था। ये गीत था – वंदे मातरम् । सरकार ने एक गीत को राष्ट्रगान, दूसरे को राष्ट्रगीत और तीसरे को क़ौमी तराना घोषित करके सब को संतुष्ट करके अपनी चालाकी का परिचय दिया। 
बात इंडिया गेट की हो रही थी। जिस छतरी के नीचे सम्राट जार्ज पंचम की मूर्ति लगी थी वो आज़ाद भारत के बहुत से लोगों को पसंद नहीं थी। उन्हें लगता था कि मूर्ति मानो हिंदुस्तानियों का मखौल उड़ा रही है। आशंका थी कि कोई दिलजला किसी रोज़ सम्राट की मूर्ति को नुक़सान पहुँचा सकता है। कमलेश्वर ने इशारा किया ‘जार्ज पंचम की नाक’ ग़ायब हो गई। सरकार सम्राट की नाक की तलाश में अपनी ही नाक गँवा बैठी। बहरहाल 1968 में सम्राट की मूर्ति, छतरी के नीचे से उखाड़कर संग्रहालय में रख दी गई। जहाँ इसकी दिनरात सुरक्षा की जा सकती थी।
इसके बाद नये प्रधानमंत्री ने इसी छतरी के नीचे नेताजी सुभाषचंद्र बोस की त्रिविमीय आभासी भव्य प्रतिमा का अनावरण कर दिया। दासता के दौर के एक और चिह्न का अंत हुआ। राजपथ तो वहीं रहा पर अब उसे कर्तव्य पथ कहा जाने लगा। नागरिकों से अपेक्षा की गई कि अब से वे सिर्फ़ कर्तव्य की सोचें। 
सरकार सेंट्रल विस्टा निर्माण के ज़रिये बहुत सी इमारतों को गिराकर नई योजना लेकर आई है। नेशनल म्यूज़ियम, नेशनल आर्काइव्ज़, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र,शास्त्री भवन,कृषि भवन,उद्योग भवन,निर्माण भवन और रक्षा भवन आदि को ध्वस्त करके विशाल सेंट्रल विस्टा तैयार कर रही है। इनमें से ज़्यादातर इमारतों का निर्माण नेहरू युग में किया गया था। 
अंग्रेजों की ही तरह नेहरू भी अंग्रेजियत के प्रतीक हैं लिहाजा उन्हें भी छुटकारा पाना राष्ट्रधर्म है। इस बहाने नेहरू-इंदिरा से जुड़ी बहुत सी महत्वपूर्ण इमारतें खुद-ब-खुद मिट जाएंगी । वैसे प्रधानमंत्री निवास और उपराष्ट्रपति निवास को भी गिराया जा रहा है। मेरा विचार है यदि इस सूची में राष्ट्रपति भवन को भी शामिल कर लिया जाए तो बेहतर हो। 
यह इमारत वायसराय हाउस के रूप में हिंदुस्तानियों के खिलाफ अनेक कुटिल योजनाओं का केंद्र रही है। अब अगर इस स्थान पर एक विशाल हनुमान मंदिर का निर्माण कर दिया जाए तो देशवासियों में निःस्वार्थ राष्ट्रभक्ति की भावनाओं का दिन-रात प्रवाह होता रहेगा। विशेषकर युवाओं के मन में अश्लील बातों के स्थान पर ब्रह्मचर्य के प्रति अनुराग पैदा होगा। वर्तमान में हमारे देश के बहुत से प्रमुख राजनेता और नेत्रियाँ ब्रह्मचर्य के पक्षधर हैं। हनुमान मंदिर से युवाओं में राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण ही नहीं होगा बल्कि वे भी आजीवन ब्रह्मचर्य के लिए प्रेरित होंगे।
यह देखकर ख़ुशी होती है कि देश में बहुत से शहरों के नाम बदले गए हैं। दिल्ली शब्द का वैसे भी कोई मतलब नहीं है। समय आ गया है कि अब दिल्ली को कोई ख़ूबसूरत नाम दिया जाए। वैसे इंद्रप्रस्थ नाम कई बार चर्चा में रहा है। लेकिन इस नाम से इंद्र सभा, और रंभा, मेनका आदि अप्सराओं के नाम जुड़ने की भी आशंका है। हो सकता है इन अनिद्य सुंदरियों को सोच-सोचकर हमारे अनेक राजनेता स्खलित हो जाएं और उनका शिव-संकल्प खंडित हो जाए। इसलिए बेहतर हो कि दिल्ली को हनुमान नगर, हनुमान गढ़ या फिर शंकराचार्य लोक जैसा कोई का नाम दे दिया जाए। यहाँ हनुमान जी और शंकराचार्य की इतनी विशाल और ऊँची प्रतिमाएँ लगाई जाएं कि दुनिया भयभीत होकर भारत को आसानी से विश्व गुरु मान ले।
बात नेता जी की – उनकी एक सौ पच्चीसवाँ जयंती मनाने के साथ-साथ बहुत से भारतवासी आज भी उनकी वापसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं । दशकों तक भारतवासी इस इंतज़ार में ही रहे कि किसी न किसी दिन नेता जी आत्म-निर्वासन से बाहर आकर प्रकट होंगे और देश की जनता को तमामतर मुश्किलों से निज़ात दिलाएंगे। नेता जी में अनेक दिव्यगुण थे। 
बहुत से लोगों ने अब यह मान लिया गया है कि नेता जी अब तक तो अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त हो गए होंगे। उस दौर में नेहरू आदि उनके सामने कहीं नहीं ठहरते थे। अंग्रेज नेता जी के नाम से थर-थर काँपते थे। गांधी जी को नेता जी से विशेष स्नेह था सो उन्होंने नेता जी को प्रिंस ऑफ पैट्रियट्स यानी देश-भक्तों का राजकुमार  कहकर संबोधित किया था।
दूसरे विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की जीत और धुरी राष्ट्रों की पराजय के बाद नेता जी को युद्धापराधी घोषित कर दिया गया था। माने जब भी और जहाँ भी नेता जी दिख जाते तो अंतर्राष्ट्रीय अदालत में उनपर मुक़दमा चलाकर उन्हें दंडित किया जाना पड़ता। नेता जी ने धुरी राष्ट्रों के सहयोग से अंग्रेजों को चुनौती जो दी थी। दूसरे विश्वयुद्ध के ऐसे अनेक युद्धापराधी जो किसी प्रकार कहीं दुबके हुए थे उन्हें ढूँढ-ढूंढकर कुछ बरसों पहले तक मुक़दमे चलाकर उन्हें युद्धापराधों के लिए सजाएं दी गई हैं।
अगर भारत में नेता जी कहीं दिख जाते तो संयुक्त राष्ट्र संघ की संधियों के अनुसार भारत सरकार को उन्हें गिरफ्तार करना पड़ता। नेता जी ने जिस इंडियन नेशनल आर्मी का गठन किया वह मुख्यत: उन भारतीय सैनिकों से बनी थी जिन्होंने अंग्रेजों की ओर से लड़ाई लड़ी लेकिन धुरी राष्ट्रों की सेनाओं द्वारा पराजित होकर युद्धबंदी बना लिए गए । नेता जी ने इन्हीं सैनिकों को समझाया कि अंग्रेजों के लिए लड़ने से बेहतर है देश की आज़ादी के लिए लड़ो । इनमें कुछ और हिंदुस्तानी भी जुड़े । कुल साठ हज़ार सैनिकों को लेकर आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन किया गया जिनमें से छब्बीस हज़ार सैनिक मारे गए।
दुनिया भर में सैनिक भर्ती के समय ही यह शपथ लेते हैं कि वे अपने स्वामी के प्रति अपनी अंतिम साँस तक वफ़ादार रहेंगे। ये नियम अग्निवीरों पर लागू होता है या नहीं इसकी पक्की जानकारी नहीं है। इंडियन नेशनल आर्मी के सैनिक मूलत: ब्रिटिश आर्मी के सैनिक थे और पराजित होने के बाद युद्धबंदी बनाए गए थे। आज़ादी के बाद स्वाभाविक रूप से इन सैनिकों को पेंशन और सम्मान आदि उन सभी सुविधाओं से वंचित कर दिया गया जो उनके अन्य साथियों को मिलती थी।
नेता जी अपनी धरती को आज़ाद कराने के लिए दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताक़त से सीधे भिड़े थे। जबकि कांग्रेस इस इंतज़ार में थी कि किसी दिन जब अंग्रेज़ खून ख़राबे से उकता जाएंगे तो ज़रूर उनका हृदय भी सम्राट अशोक की तरह एक न एक दिन जरूर बदल जाएगा और वे करुणावश हमें आज़ाद कर देंगे। नेता जी और गांधी जी दोनों ही भारत को आज़ाद देखना चाहते थे लेकिन भारतवासियों के लाड़ले नेता जी रहे और पूजनीय गांधी जी।
अंग्रेजों की शक्ति के प्रतीकों को हटाकर देसी संरचनाओं के माध्यम से भारत को विश्व-गुरु बनाने के लिए सरकार ने बहुत से अन्य उपक्रम भी किए हैं। पिछले दिनों सेना के बैंड ने ओम जय जगदीश हरे  बजाकर एक नई परंपरा की शुरुआत की है। अच्छा हो यदि पश्चिमी धुनें बनाने के बजाय सेना का बैंड हनुमान चालीसा और दुर्गा स्त्रोत, बजरंग वाण आदि बजाए। गणतंत्र दिवस के तीन दिन 29 जनवरी को बीटिंग रिट्रीट का समारोह होता है। सेना का बैंड ख़ूबसूरत धुनों से समाँ बांध देता है। सूर्यास्त होते ही राष्ट्रपति भवन समेत आसपास की सभी इमारतें भव्य रोशनी से एकसाथ जगमगा उठती हैं। हज़ारों लोग इस समारोह को देखने आते हैं और करोड़ों लोग इस अपने घरों में टीवी पर देखते हैं। हालाँकि बीटिंग रिट्रीट अंग्रेजों की ही एक परंपरा है जो सत्रहवीं शताब्दी से चली आ रही है। सूर्यास्त के बाद झंडा उतारकर सैनिक वापस लौटते हैं। 
भारत में गणतंत्र दिवस समारोह में भाग लेकर सेना 29 जनवरी को वापस होती है। इस समारोह में ज़्यादातर पाश्चात्य धुनें ही बजाई जाती रही हैं। इनमें बहुत सी धुनें सैनिकों के शौर्य और पराक्रम का गुणगान करती हैं और दुनिया भर में बेहद मशहूर रही हैं। लेकिन ये भी सच है कि उन्हें मूल-रूप में अंग्रेजी सैनिकों को ध्यान में रखकर ही रचा गया था। 
संगीत की तो कोई सीमा नहीं होती सो आज भी ये धुनें लोगों को पसंद आती हैं। पिछले कुछ बरसों से भारतीय धुनें भी इसमें शामिल हुई हैं जैसे ए. आर. रहमान की धुनें ‘माँ तुझे सलाम’ या ‘भारत हमको जान से भी प्यारा है’। 
फिर भी तमाम परिवर्तनों के बावजूद एक मशहूर अंग्रेज़ी धुन ‘Abide with me’ समारोह के समापन के समय ज़रूर बजाई जाती थी। गांधी जी को यह धुन बहुत पसंद थी साबरमती आश्रम में वैष्णव जन तो.. और रघुपति राघव राजा राम के साथ-साथ ‘एबाइड विद् मी’ भी बजाई जाती थी। अब इसे हटाकर दो अन्य धुनें शामिल की गई हैं। 
अब समापन कवि प्रदीप के मशहूर गीत – ‘ए मेरे वतन के लोगो’ से होता है। इसके अलावा बंकिम चंद्र रचित ‘वंदे मातरम’ भी बजाया जाता है। ये दोनों धुनें लोगों में बेहद लोकप्रिय हैं और हर हिंदुस्तानी इनसे ख़ुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है। सरकार का यह कदम सराहनीय है।
नेता जी सुभाष चंद्र बोस को लेकर आपसे बहुत सी बातें करने का मन है। लेकिन यह लेख पहले ही बहुत लंबा हो चुका है। मैं जानता हूँ आजकल आठ-दस पंक्तियाँ पढ़ना भी आसान नहीं है। इसलिये ये किस्सा फिर कभी…
श्रीकांत सक्सेना
ई-मेल: [email protected]
मोबाइल: +91 70428 82066
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2 टिप्पणी

  1. आदरणीय श्रीकांत जी
    आपको तो हम पढ़ते रहते हैं।पर बेहतर पुरवाई में ही पढ़ा।पूरा लेख पढ़ा हमने। आज दिल्ली को हमने श्रीकांत जी की दृष्टि से उनके व्यंग्य चुटकियों के साथ मजे लेते हुए जानने का प्रयास किया। बड़ी बारीक जानकारी के साथ ही दिल्ली का ऐतिहासिक वर्णन किया इन्होंने।
    बहुत-बहुत बधाई श्रीकांत जी मजा आया पढ़ने में।
    अंत में आपने लिखा था कि सुभाष चंद्र बोस के बारे में बहुत कुछ लिखने की आपकी इच्छा है पर आपने इसलिए नहीं लिखा कि आपका लेख बड़ा हो गया था।
    लेकिन अगर बड़ा होता तब भी हम तो पढ़ते, क्योंकि सुभाष चंद्र बोस को पढ़ना अपने आप में एक गौरव है।
    बेहतरीन लेख के माध्यम से दिल्ली घुमाने के लिए, दिल्ली की जानकारी के लिए, आपका तहे दिल से शुक्रिया।
    प्रस्तुति के लिये तेजेन्द्र जी का बहुत-बहुत शुक्रिया।
    पुरवाई का आभार।

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