Sunday, September 8, 2024
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संपादकीय – प्रवासी हिंसा और दंगे

ब्रिटेन में ऐसे बहुत से इलाक़े हैं जिनमें एक ख़ास किस्म के प्रवासी एक समूह की तरह रहते हैं और अपने रीति-रिवाजों के साथ वहां जीते हैं। ये सभी प्रवासी ब्रिटेन में आर्थिक कारणों से ही बसने के लिये आए हैं। इनमें से बहुतों ने राजनीतिक शरण ले रखी है; वे ब्रिटेन की सोशल सेवाओं का पूरा लाभ उठाते हैं। मगर वे ब्रिटेन की मुख्यधारा में शामिल होने का प्रयास नहीं करते। ब्रिटेन में प्रवासी के रूप में बसने के लिये वे सिर के बल भी खड़े होने को तैयार हैं मगर एक बार अनुमति मिल जाने के बाद उनका एक ही उद्देश्य दिखाई देता है – ब्रिटेन को अपने मज़हब और कल्चर के हिसाब से बदल लेना।

अंग्रेज़ी का एक शब्द है गैटो (Ghetto) जो किसी ज़माने में यहूदियों के लिये प्रयोग में लाया जाता था। दरअसल यहूदियों को शहर के किसी ऐसे इलाके में रहने को मजबूर कर दिया जाता था जहां केवल यहूदी ही रहते थे और वो शहर का सबसे कम विकास वाला क्षेत्र होता। इसमें यहूदियों की इच्छा का ख़्याल नहीं रखा जाता था। उन्हें मजबूरी वहां रहना पड़ता था।
समय के साथ-साथ इस शब्द का अर्थ बदलता चला गया। अब इसे अल्पसंख्यकों का अविकसित मोहल्ला भी कहने लगे हैं और विदेशों में वो इलाका जहां एक प्रकार या देश के प्रवासी एक समूह के तौर पर रहते हैं। ये गैटो इन प्रवासियों ने स्वयं अपनी मर्ज़ी से बनाए हैं, इन पर किसी प्रकार का राजनीतिक या सामाजिक दबाव नहीं होता। बस ये प्रवासी अपने साथ कुछ रीति-रिवाज, सामाजिक सोच और पहनावा ले कर आते हैं और अपने अपनाए हुए देश के लोगों और कल्चर के साथ जुड़ना नहीं चाहते। 
ब्रिटेन में ऐसे बहुत से इलाक़े हैं जिनमें एक ख़ास किस्म के प्रवासी एक समूह की तरह रहते हैं और अपने रीति-रिवाजों के साथ वहां जीते हैं। ये सभी प्रवासी ब्रिटेन में आर्थिक कारणों से ही बसने के लिये आए हैं। इनमें से बहुतों ने राजनीतिक शरण ले रखी है; वे ब्रिटेन की सोशल सेवाओं का पूरा लाभ उठाते हैं। मगर वे ब्रिटेन की मुख्यधारा में शामिल होने का प्रयास नहीं करते। ब्रिटेन में प्रवासी के रूप में बसने के लिये वे सिर के बल भी खड़े होने को तैयार हैं मगर एक बार अनुमति मिल जाने के बाद उनका एक ही उद्देश्य दिखाई देता है – ब्रिटेन को अपने मज़हब और कल्चर के हिसाब से बदल लेना। 

आप सोच रहे होंगे कि आख़िर मैं आपको ये सब क्यों बता रहा हूं। शायद आपने पिछले दिनों ब्रिटेन के शहर लीड्स के हेयरहिल्स इलाके में हुई हिंसा और दंगों का ज़िक्र टीवी और समाचारपत्रों में देखा होगा। ब्रिटेन और युरोप कुछ समय से प्रवासी हिंसा का शिकार हो रहे हैं। कुछ दशकों से ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी, स्वीडन, नीदरलैंड जैसे देशों में बड़ी संख्या में प्रवासियों को शरणार्थी के रूप में बसाया जा रहा है। उन्हें तमाम सुविधाएं मुहैय्या करवाई जा रही हैं। मगर इन तमाम देशों में 9/11 के बाद से हिंसा और दंगे आम बात हो गई है। 
आम तौर पर ये दंगे सांप्रदायिक कारणों से आयोजित किये जाते रहे हैं। हिंसा किसी कार्टून को लेकर भी शुरू हो जाती है और कभी इज़राइल और फ़िलिस्तीन को लेकर… और तो और क्रिकेट में पाकिस्तान पर भारत की जीत पर भी सांप्रदायिक दंगे शुरू हो जाते हैं। ब्रिटेन में लेस्टर, बर्मिंघम, पूर्वी लंदन और अब लीड्स में बार-बार हिंसा की आग भड़क उठती है। इन तमाम इलाकों में प्रवासियों की बड़ी जनसंख्या एक समुदाय के तौर पर बसी है। यहां कई जगह तो पुलिस के लिये ‘नो-गो’ क्षेत्र बने हुए हैं। यानी कि पुलिस को वहां घुसने की इजाज़त नहीं है। 
लीड्स का दंगा एक मामले में कुछ अलग है क्योंकि यह पूरी तरह से साप्रदायिक दंगा नहीं है। मगर यहां भी हिंसा प्रवासियों द्वारा ही की गई। जैसा कि हमने पहले भी कहा है कि अमरीका, ब्रिटेन, युरोप और अन्य विकसित देशों में आने वाले प्रवासी पूरी तरह से स्वैच्छिक प्रवासी हैं जो किसी भी कीमत पर इन अमीर देशों में जाकर बसना चाहते हैं। उस समय वे किसी भी काग़ज़ पर ह्सताक्षर करने को तैयार होते हैं। मगर एक बार पाँव जमा लेने के बाद उनके अंदाज़ बदल जाते हैं। यदि प्रवासन की अनुमति देते समय विकसित देशों की सरकार शर्त रख दे कि सिर मुंडवाए बिना अनुमति नहीं मिलेगी तो संभावित प्रवासी पूरे परिवार का सिर मुंडवा देंगे। 
एक बार सैटल होने के बाद प्रवासी अपने जैसे प्रवासियों के संपर्क में आते हैं और सरकार के विरुद्ध काम करने के सारे फ़ंडें सीख लेते हैं। सरकार से किस-किस प्रकार पैसें ऐंठे जा सकते हैं, उस पर पीएच. डी. कर लेते हैं। जैसे ही पता चलता है कि बच्चों के लालन-पालन के लिये सरकार अलग से भत्ता देती है, तो बच्चों की लाइन लगा देते हैं। ऐसे प्रवासी अपने अपनाए हुये देश की अर्थव्यवस्था में योगदान तो कुछ नहीं करते, बस एक पिस्सु की तरह सिस्टम का रक्त पीते रहते हैं। 
ब्रिटेन में बच्चों को लेकर सख़्त कानून है। बच्चों को ना तो स्कूल में पीटा जा सकता है और ना ही माँ-बाप को यह अनुमति है कि वे बच्चों के साथ हिंसक व्यवहार कर सकें। यदि काउंसिल को पता चलता है कि किसी परिवार में बच्चों के साथ हिंसा की जा रही है, तो सोशल केयर कर्मचारी बच्चों को ले जाते हैं और उन्हें सुरक्षित माहौल में नये अभिभावकों के पास रख दिया जाता है। 

समस्या यह है कि प्रवासी जहां से ब्रिटेन में आते हैं, वहां उनके देश में बच्चों की पिटाई लगाना उनके कल्चर का हिस्सा है। उनके लिये अपने संस्कारों से मुक्ति पाना आसान काम नहीं। इसलिये वे अपने हक़ का इस्तेमाल ब्रिटेन में भी करते हैं। यही हुआ लीड्स के हेयरहिल्स क्षेत्र में। कहा जा रहा है कि एक भाई ने अपने छोटे भाई को बेदर्दी से मारा और उसे घायल कर दिया। माँ-बाप बच्चे को हस्पताल ले गये तो हस्पताल के कर्मचारियों ने सोशल सर्विस विभाग को सूचित कर दिया। 
सोशल सर्विस विभाग के कर्मचारियों ने उस परिवार के बच्चों को परिवार से अलग करने का निर्णय लिया क्योंकि उस परिवार में बच्चों को हिंसा के कारण जान का ख़तरा था। जैसे ही बच्चों को ले जाया जाने लगा, लोग इकट्ठे होनवा शुरू हो गये। इतने में सोशल मीडिया ने अपना रंग दिखाना शुरू किया और आसपास के लोग इकट्ठा होना शुरू हो गये। जब भीड़ इक्ट्ठी हो जाती है तो उसका व्यवहार बदल जाता है। भीड़ का कोई एक नेता नहीं होता और सभी नेता होते हैं। 
भीड़ उग्र होती चली गई। एक डबल डेक्कर बस को आग लगा दी गई। एक दुकान और बहुत से प्लास्टिक के डस्टबिनों को आग की भेंट चड़ा दिया। नारे लग रहे थे। भयानक माहौल था और थोड़ी देर में पुलिस को समझ में आ गया कि हालात पर काबू पाना उनके बस की बात नहीं है। याद रहे कि ब्रिटेन में पुलिस बल की संख्या में निरंतर ह्रास हो रहा है। उनका संख्या बल कम से कम होता जा रहा है। अब आम जनता और विशेष तौर पर समूहों में रहने वाले प्रवासी पुलिस से डरते नहीं हैं। 
एक सामूहिक प्रवासी से जब पूछा गया कि वह जल्दी-जल्दी क्यों पकड़ा जाता है और ज़्यादा वक्त जेल में क्यों बिताता है। उसका जवाब सुनकर कोई भी हैरान हो जाएगा। उसका कहना था, “मेरे पास कमाई का कोई ज़रिया नहीं है। जेल में हीटिंग भी होती है; साफ़ बिस्तर होता है; समय पर पौष्टिक भोजन मिलता है।… इस मुल्क में जेल किसी होटल से कम नहीं होती… फिर मुझे काम ढूंढने की क्या ज़रूरत है?”
सरकार को दूसरे शहरों से पुलिस बुला कर हेयरहिल्स में तैनात करनी पड़ी। अगली सुबह पूरा इलाक़ा मलबे के ढेरों से अटा पड़ा था। किसी युद्ध फ़िल्म का सीन दिखाई दे रहा था जहां बम्बारी के बाद चारों तरफ़ मलबा फैला दिखाई देता है। कुछ समय के लिये तो फ़ायर ब्रिगेड, पुलिस, और एम्बुलैंस को भी दंगाइयों ने क्षेत्र में घुसने नहीं दिया। 
ब्रिटेन की गृहमंत्री यिवेट कूपर ने हिंसा और दंगों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि वे इस हिंसा से स्तब्ध हैं। उन्होंने इस मामले पर स्थानीय पुलिस से रिपोर्ट मांगी है। उनके मुताबिक इस तरह की हिंसा के लिए ब्रिटेन में कोई जगह नहीं है। उनका कहना है कि वे लगातार अधिकारियों के संपर्क में हैं।
ऐसे वीडियो वायरल हो रहे हैं जिनमें एक व्यक्ति बस को आग लगाता दिखाई दे रहा है। लोग जगह-जगह पर आगज़नी करते दिखाई दे रहे हैं और अपने-अपने स्मार्टफ़ोन से वीडियो बना रहे हैं। गिप्टन और हेयरहिल्स की काउंसिलर सलमा आरिफ़ ने लोगों से घरों के भीतर रहने की अपील की है। हिंसा के वीडियो वायरल होने के बाद इसमें आस-पास के लोग भी शामिल हो गए। पुलिस के अनुसार, फ़िलहाल हालात सामान्य हो चुके हैं। लेकिन लोगों को हिदायत दी गई है की जब तक ज़रूरी न हो घर से बाहर न निकले। सुकून की बात यह है कि किसी के गंभीर रूप से घायल होने या मृत्यु का कोई समाचार नहीं है। 
फ़्रांस, जर्मनी, स्वीडन, और ब्रिटेन में प्रवासियों के एक विशेष समूह और शरणार्थियों द्वारा मुख्यधारा में शामिल ना हो पाने और गेटो बना-बना कर एक समूह के रूप में रहना और लगातार हिंसा फैलाने और दंगा करने के किस्से समाचारों में छाए रहते हैं। समस्या की गंभीरता को सभी समझ रहे हैं, मगर हल ढूंढने का प्रयास कहीं दिखाई नहीं दे रहा। ब्रिटेन और अमरीका के बहुत से शहरों में जुलूस निकाले जा रहे हैं। वहां भी हिंसा घुसपैठ कर रही है। अब अमरीका और युरोप को इस हिंसा का हल मिलजुल कर खोजना होगा।
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
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65 टिप्पणी

  1. बोया पेड़ बबूल का…, अभी विश्व को पता नहीं क्या क्या देखना बाकी है। प्रसन्नता ये है अब अपनी जिन्दगी ज्यादा बाकी नहीं बची जो आगे के ताण्डव देखने पड़ें। चिंतनीय विषय पर कलम चलाने के लिए हार्दिक बधाई और धन्यवाद

  2. पूरी दुनिया के लिए ये बेहद गंभीर चिंतन की बात है, इससे निजात पाने के लिए पहले तो दुनिया को अपना दोहरा चरित्र बदलना होगा क्योंकि दुनिया खुद ही इस जमात ही हिंसा को प्रश्रय देती है ।उनके आतंक और हिंसा को जिसके लिए 99.99% केवल एक ही वर्ग के लोग जिम्मेदार पाए जाते हैं लेकिन दुनिया ये ज़ाहिर रूप से कहने में बचता है और कोई कहता है तो उसे सेक्यूलर करार दिया जाता है ।

  3. सबसे बड़ी मुश्किल तो ये है कि इस विषय पर जो बात करे, उसको साम्प्रदायिक करार दिया जाता है, वैसे इंग्लैंड को यह महसूस होना चाहिए।ये लोग खालिस्तान का समर्थन भी करते हैं।

    • अनुज भाई सच बोलने से पुरवाई कभी पीछे नहीं हटी। हम सच बोलते रहेंगे। ब्रिटेन की सरकार को चेताते भी रहेंगे।

  4. कमोबेस भारत के हालात भी ऐसे ही हैं मोहल्ला का मोहल्ला उनका है उस क्षेत्र में पुलिस कोई एक्शन नहीं लेती जितनी कानून की धज्जियां उस क्षेत्र में उड़ाई जाती है कहीं नहीं गैर मुस्लिम उस क्षेत्र में जाने से पहले एक्स्ट्रा कौसस ह्यो जाते हैं भूल से भी टक्कर हो गयी तो लाश ही आएगी।
    अब तो पूरा विश्व यही देख रहा है। भारत में तो राजनैतिक मजबूरियां हैं uk में क्यों ऐसा है समझ नहीं आ रहा।

    • सुरेश भाई जब तक समस्या के अस्तित्व को मानेंगे नहीं, इलाज निकाल पाना आसान नहीं होगा।

  5. सही विश्लेषण के लिए हार्दिक आभार। पर उस विशिष्ट प्रवासी समूह का स्पष्ट नाम लेना जरूरी है। क्योंकि यूरोप के साथ साथ पूरा विश्व उन से परेशान है और आगे भी यह समस्या बढ़ती जाने वाली है। उनके साथ कोई भी उदारता अपने और अपने देश के भविष्य को खतरे में डालने वाला होगा। इंतजार कीजिए और देखिए कि आगे आगे होता क्या है…

    • जी संजय भाई, साहित्यिक संपादकीय इशारों में सच कह जाता है… टीवी डिबेट की तरह लाउड नहीं होता।

  6. आप हमेशा हमारे ऐसे मुद्दो पर लिखते है जिन्हे आमतौर पर एक साहित्यकार तो बिल्कुल नही लिखना चाहेगा. “पिस्सू की तरह सिस्टम का खून चूसते है” बिल्कुल सही बात.
    शरणार्थीयो पर लचीलापन देश के लिए घातक है. भारत भी इस पीड़ा को झेल रहा है लेकिन कठोर कार्रवाई करने मे विफल.

  7. ब्रिटेन ही क्या पूरा विश्व सांप्रदायिक और आतंकी संगठनों का शिकार है। यह सोच भी अंग्रेज़ों की सींची है। जिसने फ़सल पैदा की है कुछ वह भी तो काटेगा ।
    आपकी दोटूक संपादकीय सम्मोहित करती है। बधाई आदरणीय!

  8. अत्यंत जरुरी मुद्दे और संकट के प्रति सचेत करता हुआ आलेख. यह स्थिति लगभग हर जगह की होती जा रही है. आत्मकेंद्रीयता प्रबल है.ऐसे लोगों का रवैया जहाँ रह रहें हैँ और जहाँ से गये हैँ, सभी जगहों के प्रति एक जैसा ही है. कृतज्ञता एक बड़ा मूल्य है. चाहें वह किसी देश के प्रति हो, समाज के प्रति हो या मनुष्य के प्रति हो. किन्तु यह नाशुक्रापन ही हमारे समय का मुहावरा बन गया है. ऐसे लोग बहुतायत में पाये जा रहे हैँ जिन्हें यदि कुछ मिल जाय तो उसे अपनी प्रतिभा मानते हैँ और यदि न मिले तो उसे अपने प्रति भयानक अन्याय बताते हैँ. ब्रिटेन में ये प्रवासी जो कुछ कर रहे हैँ, वे वर्तमान में बहुत छोटे – छोटे लाभ के लिए भविष्य ख़राब कर रहे हैँ. यूँ नहीं है कि फ्रांस जैसे देश भी अब प्रवासियों / शरणर्थियों संबंधी उदार नीतियों को कठोर करते जा रहे हैँ.
    इस सिलसिले में कृतज्ञता बोध को लेकर कभी की सुनी एक अद्भुत बात मुझे याद आ रही है कि :
    “जो प्रतिपालहिं सोई नरेसु,
    जहाँ बसे सोई सुंदर देसु.”

    पर इसे आज मान कौन रहा है.

    बहरहाल, आपका बहुत आभार. एक अत्यंत जरुरी विषय की ओर आपने ध्यान आकृष्ट कराया.

  9. बेहद चिंतनीय विषय चिंता की बात है बात ै आगे और क्या-क्या देखना बाकी है।
    शानदार प्रस्तुतीकरण

  10. क़ानून और राजनीति जब लाचार हो जाते हैं तब लोग इसी
    तरह भाई-भाई और बहनापे की भाषा भूलने लगते हैं।ऐसा
    लग रहा मानो हिंसा का वैश्वीकरण होता जा रहा है,जो बेहद
    दुखद है।

  11. तेजिंदर जी यह गंभीर विषय है आप ने एक तस्वीर दिखाई है । अभी भी कोई कार्यवाही नहीं हुई तो परिणाम बहुत गंभीर होंगे ।आप की संपादकीय हमेशा नया मुद्दा रखी है । एस का इंतज़ार रहता है।

  12. फ्रांस,जर्मनी,स्वीडन और ब्रिटेन में प्रवासियों द्वारा उत्तम जीवन शैली जीने वाले देशों में भी अव्यवस्था फैलाई जा रही है। प्रवासी जन समुदाय कुसंस्कारों को साथ लेकर जीवन जीने लगते हैं यह चिंता का विषय है। यह सत्य है कि समय-समय पर समाज में कुछ समस्याएं उत्पन्न होती रहती है किंतु समस्याएं एक लघु समस्या ही होती हैं। वह बड़ा रूप तब धारण करती हैं जब उनका समय पर इलाज नहीं करते हैं। इस स्थिति में किसी भी समस्या को दूर करने के लिए विकल्प देना आवश्यक हो जाता है। पश्चिम के विद्वान चिंतकों एवं भारत के संतों और चिंतकों ने अपने-अपने ढंग से समाज को जीने का एक विकल्प प्रस्तुत किया है। उसमें सगुण रूप में राम राज्य का विकल्प अथवा निर्गुण विचारकों ने भी अपना विकल्प दिया। हम प्लेटो एवं पश्चिमी देशों के विचारकों के उदाहरण भी देख परख सकते हैं उन्होंने भी एक राज्य का मॉडल दिया है। इसके बाद प्रवासी जन समुदाय द्वारा जाति, धर्म एवं संप्रदाय विशेष के लोगों द्वारा किसी देश में उपद्रव फैलाना एवं कलंक लगाना उचित प्रतीत नहीं होता है। किसी देश का जन -संप्रदाय समुदाय, किसी देश में शरणार्थी बनकर उत्तम जीवन शैली जीने का अवसर प्राप्त करता है, उन्हें रोजगार, एवं उत्तम जीवन यापन की सुख-सुविधा एवं बेरोजगार भत्ता भी दिया जाता है। मैं इसके लिए इंग्लैंड एवं पश्चिमी देशों की सरकारों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के साथ नमन भी करता हूं। 1. शरणार्थियों को उत्तम शिक्षा देने के विकल्प के साथ जन समुदाय को देश की मुख्य धारा में जुड़ने का विकल्प दिया जाना चाहिए।
    2. प्रवासियों के लिए मिक्स कलर की रिहाइश उपलब्ध करवाई जानी चाहिए।
    3.पश्चिम के देश बेरोजगार भत्ता देने के साथ काउंसलर एवं चिकित्सा आदि की सभी सुविधाएं उपलब्ध करवाते हैं फिर भी प्रवासी जन समुदाय के लोग कैसे विद्रोह करते हैं जो किसी देश को अस्थिर करने की साजिश का हिस्सा जैसा प्रतीत होता है।
    4. प्रवासी जन समुदाय के लोग एक या दो बच्चों से अधिक जनसंख्या वृद्धि नहीं कर सकते हैं।
    5.शरणार्थियों के परिवार के सभी सदस्यों को प्रतिवर्ष भारत के योग एवं विपश्यना जैसे कार्यक्रम अपने देशों आयोजित कर उसमें भाग लेने का अवसर उपलब्ध करवाने पर विचार करना चाहिए।
    जब तक दुनियां के सभी देशों के विद्वत समाज द्वारा समस्या के साथ विकल्प देने पर विचार प्रस्तुत करने से किसी देश की प्रवासी समुदाय की समस्या समाप्त की जा सकती है।
    विश्व के प्रत्येक देश की सरकार, अपने देश वासी जन समुदाय को उत्तम शिक्षा देने, उत्तम समाज बनाने, उत्तम चिकित्सा सुविधा देने, एवं जाति, धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठकर कार्य नहीं करेंगी। दुनिया में अपनी तुष्टि के लिए युद्ध भड़काना बंद नहीं करेंगे। तब तक दुनियां में युद्ध और समुदायिक दंगे होते रहेंगे। ब्रिटेन लघु भारत की तरह है। वहां पर प्रत्येक व्यक्ति पर नजर रखी जा सकती है। एक प्रयोग के तौर पर ही उत्तम एवं श्रेष्ठ कार्य करने होंगे। पक्षपात बंद करना होगा। उसके बाद दंगे और धर्म के लिए समुदाय के लोग उत्तेजित नहीं होने और बिलकुल भी नहीं भड़केंगे।

    • भाई उमेश जी, जो आपने सुझाया है, उसमें से अधिकांश बातें ब्रिटेन में पहले से लागू है। समस्या है कि हम रहना तो ब्रिटेन, युरोप और अमेरिका में हैं, मगर उसे अपने हिसाब से बदलना चाहते हैं।

  13. आज का संपादकीय हमारे लिये पूरी तरह से नया,अकल्पनीय,आश्चर्य जनक और चिंता जनक भी रहा।
    न चैन से जियेंगे न जीने देंगे।
    पर हमें तो लगता है कि कहीं-कहीं बच्चों के लिये डाँट और मार जरूरी भी होती है। लंदन का यह नियम भी पता नहीं कितना सही कितना गलत!
    इन खास तरह के लोगों की पहचान करके इन लोगों पर या तो प्रतिबंध लगाया जाए। या इन्हें सशर्त प्रवेश दिया जाए।
    पर इस तरह की हिंसक प्रवृत्ति न हो इसके लिये कुछ निर्णय तो लेना होगा। जो लोग इस तरह कुछ करें उनको भी वापस उनके देश भेज दें या उनकी सुविधाएँ समाप्त कर दें।
    पर अपन सलाह देने वाले कौन?
    सबसे ज्यादा आश्चर्य तो जेल वाली बात पर हुआ और इस पर भी कि कई जगह पुलिस का जाना वर्जित है।
    इस तरह के मावलियों के कारण जो प्रवासी लोग शांतिपूर्ण तरीके से जीवन यापन करते हैं उनका जीवन भी संकट में पड़ जाता है।
    आज के संपादकीय पर तो कहने के लिए कुछ समझ ही नहीं आ रहा। कभी-कभी ऐसा लगता है कि जीवन का कोई मोल ही नहीं है! कोई अहमियत ही नहीं है! कोई सोचना ही नहीं चाहता कि संसार में अपन आए किसलिए और क्या कर रहे हैं? प्रेम और शांति को तो कोई समझना ही नहीं चाहता!
    “इसे ही कहते हैं हवन करते हाथ जले”
    पर यह ऐसा भी नहीं कि नेकी कर दरिया में डाल सोच कर भूल जाएँ। कोई ठोस कदम तो लेना ही होगा।
    ईश्वर सबको सद्बुद्धि दे रे बाबा!!!!
    इस जानकारी के लिए शुक्रिया तेजेंद्र जी!

  14. बेहद शर्मनाक एवं चिंतनीय। लगता है सरकारों को प्रवासियों के लिए कड़े नियम बनाना अति आवश्यक हो गया है अन्यथा यह क़ानून व्यवस्था की धज्जियाँ उडाने देर नहीं लगेगी।

  15. इशारों इशारों में बहुत कुछ कहता है?! संपादकीय-प्रवासी हिंसा और दंगे।ब्रिटेन या विकसित देशों के नीति निर्धारकों को उनके कर्तव्यों और व्यवहारिक समाधान पेश करता है।उन स्वार्थी और अहंकारी तत्त्वों को भी उजागर करता है जो आर्थिक स्वार्थ लिए इन देशों में आते हैं और फिर अपने जैसे लोगों के साथ मिलकर मानवीय संवेदनाओं को धत्ता बताते हैं।वहां की संस्कृति का अपमान करते हैं।यह लोग किसी भी सभ्य और सुसंस्कृत देश और समाज को बड़ी ही बेरहमी से अपने संख्या बल से हरा देते हैं और फिर बहुमत के आधार पर उसी देश के लोगों पर अत्याचार करना शुरू कर देते हैं।
    यदि ध्यान से देखें,तो इन सभी हिंसा या आतंकवादी गतिविधियों में जहां हर बार मानवता ही शर्मसार होती है,एक कारक यानी कारण बेहद कॉमन ?और वो है सियासत!!!
    सत्ता पर बस बैठे रहें और नीरो की मानिंद वंशी बजाते रहें और लोकतंत्र की द्रौपदी को तार तार करते रहें। तुष्टि करण और सेक्युलर का जिन्न न जाने कब तक अमोघ अस्त्र बना रहेगा और मानवता और विकास कब तक धृतराष्ट्र बने रहेगें।ब्रिटेन भारत कनाडा ,,,अनेकों देश कब तक सोते रहेंगे।
    आंखें खोलने वाला संपादकीय।पुरवाई परिवार को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई।

  16. सादर नमस्कार सर…. यह संपादकीय अत्यंत चिंतनीय विषय लेकर आया आज। पढ़कर ऐसा प्रतीत हुआ कि..यह समूह शताब्दियों से यही करता आया दुनिया भर में और इनका बल है राजनितिक स्वार्थ। इनको कहीं शरण देना भी स्वार्थनिहित है… बस पूरा विश्व सबकुछ जानता भी है… किंतु…90% मौन है…10% जब आवाज़ उठाते हैं उनकी दशा शोचनीय हो जाती है…।
    धन्यवाद सर… हम पाठकों को विचार करने की क्षमता देने हेतु

  17. आपने हकीकत भी बयां कर दी और शब्दों का संयम भी रखा। भारत भी इस त्रासदी से जूझ रहा है। यूरोपीय देशों में तो समझो यह अब लाइलाज है। दानव सब कुछ निगल जाने पर उद्यत है। इनकी एक रणनीति और प्रवृत्ति है। पहले अल तकिया फिर छाती पर चढ़ बैठना। सावधान रहिएगा। भारत में तो फिर भी पानी सिर के ऊपर नहीं गया है। हम चैतन्य और सजग हैं। मगर खतरा यहां भी बरकरार है। वोट लोलुप लल्लू और जगधर सत्ता पाने की लालच में उन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं। जबकि एक दिन वे भस्मासुर बन जायेंगे उन्हें इसका अंदाजा है भी तो सत्ता का मोह इस भुलावे पर भारी है।

    • अरविंद भाई, आरोप प्रत्यारोप के चक्कर में ना पड़ते हुए, सच्चाई बयान की है।

  18. नमस्कार
    हिंसा और दंगो के प्रवासी स्वरूप पर आपका दृष्टिकोण पढ़कर कई बातें सोचने लगी ।
    अब उपद्रव का भी ग्लोबलाइजेशन हो गया लगता है ।
    Dr Prabha mishra

  19. वर्तमान स्थितियों के अवलोकन तथा विशलेशण के सन्दर्भ में अति सुन्दर प्रस्तुति
    पिछले दो ढाई सौ साल जो अंग्रेजों ने पूरे विशव पर राज किया और क्या क्या कारनामे किए इतिहास गवाह है।
    अब जो बीज बोए थे उनके फल तो मिलेंगे ही !

  20. आप का संपादकीय कई मुद्दों पर सोचने को विवश कर रहा है। आपने ब्रिटेन की बात की, पर इसका फैलाव पूरे विश्व में है। एक सज़ा के रूप में प्रचलित ‘गैटो’ शब्द अब एक हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। निजी तौर पर अपनी संस्कृति का आदर या उसे अपनी जीवन शैली में शामिल रखना गलत बात नहीं है, पर भीड़ में बदल कर कानून के खिलाफ़ हो जाना, संस्कृति का नहीं सत्ता का एक रूप है। जिस देश में रह रहे हैं उस देश का कानून मान्य होना ही चाहिएl कालांतर में यही घटनाएँ प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती बन कर उभरती हैं। जिसका सामना हर देश कर रहा है l जिस की थाली में खाया उसमें ही छेद…शायद ऐसे समूहों के लिए बनी उक्ति है ।
    रही बात बच्चों को मारने पीटने की तो इसे तो सही नहीं कहा जा सकता। अस्पताल में आँखों देखा केस है, एक पिता ने अपनी बच्ची को इतना मारा कि उसकी एक आँख की रोशिनी चली गई l पास खड़ा पिता रो रहा था, पर गुस्से में उस समय खुद को काबू में नहीं रख पाया। देवी-देवता के स्थान पर बैठाए गए माता-पिता भी कितने परिपक्कव है? ये भी सोचने का विषय है। अपने देश में भी जब मार-पिटाई जायज मानी जाती थी, तब बच्चे संयुक्त परिवार में रहते थे। इतनी हिंसक पिटाई से बचाने वाला कोई न कोई घर में रहता था । बड़े बुजुर्गों से सुना है, ज्यादा मारोगे तो ‘मरकहा हो जाएगा’ यानि मार का असर नहीं पड़ेगा। स्त्रियों पर हाथ ना उठाने का संस्कार तो हम कब का भूल चुके हैं। मुझे तो लगता है कि हल्की-फुकी चपत और हिंसात्मक पिटाई में अंतर है, और यहाँ के माता-पिता को भी कानून के दायरे में लाना चाहिए ।
    हालंकी “मिसेज़ चटर्जी वर्सस नॉर्वे” जैसी फिल्म प्रवासी भारतीयों की एक अलग ही कहानी कहती है। फिर भी अगर किसी कानून से दिक्कत भी है, तो भीड़ की सत्ता का हिंसात्मक प्रदर्शन करने के स्थान पर लोकतांत्रिक तरीके से अपना विरोध दर्ज किया जा सकता है, पर उसके लिए देश को अपना समझना होगा । संपादकीय के मूल में भी यही बात ध्वनित हो रही है ।
    एक शानदार विचारणीय संपादकीय के लिए, बधाई और आभार सर

    • वंदना जी, हमेशा की तरह आपने संपादकीय को भिन्न दृष्टिकोणों से देखा है। हार्दिक आभार।

  21. Your Editorial of today discusses a highly delicate n sensitive issue gaining utmost importance and concern in UK where the migrant unruly elements went berserk over a social service redressal and created such a chaos indulging in arson n violence.
    Most unbecoming on their part.
    Warm regards
    Deepak Sharma

  22. ब्रिटेन के लीड्स शहर में कुछ दिनों पूर्व हुई सामुदायिक हिंसा न केवल निंदनीय बल्कि चिंताजनक है। खासतौर पर वहां रहनेवाले प्रवासी और स्थानीय समुदाय दोनों के लिए, क्योंकि जिस तरह का चरित्र इस प्रकार के समुदाय के लोग प्रस्तुत करते हैं वह किसी भी सभ्य और शांतिप्रिय समाज के लिए खतरे का संकेत है। आपका संपादकीय ‘प्रवासी हिंसा और दंगे’ ब्रिटेन के लिए आनेवाले समय के लिए शुभ संकेत नहीं देता है और यह ब्रिटिश सरकार को भी आगाह करता है कि यदि शीघ्र ही इन समुदायों को नियंत्रित नहीं किया गया तो ये ब्रिटिश सरकार और समाज दोनों के लिए कल एक बड़ा खतरा बन जाएंगे। जिस तरह की छोटी सी घटना को लेकर यह मामला शुरू हुआ और एक भयानक सामुदायिक हिंसा में तब्दील हो गया, यह उस समुदाय विशेष की मानसिकता को दर्शाता है जो किसी भी नियम कानून को मानने के लिए तैयार नहीं है। उनका अपना कानून है और उसी से वे दुनिया को चलाना चाहते हैं। हटिंग्टन ने अपनी पुस्तक क्लैश आफ सिवलाईजेशंस में इस खतरे की ओर काफी पहले इशारा किया था। धीरे धीरे इस खतरे ने पूरे यूरोप को अपनी आगोश में ले लिया है।

    • तरुण भाई, जर्मनी में निर्णायक एक्शन लिया जा रहा है। लगता है कि अब युरोप को जागना होगा।

  23. भारत हो या अन्य देश सब जगह समस्याएं एक जैसी ही है बस उनका लेवल अलग-अलग है भारत में तो कहावत भी है पकड़े गए तो रहना फ्री, खाना फ्री। जो की एक बहुत चिंतन का विषय है एक गंभीर मुद्दे को उजागर करता आपका संपादकीय।

  24. जिस समस्या से यूरोप वाले मुँह मोड़े बैठे हैं, उस पर आपकी संपादकीय ने एकदम सही शब्दों की तलवार चला दी। शायद कोई चेत जाए इसे पढ़कर!
    स्पेन के एक टापू ने अवैध प्रवासी इमेरजेंसी लागू कर दी है क्योंकि अब उनके पास जगह नहीं बची है कि उन्हें रख सके। लेकिन सरकार ने दबाव डाला कि कुछ भी इंतज़ाम करके उन्हें रखने का प्रयास करें। ऐसे में कुछ लोगों को स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है कि जहाँ चाहें चले जाएँ। बड़ा ही ग़ैर ज़िम्मेदाराना निर्णय लगता है यह। बाद में जब दंगे फ़साद होते हैं तो कोई सरकार ज़िम्मेदारी नहीं लेती।

  25. संपूर्ण एशिया को अशांति और मजहबी उन्माद की आड़ में झोंकने के बाद इन तथाकथित घेटो प्रवासियों की नई शरणगाह यूरोप और अमेरिका बनते जा रहे हैं। आदरणीय तेजेंद्र शर्मा जी ने सच ही लिखा है कि इन देशों की नागरिकता हासिल करने के लिए ये किसी भी शर्त को स्वीकार कर लेते है लेकिन एक बार निवासी बन जाने के बाद ये पिस्सू बनकर उस देश का रक्त चूसने लगते हैं। लीड्स की हिंसा के पीछे यही तत्व काम कर रहे थे। छोटे भाई को बड़े भाई की निर्मम पिटाई से बचाने के लिए गई पुलिस के साथ इन पिस्सुओं के अमानवीय व्यवहार और ब्रिटेन के कई शहरों को दंगों की आड़ में झोंक देने से इन देशों के नागरिकता नियम निश्चित रूप से कठिन बनाए जाएंगे, जिसका संकेत डोनाल्ड ट्रंप भी कर चुके हैं लेकिन इसका नुकसान उन शांतिप्रिय प्रवासियों को होगा, जो किसी देश में जाकर वहां की अर्थव्यवस्था में सार्थक योगदान करते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि मैं यह बात भारतवंशियों के लिए लिख रहा हूं।
    एक वर्ग विशेष के प्रवासी दंगाइयों को यह बात समझनी होगी कि मजहब से बड़ा मानव धर्म है और एक नागरिक के रुप में उस देश के प्रति उनका कुछ कर्तव्य भी है और यह सीखना है तो वे इसे हम भारतीयों से सीख सकते हैं, जिन्होंने ऋषि सुनक, कमला हैरिस, वासुदेव पाण्डेय जैसे असंख्य राष्ट्राध्यक्ष, राष्ट्र नेतृत्वकर्ता देकर उन देशों की सेवा की है।

  26. तेजेन्द्र जी
    मुद्दा आपने सही उठाया है पर इसके दोनों पहलू बड़े ही भावनात्मक हैं और राजनीतिक भी ।अपनी संस्कृति को अपने ढंग से जीने का अधिकार सब को है आपने सबके लिए एक प्रश्न तो रखा है ।
    धन्यवाद

  27. आपने बड़ी हिम्मत से सभी कुछ का वर्णन किया, मैं भी कभी इंग्लैंड बहुत बार गई हूँ, पर बसने की इच्छा से नहीं..।लूटन, लैस्टर, लीडज आदि शहरों में एक ही समुदाय के लोग देख कर हैरान हुई…लैचवर्थ में मैं भी एक ‘हैट’ घटना का शिकार हुई – मैंने उसे ‘अधीन’ कहानी के ज़रिये व्यक्त किया है… ऐसी घटनाओं को विश्व स्तर पर निरखना, परखना और निबटना बड़ी ही सूझबूझ और सख़्ती से चाहिए… मशरूम की तरह फैलते इस को रोकना ही पड़ेगा, क्योंकि आम लोग इसकी चपेट में ही आते और शिकार होते हैं

    • निर्मल जी आपने तो अपने अनुभव से सब देख रखा है। आवश्यक है कि पुरवाई के पाठकों तक सच्चाई पहुंचाई जा सके।

  28. तेजेन्द्र जी !
    आपने कैसा भयावह दृश्य उपस्थित किया है कि मन काँपता है|ऐसे विकसित देशों में इस प्रकार की घटनाएं होती हैं जो शर्मनाक के साथ भयानक भी हैं ही |हम जैसे ‘ले मैन ‘ क्या कर सकेंगे जिनके हाथ में कुछ नहीं है लेकिन यह हिंसा का ग्लोबलाइज़ेशन भयंकर चिंता का विषय है |जब इंसान अपने स्वाभिमान को ताक पर उठाकर रख दे तब जेल में रहे या सड़कों पर क्या फ़र्क पड़ता है उसे तो अपने निककमेपन से रहना है|इन सब परिस्थितियों के होने में एक नहीं कितने ही प्रकार के तथ्य हैं |मैं सोचती हूँ कि हमारी पीढ़ी ने बहुत कुछ देखा,समझा,सुना लेकिन हमारी आने वाली पीढ़ियों का क्या होगा ?यह बहुत बड़ी चिंता का विषय है |पूरा विश्व पीड़ित है किन्तु कोई भी सुधरने के लिए कदम बढ़ाने को तैयार नहीं |भीड़ अपने आप कुछ कहाँ सोच पाती है ?
    आपके संपादकीय बंद आँखें खोलने का काम करते हैं ,इतनी स्पष्टता कहीं और दिखाई नहीं देती इसके लिए आप प्रत्येक संपादकीय के लिए धन्यवाद के पात्र हैं |बहुत साहस चाहिए इतनी स्पष्ट बात करने के लिए |अतीव धन्यवाद व शुभकामनाएं —–

  29. स्थिति बहुत गंभीर व शर्मनाक है, मगर जिनको इस पर शर्म महसूस होनी चाहिए उनको कोई फर्क ही नहीं पङता । बेहद चिन्ताजनक

  30. इन्द्रकुमार दीक्षित, 5/45 मुंसिफ़ कालोनी देवरिया। इन्द्रकुमार दीक्षित, 5/45 मुंसिफ़ कालोनी देवरिया।

    देखा जाय तो अलग अलग देशों में बसे एक ही समुदाय विशेष के प्रवासियों अथवा अल्पसंख्यकों द्वारा अलग अलग कारणों पर हंगामा और हिंसा खडा करना,आश्रय दाता देश ही नहीं सभ्य कही जाने वाली दुनिया के सभी देशों में सामाजिक सद्भाव चाहने वाले लोगो के लिए
    खतर और चुनौती का विषय है।इन स्थितियों पर चिंतन
    के साथ साथ एक्शन आवश्यक है,जरूरत के मुताबिक कानूनों मे बदलाव भी करने की जरूरत है।सामयिक और सटीक आलेख के लिए सम्पादक शर्मा जी को बधाई।

  31. आंखें खोल देने वाला सम्पादकीय, ब्रिटेन में जब एक सम्प्रदाय विशेष द्वारा इस तरह की दादागीरी हो रही है इससे भारत को सबक लेना चाहिए

  32. लो बताओ, ऐसे विकसित देशों में भी ये बीमारी फैल गई है। आपने जो सिर मुँडवाने वाली शर्त के बारे में लिखा है, उसको पढ़ कर बरबस ही हँसी छूट गई। जेल जाने में रुचि और कुछ काम करने में अरुचि के बारे में जानकर वाक़ई हैरत हुई। सुविधाभोगी आदमी कम्बख़्त कितना नाकारा हो गया है !!!!!
    इतने चिन्तनीय विषय पर आपका सम्पादकीय पढ़ कर शायद विकसित देशों की सरकारें कुछ हरक़त में आयें।

  33. सर, अभी से भी यदि कोई नया कानून बनाते हुए बहुत कड़ा एक्शन न लिया गया, इनकी आबादी बढ़ने से न रोका गया तो ऐसे उपद्रव जारी रहेंगे। ब्रिटेन सहित तमाम देशों की स्थिति गुलामी तक न आ जाए, इस बात का डर है…

  34. ओह!
    यह तो बहुत बुरी घटना । सब आबादी का खेल है। मैन पॉवर, इक्षा शिक्षा सबसे ऊपर है। कोई रोक सके तो रोक ले।

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