Wednesday, October 16, 2024
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संपादकीय – दक्षिण में भी पुत्रोदय

परिवारवाद और वंशवाद में एक मूलभूत अंतर है। जब सत्ता की धार एक ही परिवार या वंश से होकर बहती है तो उसे वंशवाद कहा जा सकता है। मगर परिवारवाद एक तरह से भाईभतीजावाद के अधिक निकट माना जा सकता है। वंशवाद वाली पार्टी में अध्यक्ष कोई भी हो सकता है मगर निर्णय लेने का अधिकार केवल एक विशिष्ट परिवार के सदस्य के पास ही होता है। कांग्रेस इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। चाहे पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, मगर कांग्रेस का कोई भी निर्णय राहुल गांधी की मर्ज़ी के बिना नहीं लिया जा सकता। अन्य क्षेत्रीय दलों की स्थिति भी कोई भिन्न नहीं है।

भारतीय राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद इतनी गहरी जड़ें जमा चुका है कि भ्रष्टाचार की तरह भारतीय जनता ने इसे भी जीवन का एक सहज भाग मान लिया है। अब चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के अलावा शायद ही कोई इस विषय पर बात करता होगा। मगर जैसे ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने अपने पुत्र दयानिधि स्टालिन को राज्य का उप-मुख्यमंत्री बनाया तो राजनीतिक वंशवाद की बेशरमी उभर कर सामने आ गई।
वंशवाद की शुरूआत मोतीलाल नेहरू के परिवार से होती है। मोतीलाल नेहरू 1919-1920 और 1928-1929 में कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहे। 1931 में उनका निधन हो गया। जवाहरलाल नेहरू स्वतन्त्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। उनके बाद, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने सत्ता संभाली। राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी ने कांग्रेस की मुखिया बनी रहने के साथ-साथ दस साल भारत की सत्ता का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखा। आज राहुल गांधी और किसी हद तक प्रियंका गांधी कांग्रेस की कमान संभाले हुए हैं। लगातार चुनाव हारने के बाद भी किसी नेता में इतना साहस नहीं जो राहुल गांधी को कांग्रेस के घोषित-अघोषित अध्यक्ष पद से हटा सके। 
जैसे राजीव गांधी एअरलाइन में पाइलट थे और राजनीति में आने के पूरी तरह अनिच्छुक थे, ठीक वैसे ही नवीन पटनायक पचास वर्ष की आयु तक एक अल्ट्रा मॉडर्न इन्सान थे। दून स्कूल में संजय गांधी के साथ पढ़ाई करने वाले नवीन हमेशा जीन्स और टी-शर्ट में दिखाई दिया करते थे। दिल्ली के नामचीन ओबेरॉय होटल में एक बुटीक चलाते थे। उनके ग्राहकों में विश्व-विख्यात बीटल्स बैंड के सदस्य भी थे। नवीन पटनायक की शामें स्कॉच व्हिस्की के साथ शुरू होती थीं और होंठों पर दिखाई देती थी डनहिल सिगरेट। नवीन पटनायक मर्चेंट आइवरी की फ़िल्म ‘दि डिसीवर्स’ में पीयर्स ब्रॉस्नन (बाद में जेम्स बॉण्ड) और सईद जाफ़री के साथ एक्टिंग भी कर चुके थे। इस व्यक्ति को अपने पाइलट पिता बीजू पटनायक की मृत्यु के बाद राजनीति में आना पड़ा।
मगर एक बार उन्हें राजनीति रास आने लगी तो वे इस तरह मुख्य मंत्री की गद्दी पर विराजमान हुए कि दो दशक से अधिक उन्हें कोई हटा नहीं पाया। यहीं एक बात और कहनी होगी कि नवीन पटनायक हमेशा विवादों से दूर रहे। उनकी छवि साफ़ सुथरी रही और उन्होंने कभी भी राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में आने का प्रयास नहीं किया। वे ओडिसा तक सीमित रहे और जब चुनाव हारे तो भी बहुत शालीनता से सत्ता से अलग हो गये। उन्हें अपने वंश को राजनीति में आगे बढ़ाने का अवसर ही नहीं मिला। 
भारत में वामपंथी राजनीतिज्ञ भारतीय जनता पार्टी की ख़ासी आलोचना करते हैं। मगर यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि भारतीय राजनीति में यही दो धुरियां हैं जिनमें वंशवाद का ज़हर नहीं फैला है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय, बलराज मधोक, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण अडवाणी, नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ आदि में से कोई भी वंशवाद का हिस्सा नहीं हैं। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष भी समय-समय पर बदलते रहे, मगर परिवारवाद कहीं दिखाई नहीं दिया। 
लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव तो जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की उपज थे। उनसे बहुत उम्मीदें थी, आशाएं थीं। मगर इन दोनों ने सही मायने में निराश किया। ये दोनों सामान्य घरों के बच्चे थे। मगर राजनीति में आने और मुख्यमंत्री बनने के बाद अचानक उनके महलों जैसे घर बन गये और दोनों के परिवार करोड़ोंपति हो गये। 
लालूप्रसाद यादव तो बाक़ायदा चारा घोटाले में दोषी पाए गये और उन्हें अदालत द्वारा जेल भेजा गया। मगर जेल जाने से पहले उन्होंने अपनी अनपढ़ पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया और स्वयं जेल से सरकार चलाते रहे। इन दिनों भी वे पैरोल पर बाहर हैं, मगर उन पर कुछ और मुकद्दमें चल रहे हैं। इन मुकद्दमों में उनके पुत्र और पुत्री भी आरोपी हैं। राष्ट्रीय जनता दल में आप लालूप्रसाद के नौंवी फ़ेल सुपुत्र तेजस्वी यादव के अलावा किसी और को शीर्ष पर नहीं देख सकते। 
मुलायम सिंह यादव ने तो वंशवाद और परिवारवाद को उच्चतम स्तर पर ले जा कर खड़ा कर दिया। उनके पुत्र अखिलेश यादव, बहू डिंपल यादव, भाई रामगोपल यादव और शिवपाल यादव आदि को मिला कर उनके परिवार के कुल पच्चीस से अधिक लोग राजनीति में सक्रिय हैं। जहां अखिलेश उनकी पहली पत्नी मालती देवी के पुत्र हैं तो वहीं उनकी दूसरी पत्नी साधना गुप्ता के पुत्र प्रतीक यादव और बहू अपर्णा यादव भी राजनीति में हैं। मगर यहां थोड़ा सा पेंच है कि बहू अपर्णा यादव ने भारतीय जनता पार्टी का दामन थाम लिया है। 
जब लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव के परिवार के लोग संविधान की दुहाई देते दिखाई देते हैं तो देश के हालात देखने के बावजूद होठों पर मुस्कान आ ही जाती है। 
बिहार में एक और परिवार है पूर्व केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान का। शुरुआत में तो रामविलास पासवान और उनके भाई पशुपति पारस ने बहुत शिद्दत से मेहनत करते हुए लोक जनशक्ति दल की स्थापना की। रामविलास पासवान की मृत्यु के बाद परिवार में सत्ता के लिये संघर्ष शुरू हो गया। पासवान परिवार के आधे दर्जन से अधिक लोग चुनावी राजनीति से जुड़े हुए हैं। मगर आज रामविलास पासवान के सुपुत्र चिराग पासवान लोक जनशक्ति पार्टी के सर्वे-सर्वा हैं। पार्टी के तमाम निर्णय वे स्वयं ही लेते हैं। 
जम्मु-कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार और मुफ़्ती परिवार लिखवा कर लाए हैं कि उन्हें केवल राजा बनना है। शेख़ अब्दुल्ला, फा़रुख़ अब्दुल्ला और फिर उमर अब्दुल्ला ने कश्मीर के लिये कुछ किया हो या ना किया हो, अपने लिये बड़ी-बड़ी जायदादें अवश्य बना लीं। मुफ़ती मुहम्मद सईद, फिर उनकी बेटी महबूबा मुफ़्ती और अब उसकी बेटी वंशवाद के बड़े पुजारी हैं। नेशनल काँफ़्रेस और जम्मू और कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी में अब्दुल्ला या मुफ़्ती परिवार के अलावा कोई मुख्यमंत्री नहीं हो सकता।
बाल ठाकरे ने जब महाराष्ट्र में शिवसेना के हिंदुत्व का बिगुल बजाया तो उन्होंने तय कर लिया था कि वे कभी सत्ता का सीधे-सीधे- हिस्सा नहीं बनेंगे। वे रिमोट कंट्रोल बन कर सत्ता में दख़ल तो रखेंगे मगर कभी मुख्य-मंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठेंगे। वे सरकार के बाहर बैठ कर सरकार चलाया करते थे। मगर जब बागडोर अगली पीढ़ी के हाथ में देने की बात आई तो अपने अधिक कुशल भतीजे राज ठाकरे के स्थान पर अपना ख़ून अपना बेटा ऊद्धव ठाकरे उन्हें अधिक रास आया। उद्धव ठाकरे ने शिव सेना की कमान संभाल ली। मगर उद्धव ठाकरे का ना तो व्यक्तित्व अपने पिता जैसा था और ना ही नीयत। वह सत्ता का सुख भोगने में रुचि रखते थे। भारतीय जनता पार्टी के साथ चुनाव लड़ने और जीतने के बाद उन्होंने गठबंधन को धता बताते हुए बाल ठाकरे की धुर दुश्मन कांग्रेस पार्टी और एन.सी.पी. के साथ मिल कर सरकार बना ली। 
अब यही हाल एन.सी.पी. के शरद पवार का है। सोनिया गांधी से पंगा लेकर कांग्रेस से अलग हुए। नई पार्टी बनाई मगर वंशवाद की परंपरा वहां से साथ लेकर आए। पहले परिवारवाद के तहत अपने भतीजे अजित पवार को साथ में रखा। फिर जब वंशवाद परिवारवाद पर हावी हो गया तो अपना वारिस अपनी बेटी सुप्रिया सुले को घोषित कर दिया। यानी कि महाराष्ट्र में तीन वंशवादी पार्टियों ने इसी को साझा कार्यक्रम बना कर सरकार बना ली जो कुछ सालों के बाद औंधे मुंह गिर गई।
आज संपादकीय लिखने का मुख्य कारण था दक्षिण में एम. के. स्टालिन द्वारा अपने पुत्र दयानिधि स्टालिन को उपमुख्यमंत्री घोषित कर के राजवंशवाद को एक कदम और आगे बढ़ाने वाला कदम। दयानिधि स्टालिन ने हाल ही में सनातन धर्म की डेंगु के साथ तुलना करते हुए सनातन धर्म की खुल कर आलोचना की थी। एम. करुणानिधि ने डी.एम.के. पार्टी की सत्ता संभालने के बाद अपने पुत्र को बागडोर सौंपी और अब पुत्र ने अपने पुत्र को। यहां योग्यता का कोई पैमाना नहीं है। महत्वपूर्ण है तो बस एक वंश में पैदा होना। यानि की दक्षिण में एक नया पुत्रोदय हुआ है। राजवंश का नया चिराग़!
हरियाणा और पंजाब भी चौटाला और बादल के वंशवाद को झेल चुके हैं। मायावती और ममता बनर्जी जी वंशवाद तो फैला नहीं सकतीं मगर परिवारवाद की परम्परा अवश्य जारी रख सकती हैं। बिहार में एकमात्र नेता जिन्होंने अपने परिवार को सत्ता से जोड़ने का प्रयास नहीं किया उसका नाम है – नीतीश कुमार। हालांकि वे भी उसी आंदोलन से निकल कर आए हैं जिसमें से लालू प्रसाद यादव आए हैं। मगर वंशवाद को लेकर दोनों की सोच एकदम अलग है। वहीं लालू प्रसाद यादव तो घटिया स्तर पर उतर कर यह भी कह चुके हैं कि नरेन्द्र मोदी का अपना कोई परिवार नहीं है इसलिये वे परिवारवाद के विरुद्ध बातें करते हैं। 
परिवारवाद और वंशवाद में एक मूलभूत अंतर है। जब सत्ता की धार एक ही परिवार या वंश से होकर बहती है तो उसे वंशवाद कहा जा सकता है। मगर परिवारवाद एक तरह से भाई-भतीजावाद के अधिक निकट माना जा सकता है। वंशवाद वाली पार्टी में अध्यक्ष कोई भी हो सकता है मगर निर्णय लेने का अधिकार केवल एक विशिष्ट परिवार के सदस्य के पास ही हो सकता है। कांग्रेस इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। चाहे पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, मगर कांग्रेस का कोई भी निर्णय राहुल गांधी की मर्ज़ी के बिना नहीं लिया जा सकता। अन्य क्षेत्रीय दलों की स्थिति भी कोई भिन्न नहीं है।
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
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56 टिप्पणी

  1. स्वतंत्रता से ही जो नींव डाली गई, वही चल रही है। भारत और भारतवासियों का दुर्भाग्य है। बेबाकी से लिखे संपादकीय के लिए हार्दिक बधाई और धन्यवाद।

    • सटीक, स्पष्ट और साहसिक संपादकीय. यही है भारतीय राजनीति का मूल स्वभाव. वंशवाद और परिवारवाद की इस परम्परा ने पार्टियों के भीतर असहमत समूहों को जन्म दिया और असमहत समूहों के कारण नये गुटों / दलों और दलबदल जैसे प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिला.
      आपने बहुत तार्किक ढंग से इस विषय पर अपनी बात रखी है.
      आपके संपादकीय के लिए दिल से शुक्रिया.

  2. व्यक्ति पूजा से ऊपर उठकर जब लोग सोचेंगे तभी इस (परिवारवाद और वंशवाद )की व्यवस्था का अंत सम्भव है ,और तभी राष्ट्रवाद का उदय होगा ।
    देश की युवा पीढ़ी से ही कुछ उम्मीद की जा सकती है ।
    साधुवाद इस विषय पर लिखने हेतु
    Dr Prabha mishra

  3. भारतीय राजनीति में वंशवाद और परिवारवाद को संपादकीय का विषय बनाया गया है। यह बात तो बहुत आम हो गई है। भारत का बच्चा-बच्चा इस बात को जान रहा है। उत्तर हो या दक्षिण सभी पार्टियों में ये वायरस घुसा है। पूरब और पश्चिम की पार्टियों में भी ये वायरस घुस जाएगा तो क्या फर्क पड़ता है। जब इस वायरस को डाॅ हानिकारक मान ही नहीं रहा है ( जबकि यह हानिकारक है) तो इसकी दवा दारू करने से फायदा क्या है। मेरा कहने का तात्पर्य यह है कि भारत में वंशवाद या परिवारवाद नियमत: न तो अनैतिक है और न ही संविधान के प्रतिकूल है। तो इस पर चर्चा कैसी?
    कुछ पत्रिकाओं में मोदी विरोध भरा पड़ा रहता है तो वहीं सोशल साइट पर राहुल गांधी के मीम दिखते हैं। आपने वंशवाद पर ही थप्पड़ दे मारा। आपकी ही कहानी गेट-लाइन की तरह।

    • लखनलाल जी, बहुत सी बातें morally ग़लत होती हैं। लालू प्रसाद का राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना देना लीगली ग़लत नहीं है, मगर सोच कर घिन आती है।

      इस सारगर्भित टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।

  4. देश में इस वंशवाद के लिए हम ही जिम्मेदार हैं क्योंकि लालू प्रसाद यादव ने तो सारी मर्यादा तोड़कर पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया। देश में सबसे भ्रष्ट दल वंशवाद के पोषक हैं और एक है। सैफई का यादव परिवार जिसने सरकारी पैसे पर सैफई महोत्सव के नाम पर जनता के पैसे को नाच गाने में खूब लुटाया। अगर अपने दम पर किया होता तो योगी सरकार के आने पर बंद क्यों हो गया?
    वंशवाद की ही बानगी है कि प्रियंका गाँधी राजनीति में राहुल के साथ हो लीं। ये जातिवाद के भी पोषक हैं। लोकतंत्र की बजाय राजतंत्र की तरह जबरन जनमत बटोरने की नीति अपना कर पदों पर काबिज हैं।
    जब जनसंघ पार्टी रही, बीकेडी, भाजपा हो इनमें परिवारवाद कभी पला ही नहीं।, भले ही वह विपक्ष में रही हो। वंशवाद ने ही सत्ता का लालच बढाया है।

  5. सादर नमस्कार सर… आजका संपादकीय वास्तव में अत्यंत महत्वपूर्ण एवं पठनीय है.. आपका लिखा शब्दशः सत्य है। यहाँ की जनता जो मान लिया है अपनी सुविधा के अनुसार.. वही होता आ रहा।

    साधुवाद

  6. सादर चरणस्पर्श

    भारतीय राजनीतिक परंपरा में परिवारवाद और वंशवाद को
    ” शुभ ” माना जाता है। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र तमिलनाडु सहित अन्य उदाहरण देश की जनता के लिए कोई नए नहीं है, प्रत्येक प्रदेशवासी अपने राज्य की स्थितियों से वाकिफ है।

    राजनीति भ्रष्टाचार की उत्पत्ति एक प्रमुख कारण परिवारवाद भी। और अब यह समस्या ऐसी पार्टियों में अनुवांशिक हो गई है। नैतिकता तो राजनैतिक पार्टी में खत्म होती चली जा रही है इसलिए जनता को आदत सी हो गई है। परंतु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय जनता पार्टी प्रमुख रूप से राष्ट्रीय पार्टी होने के बाद दूध भी परिवारवाद एवं वंशवाद से कोसों दूर है।
    राजनीति को और साफ सुथरी रखने की आवश्यकता है, परंतु क्या करें राजनेता देशभर का भविष्य और कानून तय करते हैं परंतु अपने लिए स्वयं नियम ऐसे बनाते हैं जिसमे उनकी पांचो उंगलियां घी में ही बनी रहे (ठीक वैसे ही जैसे एलआईसी का प्रोमो है जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी)

    शुभम राय त्रिपाठी चित्रकूट

    • शुभम, आपने पहली बार यहां अपनी टिप्पणी पोस्ट की है। इससे पहले आप केवल मुझे सीधी टिप्पणी भेज दिया करते थे। अब अन्य मित्र भी आपकी टिप्पणी पढ़ पाएंगे। युवा पीढ़ी की टिप्पणी पुरवाई के लिये बहुत महत्वपूर्ण है। हार्दिक आभार।

  7. आदरणीय तेजेन्द्र जी!
    अपने वंशवाद और परिवारवाद को बहुत ही बारीकी से परिभाषित किया है ।इससे संबंधित हर राज्य और हर पार्टी के नाम,रिश्ता और ब्यौरे सहित लिखा है।लगभग पूरे देश की स्थिति को सामने रखा है
    वंशवाद या परिवारवाद दोनों ही राजनीति में नहीं होना चाहिये हम इस बात से सहमत हैं। पर यह देश की नियति है।
    जहां तक हमारी बात है हम शुरू से नेहरू और गांधी दोनों के ही जबरदस्त फैन रहे और आज भी हैं चाहे कोई कुछ भी कहता रहे। गलतियाँ हो जाना इत्तेफाक की बात है तत्कालीन समय और स्थिति पर निर्भर रहता हैं इस तरह के निर्णय अच्छा ही सोच के करते हैं लेकिन हमेशा रिजल्ट अच्छा मिले यह आवश्यक नहीं और नेहरू जी ने तो अपनी गलती स्वीकार भी की। वह बात अलग है कि आजकल के लोग ना माने।
    बीजू पटनायक का हम बहुत आदर करते हैं। हम पाँचवी में थे जब उनसे पहली बार मिले थे। वनस्थली अपने खुद के हवाई जहाज से आए थे उस समय वनस्थली में उड़ीसा की हम दो बहने मात्र थे। हमने हिंदी में बात की थी और वह बहुत खुश हुए थे उन्होंने स्वयं हमारी स्कॉलरशिप सैंशन की। पूरा पढ़ाई का खर्च और आने जाने का भी पूरा खर्च उसका भी जो लेकर आएगा और छोड़ने जाएगा। साथ ही उन्होंने हिंदी से सीखने के उद्देश्य से 10 लड़कियां स्कॉलरशिप से वनस्थली भेजने का भी ऐलान किया । हम पहले स्टूडेंट से रहे।
    नवीन पटनायक को भी सब पसंद करते थे पर आज की स्थिति उस समय की स्थिति से बिल्कुल अलग है।
    उस समय मतभेद होने पर भी सभी नेता एक दूसरे का सम्मान करते थे सारे मतभेद वैचारिक होते थे ।लोग इस पर विमर्श भी करते थे कभी भी विवाद पारिवारिक नहीं रहा। आज की स्थिति तो बिल्कुल ही विपरीत है।
    खैर…. सबकी अपनी अपनी सोच है लेकिन जो गलत है वह गलत है, फिर चाहे वह कोई भी करें ,किसी भी राज्य का व्यक्ति हो, किसी भी पार्टी का हो।
    आपका संपादकीय आपकी निष्पक्षता का द्योतक है। अच्छे और बुरे लोग हर पार्टी में होते हैं हर जगह होते हैं और स्वार्थ तो आजकल सभी के सिर पर चढ़कर बोल रहा है। आजकल हर चीज पैसे से तुलती है।
    आज के संपादकीय पर लिखने के लिए हमारे पास और ज्यादा कुछ नहीं। वैसे भी आजकल हम राजनीति से बहुत दूर रहते हैं। आज की राजनीति हमारी सोच से परे हैं।

    • आदरणीय नीलिमा जी, आपने गांधी जी और नेहरू जी के प्रति अपनी श्रद्धा के बारे में स्पष्ट रूप से लिखा। बीजू पटनायक जी के बारे में आपकी यादें और नवीन पटनायक के प्रति आपका सम्मान स्पष्ट रूप से उभर कर आते हैं। जब आपके पास लिखने को कुछ नहीं तो इतना बढ़िया लिखा है यदि होता तो ग़ज़ब होता। हार्दिक आभार।

  8. शायद वंशवाद राजनीति और उसके इतिहास को पार्टी दर पार्टी ,वक्त दर वक्त, परिवार दर परिवार का सजग निडर प्रमाणिक और समीचीन अध्ययन परंतु सारगर्भित वर्णन गर किसी को पढ़ना और समझना हो तो यह संपादकीय एक नज़ीर है और भविष्य के राजनीति के विद्यार्थी जानेंगे कि क्यूं भारत सत्तर अस्सी वर्षों के बाद भी बेशर्म राजनीति के चंगुल से उभर नहीं पाया।
    दक्षिण भारत राजनीति जो छदम राजनीति का जीता जागता तिलस्म है और भारतीय मीडिया उस पर कोई विशेष अध्ययन भी नहीं कर पाया है ।कारण बस दिशाहीन सामंतशाही वाली राजनीति।
    सलाम इतने सजग संपादकीय हेतु।

    • भाई सूर्यकांत जी जब स्टालिन और उनके पुत्र का समाचार के साथ फ़ोटो देखा तो मितली का सा अहसास हुआ।

  9. Your Editorial of today rightly laments the fact that our Indian politicians promote their own sons/ relatives to come up in politics,even when they have no experience.
    Unfortunate indeed.
    High time this practice stops even though the latest news of Stalin makes his own son his Deputy Chief is most unwelcome.
    Warm regards
    Deepak Sharma

  10. दक्षिण में पुत्रोदय के माध्यम से आपने भारतीय राजनीति का कटु सत्य परोसा है। वंशवाद और परिवारवाद भी भारतीय राजनीति का वह विद्रुप चेहरा है जिसे हम भारतीयों ने ही मान्यता दी है शायद व्यक्ति पूजा कुछ इंसानों की रग -रग में इतनी बस चुकी है कि अब राजा -महाराजाओं की जगह ये ही स्थापित हो गये हैं। सोनिया गाँधी को तो राजमाता की पदवी दे ही दी है, राहुल गाँधी का व्यवहार भी राजकुमार जैसा ही रहा है जिसे सिर्फ देश का प्रधानमंत्री ही बनना है। हो सकता है कि किसी ने उन्हें समझाया हो कि अपोजीशन लीडर का पद भी प्रधानमंत्री के बराबर होता है, इसीलिए उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया होगा।
    यही स्थिति उत्तर प्रदेश, बिहार, जम्मू कश्मीर इत्यादि की है। दिल्ली में भी आतिषी ने जैसे C.M. की कुर्सी पर बैठने से मना किया, क्या वह व्यक्ति पूजा का उदाहरण नहीं है?
    तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने एक कदम आगे बढ़ कर अपने पुत्र दयानिधि स्टालिन को राज्य का उप-मुख्यमंत्री ही बना दिया क्योंकि ये जो जनता है, उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता।

    यह भारतीय राजनीति का दुर्भाग्य है कि अभी भी हमें सच्चे और ईमानदार नेताओं की परख नहीं है न ही उन्हें देश की प्रगति की चिंता है। वे फ्री बिजली, पानी के लिए किसी को वोट दे सकते हैं तभी 7 दशकों बढ़ भी देश जहाँ खड़ा है, वहीं खड़ा रह गया। अब उम्मीद की कुछ किरण दिखाई देने लगी थी लेकिन लोगों को शायद ये भी रस नहीं आ रही। अखिलेश यादव की पार्टी का लोकसभा चुनाव में कुछ अधिक सीट जितना फिर उत्तर प्रदेश को पीछे न धकेल दे…कभी -कभी लगता है कि ये लोग नहीं चाहते कि देश तरक्की करे।

    • सुधा जी, आपकी विस्तृत एवं सारगर्भित टिप्पणी संपादकीय को समझने में बहुत मदद करती है। आपका निरंतर समर्थन हमारे लिए महत्वपूर्ण है।

  11. तेजेंद्र जी, बहुत सुंदर विषय उठाया है आपने। वैसे मैं इतना ही कह सकता हूं कि दक्षिण भारत का संपूर्ण क्षेत्र जिसमें कभी श्रीलंका भी शामिल था, को पार्वती जी ने श्राप दिया था कि वहां पिता ही अपने पूरे वंश के विनाश का कारण बनेंगे। उनके देखते-देखते ही पूरा वंश समाप्त होगा। वह कहानी बहुत रोचक है।

    आदिशंकर, भोलेनाथ महादेव ने पार्वती जी के कहने पर कभी विश्वकर्मा और ब्रह्मा जी से समुद्र के बीच में स्थित लंका के पहाड़ पर स्वर्ण भवनों की एक राजधानी बनवाई थी। जिसमें उनका अपने गणों समेत रहने का विचार था परंतु जब सोने की लंका में शिव और पार्वती जी ने गृह प्रवेश पूजा कराई, तो राक्षस कुल की अपनी पत्नी कैक्सी कहने पर पुरोहित विश्रवा ऋषि ने सोने की लंका को ही मांग लिया।

    भोलेनाथ ठहरे भोले भंडारी और उन्होंने बिना संकोच तत्काल सोने की लंका पुरोहित को दान में दे दी और पार्वती जी से कैलाश वापस चलने के लिए हंसते हुए कहा। इस पर पार्वती जी आवेश में आ गई और उन्होंने श्राप दिया कि इस क्षेत्र में पिता ही पुत्रों के विनाश का कारण बनेंगे और अपने जीते जी उनको नष्ट होते हुए देखेंगे।

    हो सकता है किसी को कोई आपत्ति हो कि श्रीलंका तो कभी भारत का भाग रहा नहीं है। तो उनको स्पष्ट करना चाहूंगा कि त्रेता युग में श्री राम ने ऐसी जीत लिया था और विभीषण उनके अधीन एक सम्राट हुआ करते थे।

    द्वापर युग में श्री कृष्ण के विश्व विजय यज्ञ में उनके पुत्र प्रद्युम्न ने इस क्षेत्र पर पुनः विजय पाई थी। एक तरफ से देखा जाए तो वह युद्ध नहीं था विभीषण ने श्री राम के जैसे व्यक्तित्व वाले एक गौरवर्ण युवक को देखा, और श्री राम की स्मृति में उन्हें अपना मुकुट भेंट में दे कर, रघुकुल के समय से चली आ रही अधीनता को फिर से दोहराया। यद्यपि यह कहानी त्रेता युग और द्वापर युग के दौरान जीवित रहने वाले लोगों की लंबी आयु को भी बताती है परंतु इसका भाव सिर्फ एक है कि श्रीलंका कभी भारत का भाग था। इसीलिए दक्षिण में आज तक पार्वती जी का वही अभिशाप लागू होता है कि पिता ही पुत्र की मृत्यु का कारण बनेगा। पिताजी पुत्रों के विनाश का बीज बोएगा।

    आप ध्यान कीजिए श्रीलंका की राजनीति में क्या हुआ है। वहां वंशवाद बहुत से लोगों की बलि लेकर गया है। प्रभाकरण अपने जी बेटे को अपने बाद मुखिया बनाना चाहता था वह भी उनके बाद सेना द्वारा मार दिया गया। इस प्रकार लिट्टे का अंत हुआ। कहना ना होगा कि राजीव गांधी का अंत भी क्या कैसे भी हुआ हो इसी क्षेत्र में लिट्टे की एक स्त्री के हाथों हुआ।

    दक्षिण भारत के जितने भी बड़े राजनेता हुए हैं उन्होंने जब भी पुत्रों को पनपाने की कोशिश की है, उनका परिणाम दो पीढ़ी में ही सामने आ गया है। इससे अधिक पुत्र मोह की राजनीति का अस्तित्व चलता है नहीं। रावण का इतिहास याद कीजिए अपनी दो पीढ़ियों को साथ लेकर गया। दक्षिण भारत की अभिशप्त राजनीति का यही भविष्य है। लौट फिर कर यह नए लोगों को मौका देती है और तमाम शक्ति होने के बावजूद यहां केवल नरसिंह राव जैसे लोग ही कामयाब होते हैं जिनमें कोई आगे पीछे होता नहीं और जिनको यह समझ लिया जाता है कि वे सूखे हुए वृक्ष हैं। दक्षिण की राजनीति में सूखे हुए वृक्ष हमेशा पान पाएंगे हरे होंगे और फल देंगे। फलदार वृक्ष हमेशा सूख जाएंगे और उनको कंटीले झाड़ बनते ज़माना देखेगा।

    मेन स्ट्रीम मीडिया में जो कुछ नहीं होता उन विषयों को आप छूते हैं। वास्तव में यह एक बहुत नई अनुभूति है नए विचारों को सुनना समझना और अनुभव करना। यह आपके व्यक्तित्व की ऊंचाई और की विशालता को प्रदर्शित करता है।

    • भाई अशोक जी, आपने फ़ोन पर इस विषय में बात की थी। आपकी टिप्पणी सृजनात्मक है और बिल्कुल नयी जानकारियां देती है। हार्दिक आभार।

  12. पूरा पढ़ गया भाई तेजेंद्र जी। वंशवाद और परिवारवाद पर बातें तो बहुत सुनी हैं। पर उसकी शाखा-दर-शाखा का अंदरूनी हाल बताते हुए, इस तुच्छ और अधम मानसिकता को धज्जी-धज्जी कर देने वाला जैसा जबरदस्त संपादकीय आपने लिखा, वैसा मैंने कहीं और पढ़ा नहीं है।

    आपके इस साहस, इस बेबाकी का कायल हूं भाई तेजेंद्र जी।

    आज के वक्तों में कबीर की तरह सच को सच कहने के आपके इस दुस्साहस को सलाम!

    स्नेह,
    प्रकाश मनु

  13. आदरणीय बड़े भाई
    नमस्कार
    आपकी लेखनी को नमन करता हूँ जिस बेबाक़ी और स्पष्ट लहजे में आपने भारत की राजनीति में घर कर गई वंशवाद की परंपरा का चित्रण किया है वह क़ाबिले तारीफ़ है!
    ये सारे नेतागण एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं! अगर कोई और इस मानसिकता से अलग दिखाई देता है तो वो भाजपा है। पर पूरे चोर-चोर मौसेरे भाइयों ने एक अलग जमात बना रखी है( महाठगबंधन) और भाजपा सरकार को अपदस्थ करने में संलग्न हैं और विडंबना देखें कि देश के दोगले और दोहरे बहुसंख्यकों को यह बात गले नहीं उतर रही है!
    अब ईश्वर ही उस ग़ुलाम प्रवृति से भारत को निजात दिलाएँगे!
    सादर
    कन्हैया

    • भाई कृष्ण कन्हैया जी, आपने संपादकीय की आत्मा को समझा और सार्थक टिप्पणी दी, हार्दिक आभार।

  14. स्टालिन वंशावली, भारतीय राजनीति की अन्य पार्टियों की वंशवाद परम्परा शोचनीय है, इन्हें देश से अधिक अपना स्वार्थ प्यारा है। सम्पादकीय के लिए साधुवाद

  15. घुन की तरह धीरे धीरे खोखला करके समाप्त कर देती हैं। इन परम्पराओं के पाने वालों का चयन जन्म से होता है न कि कर्म से। नेहरू परिवार से शुरू हुई इस कुप्रथा को तो ‘अपने को नेता समज्ञने’ वालोँ ने बहुत बेशर्मी से अपना ही नहीं लिया है, बल्कि इसका धड़ाके से पालन भी करते हैं। घृणा होती है देखकर जब अंपढ़ मंत्रियों के पैर का अंगूठा लगाने वाले शाहज़ादे को वहाँ की यूनिवर्सिटीयाँ गाउन पहना कर सम्मान देती हैं। शेख अब्दुल्लाह के बाद उसका बेटा फ़ारूक अब्दुल्लाह, फिर उसके बाद उसका बेटा उमार अब्दुल्लाल और फिर उसके बाद………..

    1947 में अँग्रेज़ों के जाने के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने बहुत थोड़े समय में बहुत कुछ कर के दिखाया लेकिन वो भी वंशवाद गनदगी के शिकार हो गये। उन्हें ताशकन्त में ज़हर देकर मार दिया गया और जब उनका शब भारत लाया गया तो उसका उस समय की प्रधान मन्त्री ने Post Mortem कराने से भी इंकार कर दिया और वंशवाद और भ्रष्टाचार अपनी पूरी स्पीड से चलते रहे। उसके बाद सत्तर साल बाद एक ऐसा मसीहा आया है जिसे अपनी नहीं बल्कि देश की चिन्ता है। इन लुटेरों की दुकानें बन्द न हो जायेँ इसीलिये उसके हर काम में रुकावट डालना तो इनका तकिया कलाम बन गया है। हमारी दिली दुआ है कि प्रमातमा इस मसीहा को शक्ति दे कि वो इन वँशवादी जानवरों का ख़ातमा करने में सफ़ल हो।

      • पहली लाइन किसी वजह से छूट गई थी वो यह थी >>>>>>>>>>।जितेन्द्र भाई, वंशवाद और परिवारवाद की परम्पराएं वो कैन्सर हैं, वो कोढ़ हैं, वो दीमक हैं जो किसी भी देश को <<<<<<<<

  16. परिवारवाद में पनपते दल के समर्थक ले दे कर सीनियर बुश और जूनियर बुश पर चले आते हैं और संवैधानिक अधिकार की दुहाई देने लगते हैं। वे जानबूझ कर भूल जाते हैं कि जूनियर बुश राजनीति के निचले स्तर में प्रविष्ट हो कर योग्यता से ऊपर आते हैं, टेक्सास के गवर्नर बनने के बाद ऊपर उठते हैं। पर भारत में परिवार के सहारे आकाश से उतर कर सीधे उच्चतम पद पकड़ लेते हैं।
    शानदार संपादकीय लेखन!

  17. भारतीय राजनीति पर साहसिक संपादकीय के लिए बधाई स्वीकारें तजेंद्र जी। वंशवाद और परिवारवाद को पूरी तरह से बेनकाब करता यह संपादकीय महत्वपूर्ण बन पड़ा है। वर्तमान समय की राजनीति के कोढ़ पर बहुत बेबाकी से लिखा है आपने। समझ में नहीं आता की जनता के रूप में हम वोट जैसे बड़े हथियार के अपने हाथ में होते हुए भी कम पढ़े लिखे, अनपढ़ और स्वार्थी लोगों को क्यों अपने सिर पर बैठा लेते हैं?

  18. नेतृत्व के लिए एकमात्र योग्यता परिवार का अंश होना ही हो तो अन्य बातें गौण हो जाती हैं , जिनमें प्रमुख हैं देशहित और देश की जनता। जनता भी अंधी गूंगी ही नज़र आती है जब ये राजनेता स्वार्थ में लिप्त हरक़तें कर रहे होते हैं और कोई विरोध का स्वर नहीं उठता।
    आज का संपादकीय बेबाक और ईमानदार तरीके से इस घिनौने सत्य को ज़ाहिर करता है।
    साधुवाद!

  19. समस्या यह नहीं कि बागडोर पुत्र /पुत्री /परिवार को दी गई, समस्या यह है कि अयोग्य, अराजक, अज्ञानी के हाथ लगीं। फिलहाल चिराग पासवान बिहार में अच्छा काम कर रहे हैं, लोकप्रिय हैं, भाषा में भी शिष्टता है। वंशवाद हर जगह है, पैतृक संपत्ति, सम्मान, संस्कार मिलना, भारत की परंपरा है पर परेशानी अराजकता से है।तमिलनाडु में तो स्थिति ऐसी रह चुकी है जैसे”राम नाम की लूट है,लूट सके से लूट”, करुणानिधि और जयललिता के घर पड़े छापे इसके गवाह रहे हैं! नई पीढ़ी ने आरंभ धर्म वैमनस्य के साथ किया है, अब देखे आगे क्या होता है!

    • आस्था, युवा पीढ़ी जब पुरवाई के संपादकीय पर टिप्पणी करती है तो मन आश्वस्त हो जाता है कि जो लिखा जा रहा है वो सही पाठकों तक पहुंच रहा है। ऐसे ही प्रतिक्रिया देती रहें। हार्दिक आभार।

  20. एक बहुत अच्छे विषय पर यह सम्पादकीय लिखा गया है। प्रत्येक भारतीय इस वंशवाद और परिवारवाद से प्रभावित और पीड़ित है। स्वतंत्रता के बाद यह कोढ़ की तरह बढ़ गया है। आपने बहुत अच्छा विवरण और विश्लेषण किया है। भारत में, कुछ शोषक परिवार आम आदमी के टैक्स से प्राप्त धनराशि को लूटकर खा रहे हैं और पूंजीपतियों से भी ज्यादा सुख-सुविधा भरा जीवन जी रहे हैं। कितनी अजीब-सी बात है कि समाज सेवा और राष्ट्र रक्षा के नाम पर ये सब होता है। संपादक महोदय ने संपादकीय में इस समस्या का विवेचन और विश्लेषण इतना अच्छी तरह से किया है कि ‘भारतीय राजनीति में वंशवाद और परिवारवाद की भूमिका ‘ — विषय पर किसी यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी.में रिसर्च भी की जा सकती है।सच में , इस राष्ट्रहित विषय पर सोशियोलॉजी और पॉलिटीकल साइंस के प्रोफेसर रिसर्च करवा सकते हैं। इस अति उपयोगी ज्ञानवर्धक संपादकीय के लिए मेरी हार्दिक बधाई !!

  21. एक बहुत अच्छे विषय पर यह सम्पादकीय लिखा गया है। आज प्रत्येक भारतीय इस वंशवाद और परिवारवाद से प्रभावित और पीड़ित है। स्वतंत्रता के बाद यह कोढ़ की तरह बढ़ गया है। आपने बहुत अच्छा विवरण और विश्लेषण किया है। भारत में, कुछ शोषक परिवार आम आदमी के टैक्स से प्राप्त धनराशि को लूटकर खा रहे हैं और पूंजीपतियों से भी ज्यादा सुख-सुविधा भरा जीवन जी रहे हैं। कितनी अजीब-सी बात है कि समाज सेवा और राष्ट्र रक्षा के नाम पर ये सब लूट होती है। संपादक महोदय ने संपादकीय में इस समस्या का विवेचन और विश्लेषण इतना अच्छी तरह से किया है कि ‘भारतीय राजनीति में वंशवाद और परिवारवाद की भूमिका ‘ — विषय पर किसी यूनिवर्सिटी से पी.एच.डी.में रिसर्च भी की जा सकती है। सच में , इस राष्ट्रहित विषय पर, सोशियोलॉजी और पॉलिटीकल साइंस के प्रोफेसर रिसर्च करवा सकते हैं। इस अति उपयोगी ज्ञानवर्धक संपादकीय के लिए मेरी हार्दिक बधाई !!

  22. आ0 सम्पादक जी! वंशवाद एक नैसर्गिक आचरण है हर प्राणी का। चाहे वह सूक्ष्म है या स्थूल। ये गुण सूत्र में गुंथा है।
    और मोदी जी वंश वाद नहीं चलाते क्यूँकि नहीं चला सकते। लेकिन बाकी सब नेता और अभिनेता और भी किसी व्यवसाय के लोग यही चाहते हैं कि उनके वंशज वही व्यवसाय अपनायें जो उनका है हाँ बस आर्थिक सामाजिक रूप से लाभकारी भी होना चाहिए। अब देखिये आपने भी
    अनुराग ठाकुर का नाम नहीं लिया। न ही जय शाह का।
    हमारे देश में व्यक्ति को भगवान बना देने की परम्परा है, पत्थर को भी भगवान मान लेते हैं। तो पुजने वाले का क्या दोष? हमें अब भी राजा रानी और राजकुमार ही पसंद हैं ।
    जो कर सकता है वो कर रहा है।

    • ज्योत्सना जी वंशवाद तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण अडवाणी, और जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के तमाम अध्यक्षों ने नहीं चलाया। ठीक उसी तरह वामपंथी दलों के अध्यक्षों ने भी परिवारवाद नहीं चलाया। नरेन्द्र मोदी के बारे में आपने हल्की टिप्पणी की मगर यह नहीं सोचा कि वे कम से कम परिवारवाद तो चला सकते थे। उनके भाई, बहन, भतीजे, भांजे, भांजियां तो मौजूद हैं। अनुराग ठाकुर, और जय शाह भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष या देश के प्रधानमंत्री नहीं हैं। बात वंशवाद की यह कही गई है कि पार्टी का मुखिया केवल एक वंश या परिवार का हो। आप नेहरू/गान्धी परिवार, यादव परिवार आदि आदि के साथ अनुराग ठाकुर जैसे लोगों का मुकाबला नहीं कर सकती हैं।

  23. अपने देश के राजनेताओं का चरित्र कितना भ्रष्ट तथा मानसिकता कितनी संकीर्ण है, यह हम सभी जानते हैं।आपने वंशवाद और परिवारवाद का फर्क बताते हुए बहुत महत्वपूर्ण संपादकीय लिखा है। वर्तमान राजनीति का परिवेश पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है।

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