Tuesday, September 17, 2024
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संपादकीय – टीवी बहसों की बेलगाम भाषा

मैं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रशंसकों में शामिल नहीं हूं। लेकिन यह बिल्कुल बरदाश्त नहीं किया जा सकता कि कोई भी टीवी पैनेलिस्ट लाइव शो में उन्हें आतंकवादी घोषित कर दे। दरअसल, हुआ कुछ यूं है कि हमारे पेनेलिस्ट और श्रोता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध इतनी निम्न स्तर की भाषा सुनने के आदी हो चुके हैं कि उन्हें यह महसूस ही नहीं हुआ हो कि इंदिरा गांधी को एक महिला आतंकवादी कह रही है।

मित्रो मैनें दो दशकों से भी अधिक एअर इंडिया में केबिन क्रू की हैसियत से नौकरी की है। आज पुरानी एअर इंडिया और इंडियन एअरलाइन्स का मर्जर हो चुका है और दोनों का नाम एअर इंडिया हो चुका है। ज़ाहिर है कि जब अनुराग सिन्हा की फ़िल्म ‘आईसी 814 – दि कांधार  हाईजैक’  के बारे में पढ़ा और टीवी पर डिबेट भी देखी तो इच्छा जागृत हुई कि मैं अपने एअरलाइन के अनुभव का इस्तेमाल करते हुए फ़िल्म के निर्माता और निर्दशक ‘अनुभव’ को अपना दृष्टिकोण समझा सकूं।

इस चित्र में आई सी-814 के कप्तान और उस हादसे के हीरो कैप्टन देवी शरण, हमारे प्यारे मित्र और विमान के सुपरवाइज़र अनूप खन्ना दिखाई दे रहे हैं। मित्रो, कभी मैं भी इसी तरह की यूनिफ़ॉर्म पहन कर उड़ानें भरा करता था। 
इस बारे में मुझे उस उड़ान (आई सी – 814) के पायलट के परिवार का पत्र भी कहीं से मिल गया। तो मेरी इच्छा और तीव्र हो उठी कि अब तो इस फ़िल्म से जुड़े हर इन्सान को यह समझाना आवश्यक है कि आतंकवादियों की मानसिकता फ़िल्मी नहीं होती – वो लोग सख़्त जान होते हैं यानी हार्ड कोर। जब वे अपने मिशन पर होते हैं तो उनमें किसी भी प्रकार की कोमल भावनाएं कहीं नहीं होतीं। उनका दिमाग़ पूरी तरह से फ़ोकस्ड होता है।  प्रयास रहेगा कि इस मुद्दे पर एक विस्तृत संपादकीय लिख सकूं।  
मैं अभी इस विषय पर लिखने के बारे में सोच ही रहा था कि आजतक टीवी पर मुझे एर टीवी बहस देखने का अवसर मिल गया। टीवी एंकर राहुल कंवल के कार्यक्रम में डॉ. रंगनाथन, संजय झा, अद्वैत काला (लेखिका), आँद्रेय डिसूज़ा (अखिल भारतीय सिने वर्कर एसोसिएशन की महासचिव) और श्री गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी की प्रवक्ता – किरणजोत कौर। बहस का मुद्दा था कंगना रणावत की फ़िल्म ‘इमरजेंसी’। 
मुझे डर था कि कहीं यह बहस भी अन्य टीवी डिबेट्स की तरह केवल शोर-शराबा बन कर ना रह जाए। एक बात तो तयशुदा थी कि संजय झा फ़िल्म की जम कर बुराई करेंगे… अद्वैत काला संतुलित बात करेंगी… आँद्रेय डिसूज़ा अपरोक्ष रूप से कंगना और फ़िल्म की आलोचना करेंगी और डॉ. रंगनाथन फ़िल्म के पक्ष में अपना मत रखेंगे। और कार्यक्रम इसी ढर्रे पर चल भी रहा था। 

 

आजकल एक शब्द सुनने को मिलता है – एजेण्डा फ़िल्म!… मुझे नहीं पता कि कोई भी फ़िल्म निर्माता या निर्देशक बिना किसी एजेण्डे के कोई फ़िल्म कैसे बना सकता है। क्या आईसी-814 के निर्देशक अनुभव सिन्हा का कोई एजेण्डा नहीं था? एजेण्डा तो गुरुदत्त, राजकपूर, व्ही शांताराम, बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी, मनोज कुमार, सुनील दत्त, गुलज़ार से लेकर जोगिन्दर और दादा कोंडके तक का रहा है। हर फ़िल्म बनाने वाले का कोई न कोई एजेण्डा होता ही है। वरना वो फ़िल्म बनाने का फ़ैसला ही क्यों करेगा!
क्या सुजाता, बंदिनी, प्यासा, काग़ज़ के फूल, मदर इंडिया, आवारा, श्री-420, जागते रहो, मुझे जीने दो, जिस देश में गंगा बहती है, नया दौर, साधना, धूल का फूल, कानून, एक फूल दो माली, दस लाख, माचिस, आनंद, पूरब और पश्चिम, शहीद, उपकार,  नमक हराम, मुकद्दर का सिकंदर, मशाल, शक्ति, शोले, दीवार जैसी फ़िल्में बिना किसी एजेण्डे के ही बन कर तैयार हो गई थीं? जी नहीं, इन सब फ़िल्मों के पीछे फ़िल्म निर्माताओं का कोई ना कोई एजेण्डा तो था।  
दिक्कत होती है जब जीवित व्यक्तियों पर फ़िल्म बनाई जाए या फिर निकट इतिहास की किसी घटना पर फ़िल्म बनाने का साहस कोई निर्माता निर्देशक करे। पहले इस तरह की फ़िल्में बनाया करते थे आई. एस. जौहर। मगर उनकी अपनी एक ख़ास किस्म के दर्शक होते थे और फ़िल्म क्रिटिक या राजनीतिज्ञ उनकी फ़िल्मों को बहुत गंभीरता से नहीं लेते थे. शायद यह भी सच है कि उस समय के राजनीतिज्ञ इतने अधिक असहिष्णु नहीं होते थे। 
विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्म ‘दि कश्मीर फ़ाइल्स ’ को एक एजेण्डा फ़िल्म कहा गया। कहा गया कि हिन्दू-मुसलमानों में फूट डालना इस फ़िल्म का एजेण्डा है। जबकि विवेक अग्निहोत्री ने 500 से अधिक लोगों के साक्षात्कार केवल लिये ही नहीं उन्हें क्रमबद्ध तरीके से संजो कर भी रखा। जिस काल की फ़िल्म है उस काल के समाचारपत्रों की कतरनों का इस्तेमाल भी उस फ़िल्म में किया गया। जितनी घटनाएं फ़िल्म में दिखाई गईं, वे तमाम सच्ची घटनाएं हैं जिनकी मीडिया में रिपोर्टिंग हुई। मगर फ़िल्म को नरेन्द्र मोदी सरकार के पक्ष में एक एजेण्डा फ़िल्म का तमग़ा प्रदान कर दिया गया और विवेक अग्निहोत्री को सरकारी फ़िल्म मेकर मान लिया गया। उनकी अन्य फ़िल्मों के बारे में भी यही आलोचनात्मक टैग लगा दिया गया। 
जैसे हर राजनीतिक मुद्दे पर पक्ष और विपक्षी दल टीवी चैनलों पर आकर शोर-शराबा करते हैं, ठीक वैसे ही फ़िल्मों पर भी वही ढंग अपनाते हैं। मुझे जिस टीवी पैनलिस्ट पर सच में दया आती है उनका नाम है – नासर अब्दुल्ला। वे इतने अधिक उत्तेजित हो जाते हैं कि उनका अपने शब्दों पर से नियंत्रण पूरी तरह से खो जाता है। वे कुछ भी बोलते चले जाते हैं, जो न तो उनके साथी टीकाकारों को समझ आता है और न ही उस शो के श्रोताओं को। 
वर्तमान डिबेट में भी सब अपने-अपने हिसाब से शब्द फेंक रहे थे कि अचानक डॉ. रंगानाथन ने श्री गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी की प्रवक्ता – किरणजोत कौर पर एक सवाल दाग़ दिया, “क्या आप भिंडरांवाले को आतंकवादी मानती हैं? ”

किरणजोत कौर ने साफ़ शब्दों में भिंडरांवाले या पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गान्धी के हत्यारे सतवंत सिंह को आतंकवादी मानने से इन्कार कर दिया। बात अगर यहीं तक रुक जाती तो कोई समस्या नहीं थी। किरणजोत कौर ने तो भारत के एक प्राइम चैनल के लाइव कार्यक्रम में कह दिया कि – ‘इंदिरा गांधी एक आतंकवादी थीं।’ 
डॉ. रंगानाथन ने किरणजोत कौर को चेताया भी कि “आप लाखों लोगों के सामने, एक नेशनल चैनल पर भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आतंकवादी घोषित कर रही हैं?” याद रहे कि तमाम बातचीत अंग्रेज़ी में हो रही थी। 
मित्रो, मैं उस समय की युवा पीढ़ी का हिस्सा रहा हूं जब संजय गांधी के कहने पर हमने शपथ ली थी कि हम दहेज नहीं लेंगे। मगर जब ज़बरदस्ती लोगों की नसबंदी की गई तो हमने उसी संजय गांधी की आलोचना करने में भी कोई कमी नहीं की। 1971 के पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध के दौरान हम भी दिल्ली में रात को ब्लैक आउट के लिये नारे लगाया करते थे, “देश की रक्षा के लिये बत्ती बंद करो!” मगर जब शिमला समझौते में हमारी प्रधानमंत्री ने सेना की जीत को राजनीति की हार में बदल दिया, तो हमने अपनी प्रधानमंत्री की भी आलोचना की।
इमरजेंसी के दौरान जिस तरह जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण अडवाणी, जॉर्ज फ़र्नांडिस, राज नारायण, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, शरद यादव, राम विलास पासवान जैसे तमाम नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया। समाचारपत्रों पर सेंसरशिप लागू कर दी गई… मेरी पीढ़ी इसकी गवाह थी और मैं उस समय एम.ए. अंग्रेज़ी का छात्र था। 
मैं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रशंसकों में शामिल नहीं हूं। लेकिन यह बिल्कुल बरदाश्त नहीं किया जा सकता कि कोई भी टीवी पैनेलिस्ट लाइव शो में उन्हें आतंकवादी घोषित कर दे। दरअसल, हुआ कुछ यूं है कि हमारे पेनेलिस्ट और श्रोता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध इतनी निम्न स्तर की भाषा सुनने के आदी हो चुके हैं कि उन्हें यह महसूस ही नहीं हुआ हो कि इंदिरा गांधी को एक महिला आतंकवादी कह रही है।
मगर मुझे कांग्रेस पार्टी से निष्कासित नेता संजय झा पर अवश्य आश्चर्य हुआ कि वे कंगना और इमरजेंसी फ़िल्म की बुराई तो लगातार करते रहे मगर अपनी सबसे बड़ी नेता इंदिरा गांधी के विरुद्ध कहे गये अपमानजनक शब्दों पर चुप्पी साध कर बैठे रहे। इस संपादकीय के लिखे जाने तक राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी ने भी इस विषय पर कुछ नहीं कहा है। राजनीति भी कितना घटिया गोरखधंधा है!
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
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49 टिप्पणी

  1. आपने अंत में लिख ही दिया है कि राजनीति भी कितना बड़ा गोरख धंधा है, मै तो कहता हूं कि राजनीति नीचता के पैमानों पर कहीं शीर्ष पर बैठी हंसती है देश के लोगों को

  2. इंदिरा गांधी एक प्रमुख महिला थीं जिनका अपना दिमाग़ था।
    इमरजेंसी को लेकर जो उनका उद्देश्य था,machinery ने
    जब उसे सफल नहीं होने दिया तो उन्हें जीवन भर के लिए काला टीका लगाकर पीछे धकेलने का प्रयास हुआ।हरसमय
    होता रहा।अब यह पराकाष्ठा है,यदि कोई उन्हें आतंकवादी
    बताकर सत्ता में प्रमुख स्थान पर बने रहना चाहता है।
    Very sad a so called strong woman going to
    This level against a real strong woman

    • दुःख तो इसी बात का है डॉ गीते की इंदिरा गांधी को आतंकवादी कहने वाली भी एक औरत है।

  3. बेहद विचारोत्तेजक और सटीक विषय उठाया है आपने l जिस तरह ये पैनेलिस्ट अपनी पार्टी के समर्थन में कुतर्क देते हैं और दूसरी पार्टी को कोसते हैं, वह देख कर कोफ्त होती है l मज़ेदार बात यह है कि बहस जितनी ही उत्तेजक और गरिमाहीन होती जाती है, एंकर उतना ही मजे से मुस्करा रहा होता है l
    कभी-कभी तो यह लगता है कि ऐसी चर्चाओं को सुनने से अच्छा टीवी बंद कर देना है l

  4. सच्चाई यही है भ्राता श्री मगर मानता
    भारत में कोई नहीं हर चीज़ को राजनीति नजरिये से देखा जाता है
    शानदार लेख एक बार फ़िर
    साधुवाद आपको

  5. आपकी अंतिम पंक्ति.. सम्पूर्ण संपादकीय की कुंजी है। यह तो सत्य है… यह खेल.. कदाचित् भारत में कभी बंद होगा..। अत्यंत दुःखदायी है यह स्थिति..। अशांति कुछ इतनी बढ़ चुकी है कि.. अब तो हर काम से ध्यान भी भटक रहा। इतनी भ्रामक धारणाएँ फैलाई जा रही है कि.. युवा पीढ़ी वर्तमान सत्य से दूर हो गई है…। हम तो अतीत हो जाएँगे किंतु भविष्य अत्यंत संदिग्ध अवस्था में है…।

    आपका लेखन सदैव सत्य पर आधारित होता है.. कोई काल्पनिक विचार नहीं.. कोई मिथ्या शब्द नहीं न ही संदेह उत्पन्न करने वाली उक्ति..। सदैव आपके विचारों के माध्यम से हम पाठकों को वास्तविकता से परिचित कराने हेतु धन्यवाद सर

    • अनिमा जी आप निरंतर पुरवाई के संपादकीय पर टिप्पणी करती हैं। उत्साह बढ़ता है। आभार।

  6. सर इन सब चीजों के हम अभ्यस्त हो चुके हैं। पक्ष और विपक्ष दोनों बेलगाम के ——- है। दोनों ही पक्ष एक दूसरे से नफरत करते हैं। वो जमाना चला गया जब नेता मंच पर एक दूसरे की आलोचना करते थे और नीचे उतर कर एक दूसरे का सम्मान करते हुए देखे गए हैं।
    भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी पर की गई टिप्पणी उन सभी को बुरी लगी होगी जो पार्टी विशेष के नहीं हैं। कांग्रेस के सपोर्टर अपने बड़े नेताओं का मुंह खुलने का इंतजार करते हैं। दूसरी पार्टी के सपोर्टरों का भी ऐसा ही हाल है। वैसे इस मामले में सपोर्टरों को इसकी भर्त्सना ( कैंपेन चलाकर)करनी चाहिए थी।
    टीवी डिबेट में पार्टी के प्रवक्ता खटकन्ना से बाहर जा ही नहीं पाते हैं।

  7. व्यक्तिवाद पर चलने वाली राजनीति में
    व्यक्ति की उपस्थिति तक ही उसका सम्मान होता है ।
    जब राजनीति राष्ट्र हित को ध्यान में रख की जाएगी तब राष्ट्र का दुनिया में सम्मान होगा और उस लीडर का भी जिसने व्यक्ति नहीं देश को आगे रखा ।वर्तमान में देश के लिए संघर्ष करने वाले नेतृत्व से आशा की जा रही है ,लेकिन डगर कठिन है ।
    Dr Prabha mishra

  8. आदरणीय तेजेन्द्र जी!
    यह संपादकीय अप्रत्याशित था। तो सही है की टीवी बहसों की भाषा वाकई बेलगाम है। हमने तो कई सालों से टीवी देखना ही बंद कर दिया है।
    हम नेहरू , महात्मा गांधी और इंदिरा गांधी तीनों के ही प्रशंसक हैं। पर प्रशंसक होने का मतलब यह भी नहीं होता कि अगर किसी ने कोई गलत निर्णय लिया है या न करने योग्य कुछ किया है तो उसका भी समर्थन किया जाए।
    हमारे रहते नेहरू जी तीन चार बार बनस्थली आए और इंदिरा गांधी भी ।कांग्रेस के कई दिग्गज नेता आए। और हमने उनको बहुत समीप से देखा और सुना भी। हम बड़े फैन थे। इमरजेंसी का समय एक हादसे की तरह था और निश्चित ही यह दुखद भी था।
    पर इसके लिए उनकी हत्या की गई यह भी जायज नहीं।सतवंत सिंह को आतंकवादी ना मानना भी सवाल ही खड़ा करता है। और इंदिरा गांधी को आतंकवादी कहना तो शर्मनाक ही है।
    बहुत पहले हमने यह सीखा था कि अगर कोई मूर्ख व्यक्ति आपको कुछ अवांछित कह रहा है या बुरा कह रहा है तो उसकी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए लेकिन अगर कोई बौद्धिक और विचारवान व्यक्ति ,ज्ञानी व्यक्ति आपसे कुछ कहता है तो उस पर विचार करने की जरूरत है। तो यहाँ सिवाय मूर्खता के तो कुछ दिख ही नहीं रहा। यह घटना भी हमें आपसे पता चली।
    इसमें कोई दो मत नहीं है की राजनीति आजकल बहुत गंदी हो गई है इसका स्तर बहुत गिर गया है। इसके लिए तो क्या ही कहा जाए!
    एक बेहतरीन संपादकीय के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।नई जानकारी और समस्याओं से रूबरू करवाने के लिए तहेदिल से शुक्रिया आपका‌!

  9. नीलिमा जी, बहुत शुक्रिया। दरअसल लाइव नेशनल टीवी पर भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आतंकवादी कहना कभी जस्टीफ़ाई नहीं किया जा सकता। हैरानी इस बात की है कि उनके परिवार में से सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हैं।

  10. यह बात सही है। सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका को इस पर एक्शन लेना चाहिए था। निश्चित ही यह आश्चर्यजनक है।

    वैसे एक बात कहने से चूक गए ।उस समय राजनीति इतनी गंदी नहीं थी। जितना हमें नेहरू को पढ़ा है, अपनी गलतियों को उन्होंने स्वीकार किया हैं। और उसके लिए अफसोस भी किंतु राजनीति में जो निर्णय गलत हो जाते हैं उसका परिणाम दुखदाई होता है। लेकिन फिर भी राजनीति राजनीति तक ही होती थी। वह व्यक्तिगत नहीं होती थी।
    और आज की तरह छिछली तो बिल्कुल भी नहीं।

  11. आपकी निष्पक्षता प्रशंसनीय है तेजेन्द्र जी! आप सत्य को सत्य की तरह ही निष्पक्षता से कहते हैं। सीधी सड़क बेधड़क।

  12. टीवी चैनल्स पर बेलगाम बहस अब एक ऐसा नासूर बन गई है जिसे भारतीय लोकतंत्र का कलंक कहें तो बेहतर होगा पर इस से पूरी हमारी बुद्धिमत्ता भी निकृष्ट tag लेती है।
    सियासत और सत्ता सुख जब जब घीखिचड़ी हुए हैं तब तब ऐसा ही हुआ है इतिहास गवाह हैं।
    कश्मीर राजनीति,इमरजेंसी, आईसी 814कांड इसी के उदाहरण हैं।हमने स्कूल जीवन में दहेज विरोधी शपथ अभियान की ऊष्मा को महसूस किया था और मन ही मन सोचा कि भविष्य में ऐसा होना ही नही है।
    फिर अध्यापकों के माध्यम से इमरजेंसी की आंच को झेला।कश्मीरी और पंजाब के विस्थापितों को देखा पर टीवी पर बहस इतनी
    निम्न स्तरीय या चमचा तत्व प्रधान कभी नहीं देखा सुना और महसूस किया।
    किसी व्हाट्सएप मैसेज में यह भी पढ़ा कि टीवी चैनल्स पर शाम पांच से सात तक तीतर और मुर्गे लड़ाए जाते हैं ।
    पहले बहस एक शिक्षित सृजनात्मक और आलोकित करने वाली विधा थी।वर्तमान में
    आक्रोश कुंठा और निम्न स्तरीय भाषा और सोच का भोंडा प्रदर्शन बन गई है।नैतिकता तो बीती बात है सहिष्णुता अब पितृ गण ही गई है।
    यह संपादकीय उक्त वर्णन को साफ साफ बताता और चेताता है कि क्या यही हमारा लोकतंत्र और सियासती सोच शेष रह गई है।विरोध अपनी जगह है पर श्रीमती इंदिरा गांधी को आतंकवादी कह देना ?! गलत है।
    कल की पीढ़ी जब इन बहस को देखेगी तो शर्म से बहस शब्द को ही अपनी डिक्शनरी से निकाल देगी।
    समीचीन स्थिति को बताता संपादकीय ,साधुवाद का पात्र है।

    • भाई सूर्यकान्त जी आपकी चिन्ता पूरी तरह से संपादकीय में उठाई गई है। आप सच कह रहे हैं कि आगामी पीढ़ियां बाकायदा शर्मसार होंगी।

  13. सुप्रभात. प्रणाम भाई। आपके.संपादकीय एक बहुमूल्य दस्तावेज की तरह। ओके.हैं जिसे.संरक्षित कर रखा जाना चाहिए। आपने बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य उठाये हैं.जैसे सच एक एक कर क्रमश; उद्घाटित हो रहा है।मै स्वतंत्रता सेनानी काज स्वार्थ पोती हूं जिसे बचपन से ही यह सिखाया गया कि हमें सभी का आदर करना चाहिए. चाहे इंदिरा हों या नेहरु.गांधी जी.या अटल जी।इसमे दलगत कोई बात ही नहीं थी।इंदिरा जी की मैं प्रशंसित थी तो गाधी या नेहरु की भी।ये राजनीति इतनी गंदी भी हो सकती है .हमे तो कल्पना भी नहीं की थी।आज स्वार्थ की दलगत गंदी राजनीतिक कीचड में फंसकर हम अपने राष्ट्रीय नेताओः को अपमानित करते हैं।किरण जोर कौन होती हैं तय करने वाली कि कौन आतंक वादी है कौन नहीं?राजनीतिक छल छंदो और टीवी चैनलों के.माध्यम से जो परंपरा चल पडी है उस पर रोक लगानी होगी।वरना द्वेष. घृणा और स्वार्थ की कलुषित भावनायें हम आने वाली पीढियों को.सौंप रहे हैं जिसकी ओर से सब अनजान.हैं।मै तो टीवी देखती ही नहीं।जब भी कोई मुद्दा जोर पकड़ा है तो एक बार तत्संबंधित संपादकीय जरुर पढती हूं औपनिवेशिक पति को भी पढ़ाती हूं।सही तथ्यों को जानने समझने का मेरा यह अपना तरीका है.बहुत बहुत धन्यवाद भाई. आभार. शेष शुभम्।…पद्मा मिश्रा.जमशेदपुर

    • प्रिय बहन पद्मा, आपने तो पुरवाई के संपादकीयों को बहुमूल्य दस्तावेज़ ही कह दिया है… हम आपके मन की बात आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। बस… और सच बोलने में कोई परहेज़ नहीं…

  14. विवेकवान हैं आप। इंदिरा गांधी के कुछ साहसिक निर्णय भारतीय राजनीति के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में हैं – स्वर्ण मंदिर में सेना को प्रवेश देकर भिंडरावाले का खात्मा और बांग्लादेश में मुक्तिवाहिनी ‘सेना’ का प्रवेश।हलांकि उनका इमर्जेंसी का निर्णय एक काला धब्बा भी है। मगर उन्हें आतंकवादी कहना तो हद है।

    • भाई अरविंद जी ग़लत को ग़लत और सही को सही कहना आवश्यक हो जाता है। हार्दिक आभार।

  15. अति सुन्दर सम्पादकीय
    आजकल की राजनीति तो सबसे निचले स्तर पर है ही जिसे वाशिंग मशीन की तरह सब जानते हैं!
    गोदी मीडिया भी सर्व विदित है की मीडिया हाउस अब एक तिजारत बन गई है! लोगों को पैसे दो , कुछ भी बोल डालते हैं ! जिस प्रेस ऑटोनोमी पर जो बवाल 1988 में पूरे देश को हिला कर सरकार को उखाड़ फेंका , वही आज मालिक के तलवे चाटते और दुम हिलाते ख़ामोश ! क्यों हैं। टीवी चैनलों पर बहस ने अपनी सारी मर्यादाएं तोड़ दी, अब संकृति और भाषा सीधी गाली गलौज तक पहुंच रही है। जूता चप्पल मारना और पिस्तौल निकाल कर सामने वाले को मुक्त करना ही बाकी रह गया है !
    राष्ट्रपति प्रधान मंत्री को इतने निचले स्तर तक लाना शोभायमान नहीं, मरणोपरांत तो कतई नहीं। अगर वो अयोग्य या इस लायक नही तो जापान की तरह कार्यालय से सीधे जेल क्यों नहीं भेज सकते ।
    जब तक राजनीति और सत्ता में वाशिंग मशीन का उपयोग होता रहेगा , कुभुद्धि तेरा नाम रहेगा !
    भ्रष्टाचार और अभद्रता पनपती रहेगी ।

  16. सुप्रभात. प्रणाम भाई। आपके.संपादकीय एक बहुमूल्य दस्तावेज की तरह होते हैं जिसे.संरक्षित कर रखा जाना चाहिए। आपने बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य उठाये हैं.जैसे सच एक एक कर क्रमश; उद्घाटित हो रहा है।मै स्वतंत्रता सेनानी की पोती हूं जिसे बचपन से ही यह सिखाया गया कि हमें सभी का आदर करना चाहिए. चाहे इंदिरा हों या नेहरु.गांधी जी.या अटल जी।इसमे दलगत कोई बात ही नहीं थी।इंदिरा जी की मैं प्रशंसित थी तो गाधी या नेहरु की भी।ये राजनीति इतनी गंदी भी हो सकती है .हमे तो कल्पना भी नहीं की थी।आज स्वार्थ की दलगत गंदी राजनीतिक कीचड में फंसकर हम अपने राष्ट्रीय नेताओः को अपमानित करते हैं।किरण जोर कौन होती हैं तय करने वाली कि कौन आतंक वादी है कौन नहीं?राजनीतिक छल छंदो और टीवी चैनलों के.माध्यम से जो परंपरा चल पडी है उस पर रोक लगानी होगी।वरना द्वेष. घृणा और स्वार्थ की कलुषित भावनायें हम आने वाली पीढियों को.सौंप रहे हैं जिसकी ओर से सब अनजान.हैं।मै तो टीवी देखती ही नहीं।जब भी कोई मुद्दा जोर पकड़ा है तो एक बार तत्संबंधित संपादकीय जरुर पढती हूं और अपने पति को भी पढ़ाती हूं।सही तथ्यों को जानने समझने का मेरा यह अपना तरीका है.बहुत बहुत धन्यवाद भाई. आभार. शेष शुभम्।…पद्मा मिश्रा.जमशेदपुर

    जवाब

  17. सशक्त, बेबाक, बेहतरीन संपादकीय। आपका संपादकीय तथ्य परक होता है। राजनीति में आ रही गिरावट मन में चिंता जागती है और बेबसी भी। बधाई स्वीकारें।

  18. तेजेंद्र जी पुरवाई के संपादकीय पढ़ने की प्रतीक्षा इसलिए रहती है कि आप दूध का दूध और पानी का पानी करते हैं। आपकी यह निष्पक्ष दृष्टि पुरवाई को विशिष्ट बनाती है।

    • अरुणा जी आप सबका स्नेह ही तो मुझे हर सप्ताह कलम उठाने को प्रेरित करता है… हार्दिक आभार।

  19. टीवी चैनलों पर बहसों की बेलगाम भाषा पर आपका यह संपादकीय टीवी चैनलों पर होनेवाली बहसों के गिरते स्तर को बड़े ही सटीक ढंग से रेखांकित करता है। भारतीय टीवी चैनलों पर बहस सुनना समय की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं। समाचार चैनलों पर आए पैनलिस्ट किसी विषय के विशेषज्ञ होते हैं या नहीं ये तो पता नहीं , लेकिन एक बात तय होती है कि वे किसी एक पक्ष के पैरोकार होते हैं , उन्हें तटस्थ होकर शालीनता के साथ किसी मुद्दे पर बात रखना नहीं आता । अपने पक्ष में ज़ोर ज़ोर से चीखना यहाँ तक कि दूसरे को धमकाना और अपमानजनक भाषा का प्रयोग करना इन बहसों की ख़ासियत है। सच कहा जाए तो इन टीवी समाचार चैनलों पर हेडलाइन्स के अलावा देखने -सुनने लायक़ कुछ होता नहीं ।

    • तरुण भाई, सच में बहुत क्षोभ होता है… मगर एक ज़िम्मेदार पद पर बैठी एक महिला भारत की पूर्व प्रधानमंत्री को आतंकवादी कह दे और वहां कांग्रेस समर्थक संजय झा बस चुप्पी साध ले कुछ समझ नहीं आया। उस महिला का विरोध डॉ. रंगानाथन ही कर रहे थे।

  20. Your Editorial, this time,discusses the importance of presenting only factual truth in movies that deal with a part of our history.
    Distortion of facts cannot be accepted and you have rightly objected to the statement of a guest on a TV show calling Indira Gandhi a ‘terrorist’.
    You also express surprise at no one raising any objection from among the others present to this blatant lie.
    A despicable situation indeed.
    Warm regards
    Deepak Sharma

  21. आज के संपादकीय का वाक्य राजनीति भी कितना घटिया गोरखधंधा है! यह वाक्य ही सभी कुछ कह देता है। राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं। यह बार प्रच्चिलित है. किन्तु अब यह नंगई टी. वी. डिबेट में प्रमुखता से दिख रही है। आज राजनीतिज्ञओं द्वारा जैसा विषवमन किया जा रहा है, वैसा तो हमारी पीढ़ी कभी सोच ही नहीं सकती थी। शालीनता हमारे समय में व्यक्ति का गुण थी। कुछ भी किन्तु इंदिरा गाँधी को आतंकवादी कहना बिलकुल भी उचित नहीं है। ऐसा कहकर ये नई पीढ़ी को भ्रमित ही करेंगे। जहाँ तक सोनिया गांधी और राहुल गाँधी की बात है विरोध भी आजकल राजनीतिक नफा नुकसान देखकर किया जाता है। सैम पित्रोदा ने कहा राहुल गाँधी अपने पिता राजीव गाँधी से योग्य हैं। इस पर भी सभी चुप रहे।
    आज ही समाचार में आया कि उमर अब्दुला ने कहा है कि अफजल गुरु को फांसी नहीं देनी चाहिए थी। यह वही अफजल गुरु है जिसकी फांसी रोकने के लिए रात में भी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई थी। इसका भी इंडी गठबंधन में विरोध का सुर नहीं उठा।
    निष्पक्ष संपादकीय के लिए साधुवाद।

    • सुधा जी आपने उमर अब्दुल्ला के वक्तव्य को यहां जोड़ कर संपादकीय को और भी सशक्त बना दिया। आपने सही कहा विरोध भी नफ़े नुक्सान के हिसाब से होता है।

  22. आपने स्वयं ही स्थिति को अंतिम पंक्ति में स्पष्ट कर दिया है… वाकई गोरखधंधा है

  23. आदरणीय आपका संपादकीय आज राजनीति के गिरते स्तर को दर्शाता है ।मैं क भारतीय टी वी नहीं देखती और न ही भारतीय टी वी चैनल कभी कभी नेट पर समाचार पँढ लेती हूँ । पर आपके सम्पादकीय से यह ज्ञात हो बोगियाँ है कि आज की राजनीति सिर्फ़ एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश है। जबकि यदि चाणक्य नीति और विदुर नीति को समझा जाए तो भी एक दुश्मन दूसरे दुश्मन से ऐसा व्यवहार नहीं करता। रही बात स्व. इंदिरा गाँधी जी को आतंकवादी कहने की तो यह उनकी मानसिकता को दर्शाता है । ऐसे लोग सिर्फ़ अपने तक सीमित है यह देश या देशवासियों के उत्थान या भले के लिए सोच ही नहीं सकते। क़द या पदवी बड़ी होने से बड़प्पन नहीं होता यह इस टी वी चर्चा का उदाहरण रहा। जब जोश में आ कर होश खो दें तो आपको राजनीतिक में नहीं आना चाहिए ।नीदरलैंड में राजनीति चर्चाओं व कई बार संसद भवन की चर्चा में शामिल होने का अवसर प्राप्त हुआ है । किन्तु कभी किसी राजनीतिज्ञ को इतनी छिछली भाषा का प्रयोग करने देखा सुना नहीं । बात करें टी वी चैनल के तो आज के चैनल पर काम करने वाले अधिकांश लोगों को भारत के इतिहास के विषय में कोई ख़ास जानकारी नहीं है । टी वी चैनल एक दूसरे से आगे निकलने के लिए कुछ भी करने को तैयार है । लेकीन वक्ताओं का यह कर्तव्य बनता है कि वह इस बात को ध्यान में रखें की वह क्या कह रहें है और किसके बारे में कह रहें हैं । मोदी जी ने बेशक बहुत अच्छे काम किए हैं । किन्तु किसी स्वर्गीय सम्मानित नेता के विषय में इस तरह की टिप्पणी करना शोभा नहीं देता । बहुत सही विषय को आपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है हमेशा की तरह

    • ऋतु, इस विस्तृत टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार। मगर आपके शब्दों से यह आभास होता है जैसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने श्रीमती इंदिरा गांधी को आतंकवादी कहा। जबकि ऐसा है नहीं। बीबी किरणजोत कौर ने ऐसा कहा था।

  24. पुरवाई फल-फूल रही है, उसकी सुगंध वातावरण को चारों ओर सुगंधित कर रही है, उसका इंतज़ार रहता है बेचैनी से,
    जब पुरवाई नमूदार होती है अपनी तमामतर सुंदरता के साथ अपने पहलू में लिए कहानियां, कविताएं और लेख
    तो सम्पादक मंडल को बधाई देना आवश्यक हो जाता है।

  25. ठीक बात है.
    राजनैतिक मतभेद अब व्यक्तिगत कुंठा और कटुता में तब्दील हो चुका है.

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